शासन : चुनौतियाँ और मुद्दे/व्यापारिक/वाणिज्य उदारवाद और राज्य


भारत में 1991 का वर्ष आर्थिक नीतियों के प्रतिमान में व्यापक परिवर्तन के माड के रूप में सामने आया। अपवादस्वरूप, 1970 में भी विभिन्न कदम उठाए गए व औपचारिक रूप से 199। में आर्थिक उदारवाद की नीतियों को त्वरित किया गया। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार (1980 के उपरांत), राजीव गांधी (1984-89) और पी वी नरसिम्हा राव (1991-96) की सरकारें, नई आर्थिक नीतियों की दिशा में महत्वपूर्ण हैं। इनके पूर्व ही जनता पार्टी की सरकार (1977-99) द्वारा इन नीतियों की शुरुआत हो गई थी, राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा की सरकारों ने भी 1989 के बाद से इन नीतियों में परिवर्तन नहीं किया। इसके अतिरिक्त जब राव सरकार ने नीतियों के क्षेत्र में ज्यादा तेजी लाई तो यह अल्पमत की एकदलीय कांग्रेस सरकार थी जिसे राव ने "चाणक्य नीति" से व्यापक प्रतिपक्ष के मुद्दा-दर मुद्दा समर्थन से चलाया, पर अपने पांच-वर्षीय जनादेश के उत्तरार्द्ध में राव सरकार ने येन केन-प्रकारेण बहुमत हासिल कर लिया। पर तब इन्हीं सुधारों के कारण भी आर्थिक सुधर की गति और भी धीमी हो गई, क्योंकि उसी समय इसे विधान सभा के बुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा।


एक अर्थशास्त्री ने शुरू के सुधारों को " चोरी-छिपे आर्थिक सुधार" कहा। और एक अन्य अर्थशास्त्री ने 1990 के दशक के आर्थिक। नवउदारवाद के पैकेज को अर्थव्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तनवदी कहा। इस पैकेज के अंतर्गत दो उपांगों को भी सम्मिलित किया गया जिसमें अर्थव्यवस्था को अल्पकालिक स्थिरता और मध्यमकालिक और दीर्घकालिक संरचनात्मक समायोजन प्रदान करने करने का प्रयास था। बीर्स इसका सार प्रस्तुत करते हैं"-समायोजन के अंतर्गत रूपये का 20 प्रतिशत अवमूल्यन किया गया और सार्वजनिक खर्चों में कटौती गई (जैसे किसानों और कृषकों को अनुदान दिया जाना, वित्तीय घाटे पर नियंत्रण और विदेशी पूंजी का मुक्त संचरण) । संरचनात्मक समायोजन की नीतियों में शामिल हैं-मुक्त व्यापार, रूपये का स्वतंत्र विनिमय, औद्योगिक विनियंत्रण, सार्वजानिक क्षेत्र में विनिवेश, औद्योगिक और कुछ क्षेत्रों का पुनः निजीकरण जहां घाटा हो रहा हो, कीमतों की स्थिरता में उच्च स्वायत्तता, स्वतंत्र राष्ट्रीय व विदेशी बैंक क्षेत्र, उत्पाद शुल्क और सीमा शुल्क में कर सुधार, अधिक से अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को बढावा देना और तकनीकी और बाजार की उपलब्धता। विभिन्न कारकों ने आर्थिक उदारवाद की नीतियों को अपनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिसमें राज्य से बाजार की ओर मोड़ सामने आया है। बलदेव राज नायर तर्क देते हैं कि 1991 के नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों का वास्तविक कारण भारत के अपने राज्य-नियंत्रित या स्वामित्व वाली औद्योगिक रणनीति की असफलता है। यदि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक (World Bank) अपनी नीतियों के लिए दबाव भी डालें तो यह कहा जा सकता है कि, वह उन पर अधिक दबाव बना रहा है जो दरवाजे पहले से ही खुलने के लिए तैयार हैं। 'उत्तर-सुधारवादी चरण में भी भारत की आर्थिक स्वायत्तता विद्यमान थी तथा विश्व अर्थव्यवस्था में शामिल होना किसी बाह्य दबाव में नहीं था, बल्कि यह दबाव नगण्य ही था और स्वेच्छा से इसे अपनाया गया संजय बारु इसका वास्तविक अवलोकन करते हैं:

राष्ट्रीय संप्रभुता का जो चित्र प्रस्तुत होता है वह किसी एक रंग में रंजित और ना ही साम्रान्यवादी सत्ता पर विजय प्राप्त करने या उसके समक्ष झुकने से संबंधित है। इसमें कुछ धुंधली छवि सामने आती है, जो आतरिक और बाह्य हित की जटिल निर्भरता और अंतरनिर्भरता को उजागर करती है, जिसके परिणामस्वरूप उलझी हुई नीतियां उत्पन्न होती हैं।


भारतीय अर्थव्यवस्था अपने शुरुआती दौर में घरेलू उद्योगों के लिए वैश्वीकरण की शक्तियों के विरुद्ध सुरक्षात्मक अवस्था में थी। 1990 के दशक में आर्थिक उदारबाद का सूत्रपात हुआ जो 1960 के उत्तरार्द्ध से औद्योगिक क्षेत्र में गिरती हुए वृद्धि दर के कारण हुआ। सार्वजनिक निवेश में कमी, कृषि विकास के असमान और अक्षम स्वरूप ने मांग और पूर्ति के चक्र में मंदी ला दी। जैसा कि सुमित रॉय" लिखते हैं:

औद्योगिक उत्पादन वृद्धि दर 1951 से 1965 के मध्य 7 प्रतिशत से नीचे गिए गई और 1965-70 के मध्य के काल में यह 3.3 प्रतिशत थी, 1970-77 में यह बढक 4.8 प्रतिशत हो गई. किंतु यह 1979-80 में पुनः । प्रतिशत गिर गई। यद्यपि 1960 से कुछ उद्योगों में नकारात्मक वृद्धि देखी गई। कई अर्थशास्त्रियों द्वारा 1980 की वृद्धि दर के आधार पर प्रश्न भी उठाया गया।


उस समय आर्थिक विकास के लिए सार्वजनिक निवेश में गिरावट देखी गई। उस समय इंदिरा गांधी एवं जनता दल के शासन के चरण में केंद्र और विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय स्तर पर जन लोकतंत्र के स्वरूप में परिवर्तन देखा गया। 'भारतीय समाजवाद" अर्ध-सामंती, नवपितृसत्तामक राजनीतिक अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो गया।


यद्यपि, 1970 और 1980 के दशक में संघ और राज्य स्तर की लोक-लुभावनबाद की राजनीति के चरण में एक सकारात्मक प्रभाव देखा गया. जिसके अंतर्गत गरीबी में कुछ गिरावट देखी गई। 1970 के मध्य और 1980 के अंत के राष्ट्रीय सैंपल सर्वे (NSS) के आंकड़ों से ग्रामीण गरीबी में एक विकृतिकारी निशान (dent) देखा गया। यह प्रवृत्ति शुरुआती दशकों में स्पष्ट नहीं थी। हालांकि, यह तर्क भी दिया जाता है कि सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्र में उठाए गए कदमों और जन-गरीबी के स्तर में गिराबट के मध्य कुछ सकारात्मक सहसंबंध भी पाया जाता है। 1970 में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि देखी गई और 1980 में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से लिया गया ऋण, समाजवादी गुट सोवियत संघ (USSR) और पूर्वी यूरोप - के साथ व्यापरिक घाटा, 1980 में भारत में आयात-निर्यात और भुगतान के संतुलन में अपक्षरण, इत्यादि, महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम थे। पश्चिमी एशिया से तेल आयात से उत्पन्न समस्याएं, 1991 के मध्य आर्थिक नीतियों का प्रभाव आदि भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रह थे | निजीकरण और पूंजीवादी उदारीकरण में नई आर्थिक नीतियों और संरचनात्मक समायोजन के कार्यक्रम में नौकरशाही द्वारा विनियमन, आदि पूर्वत: निरयंत्रित अर्थव्यवस्था में वृहत परिवर्तन ला रहे थे। इन परिवर्तनों ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के काल के किंसियन राजनीतिक उदारकाद और पश्चिम के कल्याणकारी राज्यों की अवधारणा के जिसे भारत ने अपनाया था. कमजोर करना शुरू किया इस प्रवृत्ति ने 1970 में गति प्राप्त की और 1980 तक यह रूढ़िवादी, नव-परंपरावादी अर्थशास्त्रियों के मध्य हठधर्मिता के रूप में स्थापित हो गई। इसके अतिरिक्त, भारत में सापैक्ष आर्थिक हास पूर्व और दक्षिण-पूर्वी एशिया की अर्थव्यवस्थाओं में बाजारवादी अर्थव्यवस्था की सफलता ने नेहरू और इंदिरा गांधी की विकासवादी और राजनीतिक उदारवाद की सुधारवादी रणनीतियों को नव-उदारवादी आलोचना के लिए आसान शिकार बना दिया। भारतीय मतदाता 2010 और 2011 के चुनावों तक व उससे पहले मार्क्सवादी गाज्य सरकारों को हटाने में अनिच्छुक था व साम्यवादी संगठनों ने भी सरकारों का भाग बनाने में रुचि नहीं दिखा कर स्वयं अपनी सरकार बनाने में ज्यादा কचि ली थी। अपने अतीत से एक निर्णायक अलगाव संवैधानिक, सामाजिक, और आर्थिक कारणों से ना तो संभव है और ना ही वांछनीय है, वे ऐसा मानते थे। संवैधानिक रूप से यह कहा जा सकता है कि भारत मात्र एक अर्थव्यवस्था ही नहीं, बल्कि एक राज्य (polity) भी है, एक लोकतंत्र भी है। जैसा कि चटर्जी" लिखते हैं:

'वह प्रमुख संदर्भ जिसमें भारत में योजना को अपनाया गया, पूंजी संचयन को वैधता के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए, ऐसा माना गया 'सरकार के प्रतितिनिधि स्वरूप को अपनाया गया जो सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित है; वह राजनीतिक शक्ति के प्रयोग को प्रभावित करता है. राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत के आर्थिक उद्देश्य भी इसके भाग थे। 'यह दो उद्देश्य संवयन और वैधीकरण भारत में योजना के दो निहितार्थ उत्पन्न करते हैं। एक ओर, योजना में अनावश्यक औद्योगिक परिवर्तनों को अनदेखा किया जाने का प्रयास किया गया क्योंकि यह भारतीय जनता को प्रभावित करता है। वहीं दूसरी ओर, योजना उपमहाद्वीप व्यापकता और विजातीय विवादों के समाधान का 'एक सकारात्मक यंत्र बन गया है।


उदारवादी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में किसी भी आर्थिक नीति-निर्माण में यह दो विशेषताएं अनिवार्य रूप से पाई जाती हैं। लोकतंत्र और पूंजीवाद के मध्य के विवाद के विषय में हेबरमास ने टिप्पणी करते हुए यह समीक्षा की है : यह विरोधाभास स्पष्ट है कि यदि विकसित पूंजीवाद लोकतंत्र में दल शक्ति प्राप्त करना अथवा सत्ता में बने रहना चाहते हैं तो, उन्हें निजी निवेशकों और आम जनता के विश्वास को एक साथ सुनिश्चित करना होगा।'


समाजशास्त्रीय रूप से, भारतीय समाज का शक्तिशाली वर्ग संपूर्ण वैश्विक आर्थिक उदारीकरण का विरोध कर सकता है; जबकि आंतरिक नौकरशाही के विनियमन का मार्क्सवादी राजनीतिक दलों के अतिरिक्त सभी खुले रूप से स्वागत करते हैं. और अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण का सामान्यतया नौकरशाही, राष्ट्रीय बुर्जुआवादी वर्ग, कृषकों, श्रमिकों द्वारा विरोध किया गया। भारतीय राज्य की आर्थिक नीतियों के अंतर्गत सामूहिक हितों का ध्यान रखा जाना राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था व इसके सकारात्मक परिणामों की अपेक्षा की गई। क्षेत्रीय बुर्जुआवादी, अमीर किसानों और संपन्न श्रमिकों के द्वारा वैश्वीकरण का प्रारंभ में समर्थन किया गया। राष्ट्रीय बुर्जुआवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले समूह फिक्की , फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रो) और विदेशभक्त बुर्जुआ के प्रतिनिधि ऐसोचेम, एसोसिएटेड चेंबर्स ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री इन इंडिया) (दोनों ही विदेशी निवेश और तकनीक और उदारवाद के आयात का समर्थन करते हैं)। बारु इसका गहन अवलोक करते हुए कहते हैं कि:

सभी व्यापारी वर्गों को विदेशी पूंजी का भक्त नहीं कहा जा सकता है। पिछले पचास या साठ सालों के वास्तविक ऐतिहासिक अनुभव भी इस निष्कर्ष का विरोध करते हैं। इसकी सरल व्याख्या इस बात से भी की जा सकती है कि बड़े व्यापारी अपने हित के लिए उदारवाद मुख्य रूप से बाह्य उदारीकरण से मिलने वाले अव्सरों से लाभ उठाने में इच्छुक रहे हैं; इसमें अपने व्यापार का पुनर्गठन, तार्किकीकरण और अपने उद्योगों को पुन: व्यवस्थापित करने की क्रियाएं शामिल हैं।

वह आगे कहते हैं।

भारत सरकार ने भारतीय व्यवसायों को तकनीकी रूप से सक्रिय बनाने के लिए विवश करने की जापान और दक्षिण कोरिया की सरकारों की तरह, सशक्त नीतियों को नहीं अपनाया। परिणामस्वरूप, भारतीय उद्योग नई तकनीकों को तभी प्राप्त कर सकते हैं, जब वह आत्मनिर्भर बन जाएं और आर्थिक उदारवाद से प्राप्त अवसरों का तकनीकी आधार सुदृढ़ बनाने में भलीभाति उपयोग करें। यदि यह विदेशी पूंजी के साथ समझौते के लिए अनिवार्य है तो वे इसे भी इच्छा-अनिच्छा से मान लेंगें।"


अत:, यह स्वराज और स्वदेशी विचार के लिए एक अनुकूल आर्थिक दृष्टि होगी कि राज्य अर्थव्यवस्था में आंतरिक और बाह्य दोनों ही प्रकार से उच्च प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दे, व इसे आर्थिक विकास और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के आयोजक तथा संकेतक योजनाकार के रूप में बाजार-अनुकूलन में सहायक की भूमिका का निर्वहन करे।


भारत के समक्ष राज्य के नेहरूवादी "समाजवाद" की असफलता आर आगामी चरण में बाजारवाद की भी संभावित असफलता को रोकने का का्था , क्योंकि क्षेत्रीय व सामाजिक विषमता लगातार बढ़ती जा रही थी वतमान व लिए, समस्या का विषय है छद्म-समाजवाद और छद्म-लोकतंत्र से हीने थाल नकारात्मक आर्थिक परिणाम। भारत और चीन की अर्थव्यवस्था के तुलनालमन अध्ययन से यह स्पष्ट है कि 'चीन की क्रांति ने लोकतंत्र के लिए आधार बनाया जो अब फल-फूल सकता है, जबकि भारत में लोकतंत्र का प्ण-समूह भूमि पर धूप पड़ने से रोक कर विकास को बाधित कर रहा है। तृणमूल को पालन पोषण की आवश्यकता है।


व्यापारिक उदारवाद और वैश्विक पूंजीवाद के साथ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का एकीकरण चुनौतियों के साथ-साथ अवसर भी उपलब्ध करता है। आर्थिक विकास से मिलने वाले लाभ और दीर्घकालिक अर्थव्यवस्था के लिए भारी मात्रा में सामाजिक और पर्यावरणीय कीमत चुकानी पडती है। सामाजिक कीमत के अंतर्गत देखा गया कि सरकार के सार्वजनिक व्यय में कमी आई है जिसने समाज के गरीबों, पिछड़े क्षेत्रों के लोगों और कमजोर वर्गों को प्रताड़ित किया है। निजी निवेश हरित चारागाह पसंद करता है तथा धनाढ्य वर्गों को फायदा पहुंचाता है इससे विभिन्न समस्याओं का भी जन्म हुआ।


नई आर्थिक नीतियों के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों, समृद्ध शहरी और मध्यम वर्ग, शहर के निम्न वर्गों और गांव के गरीबों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रभाव पड़े हैं। पामेला शुर्मेर स्मिथ के दो कथन इन बिंदुओं को भली प्रकार से स्पष्ट करते हैं:

1. भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की जो स्थिति पाई जाती है, उसमें केवल राज्य ही निवेश कर सकता है., जबकि उदारीकरण की नीतियों में अधिकाधिक बाजार-केंद्रित उपागमों की आवश्यकता होती है। बाजार भूमि-सुधार हेतु प्रयास नहीं करता, जबकि उसकी अधिक आवश्यकता है; ना ही वह विस्थापित व्यक्तियों को क्षतिपूर्ति-हेतु भूमि दिए जाने को सुनिश्चित करता है। यह सभी स्थितियां इस बात को दर्शाती हैं कि नकद पैदावार अधिक से अधिक भूमिहीन व्यक्तियों की संख्या का विस्तार करेगी, ऋणग्रस्तता को बढ़ाएगी और जल के लिए प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करेगी। "

2. भारत के शहरी क्षेत्र की वृद्धि प्रतिवर्ष 3 प्रतिशत की दर से हो रही है; इसकी आधी वृद्धि प्राकृतिक रूप से हुई, व शेष आधी ग्रामीण-से- शहरी पलायन के रूप में हुई है। कृषि संपन्न क्षेत्र जैसे पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों में तेजी से वृद्धि देखी गई। गाजियाबाद, मेरठ, मुजफ्फरनगर आदि ऐसे शहर हैं जो महानगर बनने की ओर अग्रसर हैं जिनमें नए उद्योग स्थापित हो रहे हैं। इनके लाभ की स्थिति में होने का एक कारण यह रहा है कि कृषि पूंजी, सामंती राजनीति, और रोजगार संरचना, स्वास्थ्य व सुरक्षा और प्रदूषण-नियंत्रण के नियमों में ढील का अच्छा मिश्रण था।

इन दोनों ही संदर्भों में, राज्य के हस्तक्षेप की अनुपस्थिति ने बाजार के डार्विनवाद को पनपाया एवं अपराध और हिंसा को बढ़ावा दिया।

अपने प्रारंभिक रूप में भारत में नव-उदारवादी विचारधारा, नौकरशाही का नियमन और निजीकरण को अपनी पूर्वकालिक स्थिति से निकलने के मार्ग के रूप में देखा गया। दक्षिण भारत के एक अध्ययन के अंतर्गत उपर्युक्त जटिल । परिवेश और मूल दुविधा की स्थिति सुचित्रित रूप से सामने आती है

समकालीन भारतीय संदर्भ में राज्य और बाजार के संबंध के विषय का। अध्ययन करने वाले लेखक व्यावहारिक उपागम का प्रयोग करते हैं। एम. एन. श्रीनिवास और जी. एस. अरोड़ा ने निष्कर्ष के रूप में व्याख्या की है। उन्होंने । संरचनात्मक सामंजस्य का स्वागत किया जिससे राज्य की भूमिका में कटौती । और राजस्व संबंधी नीतियों को मुख्यधारा से जोड़ा गया। किंतु इन्होंने यह भी कहा कि ना सिर्फ अर्थव्यवस्था बल्कि राजनीतिक और नागरिक समाज के नवीनीकरण की भी आवश्यकता है, और "मानवीय विकास के उद्देश्यों" पर बल दिया। कुछ अन्य विश्लेषकों ने भी राजनीतिक आर्थिक परिवर्तन की व्याख्या को रेखांकित किया कि (1) अधिकारितांत्रिक राज्य से बाजार-नियामक राज्य में बदलाव और (ii) संसदीय-प्रधान व्यवस्था से संघीय-प्रधान राजनीतिक व्यवस्था की ओर परिवर्तन की जरूरत है।"