शासन : चुनौतियाँ और मुद्दे/संस्थागत परिवर्तन

1. राज्य की भूमिका

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सर्वप्रथम 1950 और 1960 में "आधुनिकीकरण" के सिद्धांतकारों ने विकास की प्रक्रिया में राज्य की केंद्रीय भूमिका का उल्लेख किया । इन सिद्धांतों में विकासशील देशों में "राज्य-कृत" विकास को प्रधानता दी गई। हालांकि, इस सिद्धांत में लोकतंत्र विकास की पूर्व-शर्त नहीं थी लेकिन राजनीतिक लोकतंत्र को समाज में परिवर्तन के अभिकरण के रूप में देखा गया। 1980 के दशक में, नव-उदारवादी सिद्धांतों में पुनर्वितरण और आर्थिक वृद्धि को बढ़ाने के लिए सीमित राज्य और बाजार की व्यापक भूमिका का तर्क दिया गया; जबकि 1990 के दशक में, दाता अभिकरणों द्वारा गैर-राज्य कर्ताओं, और स्थानीय स्तर के शासन पर अधिक ध्यान दिया गया। यह भी शीघ्रता से समझे आ गया कि प्रभावी सुशासन के लिए राज्य अनिवार्य है। विश्व बैंक" तधा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की रिपोर्ट में भी इस तथ्य को अफ्रीकी ऑर अन्य विकासशील देशों में आर्थिक सुधारों की असफलता के संदर्भ में रेखोकित किया गया था। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि लोकतंत्र आर्थिक विकास लाने के लिए अनिवार्य है जबकि इसे विकास के परिणाम के रूप में नहीं देखा जा सकता। सुधारों की पहली पीढ़ी समप्टि-अर्थव्यवस्था का स्थायित्व और जदारवादीकरण तथा दूसरी पीढ़ी में राज्य और संस्थागत सुधार को शामिल किया गया।

लोकतंत्र का विचार जिसे बढ़ावा दिया जा रहा था वह उदारवादी, कानून के शासन पर आधारित और लोकतांत्रिक अधिकारों और सहभागिता, जवाबदेयता और पारदर्शिता से युक्त प्रतिनिधि लोकतंत्र है।

सुशासन की व्यापक कार्यसूची के संदर्भ में रान्य की भूमिका को दो प्रकार से देखा जा सकता है। प्रथम, राज्य बाजार को निपुणता से कार्य करने हेतु विधिक और संस्थागत ढांचा उपलब्ध कराए। द्वितीय, राज्य बाजार आधारित अनियमितताओं को सही करने और क्षतिपूर्ति के लिए कदम उठाए व विभिन्न लोक सेवाएं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा और आधारिक संरचना उपलब्ध कराए । इससे शिक्षित कार्यक्षगता और उचित गुणवत्ता वाली आधारिक संरचना विकसित होगी, जो बाजार निवेश को आकर्षित करने के लिए अनिवार्य है। अत: जहां आर्थिक सुधार और संरचनात्मक कार्यक्रमों के द्वारा सीमित राज्य को बढ़ावा दिया जा रहा था, वहीं सुशासन की अवधारणा के अंतर्गत राज्य को पुन:परिभाषित कर उसे सक्रिय भूमिका प्रदान की गईं। ऐसा इसलिए किया गया था कि राज्य के कार्य एवं क्षेत्र को कम कर दिया गया, किंतु राज्य की क्षमता को बढ़ा दिया गया। यह भी व्यवस्था की गई कि राज्य हित समृहों के नियंत्रण व प्रभाव से स्वतंत्र रहे ताकि इसे "गिरफ्त" में ना लिया जा सके। जयाल" ने कहा, कि सुशासन राज्य के वेबेरियन विचार पर आधारित है वयोंकि बह प्रमुख रूप से "दक्षता, नियम और संस्थाओं" को बढ़ावा देता है। राज्य को "विस्तृत सरकार" के बिना "विस्तृत शासन क्षमता" के रूप में देखा जाता है। इसने दो प्रकार के विरोधाभासों को जन्म दिया आंतंरिक विरोधाभास एक और राज्य के आकार और हस्तक्षेप को संकुचित करने पर आधारित है, वहीं दूसरी ओर, राज्य की क्षमता में वृद्धि पर बल दिया गया। बाह्य विरोधाभास से यह प्रतीत होता है जहां सुशासन में लोकतांत्रिकरण, मानव अधिकारों के प्रति सम्मान, वहुल राज्य, बहु-दलीय व्यवस्था, जवाबदेयता और पारदर्शिता शामिल है, इसके साथ ही यह अपेक्षा भी करता है कि राज्य सामाजिक हितों से स्वतंत्र रहे। साराह जोराफ लिखती हैं, "अब संगठित सामाजिक हितों के द्वारा राज्य की स्वायतता प्राप्त करने पर बल नहीं दिया जाता लेकिन अब राज्य, व्यापार और नागरिक समाज के अन्य तत्त्वों या जिसे कई बार "सन्निहित स्वायत्तता" भी कहा जाता है, उसके क्षैतिज संयोजन से राजनीति द्वारा निर्णय-निर्माण के दृष्टिकोण का निर्माण किया जाता है"।"


व्यवहार में, पूर्वी एशिया के विकासात्मक देशों जैसे-दक्षिण कोरिया और, ताइवान को "चमत्कारी अर्थव्यवस्थाएं" कहा जाता। जिसे व्यावहारिक रूप में "सौम्य सत्तावादी" के रूप में जाना जाता है। ये सभी राज्य सुशासन के कई लक्षणों को पूरा करते हैं जैसे राज्य क्षमता, संगठित हितों के साथ ही समर्पित राजनीतिक अभिजात वर्ग और नौकरशाही की स्वायत्तता। इनका इस प्रकार भी चरित्र चित्रण किया जा सकता है, ..परक राजनीतिक व्यवस्था जिसमें लघु-लोकतांत्रिक आंदोलनों को दबा दिया जाता है और छदम-संसदात्मकता व्यवहार में लाई जाती है भारतीय राज्य की लोकतांत्रिक प्रकृति औपचारिक लोकतंत्र के सभी लक्षण पूरे करती है जैसे बहुलवादी राजनीतिक व्यवस्था, नियमित और प्रतिस्पर्धी चुनावों द्वारा निर्वाचित विधायिका, स्वतंत्र न्यायपालिका एवं स्वतंत्र पत्रकारिता। इसके बाद भी भारत पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाओं के समान आर्थिक वृद्धि नहीं कर पाया है। भारत के विषय में यह कहा जा सकता है कि,


भारत का अनुभव यह स्पष्ट करता है कि यहां के लोकतंत्र को समृद्धि में नई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अलावा यह भी रपष्ट होता है कि यहां सरकार के रूप और निपण सरकार की विशेषमताओं और आयामों; जवाबदेवता, पूर्वानुमान, और कानून का शासन के बीच स्मष्ट विभेद का अभाव देखा गया है। जवाबदेवता का अस्तित्व भारत में औपचारिक रूप से पाया जाता है। हमें " भ्रष्टो को बाहर करने" का अधिकार है और यह प्राय: किया भी जाता है। किंतु जवाबदेयत का क्षय हो रहा है जिसके लिए विभिन्न उत्तरदायो कारव इस प्रकार हैं - मतदाताओं के पास सही विकल्प को कमी होने; चुनानों की गारी लागत (जिसने प्रतिनिधियों को व्यापारिक वर्ग पर निर्धर वगा दिया है जो सरकार में भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण है); अभिजात वर्ग की कृटिलता; अपराधियों और राजनीतिजञों के नध्य गटजोड़; अष्ट नौकरशाही का अपने ही उद्देश्यों में लीन रहना; और अति-केंद्रित राजनीतिक संरचना जिसने शासक और शासितों के मध्य दुरी उत्थन्न कर दी है"।

इसके अलावा, भारत में उदारवादी अर्थव्यवस्था, जिसे कोहली ने भारत में "द्वि-मार्गीय राजनौति" की शुरुआत कहा है, में लाकतन मात्र निर्वाचक क्षेत्र तक सीमित रह गया है और सरकार अलोकप्रिय आधिक नीतियों का निर्माण कर रही है।" स्पष्ट रूप से भारतीय राज्य की भूमिका सुशासन की इस संकल्पना के अंतर्गत विवादित ही रही है तथापि राज्य सुशासन का के प्रकार से स्थापित कर सकता है- एक विकेंद्रीकरण व दूसरा नागरिक समाज । संगठनों से साझेदारी के द्वारा।

73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के द्वारा विकेद्रीकरण लोकतांत्रिक शासन को बढ़ावा देने में राज्य का एक महत्त्वपूर्ण कदम था; जिसमें स्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था की स्थापना की गई। रान्य के साथ साझेदारी के विपण में, जगाल ने कहा कि यह दो प्रकार से कार्यान्वित हो सकता है। प्रथम, राज्य कृत प्रयास किए, जाएं जैसे संयुक्त वन प्रबंधन (IFM) जिसमें स्थानीय समुदायों को वन उपयोग,संरक्षण और प्रबंधन में हिस्सेदार बनाया जाए। द्वितीय, स्थानीय समुदायों के द्वारा नेतृत्व किया जाना चाहिए। साथ ही लोकतंत्रिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लोगों को लोकतांत्रिक व सहभागी रूप से संगठित करना चाहिए। इसी का एक उदाहरण है तरुण भारत संघ, जिसका नेतृत्व राजेंद्र सिंह ने किया और सूखास्त पूर्वी राजस्थान में पारंपरिक प्रक्रिया से जल ग्रोतों को फिर से जीवित करने में सफलता प्राप्त की।"


2, नागरिक समाज की भूमिका

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नागरिक समाज ने पिछले लगभग तीन दशकों से भारत में सुशासन को प्रात्साहित करने और लोकतांत्रिक विकास को वढ़ाया देने में एक निर्णायक भूमिका निभाई है। नागरिक समाज की प्रभावी भूमिका ने सरकार को नीति निर्माण और उसके कार्यान्वयन में जवाबदेय बनाया है। नागरिक समाज में स्वतंत्र आर्थिक और सामाजिक शक्ति के सोत सम्मिलित हैं जो सरकार के कार्यों की पड़ताल करने में सक्षम हैं। जैसा कि जेन्किंस ने लिखा है, नागरिक समाज सार्वजनिक जगत का कार्यक्षेत्र और निजी कर्ताओं का समुच्चय है। विदेशी सहायता संस्थानों द्वारा इसके लिए जो शब्दावली बृहत रूप से प्रयोग की जा रही है उसे, "शासन और लोकतांत्रिक क्षेत्र" कहा जाता है और इसमें नागरिक सगाज संस्थाएं, उसके कार्यकर्ता एवं राजनीतिक कार्यक्षेत्र, जिसमें यह क्रियाशील है, सभी शामिल हैं इनका लक्ष्य होता है व्यक्तिगत अधिकारों को बढ़ावा देना, जिससे व्यक्ति नागरिक संघों का सदस्य बने और लोकतांत्रिक सहभागिता और सरकारी जवाबदेयता को बढ़ाया दिया जा सके। लोकतंत्र को मजबूत बनाने में नागरिक समाज की भृमिका को सारांश में इस प्रकार बताया जा सकता है: '(1) प्रतिस्पर्धी राजनीति में संक्रमण, (2) अनुभवहीन लोकतंत्रों का "समेकन", और (3) बाजार- आधारित आर्थिक नीतियों की स्थापना और परिणामस्वरूप सकारात्मक विकासात्मक प्रदर्शन नागरिक समाज को सुदृढ़ बनाने के लिए संभावित नागरिक समर्थक समूह जैसे श्रमिक संघ, पेशेवर निकाय और पर्यावरणीय समृह की पहचान करना आवश्यक है। जेन्किंस के अनुसार, नागरिक समाज के संगठनों पर अंकुश, बाजार के उस तर्क के विपरीत जाएगा, जो सहायता अभिकरणों को निर्देशित करता है तथा यह भी मानता है कि बाजार ही संसाधनों का सर्वोत्कृष्ट वितरण करता है। जब यह तर्क नागरिक समाज के संगठनों पर लागू किया जाता है तो यह स्पष्ट होता है कि कुछ। समूहों और संगठनों को आधार बनाने और अन्य को नजरअंदाज करना लोकतांत्रिकरण को बढ़ावा देने का समावेशी माध्यम नहीं है क्योंकि यह "राजनीतिक बाजार विकृत कर देगा। नागरिक समाज के ऐसे बहिष्कृत समूह एवं संगठन भी शक्तिशाली पक्षों (lobbies) और हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं, हालांकि, यह भी आवश्य नहीं की ये समूह स्वयं लोकतांत्रिक संस्थाओं और व्यवहारों का समर्थन को द्वितीय, अंतर्राष्ट्रीय सहायता अभिकरण प्राय: उन संस्थाओं को भी प्रयोग में लाते हैं जो आदिम पहचानों पर आधारित होते हैं, जैसे संजातीय समूह, जो लोकतांत्रिक संक्रमण के उद्देश्य से सत्तावादी व्यवस्था को चुनौती देते हैं; किंत बाद में इन्हें लोकतांत्रिक समेकन की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाता। हालांकि, ऐसे संगठन च्यवस्था में अपनी हिस्सेदारी बनाए रखते हैं और इसलिए उन्हें लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया से अलग नहीं रखा जा सकता है। एक विशिष्ट विषय के रूप में संयुक्त राज्य अंतर्राष्ट्रीय क्कास अभिकरण (LSAID) का उदाहरण देते हुए जेन्किंस ने लिखा है कि यह अपने नागरिक समाज की परिभाषा में राजनीतिक दलों को शामिल नहीं करती यूएसऐड ने राजनीतिक दलों को "राजनीतिक समाज" का भाग माना क्योंकि शक्ति पर प्रभाव डालने की अपेक्षा उसे अपने नियंत्रण में लेना चाहती हैं। उदाहरण के लिए पोलैंड के एकता आंदोलन ने दाता समुदाय के अंतर्गत नागरिक समाज की संभावनाओं में रुचि उत्पन्न की जो विभिन्न संगठनों और निर्देशित प्रचलित नेतृत्व पर आधारित था इस परिभाषा में भारत के विषय का भी उल्लेख किया गया है और यह तर्क दिया गया है कि राजनीतिक दल आर्थिक सुधारों तक पहुंचने और उसे शुरू करने में इसलिए समर्थ हैं क्योंकि यह संगठित गुटों के निवेदन और सामाजिक पहचान पर आधारित गतिशील समूहों के दबाव से स्वयं को मुक्त कर लेते हैं। जैसा कि जेन्किंस ने लिखा है कि,


यह एक विशेष प्रकार के नागरिक समाज का अस्तिल्व हैं: जिसमें संजातीय राजनीति बैसे हो संगठित और प्रातिस्पर्थी दलीय राजनीति से बुड़ी है जैसे परंपरगज कार्यात्मक संच - जो राज्य को अनुमति देता है कि यह शक्तिशाली हितों के "गिरप्त (capture) से सुशासन से संबंधित नोतियों को मुक्त रखे"


इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि राजनीति नागरिक समाज संगठनों के कार्यान्वयन से जटिलतापूर्वक संबंधित है और सुशासन को बढ़ावा देने के लिए उनकी क्षमता को भी प्रभावित करती है। ह्ें उस पहलू पर भी अवश्य ध्यान देना चाहिए जिसमे नागरिक समाज सगठनों के द्वारा रज्य के कार्यों का सफलतापूर्वक संचालन किया जाता है, जिसे "राज्य द्वारा दिए, गए विशेष विक्रय अधिकार" (tranchising the statc) कहा जाता है। जहां एक ओर भारत में कई गैर-सरकारी संगठनों (NGOS) की स्थापना हो रही है जिनमें से कई के कार्यो में जवाबदेयता और विश्वसनीयता की समस्या बढ़ती जा रही है, वहीं इनमें से कुछ अपवाद भी हैं जैसे मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS), जिसने राजस्थान में सूचना के अधिकार (RTI) के अभियान का नेतृत्व किया जो बाद में संसद के अधिनियम द्वारा कानून बन गया।