शासन : चुनौतियाँ और मुद्दे/राजनीतिक उदारवाद और राज्य
यद्यपि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, स्वतंत्रता प्राप्ति के समय, स्वाधीनता संघर्ष और उत्तर-औपनिवेशिक पुनर्स्थापना के समय का अग्रगण्य आंदोलन या दल अनिवार्य रूप से बना रहा, जिसका वैचारिक आधार मध्यम मार्ग बना। कई महान नेताओं का इसकी राजनीति में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा, जैसे नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और जयप्रकाश नारायण इत्यादि। कांग्रेस की अधिकांश विकासवादी योजनाएं इसी समूह के नेताओं द्वारा ही बनाई गईं, जो उदारवाद से लेकर माक्क्सवाद तक की विभिन्न विचारधाराओं से संबंधित थीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्वतंत्रता-पूर्व वैचारिक संघटक के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं-इसके लाहौर प्रस्ताव (1930) और कराची प्रस्ताव (1931)। ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारत शासन अधिनियम, 1935, के अंतर्गत इसकी प्रांतीय सरकारें बनीं। कांग्रेस अध्यक्ष, सुभाष चंद्र बोस ने जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में राष्ट्रीय योजना समिति(1938) की नियुक्ति की। यह पंद्रह सदस्यों की समिति थी जिसमें चार व्यापारी और उद्योगपति, पांच वैज्ञानिक, दो अर्थशास्त्री, एक इंजीनियर जिसने योजना पर पुस्तक लिखी थी, व तीन राजनीतिज्ञ थे। कराची प्रस्ताव में भावी भारतीय राज्य के अंतर्गत नागरिकों के राजनीतिक व आर्थिक अधिकारों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई, जिनका उद्देश्य मुफ्त प्राथमिक शिक्षा, नियमित वेतन, मजदूरों, बीमार, बूढ़े व्यक्तियों के कार्यस्थल की मानवीय स्थिति, बंधुआ मजदूरी पर प्रतिबंध, महिला मजदूरों की सुरक्षा, मातृत्व अवकाश, बाल मजदूरी पर प्रतिबंध, मजदूरों के अधिकारों का संरक्षण, उचित मशीनों की व्यवस्था, कृषि लगान में कमी, छोटे जमींदारों को छूट, मुख्य उद्योगों व खनिज पदार्थों पर राज्य का स्वामित्व, इत्यादि।
राष्ट्रीय योजना समिति के कार्य द्वितीय विश्व युद्ध के प्रकोप के कारण प्रतिबाधित हुए. प्रांतीय कांग्रेस के मंत्रिमंडलों का इस्तीफा और नेहरू की गिरफ्तारी इत्यादि घटनाएं हुई, किंतु पार्थ चटर्जी ने इसे 'कांग्रेस के एवं प्रमुख रूप से नेहरू के राजनीतिक नेतृत्व के प्रमुख घटनाक्रम के रूप में देखा है, जो राष्ट्रीय योजना के विचार पर आधारित था।
संविधान-निर्माण के पहले ही कांग्रेस के वामपंथी भाग का बोस के नेतृत्व में कांग्रेस से अलगाव हो गया, और बोस की असमय मृत्यु हो गई। कांग्रेस के समाजवादियों द्वारा संविधान सभा के बहिष्कार के बाद कांग्रेस का वामपंथ कमजोर हो गया। यह एक प्रमुख कारण था कि आर्थिक अधिकारों को राजनीतिक और कानूनी अधिकारों से नहीं जोड़ा गया व इन्हें राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों से जोड़ दिया गया। कराची प्रस्ताव (1931) में ये दोनों प्रकार के अधिकार एक साथ सम्मिलित थे।
नेहरू ने भारतीय राज्य में 1950 के उपरांत समाजवादी उद्देश्यों के नियोजित आर्थिक विकास की रणनीति की आर्थिक विचारधारा को केंद्र में स्थापित किया। भारतीय राज्य में विकासात्मक योजना के विषय में पार्थ चटर्जी ने राज्य की लोकतांत्रिक और विकासात्मक भूमिका के मध्य की दुविधा की ओर ध्यान आकर्षित किया है. जहां एक ओर भारतीय राज्य में आर्थिक विकासात्मक उद्देश्य के विभिन्न त्त्व हैं, 'जो औपनिवेशिक राज्य के चरित्र के प्रतिकूल हैं। वहीं दूसरी ओर, नौकरशाही को नए सामाजिक-आर्थिक उद्देश्यों के अनुरूप विकासात्मक प्रशासन द्वारा लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व की नीतियों के विकास करने का दायित्व दिया गया।
नेहरू-महालनोबिस मॉडल की आर्थिक विकास की रणनीतियां द्वितीय पंचवर्षीय योजना का आधार बनीं। औद्योगीकरण में राज्य की भूमिका को बढ़ावा दिया गया और राज्य को अर्थव्यवस्था के "आदेशात्मक शीर्ष" पर पहुंचाया गया। विकासात्मक रणनीति के मुख्य तत्त्व इस प्रकार थे : (i) विदेशी आर्थिक निर्भरता को न्यून करना व पूंजीवाद से स्वतंत्र आर्थिक विकास की ओर अग्रसर होना; (ii) शहरी क्षेत्रों में राज्य के नेतृत्व में पूंजीवादी विकास; और (ri) अर्ध-सामंती कृषि से पूंजीवादी कृषि की ओर यात्रा।
नेहरू की आर्थिक और राजनीतिक नीतियों में परिवर्तन व राज्य के उठाए कदम मुख्य रूप से अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू दबाव में लिए गए। नेहरू की प्रमुख उपलब्धि आत्मनिर्भर आर्थिक वृद्धि और राजनीतिक लक्ष्य की संसदीय व्यवस्था है। नेहरू के स्वयं के वैचारिक लोकतांत्रिक समाजवाद और साम्यवादी प्रभाव की झलक उनकी नीतियों में स्पष्ट रूप से दिखती है। नेहरू की अधिकांश नीतियां अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गुटनिरपेक्षता की थी, जिसमें भारत पश्चिमी व समाजवादी दोनों ही देशों से सैन्य व व्यापार बढ़ोत्तरी हेतु सहायता प्राप्त कर सकता था। नहरू का मुख्य ध्यान मूलभूत उद्योगों पर था, जिस कारण उपभोक्ता उद्योग, सेना, शहरी संरचनात्मक विकास और कृषि विकास इत्यादि पर ध्यान नहीं दिया गया। खाद्यान्न की आपूर्ति के लिए विदेशों पर निर्भरता, 1962 के चीन युद्ध में हार, शहरी जीवन शैली का दबाव, आदि कारक समस्या उत्पन्न कर रहे थे। राज्य के एकाधिकार वाले आर्थिक क्षेत्र का बढ़ता आकार घरेलू व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा में पिछड़ रहा था। इसके साथ ही, अर्थव्यवस्था की असफलता, गैर-संसदीय जन आंदोलन व संसदीय विपक्ष, संघ व राज्य विधायिकायों में बहुमत होने के बाद भी वैधता का संकट, आपातकाल से उत्पन्न हुआ संकट, प्रेस की स्वतंत्रता को समाप्त करने संबंधी निर्णय, नागरिक समाज और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध इत्यादि देश की राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था को कमजोर बना रहे थे अभिजात मानसिकता व जीवन शैली ने अभिजन तथा आम जनता के मध्य अंतर बढ़ा दिया। राज्य व नागरिक समाज, शहरी और ग्रामीण राजनीतिक अर्थव्यवस्था, नृजातीय और क्षेत्रीय समूहों के मध्य अंतर बढ़ता गया। इन विकृतियों के सुधार हेतु विभिन्न कदम उठाए गए। प्रथम, भोजन की कमी, सूखा और भुखमरी, विदेशी विनिमय से हुए घाटे से निपटने के लिए कृषि में 1960 के दशक के मध्य हरित क्रांति आदि आर्थिक विकास के मुख्य विषय बन गए। द्वितीय, 1962 में चीन से मिली हार ने सेना और सुरक्षा पर पुन: रणनीति बनाने पर विवश कर दिया, जिसके उदाहरण हैं-दक्षिण एशिया में भारतीय प्रभुत्व की स्थापना करना, बांग्लादेश की स्वतंत्रता में सफल योगदान, तथा श्रीलंका के गृहयुद्ध में आमंत्रित हस्तक्षेप। तृतीय, राज्य के आर्थिक क्षेत्र की अक्षमता उत्तरकालीन 1960 और 1970 के दशकों तक प्रकट हो गई, और उसके निवारण हेतु 1980 और 90 के दशकों तक में अर्थव्यवस्था का आर्थिक उदारीकरण किया गया, "लाइसेंस राज" को लचीला किया गया, अर्थव्यवस्था को भूमंडलीकरण के लिए खोला गया। चतुर्थ, औद्योगिक पूंजीवाद के आकार और आतंरिक विभिन्नता में वृद्धि देखी गई व विभिन्न स्तरों और लघु-उत्पादक उद्योगों पर क्षेत्रीय विभेद प्रकट हुए। भारतीय बहुराष्ट्रीय निगमों का तृतीय विश्व के देशों व अन्य क्षेत्रों में विस्तार देखा गया। पंचम, पूंजीवादी कृषि और मध्यम किसान राजनीति में भी उभार हुआ, राज्य की राजधानियों और नई दिल्ली में भी कृषक वर्ग उभरकर सामने आया। कृषकों के प्रभावी राष्ट्रीय संगठन बनाए गए. कृषि में आधुनिक तकनीक प्रयोग में लाई गई। षष्ठम, मुद्रास्फीति के क्षेत्र में मुख्य रूप से केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) घाटा कम करने हेतु सजग हुए। 1987-88 के बजट में घाटा 1/6 और सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) का 45 प्रतिशत भाग आया जो उच्च दर है, किंतु बहुत अधिक नहीं है। 1973 में पेट्रोलियम की कीमतों में अचानक वृद्धि से, भारत में तेल-आयात के लिए पश्चिमी एशिया और खाड़ी (Gulf) के नए बाजारों से लेन-देन का आरंभ किया। गया। भारत के व्यापारिक सहयोगियों के साथ संबंध समय के साथ बढ़ने भी। लगे व बदलने भी लगे। सन् 1985-86 में व्यापारिक घाटा अपने चरम पर कुल। सकल घरेल उत्पाद (GDP) का 37 प्रातिशत पर पहुंच गया था, किंत ,सुल में यह गिरकर कुल जीडीपी का 3.2 प्रतिशत हो गया और 1987-88 में नियंत । में उच्च वृद्धि होने से यह गिरकर 2.8 प्रतिशत हो गया।"
सप्तम, 1980 और उसके बाद के दशक में केंद्र सरकार के खिलाफ शक्तिशाली राज्य और क्षेत्रीय स्वायत्तता आंदोलन, प्रेस की स्वतंत्रता का विरोध इत्यादि अधिक होने लगे।