शासन : चुनौतियाँ और मुद्दे/विकास: विमर्श, मतभिन्नता और क्रियान्वयन

स्वतंत्र भारत की विकास रणनीति क्या होगी इस पर विमर्श 1930 के दशक में सुभाष चंद्र बोस की अध्यक्षता में गठित नियोजन समिति के साथ ही शुरू हो गया था। इसकी स्थापना जवाहरलाल नेहरू की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता के दौरान हुई। 1940 के दशक में बंबई के उद्योगपतियों ने बांबे प्लान प्रस्तुत किया, इसके अतिरिक्त श्रीमन नारायण ने गांधीवादी प्लान और एम. एन. राय ने पीपुल्स प्लान पेश किया, जिनमें आर्थिक विकास की अलग-अलग रणनीतियों की वकालत की गई थी।

मोटे तौर पर नवोदित भारत की जरूरतों जिसमें तीव्र आर्थिक विकास के साथ-साथ विकास उपलब्धियों का जनता में पुनर्वितरण महत्त्वपूर्ण चूनौती थी। इसके अतिरिक्त, अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अपना पक्ष भी स्थापित करना था। इसके लिए नीति निर्माताओं के समक्ष तीन महत्त्वपूर्ण विकास मॉडल थे-पहला, खुले व्यापार की उदारवादी नीति; दूसरा, समाजवादी नीति और तीसरी किंसियन वेल्फेयर स्टेट, जिसे सामाजिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम से भी जाना जाता है। खुले व्यापार की नीति के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था अपने कमजोर पूंजीवादी आधार के कारण तैयार नहीं थी। साथ हीं अपने तीव्र आर्थिक विकास के दावों के बावजूद इसकी खराब पुनर्वितरण क्षमता के कारण भी यह नहीं अपनाई जा सकती थी। समाजवादी मॉडल तीव्र आर्थिक विकास के साथ तीव्र पुनर्वितरण में सफल था जिसका उदाहरण सोवियत रूस द्वारा कम समय में इन उद्देश्यों की प्राप्ति के रूप में सामने था और जिसके प्रशंसक नेहरू भी थे; लेकिन सोवियत व्यवस्था के नागरिक अधिकारों की सुरक्षा में खराब रिकॉर्ड ने इसके प्रति मोह भंग कर दिया था। सामाजिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के धीमे विकास और कम प्रभावी पुनर्वितरण क्षमता के बावजूद लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था ने नीति निर्माताओं और खासकर नेहरू को काफी आकर्षित किया। साथ ही भारतीय नेतृत्व इस बात को समझता था कि आर्थिक निर्भरता राजनीतिक निर्भरता को निमंत्रण देती है। अतः अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अपनी पहचान सुनिश्चत करने और राजनीतिक संप्रभुता को बनाए रखने के लिए भी उदारवादी या समाजवादी माडल से एक दूरी निर्धारित करनी आवश्यक थी, जिसकी प्राप्ति इससे संभव था।

अत: भारत को अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता की प्राप्ति एक वृहत कृषकीय । आधार और अर्ध-सामंती सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के ऊपर करनी थी; जिसके । फलस्वरूप प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र में सुधारों पर विशेष ध्यान दिया। गया और जमींदारी उन्मूलन तथा भूमि सुधार कानूनों द्वारा गरीब और भूमिहान जनता को भूमि की उपलब्धता सुनिश्चित कर उनकी बेरोजगारी और गरीबी की समस्या के निवारण का प्रयास किया गया. लेकिन घरेल बर्जुआ और सामंती वर्ग ने नौकरशाही वर्ग के साथ मिलकर इन सुधारों की असफलता को सुनिश्चित किया जिनकी मजबूत पकड़ राजनीतिक तंत्र पर थी।' उल्लेखनीय है कि इन सुधारों की सफलता भारत की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता को सुनिश्चित कर सकती थी जो अवसर चूक गया, जिसका असर 1960 के दशक में देश में खाद्यान्न की भारी कमी के रूप में सामने आया।

तीव्र आर्थिक विकास और आत्मनिर्भरता का दूसरा आधार औद्योगीकरण था जो पूंजीगत वस्तुओं का घरेलू उत्पादन, आयात पर प्रतिबंध और विदेशी मुद्रा के संचय के रूप में हो सकता था, जिसके लिए आयात-प्रतिस्थापन वृहत औद्योगीकरण मॉडल के पक्ष की जीत हुई जिसे हम "महालनोबिस मॉडल" के रूप में भी जानते हैं। तर्क यह था कि वृहत औद्योगिक मशीनों का उत्पादन घरेलू तौर पर करके इनके आयात के लिए आवश्यक विदेशी मुद्रा की बचत हो सकती है। साथ ही, आर्थिक आत्मनिर्भरता को भी बढ़ावा मिलेगा क्योंकि औद्योगीकरण ही आर्थिक विकास का आधार है। दूसरी तरफ निजी पूंजीपति वर्ग के कमजोर आधार के कारण ज्यादातर उद्योगों की स्थापना और संचालन की जिम्मेदारी राज्य के ऊपर आ गई, जिसका क्रियान्वयन दूसरी पंचवर्षीय योजना से हुआ। इसके बावजूद कि इस मॉडल ने राजनीतिक संप्रभुता और लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ज्यादातर अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि यह मॉडल भारत के वाॉछित उद्देश्यों के पक्ष में नहीं था क्योंकि ऐसे औद्योगिक प्रतिष्ठानों का एक लंबा गर्भकाल होता है, जिसका असर लंबे समय बाद दिखता है और यह बड़े पैमाने पर रोजगारपरक भी नहीं होता. जिसका सीधा असर एक बड़ी गरीब जनसंख्या पर पड़ना था क्योंकि कृषि अब भी अविकसित थी।

प्रोफेसर फ्रैंकल ने भारतीय अर्थव्यवस्था में तीन महत्त्वपूर्ण पड़ावों की ओर ध्यान आकर्षित किया है: पहला, 1950 के अंतिम और 60 के आरंभिक दशक में खराब फसल और भुगतान संतुलन के संकट के परिणामस्वरूप मुद्रा का अवमूल्यन, व्यापार नीतियों में परिवर्तन और कृषि के विकास के लिए "हरित क्रांति" की नीति का अपनाया जाना; दूसरा, 1970 और 80 के दशक के मध्य व्यापार और औद्योगिक लाइसेंस की व्यवस्था को धीरे धीरे ढीला करना; और तीसरा, 1991 में सबसे बड़ा परिवर्तन जब नियंत्रण वाली व्यवस्था का त्याग कर अधिक खुली और बाजारोन्मुखी नीतियों का आरंभ हुआ

1950 के अंतिम और 60 के आरंभिक दशकों में खराब फसल और भुगतान संतुलन के संकट ने नियोजित औद्योगीकरण की रणनीति को संशोधित किए जाने की बाध्यता उत्पन्न की; क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश के संसाधनों के अभाव के कारण यह रणनीति अनुत्पादक हो गई थी। परंतु इसका त्याग नहीं किया गया जिसके पीछे अंतर्राष्ट्रीय और आंतरिक कारक जिम्मेदार थे। अंतराष्ट्रीय स्तर पर विश्व बैंक और अमेरिकी आर्थिक सहायता के वायदे के कारण ऐसा न हो सका। चीनी आक्रमण के समय अमेरिका द्वारा उपकरणों की आपूर्ति के वायदे और गैर-परियोजना सहायता के वायदे को पूरा न करना भी इसका कारण रहा। हालांकि "हरित क्रांति" इस वृहद सुधार के एक अंश के रूप में जरूर स्थायित्व प्राप्त कर सकी। आतरिक तौर पर कांग्रेस के अंदर इंदिरा गांधी का "सिंडीकेट" से संघर्ष ने नीतियों को वाम दिशा में मोड़ा। स्पष्टत: इंदिरा गांधी ने नेहरूवादी नीतियों की समुचित समीक्षा का अवसर गवां दिया और उसके स्थान पर आर्थिक नीतियों को और ज्यादा समाजवादी रुझान प्रदान किया बैंकों और बीमा का राष्ट्रीयकरण, प्रीविपर्स की समाप्ति जैसी नीतियां सामने आई हरित क्रांति की सफलता का एक महत्त्वपूर्ण प्रभाव यह हुआ कि विकास नीति की बहस से भूमि सुधार का प्रश्न लगभग समाप्त हो गया। समस्त बहस समुचित व्यापार नीति और उसमें भी आयात नियंत्रक नीतियों की प्रभावकारिता के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गई। इन्हीं नीतियों ने परिवर्तन का आधार भी तैयार कर दिया क्योंकि अधिकांश समितियों ने इन नीतियों में व्याप्त अक्षमता और भ्रष्टाचार को रेखांकित कर इन्हें बदलने की सिफारिश की। परंतु डेढ़ दशक बाद एक और भुगतान संतुलन संकट और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की ऋण शर्तों के बाद ही यह बदलाव संभव हुआ। जिसे हम नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था भी कहत हैो