शासन : चुनौतियाँ और मुद्दे/भूमंडलीकरण के दौर में भारत
राज्य","सरकार", और "राजनीतिक व्यवस्था" सर्वथा एकार्थक शब्द नहीं हैं। इनके अर्थ अंशत: एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं; कितु इन शब्दों के अर्थों के मध्य सूक्ष्म अंतर विद्यमान है। जी. सातोरी इन शब्दों पर टिप्पणी करते हैं कि एक लंबे समय तक अंग्रेजी में "सरकार" शब्द का प्रयोग "राज्य" के लिए ज्यादा प्रचलित था, और फ्रेंच में इता और जर्मन में शब्द स्तात राज्यवाची शब्द हैं। अधिकतर महाद्वीपीय यूरोपीय भाषाओं में, इसके विपरीत, सामान्यत: "सरकार" को "राज्य'" के एक अनुभाग के रूप में देखा गया। राज्य की भांति ही, "राजनीतिक व्यवस्था" को समाज की अंतर्निहित सत्ता के रूप में देखा गया है जो शक्तियों तथा संसाधनों के आधिकारिक आबंटन और वितरण का कार्य करता है; किंतु राजनीतिक व्यवस्था, राज्य की तुलना में, ज्यादा समाज-केंद्रित है। यह आगत-निर्गत, समाज के समर्थन व मांग, और आधिकारिक निर्णयों पर सामाजिक प्रतिक्रियाओं का सिस्टम में पुनः इनपुट की प्रक्रियाओं का समुच्चय है। संप्रभुता, सिस्टम की तुलना में, राज्य का लक्षण है, जबकि डेविड ईस्टन के सिस्टम की परिभाषा में यह "मूल्यों के आधिकारिक आबंटन या वितरण" की राजनीतिक प्रक्रिया का उपकरण है।
प्राचीन भारत के विषय में यह कहा जा सकता है कि यहां सरकार के समान कोई शब्द नहीं था, यहां सिर्फ "राज्य" शब्द ही प्रयोग में लाया जाता था। कौटिल्य के ग्रंथ अर्थशास्त्र के अंतर्गत राज्य के सप्तांग सिद्धांत (स्वामी, अमात्य, जनपद अथवा राष्ट्र, दुर्ग, कोष, दंड, मित्र) का वर्णन किया गया है। भारतीय इतिहासकारों, जैसे-आर. एस. शर्मा और रोमिला थापर, ने कौटिल्य (जिसे चाणक्य, विष्णुगुप्त, के नाम से भी तक्षक्षिला के प्राचीन विद्यालय के शिक्षक के रूप में जाना जाता है) के अर्थशास्त्र को भारतीय इतिहास में मौर्य वंश के आरंभ का ग्रंथ माना गया है। नंद वंश के अंतिम राजा महापदमानंद (c. 362-335 BCE) का अंत कर, मोर्य वंश का प्रथम शासक चंद्रगुप्त मौर्य (c. 322-298 BCE) सत्ता में आया। यद्यपि कौटिल्य को इस बात का श्रेय भी दिया जाता है कि उन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य की महापदमानंद पर विजय प्राप्त करने हेतु सेना की रणनीति बनाने में सहायता प्रदान की थी। इसी काल के समानांतर यूनानी शासक अलेक्जेंडर ने पंजाब पर आक्रमण किया और पुरु या पोरस (c. 327-325 BCE) को परास्त किया।
भारतीय इतिहास के वैदिक व आरंभिक बौद्ध काल को राज्य-पूर्व की सामाजिक स्थिति माना जाता है, जिसमें राज्य की अपेक्षा राजनीतिक सिस्टम की अवधारणा ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होती है। उदाहरण के लिए. 'ऋग्वैदिक सभा, समिति", और "विदथ"; एवं उत्तर-वैदिक काल में "जनपद" व प्रारंभिक बौद्ध युग में "महाजनपद", "महासम्मत'" और "गणसंघ" की संस्थाओं को राज्य के उदय की पूर्वकालिक संस्थाओं के रूप में देखा गया है। जैसे-जैसे संपत्ति और राजनीतिक शक्तियों में असमानता में वृद्धि हुई समाज की संरचनात्मक और कार्यात्मक संरचना में जटिलता आती गई'... भारतीय इतिहास में प्रथम राज्य की स्थापना मगध में नंद वंश के साथ बिबिसार (c.546-594 BCE) द्वारा स्थापित मानी जाती है। साहित्यिक दृष्टि से अर्थशास्त्र के ऐतिहासिक पक्ष के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि कौटिल्य की तुलना मैकियावली से की जाती है व माना जाता है कि कौटिल्य ने ही सर्वप्रथम प्राचीन भारत में केंद्रीकृत या नौकरशाही से युक्त राजतंत्र के सिद्धांत का निर्माण किया व उसकी विस्तृत व्याख्या की। यद्यपि मगध में मौर्य वंश के पतन के बाद कौटिल्य के आदर्श केंद्रीकृत नौकरशाही साम्राज्य की स्थापना सरलता से दुहराई नहीं जा सकी। इतिहासकार आर. एस. शर्मा ने भारतीय सामंतवाद की शुरुआत को मौर्य वंश की केंद्रीकृत व्यवस्था के पतन के परिणाम के रूप में देखा है, और (१) सामंतों और सामंती वर्ग को केंद्रीय राज्य द्वारा भू-अनुदान व क्षेत्रीय भू-आधिपत्य प्रदान करने के परिणाम के रूप में देखा है.(ii) उनके अनुसार उपमहाद्वीपीय राज्य के क्षेत्रीय राज्यों के विखंडन के फलस्वरूप राज्य सत्ता का बंटवारा करना पड़ा। सम्राट ने अपने आधिपत्य के अंतर्गत सामंतों को सत्ता में भागीदारी प्रदान की। ये क्षेत्रीय राज्य, भारतीय जनमानस पर, मौर्यकाल के उपरांत, आधिपत्य स्थापित करने हेतु आपस में प्रतिस्पर्धा में लगे हुए थे। एस. एन. आइजेस्ताद और हैरिएट हार्टमैन ने टिप्पणी करते हुए लिखा है: भारतीय सभ्यता का अधिकतर केंद्र राजनीतिक नहीं, बल्कि धार्मिक-अनुष्ठान थे, जो अन्य वैश्विक प्रभावों से संबंधित थे व अपने पर्यावरण से प्रभावित थे। साथ ही, वे विभिन्न लक्षणों के सॉाथ सन्निहित थे, जैसे-नृजातीयता, एकीकृत, संघटनात्मक उपकेंद्र, धार्मिक स्थल, मंदिर, वर्ग, विद्यालय इत्यादि सभी अपने क्षेत्रीय राज्यों की राजनीतिक सीमाओं से बाहर तक फैलकर भारतीय उपमहाद्वीप तक विस्तारित हो रहे थे। आधुनिकता-पूर्व भारत में, जिसमें मध्यकाल भी सम्मिलित था, ग्राम समुदाय व्यापक शक्ति-संरचनाओं के सूक्ष्म आधार थे, जिनके ऊपर क्षेत्रीय राज्यों और उप-द्वीपीय राज्यों का निर्माण या विखंडन होता रहता था।" इस प्रकार, भारतीय इतिहास में संप्रभुता का स्वरूप अंशत: ठोस या मूर्त था और अंशत: बिखरा हुआ या अमूर्त था।
राजनीतिक सिद्धांत में संप्रभुता का उद्भव पवित्र यूनानी साम्राज्य के पतन के बाद हस्ताक्षरित वेस्टफेलिया संधि (1648-1659) के द्वारा नए राज्यों की उत्पत्ति के रूप में हुआ। इसके उपरांत ही यूरोप में प्रथम संप्रभु राज्यों की स्थापना हुई। लैटिन के स्थान पर आम बोलचाल की मातृभाषाओं जैसे-जर्मन, फ्रेंच, इटालियन, अंग्रेजी, स्पैनिश इत्यादि के विकास से भाषायी पहचान का निर्माण हुआ एवं यह मुद्रण तकनीक के प्रारंभ से समाचार पत्रों व गल्प साहित्य के विकास से और अधिक सुदृढ़ हो गई। प्रिंट पूंजीवाद के विकास ने मातृभाषायी अखबारों को प्रत्येक भाषायी राज्य के सीमांतर्गत प्रचलित किया व भाषायी राष्ट्रवाद का सृजन किया। इसने राष्ट्रवाद की आधुनिक राजनीतिक विचारधारा का उद्भव किया, जिसे बेनेडिक्ट ऐंडरसन ने "काल्पनिक राजनीतिक समुदाय" कहा है। इस अवधारणा के अनुसार, राष्ट्र बीज रूप से सार्वकालिक विचार है, परंतु "राष्ट्रवाद" एक आधुनिक विचारधारा है, जो कल्पित एवं सामाजिकत: निर्मित है। फ्रांस की राज्य-क्रांति (1789) ने "राष्ट्रवाद" और "राज्य" की भावनाओं के मध्य सहसंबंध स्थापित किया। विभिन्न पश्चिमी यूरोपीय राज्यों के राजनीतिक सिद्धांतकारों ने "संप्रभुता" की संकल्पना को सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है।
भारतीय इतिहास में संप्रभुता आंशिक रूप से सुसंगठित या निश्चित व आंशिक रूप से असंगठित रही है। मजबूत राज्य केंद्रीकृत थे, किंतु उनमें भी कुछ विकेंद्रीकरण के लक्षण पाए जाते थे। संप्रभुता का यह रूप राज्य के विभिन्न समूहों और क्षेत्रों के द्वारा प्रायोजित था, इसे एक जटिल अंतर-राज्य संगठन की व्यवस्था के रूप में विद्यमान या अवनतिग्रस्त देखा गया। यह कथन सुदृढ़ राज्यों, जैसे-मौर्य, मुगल, और ब्रिटिश शासन-पर भी, कम या अधिक मात्रा में, लागू होता है। सामंती स्वायत्तता की व्यवस्था मौर्य राज्य के बाद के प्राचीन व आधुनिक युग के सभी राज्यों में, कमोबेश मात्रा में, विद्यमान थी, जो अब वर्तमान भारत के संसदीय-संघीय संविधानिक व्यवस्था में राज्य-सरकारों की स्वायत्ता के आधुनिक लोकतांत्रिक अवतार के रूप में रूपांतरित है।
भारत में आधुनिक राज्य, अपने शुरुआती रूप में ब्रिटिश पूंजीवादी उपनिवेशवाद का, जो अपने साम्राज्यवादी चरण में था, उत्पाद था। ब्रिटिश भारतीय उपनिवेशवाद के दो पहलू थे: (1) प्रादेशिक शासनतंत्र जो सीधे ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत था और (2) सामंतवादी शासनतंत्र का पहलू जो देशी राज्यों या रियासतों में था, जो ब्रिटिश क्राउन के अधीनस्थ थे।' ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य ने ब्रिटिश भारतीय प्रदेशों में प्रतिनिधित्व संस्थाओं को सीमित रूप में स्थापित किया. जो विभिन्न स्तरों पर क्रमिक रूप में बढ रही थीं। सन् 1935 तक शैक्षिक योग्यता और संपत्ति के आधार पर ब्रिटिश भारतीय प्रांतों में 28.5 प्रतिशत जनसंख्या को मताधिकार प्रदान कर दिया गया था। भारतीय शासन अधिनियम, 1935, द्वारा ब्रिटिश संसद के अंतर्गत सर्वप्रथम संघीय शासन व्यवस्था को अपनाया गया। यद्यपि 1935 के संविधान का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि भारत की स्वतंत्रता के उपरांत 1950 के संविधान में 1935 के संघीय ढांचे को किंचित सुधारों के साथ अपनाया गया। आधुनिक भारतीय राज्य की स्थापना कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है, जिसे "तृतीय विश्व" ("प्रथम विश्व" पश्चिमी उदारवादी राज्य और "द्वितीय विश्व" साम्यवादी राज्य) का सदस्य माना गया। भारतीय मिश्रित" आधुनिकता यूरोपीय उदारवाद और उत्तर-पुनर्जागरण की आधुनिकता
से अलग है। यह विभिन्न देशों में व्याप्त क्रांतिकारी साम्यवाद की विचारधारा से भी अलग है। भारत में राज्य का गठन एक जटिल प्रक्रिया है, जिसका इतिहास प्राचीन और मध्यकाल से संबंधित है। आधुनिक राष्ट्र-राज्य का गठन मुख्यत: निम्न कारकों से प्रभावित था : (1) ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य, (2) भारतीय स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रवादी आंदोलन, और (3) पूर्व -औपनिवेशिक राज्य की परंपराएं।
आधुनिक भारतीय राज्य का गठन न केवल औपनिवेशिक और सामंती इतिहास की पृष्ठभूमि में, बल्कि एक जटिल प्राचीन सभ्यता और आधुनिक राजनीतिक संस्कृति के संदर्भ में भी हुआ है। समकालीन जगत के मध्यम वर्ग ने, जिसमें बुद्धिजीवी व शिक्षित समुदाय केंद्र में स्थित है, भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन को गतिमान बनाने में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। इसने राष्ट्रवादी वैचारिक संवाद को समावेशी व एकत्रित किया। इस वर्ग ने आरंभिक बीसवीं सदी के मूल्यों - राजनीतिक लोकतंत्र, आर्थिक और सामाजिक विकास - को भारत के उत्तर-औपनिवेशिक राज्य में स्थापित करने के क्षेत्र में भी अहम भूमिका निभाई है। साथ ही, राष्ट्रीय नेतृत्व में विभिन्न वर्गों व आम जनता की भागीदारी को बढ़ाने का कार्य भी किया। राज्य के गठन व विकास का उद्देश्य एक-समान व न्यायप्रिय समाज की स्थापना करना होता है। किंतु भारत में वर्ण व जाति-व्यवस्था, व पितृसत्तात्मक परंपरा, धार्मिक, भाषायी, नृजातीय बहुलता, क्षेत्रीय विषमता इत्यादि का राज्य को सामना करना पड़ता है। यह सभी विविध कारक ना केवल ऐतिहासिक हैं, बल्कि यह आधुनिक व समकालीन युग में भी विद्यमान हैं, जिनका सामना करते हुए राज्य के संगठन को सशक्त बनाना आवश्यक है।