अब अच्छी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम वाले निजी स्कूलों में मिलती है, तो हर अभिभावक उन्हीं स्कूलों में, उसी भाषा में अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाना चाहेंगे। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की पुस्तकें हिन्दी में नहीं है, पढ़ाने वाले भी नहीं हैं, जबकि अंग्रेजी में ये दोनों चीजे उपलब्ध हैं। एक तरफ अंग्रेजी से मजबूर आम आदमी है तो दूसरी तरफ कुछ आदर्शवादी लोग हैं जो जीवन मूल्यों की दुहाई देते हुए मातृभाषा को अपनाने की बात करते हैं। उनकी आलोचना यह कहकर की जाती है कि मतलब जीवन मूल्य सीखने से है, चाहे जिस किसी भाषा में सीख लें। साथ ही उन पर आरोप लगाया जाता है कि वो ये नहीं देखते या देखना चाहते कि पाश्चात्य सभ्यता आज विकास के चरम शिखर पर है, क्यों न हम उनकी भाषा से उनकी सफलता की कुंजी वाले जीवन मूल्य ले लें?
लेकिन ऐसे लोग भूल जाते हैं कि अंग्रेजी माध्यम से हमें पाश्चात्य जीवन मूल्य और सभ्यता ही मिलेगी। जो हमें तथाकथित सफलता तो देगी लेकिन सुख और शांति का हमारे जीवन से लोप हो जाएगा। पाश्चात्य सभ्यता भोगवादी सभ्यता है। भोगवादी सभ्यता में प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये सर्वाधिक भोग चाहता है, परिवार का प्रत्येक सदस्य भी। इस तरह का परिवार और समाज भौतिक उन्नति तो करता है किन्तु विखंडित हो जाता है।
अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा के अपने कुछ फायदे है और कुछ नुकसान। यही बात भारतीय भाषाओं पर भी लागू होती है। ऐसी स्थिति में हमें देखना चाहिए कि किसके नुकसान कम हैं और फायदे ज्यादा। साथ ही हमारी अपेक्षाओं की पूर्ति किस माध्यम से पूरी होंगी। शिक्षा का जो माध्यम हमारी सोच, हमारे समाज के आदर्श और हमारी जरूरतों के अनुरूप हो उसे ही अपनाना चाहिए।
इस आधार पर विदेशी भाषा के मुकाबले अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करना अधिक लाभदायक और उचित है। शिक्षा का एक अहम् उद्देश्य है मानव में नैतिक मूल्य का बीजारोपण करना। चूंकि नैतिक मूल्य संस्कृति से आते हैं, और संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण वाहन उस संस्कृति की भाषा है। इसलिए जिस संस्कृति को हम बच्चों के लिए उचित मानते हैं उस संस्कृति को सम्पूर्णता से व्यक्त करने वाली भाषा ही शिक्षा का माध्यम होनी चाहिए। अंग्रेजी शिक्षा से पाश्चात्य संस्कृति बच्चों में पनपेगी और भारतीय भाषाओं में दी गई शिक्षा से भारतीय संस्कृति बच्चों पर अपना असर डालेगी।
पहले ही बताया जा चुका है कि पाश्चात्य संस्कृति से भारतीय संस्कृति लाख गुना बेहतर है क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति सुख का भ्रम देती है और भारतीय संस्कृति सच्चा सुख देती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हम ऐसी श्रेष्ठ संस्कृति खो रहे हैं क्योंकि हम उस संस्कृति के वाहक अपनी मातृभाषाओं को छोड़ कर भोगवादी भाषा अंग्रेजी अपना रहे हैं।
एक बार गुजरात के तत्कालीन शिक्षामंत्री आनन्दी बेन ने कहा था, ”अंग्रेजी का ज्ञान विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता है। हमारे विद्यार्थी उच्चशिक्षा के लिये विदेश जाएं, यह आवश्यक है।” ऐसे विद्यार्थी दशमलव एक प्रतिशत भी नहीं होंगे जो उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश जाते हों। फिर उन थोड़े से विद्यार्थियों के लिए 99 प्रतिशत विद्यार्थियों पर अंग्रेजी थोपना कहां तक उचित है। लेकिन अंग्रेजी के पक्ष में शिक्षा मंत्री के तर्क की तरह के अनेक अधपके तर्क दिये जाते हैं, और देश उन्हें स्वीकार भी कर रहा है।