"भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/शब्द और पद में अंतर और हिन्दी शब्द भण्डार के स्रोत": अवतरणों में अंतर

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'रूप' और 'पद' दोनों समानार्थी हैं। वस्तुतः मूल या प्रतिपदिक शब्द एवं धातुओं में व्याकरणिक प्रत्ययों के संयोग से अनेक रूप बनते हैं, जो वाक्य में प्रयुक्त होने पर 'पद' (रूप) कहलाते हैं। उच्चारण की दृष्टि से भाषा की लघुतम इकाई ध्वनि है और सार्थकता की दृष्टि से शब्द। ध्वनि सार्थक हो ही, यह आवश्यक नहीं है; जैसे: अ, क, च, ट, त, प आदि ध्वनियाँ तो हैं, किंतु सार्थक नहीं। किन्तु, अब, कब, चल, पल आदि शब्द है; क्योंकि इनमें सार्थकता है, अर्थात् अर्थ देने की क्षमता है।

पदविज्ञान में पदों के रूप और निर्माण का विवेचन होता है। सार्थक हो जाने से ही शब्द में प्रयोग-योग्यता नहीं आ जाती। कोश में हजारों-हजार शब्द रहते हैं, पर उसी रूप में उनका प्रयोग भाषा में नहीं होता। उनमें कुछ परिवर्तन करना होता है। उदाहरणार्थ कोश में 'पढ़ना' शब्द मिलता है और वह सार्थक भी है, किन्तु प्रयोग के लिए 'पढ़ना' रूप ही पर्याप्त नहीं है, साथ ही उसका अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता। 'पढ़ना' के अनेक अर्थ हो सकते हैं, जैसे-— पढ़ता है, पढ़ रहा है, पढ़ रहा होगा आदि। 'पढ़ना' के ये अनेक रूप जिस प्रक्रिया से सिद्ध होते हैं, उसी का अध्ययन पदविज्ञान का विषय है। अतः रूप के दो भेद किए हैं--— शब्द और पद। शब्द से उनका तात्पर्य विभक्तिहीन शब्द से है जिसे प्रतिपदिक भी कहते हैं। पद शब्द का प्रयोग वैसे शब्द के लिए किया जाता है जिसमें विभक्ति लगी हो। इस प्रकार शब्द और पद का भेदक तत्व विभक्ति है। जैसे पहले बताया जा चुका है, विभक्ति का अर्थ ही है विभाजन करने वाला या बाँटने वाला तत्व अर्थात् जिसकी सहायता से शब्दों का अर्थ विभक्त हो जाये।जाए। विभक्ति की सहायता से ही 'मुझको', 'मुझसे' और 'मुझमें' के अर्थ परस्पर भिन्न हो जाते हैं। यह भिन्नता विभक्ति के कारण है, अन्यथा मूलरूप 'मुझ' सर्वत्र एक ही है। तात्पर्य कि विभक्तियों के योग से ही शब्दों में प्रयोग-योग्यता आती है, अर्थात् उनमें परस्पर अन्वय हो सकता है।
 
== सन्दर्भ ==
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== हिन्दी शब्द भण्डार के स्रोत ==
भाषा की समृद्धि तथा गत्यात्मक विकास के लिए उसका शब्द-समूह विशेष महत्व रखता है। भाषा-विकास के साथ उसकी अभिव्यक्ति शक्ति में भी वृद्धि होती है। इस प्रकार भाषा में नित्य परिवर्तन होता रहता है। भाषा का सम्बन्ध विश्व भर की भाषाओं से होता है। विभिन्न भाषा-भाषाओं के विचारों, भावों के आदान-प्रदान से भाषाओं के विशिष्ट शब्दों का भी विनिमय होता है। इस प्रकार भाषाओं के शब्द-भण्डार को उस भाषा का शब्द-समूह कहा जाता है।
 
भाषा की समृद्धि तथा गत्यात्मक विकास के लिए उसका शब्द-समूह विशेष महत्व रखता है। भाषा-विकास के साथ उसकी अभिव्यक्ति शक्ति में भी वृद्धि होती है। इस प्रकार भाषा में नित्य परिवर्तन होता रहता है। भाषा का सम्बन्ध विश्व भर की भाषाओं से होता है। विभिन्न भाषा-भाषाओं के विचारों, भावों के आदान-प्रदान से भाषाओं के विशिष्ट शब्दों का भी विनिमय होता है। इस प्रकार भाषाओं के शब्द-भण्डार को उस भाषा का शब्द-समूह कहा जाता है।
विश्व भर की अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी के शब्द-समूह को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है:
 
१)1. परम्परागत शब्द, २)2. देशज (देशी) शब्द ३)और 3. विदेशी शब्द।
 
=== परम्परागत शब्द ===
१) '''परम्परागत शब्द''':- परम्परागत शब्द भाषा को विरासत में मिलते हैं। हिन्दी में ये शब्द संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की परम्परा से आए हैं। ये शब्द तीन प्रकार के हैं- १)1. तत्सम शब्द, २)अर्द्ध2. अर्ध-तत्सम शब्द, ३)3. तद्भव शब्द।
 
१)# '''तत्सम शब्द''':- तत्सम शब्द का अर्थ संस्कृत के समान - समान ही नहीं, अपितु शुद्ध संस्कृत के शब्द जो हिन्दी में ज्यों के त्यों प्रचलित हैं। हिन्दी में स्त्रोतस्रोत की दृष्टि से तत्सम के चार प्रकार हैं-- —
१)## संस्कृत से प्राकृत, अपभ्रंश से होते हुए हिन्दी में आयेआए हुए तत्सम शब्द; जैसे- अचल, अध, काल, दण्ड आदि।
२)## संस्कृत से सीधे हिन्दी में भक्ति, आधुनिक आदि विभिन्न कालों के लिए गए शब्द; जैसे- कर्म, विधा, ज्ञान, क्षेत्र, कृष्ण, पुस्तक आदि।
३)## संस्कृत के व्याकरणिक नियमों के आधार पर हिन्दी काल में निर्मित तत्सम शब्द; जैसे-: जलवायु (आब हवा), वायुयान (ऐरोप्लेन), प्राध्यापक ("Lecturer") आदि।
४)## अन्यदूसरी भाषाभाषाओं से आए तत्सम शब्द। इस वर्ग के शब्दों की संख्या अत्यल्प है। कुछ थोडे़थोड़े शब्द बंगाली तथा मराठी के माध्यम से हिन्दी में आए हैं। जैसे-: "उपन्यास", "गल्प", "कविराज", सन्देश"संदेश", "धन्यवाद", आदि बंगाली शब्द है।, "प्रगति", "वाड्मय" आदि मराठी शब्द है।
२)# '''अधर्द तत्सम शब्द''':- तत्सम और तद्भव के बीच की स्थिति के शब्द अर्थात् जो पूरी तरह तद्भव भी नहीं है और पूरी तरह से तत्सम भी। ऐसे शब्दों को डाडॉ. ग्रियर्सन, डाडॉ. चटर्जीचैटर्जी आदि भाषाविदों ने 'अध्र्द अर्ध-तत्सम' की संज्ञा दी है; जैसे-: 'कृष्ण' तत्सम शब्द है,है। 'कान्हा', 'कन्हैया' उसके तद्धवतद्भव रूप हैं, परन्तुपरंतु 'किशुन', 'किशन' न तो तत्सम है और न तद्भव; अतः इन्हें अध्र्द अर्ध-तत्सम कहा गया है।
३)# '''तद्भव शब्द''':- तद्भव शब्द का अर्थ संस्कृत से उत्पन्न या विकसित शब्द, अनेक कारणों से संस्कृत, प्राकृत आदि की ध्वनियाँ घिस-पीट कर हिन्दी तक आते-आते परिवर्तित हो गयी है। परिणामत:परिणामतः पूवर्वती आर्य भाषाओं के शब्दों के जो रूप हमें प्राप्त हुए हैं, उन्हें तद्भव कहा जाता है। हिन्दी में प्राय:प्रायः सभी तद्भव हैं। संज्ञापदों की संख्या सबसे अधिक है, किन्तु इनका व्यवहार देश, काल, पात्र आदि के अनुसार थोडा़थोड़ा बहुत घटता-बढ़ता रहता है। जैसे-: 'अंधकार' से 'अंधेरा', 'अग्नि' से 'आग', 'अट्टालिका' से 'अटारी', 'रात्रि' से 'रात', 'सत्य' से 'सच', आदि।
 
=== देशज (देशी) ===
१) संस्कृत से प्राकृत, अपभ्रंश से होते हुए हिन्दी में आये हुए तत्सम शब्द; जैसे- अचल, अध, काल, दण्ड आदि।
२) '''देशज(देशी)''':- देशी शब्द का अर्थ है अपने देश में, उत्पन्न जो शब्द न विदेशी है, न तत्सम हैं और न तद्भव हैं। देशज शब्द के नामकरण के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। भरतमुनिभरत मुनि ने इसे 'देशीमत', चण्ड ने 'देशी प्रसिद्ध' तथा मार्कण्डेय तथा हेमचन्द्रहेमचंद्र ने इसे 'देशा' या देशी कहा है। डॉ. शयामसुन्दरदासशयामसुंदरदास तथा डॉ. भोलानाथ तिवारी ने इसे 'अज्ञात व्युत्पत्तिक' कहा है। अतः देशज शब्द दो प्रकार के हैं-- :
 
१)# एक वे जो अनार्य भाषाओं (द्रविड़ भाषाओं) से अपनायेअपनाए गयेगए हैं और दूसरे २) वे जो लोगों ने ध्वनियों की नकल में गढ़ लिये गए हैं।
२) संस्कृत से सीधे हिन्दी में भक्ति, आधुनिक आदि विभिन्न कालों के लिए गए शब्द; जैसे- कर्म, विधा, ज्ञान, क्षेत्र, कृष्ण, पुस्तक आदि।
# वे जो लोगों ने ध्वनियों की नकल में गढ़ लिए गए हैं।
(क)#* द्रविड़ भाषाओं से--— 'उड़द', 'ओसारा', 'कच्चा', 'कटोरा', 'कुटी' आदि।
(ख)#* अपनी गठन से--— 'अंडबंड', 'ऊटपटाँग', 'किलकारी', 'भोंपू' आदि।
 
=== विदेशी शब्द ===
३) संस्कृत के व्याकरणिक नियमों के आधार पर हिन्दी काल में निर्मित तत्सम शब्द; जैसे- जलवायु (आब हवा), वायुयान (ऐरोप्लेन),प्राध्यापक (Lecturer) आदि।
३) '''विदेशी शब्द''':- जो शब्द हिन्दी में विदेशी भाषाओं से लियेलिए गए हैं अथवा आ गयेगए हैं, वे विदेशी शब्द कहलाते हैं। मुस्लिम तथा अंग्रेज शासकों के कारण उनकी भाषाओं के शब्द हिन्दी में अत्याधिकअत्यधिक मात्रा में आयेआए हैं। फारसीफ़ारसी, अरबी तथा तुर्की शब्द भी हिन्दी में अपनायेअपनाए गयेगए हैं। वाणिज्य, व्यवसाय, शासन, ज्ञान-विज्ञान तथा भौगोलिक सामिप्य आदि इसके कारण हो सकते हैं, साथ ही ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आर्थिक कारण भी हो सकते हैं। डॉ. धीरेंद्र वर्मा ने ऐसे शब्दों के लिए 'उद्धत शब्द' का प्रयोग किया है। और डॉ. हरदेव बाहरी ने इन्हें 'आयात' शब्द कहा है। हिन्दी में इसके लिए 'विदेशी शब्द' संज्ञा बहुप्रयुक्त होती रही है, यह शब्द तुर्की, अरबी, फारसी आदि एशिया की भाषाओं से, और अंग्रेजी, फ़्रांसीसी, पुर्तगाली आदि यूरोपीय भाषाओं से आयेआए हैं। उदाहरण--:
 
==== तुर्की से ====
४) अन्य भाषा से आए तत्सम शब्द। इस वर्ग के शब्दों की संख्या अत्यल्प है। कुछ थोडे़ शब्द बंगाली तथा मराठी के माध्यम से हिन्दी में आए हैं। जैसे- उपन्यास, गल्प, कविराज, सन्देश, धन्यवाद आदि बंगाली शब्द है।, प्रगति, वाड्मय आदि मराठी शब्द है।
(क) '''तुर्की से''':- तुर्कीस्तान, विशेषतः पूर्वी प्रदेश से भी भारत का सम्बन्ध प्राचीन है। यह सम्बन्ध धर्म, व्यापार तथा राजनीति आदि स्तरों पर था। ई.स. 100 के बाद तुर्क बादशाहों के राज्यस्थापना के कारण हिन्दी में तुर्की से बहुत से शब्द आएँ। डॉ. चैटर्जी, डॉ. वर्मा तुर्की शब्दों का प्रायः फ़ारसी माध्यम से आया मानते हैं, किन्तु डॉ. भोलानाथ तिवारी जी तुर्की से आया मानते है। हिन्दी में तुर्की शब्द कितने हैं, इस सन्दर्भ में मतभेद हैं। डाडॉ. चटर्जीचैटर्जी के अनुसार लगभग 100 है। जैसे-— 'उर्दू', 'कालीन', 'काबू', 'कैंची', 'कुली', 'चाकू', 'चम्मच', 'चेचक', 'तोप', 'दरोगा', 'बारूद', 'बेगम', 'लाश', 'बहादुर', आदि।
 
==== अरबी से ====
२) '''अधर्द तत्सम शब्द''':- तत्सम और तद्भव के बीच की स्थिति के शब्द अर्थात् जो पूरी तरह तद्भव भी नहीं है और पूरी तरह से तत्सम भी। ऐसे शब्दों को डा. ग्रियर्सन, डा. चटर्जी आदि भाषाविदों ने 'अध्र्द तत्सम' की संज्ञा दी है; जैसे- 'कृष्ण' तत्सम शब्द है, कान्हा, कन्हैया उसके तद्धव रूप हैं, परन्तु किशुन, किशन न तो तत्सम है और न तद्भव; अतः इन्हें अध्र्द तत्सम कहा गया है।
(ख) '''अरबी से''':- १०००1000 ई. के बाद मुसलमान शासकों के साथ फारसी भारत में आई और उसका अध्ययन-अध्यापन होने लगा। कचहरियों में भी स्थान मिला। इसी प्रकार उसका हिन्दी पर बहुत गहरा प्रभाव पडा़। हिन्दी में जो फारसी शब्द आए, उनमें काफी शब्द अरबी के भी थे। अरब से कभी भारत का सीधा सम्बन्ध था, किन्तु जो शब्द आज हमारी भाषाओं के अंग बन चुके हैं, डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार छ: हजार शब्द फारसी के है जिनमें 2500 अरबी के है। जैसे--— 'अजब', 'अजीब', 'अदालत', 'अक्ल', 'अल्लाह', 'आखिर', 'आदमी', 'इनाम', 'एहसान', 'किताब', 'ईमान' आदि।
 
==== फ़्रांसीसी से ====
३) '''तद्भव शब्द''':- तद्भव शब्द का अर्थ संस्कृत से उत्पन्न या विकसित शब्द, अनेक कारणों से संस्कृत, प्राकृत आदि की ध्वनियाँ घिस-पीट कर हिन्दी तक आते-आते परिवर्तित हो गयी है। परिणामत: पूवर्वती आर्य भाषाओं के शब्दों के जो रूप हमें प्राप्त हुए हैं, उन्हें तद्भव कहा जाता है। हिन्दी में प्राय: सभी तद्भव हैं। संज्ञापदों की संख्या सबसे अधिक है, किन्तु इनका व्यवहार देश, काल, पात्र आदि के अनुसार थोडा़ बहुत घटता-बढ़ता रहता है। जैसे- अंधकार से अंधेरा, अग्नि से आग, अट्टालिका से अटारी, रात्रि से रात, सत्य से सच आदि।
(ग) '''फ्रांसीसी से''':- भारत और ईरान के सम्बन्ध बहुत पुराने हैं। भाषा विज्ञान जगत इस बात से पूर्णतः अवगत है कि ईरानी और भारतीय आर्य भाषाएँ एक ही मूल भारत-ईरानी से विकसित है। यही कारण है कि अनेकानेक शब्द कुछ थोडे़थोड़े परिवर्तनों के साथ संस्कृत और फारसी दोनों में मिलते है; डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार हिन्दी में छ: हजार शब्द फारसी के माने है। अंग्रेजी के माध्यम से बहुत सारे फ्रांसीसीफ़्रांसीसी शब्द हिन्दी में आ गयेगए हैं; जैसे- 'आबरू', 'आतिशबाजी', 'आमदनी', 'खत', 'खुदा', दरवाजा'दरवाज़ा', 'जुकाम', 'मजबूर', फरिश्ता 'लैम्प', टेबुल'टेबल' आदि।
 
==== अंग्रेजी से ====
२) '''देशज(देशी)''':- देशी शब्द का अर्थ है अपने देश में, उत्पन्न जो शब्द न विदेशी है, न तत्सम हैं और न तद्भव हैं। देशज शब्द के नामकरण के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। भरतमुनि ने इसे 'देशीमत', चण्ड ने 'देशी प्रसिद्ध' तथा मार्कण्डेय तथा हेमचन्द्र ने इसे 'देशा' या देशी कहा है। डॉ. शयामसुन्दरदास तथा डॉ. भोलानाथ तिवारी ने इसे 'अज्ञात व्युत्पत्तिक' कहा है। अतः देशज शब्द दो प्रकार के हैं--
(घ) '''अंग्रेजी से''':- लगभग ई.स. 1500 से यूरोप के लोग भारत में आते-जाते रहे हैं, किन्तु करीब तीन सौ वर्षों तक हिन्दी भाषी इनके सम्पर्क में नहीं आए, क्योंकि यूरोपीय लोग समुद्र के रास्ते से भारत में आयेआए थे; अतः इनका कार्यक्षेत्र प्रारम्भ में समुद्र तटवर्ती प्रदेशों में ही रहा है, लेकिन १८ वी. शती के उत्तराध्र से अंग्रेज समूचे देश में फैलने लगे। ई.स. 1800 के लगभग हिन्दी भाषा प्रदेश मुगलों के हाथ से निकलकर अंग्रेजी शासन में चला गया। तब से लेकर ई.स. १९४७ तक अंग्रेजों का शासन रहा। इस शासन काल के दौरान अंग्रेजी भाषा और सभ्यता को प्रधानता प्राप्त हुई। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी अंग्रेजी भाषा का महत्व कम नहीं हुआ। परिणामस्वरूप सभी भारतीय भाषा में अंग्रेजी के बेशुमार शब्दों का प्रयोग होता आ रहा है। यधपियद्यपि डाडॉ. हरदेव बाहरी के अनुसार अंग्रेजी के हिन्दी में प्रचलित शब्दों की संख्या चार-पाँच सौ अधिक नहीं है, लेकिन वास्तव में यह संख्या तीन हजार से कम नहीं होगी। तकनीकी शब्दों को जोड़ने पर यह संख्या दुगुनी हो जायेगी।जाएगी। जैसे- 'अपील', 'कोर्ट', 'मजिस्ट्रेट', 'जज', 'पुलिस', 'पेपर', 'स्कूल', 'टेबुल', 'पेन', 'मोटर', इंजिन'इंजन' आदि।
१) एक वे जो अनार्य भाषाओं(द्रविड़ भाषाओं) से अपनाये गये हैं और दूसरे २) वे जो लोगों ने ध्वनियों की नकल में गढ़ लिये गए हैं।
 
(क) द्रविड़ भाषाओं से-- उड़द, ओसारा, कच्चा, कटोरा कुटी आदि।
 
(ख) अपनी गठन से-- अंडबंड, ऊटपटाँग, किलकारी, भोंपू आदि।
 
३) '''विदेशी शब्द''':- जो शब्द हिन्दी में विदेशी भाषाओं से लिये गए हैं अथवा आ गये हैं, वे विदेशी शब्द कहलाते हैं। मुस्लिम तथा अंग्रेज शासकों के कारण उनकी भाषाओं के शब्द हिन्दी में अत्याधिक मात्रा में आये हैं। फारसी, अरबी तथा तुर्की शब्द भी हिन्दी में अपनाये गये हैं। वाणिज्य, व्यवसाय, शासन, ज्ञान-विज्ञान तथा भौगोलिक सामिप्य आदि इसके कारण हो सकते हैं, साथ ही ऐतिहासिक,सांस्कृतिक, आर्थिक कारण भी हो सकते हैं। डॉ. धीरेंद्र वर्मा ने ऐसे शब्दों के लिए 'उद्धत शब्द' का प्रयोग किया है। और डॉ. हरदेव बाहरी ने इन्हें 'आयात' शब्द कहा है। हिन्दी में इसके लिए 'विदेशी शब्द' संज्ञा बहुप्रयुक्त होती रही है, यह शब्द तुर्की, अरबी, फारसी आदि एशिया की भाषाओं से, और अंग्रेजी, फ़्रांसीसी, पुर्तगाली आदि यूरोपीय भाषाओं से आये हैं। उदाहरण--
 
(क) '''तुर्की से''':- तुर्कीस्तान, विशेषतः पूर्वी प्रदेश से भी भारत का सम्बन्ध प्राचीन है। यह सम्बन्ध धर्म, व्यापार तथा राजनीति आदि स्तरों पर था। ई.स. 100 के बाद तुर्क बादशाहों के राज्यस्थापना के कारण हिन्दी में तुर्की से बहुत से शब्द आएँ। डॉ. चैटर्जी, डॉ. वर्मा तुर्की शब्दों का प्रायः फ़ारसी माध्यम से आया मानते हैं, किन्तु डॉ. भोलानाथ तिवारी जी तुर्की से आया मानते है। हिन्दी में तुर्की शब्द कितने हैं, इस सन्दर्भ में मतभेद हैं। डा. चटर्जी के अनुसार लगभग 100 है। जैसे- उर्दू, कालीन, काबू, कैंची, कुली, चाकू, चम्मच, चेचक, तोप, दरोगा, बारूद, बेगम, लाश, बहादुर आदि।
 
(ख) '''अरबी से''':- १००० ई. के बाद मुसलमान शासकों के साथ फारसी भारत में आई और उसका अध्ययन-अध्यापन होने लगा। कचहरियों में भी स्थान मिला। इसी प्रकार उसका हिन्दी पर बहुत गहरा प्रभाव पडा़। हिन्दी में जो फारसी शब्द आए, उनमें काफी शब्द अरबी के भी थे। अरब से कभी भारत का सीधा सम्बन्ध था, किन्तु जो शब्द आज हमारी भाषाओं के अंग बन चुके हैं, डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार छ: हजार शब्द फारसी के है जिनमें 2500 अरबी के है। जैसे-- अजब, अजीब, अदालत, अक्ल, अल्लाह, आखिर, आदमी, इनाम, एहसान, किताब, ईमान आदि।
 
(ग) '''फ्रांसीसी से''':- भारत और ईरान के सम्बन्ध बहुत पुराने हैं। भाषा विज्ञान जगत इस बात से पूर्णतः अवगत है कि ईरानी और भारतीय आर्य भाषाएँ एक ही मूल भारत-ईरानी से विकसित है। यही कारण है कि अनेकानेक शब्द कुछ थोडे़ परिवर्तनों के साथ संस्कृत और फारसी दोनों में मिलते है; डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार हिन्दी में छ: हजार शब्द फारसी के माने है। अंग्रेजी के माध्यम से बहुत सारे फ्रांसीसी शब्द हिन्दी में आ गये हैं; जैसे- आबरू, आतिशबाजी, आमदनी, खत, खुदा, दरवाजा, जुकाम, मजबूर, फरिश्ता लैम्प, टेबुल आदि।
 
(घ) '''अंग्रेजी से''':- लगभग ई.स. 1500 से यूरोप के लोग भारत में आते-जाते रहे हैं, किन्तु करीब तीन सौ वर्षों तक हिन्दी भाषी इनके सम्पर्क में नहीं आए, क्योंकि यूरोपीय लोग समुद्र के रास्ते से भारत में आये थे; अतः इनका कार्यक्षेत्र प्रारम्भ में समुद्र तटवर्ती प्रदेशों में ही रहा है, लेकिन १८ वी. शती के उत्तराध्र से अंग्रेज समूचे देश में फैलने लगे। ई.स. 1800 के लगभग हिन्दी भाषा प्रदेश मुगलों के हाथ से निकलकर अंग्रेजी शासन में चला गया। तब से लेकर ई.स. १९४७ तक अंग्रेजों का शासन रहा। इस शासन काल के दौरान अंग्रेजी भाषा और सभ्यता को प्रधानता प्राप्त हुई। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी अंग्रेजी भाषा का महत्व कम नहीं हुआ। परिणामस्वरूप सभी भारतीय भाषा में अंग्रेजी के बेशुमार शब्दों का प्रयोग होता आ रहा है। यधपि डा. हरदेव बाहरी के अनुसार अंग्रेजी के हिन्दी में प्रचलित शब्दों की संख्या चार-पाँच सौ अधिक नहीं है, लेकिन वास्तव में यह संख्या तीन हजार से कम नहीं होगी। तकनीकी शब्दों को जोड़ने पर यह संख्या दुगुनी हो जायेगी। जैसे- अपील, कोर्ट, मजिस्ट्रेट, जज, पुलिस, पेपर, स्कूल, टेबुल, पेन, मोटर, इंजिन आदि।
 
इस प्रकार हिन्दी भाषा ने देश-विदेश की अनेक भाषाओं से शब्द ग्रहण कर अपने शब्द भण्डार में महत्वपूर्ण वृद्धि कर ली है।
 
== संदर्भसन्दर्भ ==
# हिन्दी भाषा — डॉ. हरदेव बाहरी। अभिव्यक्ति प्रकाशन, '''पुर्नमुद्रण''': 2017, पृष्ठ: 135
# प्रयोजनमूलक हिन्दी: सिद्धान्त और प्रयोग— दंगल झाल्टे। वाणी प्रकाशन, आवृत्ति: 2018, पृष्ठ: 34