परिभाषा - रस्यते इति रस: के अनुरूप रस से आशय स्वाद से है।जैसी भोजन मुंह में डालने से अनेक प्रकार के स्वाद प्राप्त होते हैं उसी प्रकार काव्य के पढ़ने से हमें अनेक प्रकार के आनंद की प्राप्ति होती है अर्थात हृदय में एक अनिर्वचनीय भाव का संचार होता है जो आनंद-स्वरूप है। यही अलौकिक आनंद रस कहलाता है।

सर्वप्रथम रस का विवेचन भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में प्राप्त होता है। रस की उत्पत्ति के संबंध में भरतमुनि ने लिखा है। विभावानुभावव्यभिचारिसयोगाद्रसनिष्पर्ति: अर्थात विभाव, अनुभव और व्यभिचारी भावों के सहयोग से रस की उत्पत्ति होती है। भाग चार होते हैंं-विभाव, अनुभाव, संचारी भाव और स्थाई भाव।

विभाव-जो पदार्थ, व्यक्ति अथवा वाह्य विकार अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक करता है, उन कारणों को विभाव कहते हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं-आलंबन विभाव और उद्दीपन विभाव

अनुभाव-भाव का बोध कराने वाले कारण अनुभाव कहलाते हैं। यह चार प्रकार के होते हैं-कायिक, मानसिक ,आहार्य और सात्विक।

संचारी भाव-आश्रय के चित में उत्पन्न होने वाले अ्स्थिर मनोविकारों को संचारी भाव कहते हैं। भरतमुनि के अनुसार यह पानी में उठने और आप ही आप विलीन होने वाले बुलबुलों के समान है। इनकी संख्या 33 मानी गई है।

स्थाई भाव - जो भाव ह्रदय में सदैव स्थाई रूप से विद्धमान होते हैं किंतु अनुकूल कारण पाकर उद्बुध्द होते हैं, उन्हें स्थाई भाव कहा जाता है। इनकी संख्या 9 मानी गई है - रति, उत्साह, क्रोध, विस्मय, निर्वेद, हास,भय, जुगुप्सा, शोक स्थायी भाव है।