"छायावादोत्तर हिंदी कविता/प्रेत का बयान": अवतरणों में अंतर
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पंक्ति १:
{{संचरण|पिछला=बहुत दिनों के बाद|अगला=कलगी बाजरे की}}
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कैसे मरा तू?
भूख से, अकाल से?
बुखार कालाजार से?
पेचिस बदहजमी, प्लेग महामारी से?
कैसे मरा तू, सच-सच बतला!
खड़
काँपा कुछ हाड़ों का मानवीय ढाँचा
नचाकर लंबे चमचों-सा पंचगुरा हाथ
रूखी-पतली किट-किट आवाज़ में
प्रेत ने जवाब
“महाराज!
"महाराज!▼
सच-सच कहूँगा
झूठ नहीं बोलूँगा
नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के<sup>...</sup>
पूर्णिया जिला है, सूबा बिहार के सिवान पर
थाना धमदाहा, बस्ती रुपउली
जाति का
उमर
पेशा से प्राइमरी स्कूल का मास्टर था
तनखा थी तीस, सो भी नहीं मिली
-"किन्तु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका▼
मुश्किल से काटे हैं
ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको▼
एक नहीं, दो नहीं, नौ-नौ महीने!
घरनी थी, माँ थी, बच्चे थे चार
नाम नहीं लीजिएगा▼
आ चुके हैं वे भी दया सागर करुणा के अवतार
हमारे समक्ष फिर कभी भूख का!!"▼
आपकी ही छाया में!
मैं ही था बाकी
निकल गया भाप आवेग का▼
क्योंकि करमी की पत्तियाँ अभी कुछ शेष थीं
हमारे अपने पुश्तैनी पोखर में
मनोबल शेष था, सूखे शरीर में<sup>...</sup>”
“अरे वाह—”
तनिक भी पीर नहीं▼
भभाकर हँस पड़ा नरक का राजा
दुःख नहीं,दुविधा नहीं▼
दमक उठीं झालरें कंपमान सिर के मुकुट की
फर्श पर ठोककर सुनंहला लौह दंड
अविश्वास की हँसी हँसा दंडपाणि महाकाल
“—बड़े अच्छे मास्टर हो :
आए हो मुझको भी पढ़ाने!!
मैं भी तो बच्चा हूँ<sup>...</sup>
वाह भाई वाह!
तो तुम भूख से नहीं मरे?”
हद से ज्याद डालकर जोर
होकर कठोर
प्रेत फिर बोला
“अचरज की बात है
यकीन नहीं आता है मेरी बात पर आपको?”
कीजिए न कीजिए आप चाहे विश्वास
साक्षी है धरती, साक्षी है आकाश
और और और भले व्याधियाँ हों भारत में<sup>...</sup>किंत<sup>...</sup>
उठाकर दोनों बाँह
किट-किट करने लगा जोरों से प्रेत
▲नाम नहीं लीजिएगा
शांत स्तिमित स्वर में प्रेम फिर बोला—
“जहाँ तक मेरी अपनी बात है
▲तनिक भी पीर नहीं
सरलतापूर्वक निकले थे प्राण
सह
सुनकर दहाड़ ▼
स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के ▼
▲सुनकर दहाड़
▲स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के
रह गए निरुत्तर
▲भुखमरे स्वाभिमानी सुशिक्षक प्रेत की
महामहिम नरकेश्वर!!
(1949)</poem><ref>{{cite book |editor1-last=सिंह |editor1-first=नामवर सिंह |title=नागार्जुन : प्रतिनिधि कविताएँ |date=1984 |isbn=81-267-0604-X |pages=94-96 |edition=2006}}</ref>
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