शासन : चुनौतियाँ और मुद्दे/सहभागिता, जवाबदेही और पारदर्शिता
सहभागिता एक द्विपक्षीय प्रक्रिया है, जिसमें एक ओर सामान्य नागरिक एवं दूसरी ओर शासकीय अभिकरण की सहभागिता आवश्यक है। सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए सत्ता का विकेंद्रीकरण एवं ऐसे प्रशासनिक सुधारों की जरूरत होती है, जिससे आम आदमी सहजता से नीति निर्माण की प्रक्रिया से जुड़ सके और नीतिगत उद्देश्यों से लाभ उठा सके। लोगों की प्रशासन तक सरल एवं सहज पहुंच को सुनिश्चित किया जा सके तथा प्रशासन की जन सेवा प्रदायगी की जवाबदेही भी तय की जा सके। भारत में प्रशासनिक सुधार आयोगों की संस्तुतियों एवं संविधान के 73वें व 74वें संशोधन द्वारा इस दिशा में पहल की गई है।
नव-उदारवादी आर्थिक सुधार के काल में जहां राज्य लोक कल्याणकारी जवाबदेहियों से पीछे हट रहा है, वहीं सुशासन की अवधारणा के तहत राष्ट्र-राज्य की जवाबदेही बनती है कि वह अपने नागरिकों को प्रभावी, सुचारू और संगतपूर्ण वस्तुओं व सार्वजनिक सेवाओं की पहुंच सहजता से मुहैया कराए. जिससे समावेशी विकास और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण सुनिश्चित हो सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सार्वजनिक सेवा प्रदायगी ढांचे की जवाबदेही एवं पुनर्गठन की आवश्यकता है।
सार्वजनिक सेवाएं राज्य द्वारा या राज्य की ओर से स्वैच्छिक व सामुदायिक संगठनों द्वारा या निजी क्षेत्र की कंपनियों द्वारा भी मुहैया की जा सकती हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की सेवाओं में केंद्रीय एवं स्थानीय सेवाएं जैसे-पेयजल, सवादा आपूर्ति, शिक्षा, स्वास्थ्य, बैंक, बिजली, आदि के प्रदाय से लेकर विशेषज्ञ सेवाओं जैसे सामाजिक रूप से बहिष्कृत समूहों एवं अल्पसंख्यक समुदायों के लिए शिक्षण. प्रशिक्षण एवं रोजगार के अवसर तक शामिल होते हैं। प्रधानमंत्री जन-धन योजना के तहत लगभग 30 करोड़ लोगों का आर्थिक समावेशन हुआ। ये लोग सीधे तौर पर बैंक से जुड़ गए तथा सरकारी नीतियों का उन्हें सीधा लाभ मिलने लग। बिचौलियों का भ्रष्ट तंत्र, जो पहले सरकारी नीतियों के लाभ को उसके लक्ष्य समह तक नहीं पहुंचने दे रहे थे, पर लगाम लगाई गई। अब लाभार्थी के बैंक खाते में रोजगार भक्ता, सब्सिडी, आदि का सीधा भुगतान किया जाने लगा है। सार्वजनिक सेवा प्रदायगी में जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिए कुछ प्रमुख नीतिगत प्रयास किए गए हैं, उदाहरणस्वरूप, नागरिक चार्टर, सूचना का अधिकार और ई-शासन।