वह दस्तावेज जो किसी शोधार्थी द्वारा किये गये शोध को विधिवत प्रस्तुत करता है, शोध-प्रबन्ध (dissertation या thesis) कहलाता है। इसके आधार पर शोधार्थी को कोई डिग्री या व्यावसायिक सर्टिफिकेट प्रदान की जाती है।

यह विश्वविद्यालय से शोध-उपाधि प्राप्त करने के लिए लिखा जाता है। इसे एक ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।[] सरल भाषा में कहें तो एम फिल अथवा पी एच डी की डिग्री के लिए किसी स्वीकृत विषय पर तैयार की गई किताब जिसमें तथ्य संग्रहित रहते हैं तथा उनके आधार पर किसी निष्कर्ष तक पहुँचने की कोशिश की जाती है। यह आलोचनात्मक तो होता है किंतु उससे थोड़ा भिन्न भी होता है। डॉ नगेन्द्र के शब्दों के सहारे कहें तो एक अच्छा शोध प्रबंध एक अच्छी आलोचना भी होती है। मनुष्य की आंतरिक जिज्ञासा सदा से ही अनुसंधान का कारण बनती रही है। अनुसंधान, खोज, अन्वेषण एवं शोध पर्यायवाची है। शोध में उपलब्ध विषय के तथ्यों में विद्यमान सत्य को नवरूपायित कर पुनरोपलब्ध किया जाता है। शोध में शोधार्थी के सामने तथ्य मौजूद होते है, उसे उसमें से अपनी सूझ व ज्ञान द्वारा नवीन सिद्धियों को उद्घाटित करना होता है।

रूपरेखा के निर्धारक तत्त्व

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शोध-प्रबंध की रूपरेखा के चार निर्धारक तत्त्व होते हैं। उदारणस्वरूप-

  • शोध-विषय- स्पष्ट और सुचिंतित रूपरेखा के निर्माण के लिए शोध-विषय का शीर्षक स्पष्ट तथा असंदिग्ध होना चाहिए। शोधार्थी द्वारा सही रूपरेखा के निर्माण के लिए विषय-चयन करते समय 'विषय के क्षेत्र', 'शोध दृष्टि की स्पष्टता' पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। जैसे-'राम की शक्ति-पूजा का दार्शनिक अध्ययन' में 'राम की शक्ति-पूजा' शोध का क्षेत्र है। 'दार्शनिक अध्ययन' शोध की दृष्टि है। जिन विषयों का क्षेत्र निश्चित तथा सीमित होता है, इसके अतिरिक्त दृष्टि गहन, स्पष्ट होती है वही विषय श्रेष्ठ माने जाते हैं।
  • शोधार्थी की भूमिका- शोध की रूपरेखा शोधार्थी पर निर्भर करती है। यदि शोधार्थी परिश्रमी नहीं है तो वह किसी भी विषय पर एक अच्छा शोध नहीं कर सकता है। इसके संबंध में बैजनाथ सिंहल लिखते हैं कि- "शोधार्थी में वस्तून्मुखी वैज्ञानिक विषयपरक दृष्टि और परिश्रम का मणि-कांचन योग होना चाहिए।" इसका कारण बताते हुए वे आगे लिखते हैं कि- "ऐसा होने पर ही वह तथ्यसंधान और सही निष्कर्षों की परीक्षा द्वारा लक्ष्योन्मुखी सुसंबद्ध रूपरेखा तैयार कर सकता है।"[]
  • शोध-निर्देशक- अपनी भूमिका का निर्वहण करते हुए शोध-निर्देशक शोधार्थी के शोध-विषय को सही दिशा प्रदान करने में सहायक होता है। निर्देशक शोध की रूपरेखा में विद्यमान त्रुटियों का मार्जन भी करता है। किंतु शोधार्थी में जब तक स्वयं जिज्ञासा और रुचि उत्पन्न नहीं होती तब तक निर्देशक भी अच्छी रुपरेखा का निर्धारण करने में असमर्थ है।
  • उपलब्ध सामग्री- शोध की सामग्री तीन तरह की होती है। इसमें मूल ग्रंथ- विषय से संबंधित मुख्य सामग्री, मूल ग्रंथ से संबंधित शोधपरक और समीक्षात्मक ग्रंथ तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ, शोध की वैज्ञानिक कार्यविधि (मनोवैज्ञानिक अध्ययन, समाजशास्त्रीय अध्ययन, दार्शनिक अध्ययन) से संबंधित ग्रंथ इत्यादि सम्मिलित हैं।

रूपरेखा का महत्त्व

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व्यवस्थित ढंग से शोध करने के लिए शोध की रूपरेखा का निर्माण किया जाना आवश्यक है। रूपरेखा के निर्माण के पश्चात् शोधार्थी के लिए तथ्य-संकलन करना सरल हो जाता है अतः वह भटकाव की स्थिति से बच जाता है। बैजनाथ सिंहल के शब्दों में कहें तो- "रूपरेखा शोध-विषय का ताना-बाना होती है।"[]

== Hindi Vishay Mein Shodh adhyayan ke ruprekha Nirman ke Vidhi ka udaharan sahit avardhan Kijiye Mein Hindi question answer

  1. http://www.hindi2dictionary.com/shodh-prabandh-meaning-eng.html
  2. बैजनाथ सिंहल-शोध : स्वरूप एवं मानक व्यावहारिक कार्यविधि, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली:२०१७, पृ.७७
  3. बैजनाथ सिंहल-शोध : स्वरूप एवं मानक व्यावहारिक कार्यविधि, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली:२०१७, पृ.७६