शासन : चुनौतियाँ और मुद्दे/लोकतांत्रिक शासन के सिद्धांत

1. सहभागिता सम्पादन

नीति निर्माण और राजनीतिक प्रक्रिया में जनसहभागिता को सुशासन में कंद्रीय महत्त्व दिया गया है। प्रारंभ में अंतर्राष्ट्रीय सहायता संस्थाओं द्वारा "परियोजना में सहभागिता" दृष्टिकोण के तहत देय संगठनों द्वारा प्रारूपित और क्रियान्वित परियोजनाओं में लक्षित जनसमृह की सहभागिता को बढ़ाए जाने पर बल दिया जाता था। तथापि यह उपागम वाद में संशाधित कर दिया गया। नए उपागम को गई सहभागिता की परिभाषा से समझा जा सकता है, "यह विश्व बैंक द्वारा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हिस्सेदार उन विकास कार्यों, निर्णयों और संसाधनों को निर्ंत्रित करते हैं जो उन्हें प्रभावित करते हैं" हिस्सेदार नीतियों के प्रारूप बनने और उनके कार्यान्वयन में भी अपनी सहभागिता बढ़ाने हेतु प्रोत्साहित किए जाते हैं। सहभागी विकास बिचार-संप्रदाय (participatory development school) का यह प्रयास रहता है कि विकास प्रक्रिया के प्रत्येक रतर पर अंतिम-लाभार्थी को अधिक-से-अधिक शामिल करे। इसके लिए 'विकास कर्ता के लिए विश्लेषणात्मक और जागरूक रूपरेखा का निर्माण करना जो निर्णायक जनमानस को लामबंद करने में सक्षम हो ' इस संदर्भ में जो कर्ता विकास प्रक्रिया के लिए समर्पित हैं और जो विकास के विषय में परिवर्तन की अपेक्षा रखते हैं वे "लोकतांत्रिक, न्यायसंगत और समावेशी" होते हैं।


यहां "सुलहकारी और विरोधी" (reconcilable and ireconcilable) विभिन्नताओं की भी पहचान की गई है। इसमें सुलहकारी पक्ष स्थानीय ज्ञान प्रतिमान को नीतियों के निर्माण और परियोजनाओं में महत्त्वपूर्ण आगत के रूप में स्वीकार करता है। जबकि, कई बार शक्ति की स्थानीय संरचना भी विकास कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में अवरोध उत्पन्न करती हैं जिससे कुछ समूहों को तो लाभ प्राप्त होता है, परंतु कुछ समूह लाभ से वाँचत रह जाते हैं। राजनीतिक परिवर्तनशील कारक को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि वित के विचार की शाखा में प्रतिरोध भी सहभागिता का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है इसे स्वीकृति भी प्राप्त है।


इनके बीच एक अन्य प्रमुख विभिन्नता को नेल्सन और राइट द्वारा दशां गया जो इस प्रकार है, 'सहभागिता एक साधन के रूप में (परियोजना के ल को निपुणता, प्रभावी तरीके से या कम खर्चे में पूरा करने) और सहभागिता एक लक्ष्य के रूप में (जिसमें समुदाय या समूह अपने विकास को नियंत्रित करने हे लिए प्रक्रिया का निर्माण करते हैं)। साधनों का शोधन/लक्ष्य का विरोधाभास दी सहभागिता के "यात्रिक उद्देश्यों" और "रूपांतरित उद्देश्यों" के मध्य का मेद है। सहायता प्राप्त (Donor) परियोजना में लोगों को शामिल करना (लागत को बांटना और समर्पण और परियोजना की स्थिरता को सुनिश्चित करना) "यांत्रिक" है और लोगों को उनकी प्राथमिकता के अनुसार निर्णय करने का सम्मान देना "रूपांतरिंत" हैं। एक तीसरा वर्गीकरण भी है जो भागीदारी के स्तर और प्रबलता का प्रतिनिधित्व एक सोढ़ी या सातत्य (continuum) के रूप में करता है। इस सातत्य के क्षेत्र में सूचना का आदान-प्रदान, विचार-विमर्श और संयुक्त निर्णय निर्माण से किया जाता है जिसमें हिस्सेदार कार्यों का सूत्रपात और नियंत्रण अपने अधीन रखता है।


स्वदंशी के संदर्भ में सहभागिता का सिद्धांत (Theories of participation in the indigcnous context) : स्वदेशी के संदर्भ में सहभागिता को प्राप्त करने का लक्ष्य मुख्य रूप से विकेंद्रीकरण द्वारा पंचायतीराज संस्थाओं की स्थापना से है। पूरा किया गया। भारत में सहभागी विकास को अंतर्ाष्ट्रीय बहसों के अंतर्गत, विकेंद्रीकरण को विविध प्रकार से परिभाषित किया गया और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा व्यवहार में लाया गया। फिर भी, यहां लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक व्यवहार में अंतर स्पष्ट किया जाना आवश्यक है। द्रेज और सन । लिखा है कि, "लोकतांत्रिक व्यवहार की आधारशिला को इस प्रकार देखा था सकता है, उदाहरण के लिए सुविधा (कार्यात्मक लोकतांत्रिक संस्थाएँ), भागीदारो (इन संस्थाओं के साथ जन अनुबंध की जानकारी) और समता (शक्ति की उचित वितरण) '


इसलिए वह कहा जाता है कि मात्र संस्थाओं के विकेंद्रीकरण से लोकतात्रिक कार्यात्मकता सुनिश्चित नहीं की जा सकती। स्थानीय शक्ति संरचना में सुधार के अभाव के कारण इन संस्थाओं में शक्ति पदसोपान और भी अधिक हो जाता है। उदाहरण के लिए, कई जनजातीय क्षेत्रों में पंचायतों पर स्थानीय अभिजात वर्ग अधिपत्य स्थापित कर लेता है। अत: शक्तियों के समान वितरण की अनुपस्थिति में विकेंद्रीकरण में मुख्य रूप से उपेक्षित वर्ग ही जनसहभागिता में पिछड़ जाता हैं। इसके पश्चात्, विकेंद्रीकरण ऊपर से ही आरोपित कर दिया जाता है, जो भ्रष्टाचार को बढ़ाता है तथा शासन की पारंपरिक संस्थाओं और व्यवहारों को दुर्बल कर देता है।


"स्थानीय लोकतंत्र का महत्त्व इस तथ्य में है कि यह उपेक्षितों को उपलब्ध हो और साथ ही राजनीतिक सहभागिता के विभिन्न प्रकार के अवसर प्रदान करे। सामाजिक परिवर्तन के लिए सामाजिक समता की शुरुआत करना तथा विभिन्न विकासात्मक कार्यक्रमों और स्थानीय लोक सेवाओं के लिए जन परीक्षण की अनुमति प्रदान करना आवश्यक हैं । द्रेजे और सेन वह तर्क भी देते हैं कि "स्थानीय लोकतंत्र" की संकल्पना सहभागी राजनीति की यांत्रिक भूमिका के अतिरिक्त मूलभूत भूमिका का भी निर्वहन करती हैं; जैसे कि यह जीवन की व्यक्तिगत गुणवत्ता को बढ़ाने में भी सहायक है। राजनीतिक कृत्यों और सहभागिता के परिणामस्वरूप मूल स्वतंत्रता को व्यवहार में लाने में मदद मिलती हैं, जिसका मूल्य समझना चाहिए।


यह एक बार पुन: हमारे समक्ष मानव अभिकरण (human agency) के प्रश्न को ले आता है।"मानव संस्था" क्या गठित करती है? सक्रिय सहभागिता में निर्णय निर्माण का तत्व शामिल किया जाता है। निर्णय निर्माण में किसकी सहभागिता होगी इस प्रश्न का सार्वभौमिक उत्तर है "लोग" (the peoplc)। इसकी संस्थागत संरचना ग्राम सभा को विधिक स्थिति उपलब्ध कराती है और इसकी निरयमित बैठक होती है। इस तरह जनता की सहभागिता को अर्थपूर्ण बनाने की दिशा में जिसमें "जनता की आवाज" (voicc) और नीति निर्माण की "सत्ताधारियों द्वारा सिखाई आवाज" में अंतर कर पाना कठिन होता है। जनता की आवाज ऑर सताधारियों द्वारा सिखाई गई आवाज में अंतर विशेषकर इस बात पर निर्भर है। कि किस सीमा तक विशेषज्ञ ग्राम सभा की कार्यवाही को प्रभावित करते हैं या ऐसा करने से स्वयं को रोक पाते हैं (कौन से नीति निर्णय स्थानीय समुदाय की आवाज की स्वीकृति के आधार पर होने चाहिए या बाह्य अभिकर्ता द्वारा सुत्रित निरणयों पर?) लोकतांत्रिक सिद्धांत इस दुविधा से निरंतर जूझ रहा है कि स्वदेशी के संदर्भ में स्थानीय ग्रामीण राजनीतिक समुदाय, जो व्यापक रूप से अशिक्षित है, को सहभागिता पर आधारित विकेंद्रीकृत स्थानीय विकास का लाभ कैसे मिले?


पंचायतीराज संस्था अधिनियम ने नागरिकों और समूहों को सामाजिक संसाधमें की प्रतिस्पर्धा के लिए नए अवसर प्रदान किए। यह अब तक उपेक्षित समहों और नागरिकों के लिए व उनकी मांगों को आगे बढ़ाने के क्षेत्र में राजनीतिक रूप से लाभकारी सिद्ध हुआ है। भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में पंचायतीराज संस्थाओं ने एक नए चरण का प्रारंभ किया जिसे "दूसरी हवा" (second wind) के नाम से जाना जाता है। सहभागिता विकास के संदर्भ में एक अन्य बहस भी प्रचलित है जिसमें कहा गया कि संस्थागत मार्ग को अपनाकर ही विकास को अधिक सफल बनाया जा सकता है। जिन व्यवस्थाओं का अब तक उल्लेख किया गया है वह पंचायतीराज व्यवस्था के शासन में त्रि-स्तरीय स्वरूप का ही प्रतिनिधित्व करते हैं; हालांकि, इसके समानांतर ही संगठनों का एक अन्य समूह भी था जिनमें संयुक्त वन प्रबंधन (JFM) समिति, ग्रामीण शिक्षा समिति ( VESS), जल उपयोग समिति (WUCS) इत्यादि प्रमुख हैं, जो पिछले पांच वर्षो में वित्त के क्षेत्र में लाभ की स्थिति में थे। ऐसे संगठन अंतर्राष्ट्रीय सहायता संस्थानों द्वारा नीतियों के क्षेत्र में विस्तार कर रहे हैं। समितियों से यह अपेक्षा की जाती थी कि यह स्थानीय सहभागिता को बढ़ावा देने के लिए कार्य संचालित करेगी । राज्य सरकारों द्वारा "बहु-आयामी विकास" (multi-pronged development) के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न वैकल्पिक समितियों को बढ़ावा दिया गया। यह भी देखा गया है कि कई बार समितियां संरक्षक वितरण को बढ़ावा देती हैं।


बहस का एक व्यापक रूप सामने आता है जिसमें व्यापक अंतर्द्वद्र देखा गया; इसमें एक ओर अंतर्राष्ट्रीय परियोजनाएं, जो समानांतर संगठन के रूप में कार्य करती थी, को विकास क्षेत्र में बढ़ावा दिया गया, वहीं दूसरी ओर वही कार्य पंचायतीराज संस्थाएं कर रही थीं जिसका अब तक स्वदेशीकरण हो चुका था। बहुत-सी समितियां सरकार से अनुदान प्राप्त करती थीं। जब परियोजनाएं और कार्यक्रम समितियों से निर्मित और कार्यान्वित होते हैं तो इन समितियों को विवेकाधिकार प्राप्त होता है। ये समितियां इसके द्वारा स्वयं को स्थानीय जनता के एक बड़े हिस्से से जोड़ता हैं और नेतृत्व और निर्णय निर्माण में सुधार करती हैं। इससे पंचायत विभिन्न क्षत्रं के भार से मुक्त होती है। यह समितियां मूलभूत आवश्यकताओं जैसे शिक्षा, जल सुविधा विकास, स्वास्थ्य इत्यादि के इर्द-गिर्द संगठित होती हैं और इसके द्वारा दिए गए क्षेत्र में विशेषज्ञता एवं उचित परिणाम की व्यवस्था की जाती है। इन समानांतर संस्थाओं द्वारा पंचायतीराज संस्था में भागीदारी आधार तैयार किया जाता है। इन कार्यक्रमों में पंचायत सह-सहायक की भूमिका निभाती हैं, जबकि इनक पारस्परिक व्यवहार के नियम और शर्ते स्पष्ट नहीं हैं किंतु यह अपेक्षा की जाता है कि ये स्थानीय निकाय सुचारू रूप से कार्य केंगे। इसके पश्चात् समितियों को एक संस्था के रूप में पंचायतीराज संस्था में सम्मिश्रित कर दिया जाता है जिससे सहभागिता को अधिक व्यापक और अर्थपूर्ण बनाया जा सके।


विकास की प्रक्रिया में पंचायती राज की भूमिका के महत्त्व को समर्थन देने वाले लोग समिति आधारित विकास की संपोषणीयता पर प्रश्न सखड़े करते हैं। उदाहरण के लिए, समिति प्राकृतिक संसाधन परियोजनाओं जैसे वन और जलविभाजक प्रबंधन के लिए पूंजी के साधन ना मिलने की स्थिति में प्रभावी रूप से कार्य नहीं कर पाती हैं। इन परियोजनाओं में ग्रामीण क्षेत्र की सहभागिता सिर्फ संपन्न सामाजिक-आर्थिक वर्ग तक ही सीमित होती है। अत: ऐसी परियोजनाएं मौजूदा सामाजिक पदसोपान को चुनौती देने के स्थान पर असमान सामाजिक संरचना को अधिक मजबूती प्रदान करती हैं। इसी कारण गैर-सरकारी संगठनों (NGOS) को इसमें सम्मिलित किया जाता है ताकि परियोजना की संपोषणीयता को स्थानीय सामाजिक-आर्थिक संरचना के साथ समाहित किया जा सके। गैर-सरकारी संगठनों के द्वारा विकासात्मक कार्यक्रगों में स्थानीय विवादों का निपटारा करने और सहभागिता को बढ़ाए जाने का कार्य किया जाता हैं। इस प्रक्रिया में उठाए गए प्रभावी कदमों में दीर्घकालिक समर्पण और निवेश की आवश्यकता होती है।


उपरोक्त तकों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समानांतर प्रशासनिक संरचनाओं की समितियों पर पुनः चर्चा की जानी चाहिए । समानांतर प्रशासनिक संस्थाओं और पंचायती राज संस्थाओं के बीच "संस्थागत संयोजन" (institutional linkages) पर कार्य करने की आवश्यकता है।

2. जवाबदेयता और पारदर्शिता सम्पादन

जवाबदेयता और पारदर्शिता लोकतांत्रिक शासन को बढ़ावा देने और सहभागिता के सिद्धांत को प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का नि्वहन करता है । विश्व बैंक की जबाबदेयता और पारदर्शिता की व्याख्या भ्रष्टाचार को कम करने के विषय में महत्त्वपूर्ण है। बैंक का ध्यान प्रमुख रूप से वित्तीय जवाबदेयता की और है किंतु साथ ही इस जवाबदेयता को विधायी, न्यायिक और प्रशासनिक क्षेत्र तक विस्तृत करने का भी तर्क देता है। राजनीतिक जवाबदेवता को दो नामों से समझा जा सकता है - "ऊर्ध्व जवाबदेवता" (vertical accountability) और क्षतिज जवाबदेयता" (horizontal accountability)। ऊर्ध्व जवाबदेयता शासित और शासक के मध्य होती है जिसे नियमित स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के द्वारा सुरक्षित किया जाता है। इससे इतर क्षैतिज जवाबदयता को सरकार की विभिन्न शाखाओं के बीच सुनिश्चित किया जाता है जिसे "संस्थागत नियंत्रण और संतुलन" (institutionalised checks and balance) के नाम से जाना जाता है तथा कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के संबंधों को शासित करती है


भारतीय संदर्भ में, ऊर्ध्व जवाबदेयता को स्वतंत्र और निष्पक्ष नियमित चनाके के रूप में स्थापित किया गया है। निर्वाचक लोकतंत्र के दायरे के अतिरिक्त जवाबदेयता को सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI) 2005 के द्वारा भी सुदृढ़ किया गया। पारदर्शिता और जवाबदेयता को ई-गवर्नेस या इलेक्ट्रॉनिक गवर्नेस को अपनाए जाने के पश्चात् लागू किया गया। इसने नौकरशाही के हस्तक्षेप को कम किया और उपलब्धता में वृद्धि की, शासितों तक सेवाओं को पहुंचाने में दक्षता को बढ़ाया और भ्रष्टाचार को कम किया। वर्ष 2006 में भारत के 12 राज्यों में ई-शासन (e-governance) की प्रभावशीलता हेतु एक अध्ययन किया गया जिसके अंतर्गत तीन कंप्यूटरीकृत क्षेत्रों-ड्राइविंग लाइसेंस, संपत्ति पंजीकरण और भू-राजस्व विभाग में उपलब्ध भूमि दस्तावेजों का आकलन किया गया। इसमें यह पाया गया कि भू-दस्तावेजों के कंप्यूटराइजेशन से रिश्वतखोरी के मामले में कमी आई है। जबकि लाइसेंस और संपत्ति पंजीकरण के मामले में भ्रष्टाचार में कमी न के बराबर देखी गई। एक अन्य अध्ययन के अंतर्गत यह तर्क दिया गया कि कंप्यूटरीकृत नागरिक सेवाएं राजनेताओं और ई-शासन (e-governance) में स्थानीय हिस्सेदारों से प्रभावित होती है। अध्ययन के समान वर्ष में ही, भारतीय सरकार के राष्ट्रीय ई-शासन (e-governance) कार्यक्रम का उद्घाटन किया गया जिसका लक्ष्य था इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से सामान्य सेवा केंद्रों (CSCS) पर नागरिक सेवाओं को पहुंचाना।

ई-शासन (e-governance) का व्यापक प्रयोग महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGS) के क्षेत्र में किया गया। यह योजना अधिकार आधारित ढांचे (काम का अधिकार) पर कार्यान्वित की गई; जिसमें ग्रामीण क्षेत्रं के वयस्कों को एक वित्तीय वर्ष में 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी गई जिसमें गैर-कुशल कार्यों पर बल दिया गया, किंतु इसे भी भ्रष्टाचार के मामलों ने खोखला कर दिया। इसमें गैर-प्रावधान और कार्य की अनुपलब्धता वेतन में विलंब और फर्जी जॉब कारडों जैसी विभिन्न घटनाओं के कारण इसकी आलोचना भी की जाती है। आंध्र प्रदेश (अविभाजित) राज्य में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के कार्यान्वयन हेतु आवेदन पत्रों के अध्ययन में यह बात सामने आई कि इस योजना में लगभग 90 प्रतिशत लोगों को इलेक्ट्रॉनिक वेतन ट्रांसफर और पेंशन अदायगी आधार पहचान पत्र (Aadhaar) पर आधारित थीा।