शासन : चुनौतियाँ और मुद्दे/सुशासन का उद्भव
1. अर्थव्यवस्था और राजनीति का मिथ्या द्विसंबंधक
सम्पादनसुशासन विमर्श का ठद्भव उप-सहारा अफ्रोका के देशों में दी जाने वाली आर्थिक सहायता के संदर्भ में विश्व बैंक के दस्तावेजों में हुआ। बैंक ने इन देशों के उन पहलुओं को लिया बिसे "शासन का संकट" कहा जाता है। यह संकट संसाधनों के अनुचित उपयोग, सहायता प्राप्त देशों द्वारा सुधारों के प्रति मिली-जुली प्रवृत्ति, और भ्रष्टाचार को समाप्त करने में असमर्थता के कारण उत्पन्न हुआ। अत: विश्व बैंक ने शासन की "गुणवत्ता" पर ध्वान केंद्रित किया इसके साथ ही बैंक ने जब देश के शासन में राजनीतिक शासन- प्रणाली को अनिवार्य रूप से सम्मिलित किया, तब इसके अनुच्छेदों के अनुबंधों ने लाभार्थी सरकारों के राजनौतिक मामलों के हस्तक्षप से इसे वर्जित किया । इस संदर्भ में शासन को सार्वजनिक क्षेत्र और वित्तीय प्रबंधन से जोड़ कर देखा गया तथा इसे प्रशासनिक सुधार एवं लोक उपक्रमों के विनिवेशीकरण से भी जोड़ा गया। सुशासन ने शासन की संकल्पना में गुणात्मक आयाम जोड़ दिया। विश्व बैंक के अनुसार, सुशासन के छह आयाम हैं। इसके अंतर्गत (1) "विचार और जवाबदेयता, जिसमें नागरिक स्वतंत्रवाएं और राजनीतिक स्थायित्व शामिल है; (ii) सरकार की प्रभावशीलता, जिसमें नीति निर्माण और लोक सेवा को पहुंचाने की गुणवत्ता शामिल है; (i) नियामक बोझ में कमी; (iv) कानून का शासन, जिसमें संपत्ति अधिकारों का संरक्षण शामिल है; और (9) न्यायालयों की स्वतंत्रता; और (vi) भ्रष्टाचार पर नियंत्रण"। तथापि संटिसो का तर्क हैं कि बेक " तकनीकी सहमति" द्वारा सहायता प्राप्त देशों में सुशासन को बढ़ावा देने में समर्थ है। यहां सुशासन को राजनीतिक परिवर्तनों की अपेक्षा अंतर्निहित तकनीकी व प्रक्रियात्मक रूप में परिभाषित किया गया है जो सुशासन की सफलता के लिए आवश्यक है। हालांकि सुशासन की राजनीतिक पूर्वापेक्षाओं और आथिक नहेश्यों के मध्य तनाव का विषय विश्व बैंक के समक्ष विद्यमान था व इसने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्यों में भी प्रभाव डाला। यह तर्क दिया जाता है कि "प्रभावी लोकतांत्रिक संस्थाएं आर्थिक नीतियों और सुधारों को समेकित करने के उपक्रम में विविध स्तरों एवं विभिन्न तरीकों से कार्य करते हैं।
2. सापेक्षता, चयनात्मकता और सुशासन
सम्पादनविश्व बैंक ने सहायता प्राप्तकर्ता देशों पर नीतिगत शर्तों को धोपकर उन देशों में सुशासन को बढ़ावा देने का प्रयास किया है। इसलिए सापेक्षता की आलोचना एक त्रुटिपूर्ण उपागम के रूप में की जाती है क्योंकि यह घरेलू भावनाओं और सुधारों पर ध्यान देने में असफल रहा है। संटिसों ने विश्व बैंक की नीतिगत शर्तों को "विरोधाभासपूर्ण" कहा है, "यह शासन में सुधार लाता है जहां एक ओर यह शर्त भी है और दूसरी ओर विकास सहायता का उद्देश्य भी हैं। इन द्वि-उद्देश्यों का एक साथ लागू करना कठिन है, यह तनाव परिचालन के संबंध में अंतर्बिरोध बन जाता है।" इसके पश्चात् यह भी तर्क दिया जाता है कि सुधार प्रक्रिया में "घरेलू स्वामित्व" और सुशासन के उद्देश्य प्राप्ति की सफलता हेतु दृढ़ "बचनचद्धता" एक महत्त्वपूर्ण तत्व है।
सहायता प्राप्तकर्तां देशों की चयनात्मकता सुशासन की सूचियों पर आधारित है जिसके द्वारा अंतर्राष्ट्रीय वितीय संस्थाएं सुशासन को बढ़ावा देती हैं। उदाहरण के लिए विश्व बैंक की देश उन्पुखी सहायता कार्यनीतियां और विश्व बैंक:अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष गरीबी उन्मूलन कार्यनीति, प्रपत्र शासन को कार्य निष्पादन एवं मूल्यांकन के क्षेत्र में उचित स्थान देते हैं। बैंक ने संस्थागत और शासन समीक्षा" को भी दायित्व में शामिल कर लिया है। अंतराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा निष्पादन सूचकांक पर आधारित लाभार्थी देशों की चयनात्मकता भी आलोचना। के दायरे में आ गईं। यह कहा गया कि जिस प्रकार विभिन्न देशों में विकास नीतियां अपनाई जाती हैं, ऐसे में किसी एक सूची के मापदंड के आधार पर उनके प्रदर्शन को मापने का उपाय आकलन के दायरे को सीमित कर देता है। द्वितीय, नीति सुधारों और गरीबी उन्मूलन और आर्थिक वृद्धि पर सहायता का प्रभान भिन्न-मिन्न पड़ता है। अत: चयनात्मकता का मापदंड, जो नीति सुधार का अध्ययन करता है, विक बैंक से मिल रही अ्र्थिक सहायता के गरीबी उन्मूलन के लक्ष्य से चूक जाता है। सुशासन को विकास सहायता से जोड़ना, इसे "उत्तर-वॉशिंग्टन सहमति" के नाम से भी जाना जाता है। यह अनन किया गया कि राजनीति और राजनीतिक व्यवस्थाएं विकास नीति का अनिवर्य अंग हैं। संटिसो लिखते हैं, 'इस बात को मान्यता मिली है कि मजबूत लोकतंत्र चुनावों से कहीं अधिक है और अनवरत आर्थिक वृद्धि संरचनात्मक सामंजस्य से अधिक है, दोनों को शासन की संस्थाओं के दृढ़ीकरण की आवश्यकता होती है, कानून के शासन और जवाबदेयता और पारदर्शिता में वर्धन की आवश्यकता है विश्व बैंक ने विकासशील देशों में सुशासन के अंतर्गत मुख्य रूप से विधिक और न्यायिक सुधारों के साथ विकेंद्रीकरण के उपाय और लोक सेवा सुधारों के अनुसरण पर बल दिया। यह लोकतंत्र की संकल्पना की व्यापक समझ को दर्शाते हैं जो अब सिर्फ नियमित चुनाबों तक ही सीमित नहीं हैं।