उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं (IFIS ) की लोकतंत्र और सुशासन के संबंध की संकल्पना समस्याग्रस्त है। इसके दो मुख्य कारण इस हैं - प्रथम, सार्वभौमिक लोकतांत्रिक मूल्यों का विवरण इस बात को स्पष्ट करता है कि ये संस्थाएं देशों पर जिन नीतियों को लागू करती हैं वह अनुपयुक्त क्योंकि इनके स्थानीय-सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिवेश व्यापक रूप से भिन्न हैं। अत: "सभी के लिए एक आकार" (one size fits all) उपागम पूर्ण रूप से त्रुटिपूर्ण है। द्वितीय, जहां लोकतंत्र को सुशासन के अनिवार्य त्त्व के रूप में देखा जाता है, उसमें परिवर्तन की प्रक्रिया सदैव लोकतांत्रिक नहीं होती। लोकतंत्र को अंतिम मूल्य मानने की अपेक्षा निरंतर विकास को प्राप्त करने के यंत्र के रूप में देखा जाता है। अत: यह कहा जा सकता है कि यदि लोकतंत्र को सुशासन द्वारा सुदृढ़ करना है तो उसके लिए लोकतंत्र के अर्थ, और उद्देश्य को प्राप्त करने कि दिशा में पुन: प्रयास करना होगा तथा लोकतंत्र को पुनर्परिभाषित करना होगा। स्वदेशी संदर्भ के अंतर्गत, सुशासन के द्वारा राज्य और नागरिक समाज की संस्थाओं को अधिक लोकतांत्रिक बनाया गया है । राज्य के अपने ही विविध रूप प्रकार हैं जो पहचान से लेकर विभिन्न हितों की पूर्ति और बहुस्तरीय शासन संरचनाओं से संबंधित हैं। नागरिक समाज के गठन के भी कई घटक हैं, जिनमें सांस्कृतिक, वैचारिक, आर्थिक और कई अन्य समूह और संगठन शामिल हैं। सुशासन की अवधारणा राज्य और नागरिक समाज दोनों में सहभागिता, जवाबदेयता और पारदर्शिता के सिद्धांतों द्वारा लोकतांत्रिकरण की सिफारिश करता है।