शासन : चुनौतियाँ और मुद्दे/नव उदारवादी आर्थिक व्यवस्था की समीक्षा

1. नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था और इसका गरीबी पर प्रभाव सम्पादन

सुरेश तेंदुलकर का कहना है कि नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के नीर महत्त्वपूर्ण आयाम हैं-वृहत अर्थव्यवस्था का स्थिरीकरण, संरचनात्मक समायोजन और घरेलू बाजार का विनियंत्रिकरण। यह आशा की गई कि ये तीनों आयाम भारतीय अर्थव्यवस्था को एक उच्च विकास पथ पर ले जाएंगे। विश्व स्तर पर कम आय वाले देशों में ऐसी उच्च विकास दर ने नियत गरीबी घटाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। केवल कुछ लैटिन अमेरिकी देश इसके अपवाद रहे हैं, जहां चरम और निरंतर आरंभिक आर्थिक विषमताएं रही हैं । पुरानी अर्थव्यवस्था से इस नई व्यवस्था के संक्रमण काल में उच्च विकास दर में जाने से पूर्व गरीबी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। सुधारात्मक कार्यक्रमों के लागू करने और अर्थव्यवस्था के स्थिरीकरण के उपायों के कारण सामाजिक क्षेत्रों पर खर्च कम होता है जिसका सीधा नकारात्मक प्रभाव आरंभिक रूप से गरीबों पर पड़ता है। चूंकि सुधारों का केंद्र-बिंदु ग्रामीण के बजाय शहरी औपचारिक औद्योगिक क्षेत्र होता है जो वित्तीय, प्रशासनिक और संगठनात्मक कड़ी से निकटता से जुड़ा होता है, सुधारों का त्वरित और अधिकतर लाभ शहरी औपचारिक क्षेत्र को मिलता है, फिर द्वितीय स्तर का असर शहरी अनौपचारिक क्षेत्र पर पड़ता है और ग्रामीण क्षेत्र पर सीधा प्रभाव पिछड़ जाता है अर्थात् देर से पड़ता है । ग्रामीण क्षे्र पर सुधारों का त्वरित लाभ अप्रत्यक्ष होता है जो कि संरचनात्मक कारकों के द्वारा पड़ता है; जैसा कि भारत में सुधारों की शुरुआत के साथ शहरी गरीबो धीरे-धीरे बढ़ी और फिर 1993-94 से तेजी से घटी, जबकि ग्रामीण गरीबी 1992 के बाद से ही तेजी से बढ़ी और 1993-94 में अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई। लेकिन तेंदुलकर का कहना है कि सुधारों के अलावा कृषि-उत्पाद में कमी जैसे बाहरी कारकों का ज्यादा गंभीर प्रभाव गरीबी बढ़ाने में पड़ा है। अतः स्पष्ट कि सुधारों का विभेदक परिणाम विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों पर पड़ता है। एक दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत में भी सामाजिक स्तर पर संरचनात्मक विषमताएं विद्यमान रही हैं और कृषि क्षेत्र में सुधार सफल नहीं हो सका है, जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों और हाशिये पर स्थित वर्गों पर इसका सबसे बुरा असर पड़ा है, लेकिन जैसा कि तेंदुलकर का कहना है उच्च विकास दर पर बने रहने का प्रभाव ग्रामीण क्षेत्र से भी गरीबी दूर करने पर पड़ेगा।

2. नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था और इसका कृषि पर प्रभाव सम्पादन

नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था और इसका कृषि पर प्रभाव हरित क्रांति के तहत रहे इलाकों, जो 60 के दशक से ही उच्च संवृद्धि देख रहे थे , को छोड़ दिया जाए, तो भारतीय कृषि पर इस नई व्यवस्था का सकारात्मक प्रभाव कम दिखता है। वैसे भी भारतीय कृषि की वृद्धि दर हमेशा 3 प्रतिशत के आस-पास ही रही है। सुधार उपरांत काल में इसने और भी नीची वृद्धि दर्ज की है; जिसका सीधा प्रभाव कृषकों पर पड़ा है। भारतीय ग्रामीण क्षेत्र पहले से ही संरचनात्मक समस्या से घिरा था। उत्तर- सुधार काल में इन कमियों को दूर करने अर्थात् भूमि सुधारों के बजाय भूमि अधिग्रहण पर ज्यादा बल दिया जा रहा है ताकि विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना कर औद्योगिक विकास बढ़ाया जाएजो कि राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर औद्योगिक वर्गों और नौकरशाही के बढ़ते और मजबूत होते गठबंधन को परिलक्षित करता है । दूसरी तरफ, नई व्यवस्था में व्यापारिक कृषि की तरफ रुझान बढ़ा है, जिससे कृषि की लागत बढी है और ऋणों की पर्याप्त सुविधा के अभाव में फसल के खराब होने की दशा में ऋणग्रस्तता में वृद्धि हुई है । जिससे बड़े पैमाने पर कृषकों के द्वारा आत्महत्या की घटनाएं सामने आई है। साथ ही खाद्यान्न फसलों की कमी के कारण खाद्यान्न संकट और खाद्य सामग्री की कीमतें बढ़ी हैं। किसानी आज एक महंगा और कम लाभ देने वाला उद्यम बन गया है जिसके कारण किसान कृषि छोड़ना चाहते हैं। शुरू से ही कृषि की अनदेखी और श्रम-प्रधान उद्योगों के विकास पर ध्यान केंद्रित न किए जाने के कारण कृषि में लगे अतिरिक्त श्रम-बल को औद्योगिक क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध नहीं कराया जा सका, जिसके कारण कृषि से जुड़ी जनसंख्या पर नई व्यवस्था का सबसे बुरा प्रभाव दिख रहा है।


शहर केंद्रित विकास के कारण भारत में विकास का एक विकृत पैटर्न भी सामने आया है जिसमें तृतीयक क्षेत्र अर्थात् सेवा क्षेत्रों में विकास ज्यादा दिखाई देता है, जबकि औद्योगिक क्षेत्र अभी भी तुलनात्मक रूप से अविकसित हैं और तकनीकी रूप से दक्ष श्रम बल की कमी है। एक तरफ बड़ी संख्या में अकुशल श्रम उपलब्ध है, दूसरी तरफ उच्च दक्षता वाला सेवा वर्ग। स्पष्ट है इस नई आर्थिक व्यवस्था ने पहले से ही दिशाहीन विकास रणनीति को और अधिक जटिल कर दिया है। यही कारण है कि सेन अर्थशास्त्री का कहना है कि इस नई व्यवस्था के लाभ को समावेशी बनाने। के लिए आवश्यक है कि राज्य अपने नागरिकों की क्षमताओं को बढाने का प्रयास करे तभी उनकी स्वतंत्रता को भी बढ़ावा दे सकता है।" रॉल्फ जैसे समुदायवादी भी इस बात पर बल देते हैं कि राज्य को सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को इस प्रकार विन्यासित करना चाहिए कि कमजोर वर्ग को अधिकतम लाभ मिल सके।