"हिन्दी कहानी/उसने कहा था": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति १:
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{{center|<big>उसने कहा था</big><br>चन्द्रधर शर्मा गुलेरी}}
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बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर बचो खालसा जी। हटो भाईजी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हटो बाछा, कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं - हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा लंबी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है? बच जा।
 
Line १७ ⟶ १८:
'कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।' लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उँड़ेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
 
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'राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खंदकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं।लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं; - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खंदक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगतीहै। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।'
Line ४३ ⟶ ४४:
'अच्छा है।'
 
'जैसे मैं जानता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने कंबल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ीके सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी केतख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना।जाड़ा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।'
 
'मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह कीगोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छायाहोगी।'
Line ४९ ⟶ ५०:
वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ा कर कहा - 'क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरेंजर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे -
 
<poem>
दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
Line ५४ ⟶ ५६:
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
कद्दू बणाया वे मजेदार गोरिए,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।नुँ॥
</poem>
 
कौन जानता था कि दाढ़ियोंवाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, परसारी खंदक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए, मानों चार दिन से सोतेऔर मौज ही करते रहे हों।
 
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दोपहर रात गई है। अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटोंके तीन टिनों पर अपने दोनों कंबल बिछा कर और लहनासिंह के दो कंबल और एक बरानकोटओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाईं के मुँह पर है औरएक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
Line ६७ ⟶ ७०:
 
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा - 'कहो कैसे हो?' पानी पी करबोधा बोला - 'कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहेहैं।'
'अच्छा, मेरी जरसी पहन लो !'
'और तुम?'
'मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।'
Line ११० ⟶ ११३:
'हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?'
 
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'होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।'
 
Line १२३ ⟶ १२७:
सूबेदार से कहो एकदम लौट आएँ। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे सेनिकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।'
 
'हुकुम तो यह है कि यहीं - '
 
'ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम - जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब सेबड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।'
Line १४९ ⟶ १५३:
इतने में सत्तर जर्मन चिल्ला कर खाईं में घुस पड़े। सिक्खों की बंदूकों कीबाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक करमार रहा था - वह खड़ा था, और, और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयोंके शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोडे से मिनिटों में वे - अचानक आवाजआई, 'वाह गुरुजी की फतह? वाह गुरुजी का खालसा!! और धड़ाधड़ बंदूकों के फायरजर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आगए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह केसाथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछेवालों ने भी संगीन पिरोना शुरू करदिया।
 
एक किलकारी और - अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरुजी दी फतह! वाह गुरुजी दाखालसा ! सत श्री अकालपुरुख!!! और लड़ाई खतम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहेथे या कराह रहे थे। सिक्खों में पंद्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कंधेमें से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव कोखंदक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबंद की तरह लपेटलिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव - भारी घाव लगा है।
 
लड़ाई के समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों कादिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषामें 'दंतवीणोपदेशाचार्य' कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांसकी भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौडा-दौडा सूबेदार के पीछे गया था।सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पा कर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराहरहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।
Line १६९ ⟶ १७३:
गाड़ी के जाते लहना लेट गया। 'वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबंद खोल दे। तरहो रहा है।'
 
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मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनाएँएक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुंधबिल्कुल उन पर से हट जाती है।
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले केयहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वहपूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब धत् कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसेही पूछा, तो उसने कहा - 'हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू? सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
 
'वजीरासिंह, पानी पिला दे।'
पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठवर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन कीछुट्टी ले कर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट केअफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदारहजारासिंह की चिठ्ठीचिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुएहमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था औरसूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
 
जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला - 'लहना, सूबेदारनीतुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।' लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझेजानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहेनहीं। दरवाजे पर जा कर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
Line १९० ⟶ १९५:
'वजीरासिंह, पानी पिला' -'उसने कहा था।'
 
लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानीपिला देता है। आध घंटे तक लहना चुप रहा, फिर बोला - 'कौन ! कीरतसिंह?'
वजीरा ने कुछ समझ कर कहा - 'हाँ।'
'भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।' वजीरा ने वैसे हीकिया।
'हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजादोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिसमहीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।' वजीरासिंह के आँसूटप-टप टपक रहे थे।
 
कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढापढ़ा -
 
फ्रांस और बेलजियम - 68 वीं सूची - मैदान में घावों से मरा - नं 77 सिखराइफल्स जमादार लहनासिंहलहनासिंह।
 
== सन्दर्भ ==
# [http://www.hindikahani.hindi-kavita.com/UsneKahaThaChandradharSharmaGuleri.php उसने कहा था।था] (www.hindikahani.com)