समसामयिकी नवंबर 2019/पर्यावरण/संसाधन
उत्तर प्रदेश सरकार ने महराजगंज के फरेंदा तहसील केभारी-वैसी गाँव में‘जटायु संरक्षण और प्रजनन केंद्र’बनाने का फैसला
सम्पादन- हरियाणा के पिंजौर में बने देश के पहले जटायु संरक्षण और प्रजनन केंद्र की तर्ज पर विकसित किया जाएगा।
- इसका निर्माण वन्यजीव अनुसंधान संगठन और बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी मिलकर करेंगे। कैंपा योजना के तहत इसके लिये धन की व्यवस्था की जाएगी।
- महाराजगंज वन प्रभाग के मधवलिया रेंज में अगस्त माह में 100 से अधिक गिद्ध देखे गए।प्रदेश सरकार की ओर से बनाए गए गो-सदन के पास भी यह झुंड दिखा था।
- गो-सदन में निर्वासित पशु रखे जाते हैं, जो वृद्ध होने के कारण जल्दी ही मर जाते हैं। मृत पशुओं के मिलने से यहां गिद्धों का दिखना भी स्वभाविक है। इसीलिये भारी वैसी गाँव का चयन किया गया है। वर्ष 2013-14 की गणना के अनुसार राज्य के 13 ज़िलों में करीब 900 गिद्ध थे।
- गोरखपुर वन प्रभाग में 5 हेक्टेयर क्षेत्रफल में यह केंद्र बनाया जा रहा है।
ग्लोबल सल्फर कैप (Global Sulphur Cap)
सम्पादन- IMO ने पर्यावरणीय प्रभाव तथा जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए 1 जनवरी,2020 से सल्फर ऑक्साइड के उत्सर्जन में और अधिक कटौती करने का निर्णय लिया है। इसके द्वारा निर्धारित उत्सर्जन नियंत्रण क्षेत्र (Designated Emission Control Area) से बाहर संचालित किसी जहाज़ में प्रयुक्त ईंधन में सल्फर की मात्रा में 0.50% m/m (mass by mass) की कमी की जाएगी।
- भारत के पोत परिवहन महानिदेशालय (Directorate General of Shipping) ने 1 जनवरी, 2020 से इसके अनुपालन के लिये विभिन्न हितधारकों को अधिसूचित किया।
- जहाज़ों के ईंधन में प्रयोग होने वाले सल्फर के प्रयोग में 0.50% m/m (mass by mass) की कटौती की जाएगी।
- कच्चे तेल के आसवन के बाद बचे हुए अवशेष से जहाज़ों में प्रयोग होने वाला बंकर ऑयल प्राप्त किया जाता है। इसमें भारी मात्रा में सल्फर के दहन पर यह सल्फर ऑक्साइड बनाता है।
- सल्फर ऑक्साइड मानव स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। यह श्वसन तथा फेफड़ों से संबंधित बीमारियों को जन्म देता है।
- पर्यावरण में यह अम्लीय वर्षा के लिये उत्तरदायी है जिससे फसल,जंगल तथा जलीय जीवों को नुकसान पहुँचता है। साथ ही यह समुद्र के अम्लीकरण के लिये भी ज़िम्मेदार है।
- अंतर्राष्ट्रीय सामुद्रिक संगठन (International Maritime Organisation-IMO) ने जहाज़ों से होने वाले प्रदूषण की रोकथाम पर अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय या मारपोल अभिसमय 1973 (MARPOL Convention) द्वारा वर्ष 2005 में जहाज़ों से होने वाले सल्फर ऑक्साइड के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिये दिशा-निर्देश जारी किये थे। भारत इस अभिसमय का हस्ताक्षरकर्त्ता है।
एक विशेषज्ञ समिति द्वारा भोपाल गैस त्रासदी(1984) पर किया गया शोध विवादों में रहा
सम्पादन- इस विशेषज्ञ समिति में ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’एम्स,राष्ट्रीय पर्यावरणीय स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान (National Institute for Research in Environmental Health- NIREH) तथा भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council for Medical Research- ICMR) के वैज्ञानिक शामिल थे।
- भोपाल गैस त्रासदी से प्रभावित पीड़ितों के लिये कार्य कर रहे कुछ संगठनों ने सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 के तहत प्राप्त तथ्यों के आधार पर ICMR पर यह आरोप लगाया है कि इस समिति द्वारा किये गए शोध में कुछ गलतियाँ थीं फिर भी इन्हें समिति द्वारा अनुमोदित किया गया तथा प्रकाशित नहीं किया गया।
- इस समिति द्वारा तकरीबन 48 लाख रुपए की लागत किये गए शोध की कार्यप्रणाली में बहुत खामियाँ थीं तथा इसे गलत तरीके से गठित किये जाने के कारण इसके निष्कर्ष भी अनिर्णायक रहे।
- सर्वोच्च न्यायालय ने इस संदर्भ में एक पुनर्विचार याचिका स्वीकार की है जिसमें इस घटना से प्रभावित लोगों के लिये अधिक मुआवज़े की मांग की गई है
- इस मामले में बच्चों में जन्मजात विकृतियों से संबंधित आँकड़े पीड़ितों को मुआवज़ा दिलाने के लिये महत्वपूर्ण हैं।
शोध से संबंधित अन्य तथ्य:
- सामान्य गर्भवती महिलाओं की तुलना में वर्ष 1984 के भोपाल गैस त्रासदी से पीड़ित माताओं और उनसे जन्म लेने बच्चों में कई तरह की स्वास्थ्य कमियाँ पाई गईं तथा इन बच्चों में अधिकतर ‘जन्मजात विकृति’ से प्रभावित थे।
- भोपाल गैस त्रासदी से प्रभावित गर्भवती महिलाओं से जन्मे 1048 बच्चों में से 9 प्रतिशत में कई जन्मजात स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ विद्यमान थीं। इसके विपरीत 1247 सामान्य गर्भवती महिलाओं से जन्मे बच्चों में यह समस्याएँ केवल 1.3 प्रतिशत में पाई गई।
- इन विकृतियों से प्रभावित होने बच्चों में भोपाल गैस त्रासदी से प्रभावित गर्भवती महिलाओं की अगली पीढ़ी के भी बच्चे थे।
क्लाउनफ़िश (Clownfish)
सम्पादन- इकोलॉजी लेटर्स नामक पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार,तीव्रता से बदलते परिवेश के साथ अनुकूलन नहीं कर पाने के कारण इनकी संख्या में तेज़ी से कमी आ रही है।
- अनुकूलन की क्षमता का आनुवंशिक गुणों में न होने के कारण वह ऐसा नहीं कर पाती है।
- इसका वैज्ञानिक नाम एम्फिप्रियोन पेरकुला(Amphiprion Percula) है।
- क्लाउनफ़िश ग्रेट बैरियर रीफ सहित हिंद और प्रशांत महासागर के विभिन्न भागों में पाई जाती हैं।
28 नवंबर,2019 दिल्ली में भूस्खलन जोखिम कटौती तथा स्थिरता पर पहले अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन
सम्पादनदेश में इस तरह का आयोजन पहली बार किया जा रहा है। सम्मेलन में भूस्खलन जैसी आपदाओं से निपटने के लिये आवश्यक प्रौद्योगिकी तथा नुकसान को कम करने में त्वरित प्रतिक्रिया के लिये आधारभूत संरचना विकसित करने पर बल दिया गया।
नई दिल्ली में भारत के पहले सबसे बड़े जैव प्रौद्योगिकी सम्मेलन ग्लोबल बायो-इंडिया समिट-2019,21-23 नवंबर का आयोजन
सम्पादन- जैव-प्रौद्योगिकी विभाग ने अपने सार्वजनिक उपक्रम जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद के साथ मिलकर किया।
- इसमें भारतीय उद्योग परिसंघ (Confederation of Indian Industry- CII), एसोसिएशन ऑफ बायोटेक्नोलॉजी लेड एंटरप्राइज़ेज़ (Association of Biotechnology Led Enterprises- ABLE) और इन्वेस्ट इंडिया (Invest India) भी भागीदार थे।
- इसने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को भारत के जैव-प्रौद्योगिकी क्षेत्र की क्षमता प्रदर्शित करने का अवसर प्रदान किया।
- जैव-प्रौद्योगिकी तेज़ी से उभरने वाला क्षेत्र है जो वर्ष 2025 तक भारत की अर्धव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य तक पहुँचाने में उल्लेखनीय योगदान कर सकता है।
मेघालय की लिविंग रूट ब्रिज़
सम्पादनसाइंटिफिक रिपोर्ट पत्रिका के अनुसार, मेघालय में उपस्थित लिविंग रूट ब्रिज़ (Living Root Bridges) को शहरी संदर्भ में भविष्य में वानस्पतिक वास्तुकला के संदर्भ के रूप में माना जा सकता है। इन ब्रिज़ को ज़िंग कीेंग ज़्रि (Jing Kieng Jri) भी कहा जाता है। इनका निर्माण पारंपरिक जनजातीय ज्ञान का प्रयोग करके रबर के वृक्षों की जड़ों को जोड़-तोड़ कर किया जाता है। सामान्यतः इन्हें धाराओं या नदियों को पार करने के लिये बनाया जाता है। खासी ओर जयंतिया पहाड़ियों में सदियों से फैले 15 से 250 फुट के ये ब्रिज़ विश्व प्रसिद्ध पर्यटन का आकर्षण भी बन गए हैं। इनमें सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थल हैं- रिवाई रूट ब्रिज (Riwai Root Bridge) उम्शिआंग डबल डेकर ब्रिज (Umshiang Double Decker Bridge)। प्रमुख गुण: ये लोचदार होते हैं। इन्हें आसानी से जोड़ा जा सकता है। ये पौधे उबड़-खाबड़ और पथरीली मिट्टी में उगते हैं।
पेरिस शहर ने सर्कस में जंगली जानवरों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया।
सम्पादनफ्राँस अभी भी जंगली जानवरों के उपयोग पर राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध लागू करने पर विचार कर रहा है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण द्वारा 20 नवंबर को जारी प्रोडक्शन गैप रिपोर्ट (Production Gap Report)
सम्पादनयह जीवाश्म ईंधन अप्रसार (Non-Proliferation) की आवश्यकता को रेखांकित करती है। इस रिपोर्ट में पेरिस समझौते के तहत वैश्विक तापन के 1.5 तथा 2°C तक के लक्ष्यों और जीवाश्म ईंधन उत्पादन के प्रयोग के मध्य के अंतर को मापा गया है। प्रोडक्शन गैप रिपोर्ट ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) की निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं को रेखांकित किया है-
- जलवायु प्रतिबद्धताओं और नियोजित उत्पादन के बीच असंतुलन
- कार्बन कैप्चर और स्टोरेज जैसे समाधानों को लेकर अनिश्चितता
- जीवाश्म ईंधन उत्पादन समस्या की सामूहिक कार्रवाई प्रकृति
- पिछले वर्ष प्रकाशित IPCC की ग्लोबल वार्मिंग 1.5°C रिपोर्ट के अनुसार,वर्ष 2050 तक वार्मिंग के 1.5°C से नीचे रहने के लिये वर्ष 2030 तक कोयले से संचालित 66% विद्युत संयंत्रों को बंद करना होगा। साथ हीं वर्ष 2050 तक विद्युत उत्पादन में प्राकृतिक गैस का उपयोग दसवें हिस्से से कम होगा।
- प्रोडक्शन गैप रिपोर्ट के अनुसार विश्व के देश वर्ष 2030 तक अत्यधिक कोयला उत्पादन की राह पर अग्रसर हैं। विभिन्न देशों द्वारा उत्पादित कुल कोयला वैश्विक स्तर पर तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2°C से नीचे रखने की तुलना में 150 प्रतिशत अधिक तथा तापमान वृद्धि को 1.5°C तक सीमित करने के लक्ष्य की तुलना में 280 प्रतिशत अधिक होगा।
- वैश्विक स्तर पर तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2°C से नीचे रखने के लिये वर्ष 2030 में तेल का उत्पादन 16 प्रतिशत निर्धारित किया गया है जबकि तापमान वृद्धि को 1.5°C तक सीमित करने के लिये तेल उत्पादन को 59 प्रतिशत तक निर्धारित किया गया था। गैस के लिये,ओवरशूट के आंकड़े 2°C के लिये 14 प्रतिशत और 1.5°C के लिये 70 प्रतिशत थे।
- IPCC ने जीवाश्म ईंधन के स्थान पर नवीनीकरण ऊर्जा के साथ-साथ अन्य स्वच्छ प्रौद्योगिकियों के माध्यम से ऊर्जा उत्पादन के प्रयास किये जाने की आवश्यकता को इंगित किया है।
- IPCC की योजना वर्ष 2050 तक शुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन तथा इसके बाद शेष शताब्दी के लिये शुद्ध नकारात्मक उत्सर्जन प्रक्षेपवक्र (Net Negative Emissions Trajectory) लक्ष्य पर आगे बढ़ना है।
कोआला भालू,Koala Bear,सुभेद्य (Vulnerable)
सम्पादन- ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स प्रांत के जंगल में आग लगने से लगभग 350 के मरने की आशंका।
- यह पूर्वी ऑस्ट्रेलिया के तटीय क्षेत्रों में वृक्षों पर निवास करने वाला धानी-प्राणी (Marsupial) है।
- यह प्रतिरक्षा प्रणाली के बिना ही गर्भावस्था के 34-36 दिनों के बाद जन्म लेता है और इसके बाद लगभग 6 माह तक पेट के पाउच/थैले में इसका विकास होता है।
- निवास स्थान की क्षति और आहार की कमी के कारण इनकी जनसंख्या में तेज़ी से कमी आई है।
- इनका मुख्य आहार यूकेलिप्टस की पत्तियाँ हैं।
बढ़ते बंजर भूमि रूपांतरण (Wasteland conversion)
सम्पादन- इससे लोगों की आजीविका और पारिस्थितिक संतुलन दोनों को खतरा है।
- भारत में 14,000 वर्ग किमी. बंजर भूमि का वर्ष 2008-09 से वर्ष 2015-16 के बीच उत्पादन उपयोग (Productive Use) योग्य भूमि में रूपांतरण किया गया।
- भूमि संसाधन विभाग ने नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर के सहयोग से तैयार किये गए बंजर भूमि एटलस (Wastelands Atlas) को जारी किया।
- यह 23 अलग-अलग प्रकार की बंजर भूमियों को मापने हेतु उपग्रह डेटा का उपयोग करता है और भूमि सुधार (Reclamation) के प्रयासों के प्रभाव को ट्रैक करता है।
- राजस्थान में सर्वाधिक 4,803 वर्ग किमी. बंजर भूमि को उत्पादन योग्य भूमि में बदल दिया गया।
- राजस्थान में स्थापित सौर पार्क (Solar Park)से प्राप्त अक्षय ऊर्जा का औद्योगिक क्षेत्रों में प्रयोग किया जा रहा है।
- उत्तर प्रदेश और बिहार में भी उच्च स्तर पर बंजर भूमि रूपांतरण हुआ है।
बंजर भूमि रूपांतरण का महत्त्व:
- सरकार बंजर भूमि के रूपांतरण को प्रोत्साहित कर रही है,क्योंकि भारत में विश्व की 18% जनसंख्या निवास करती है और इसके पास केवल 2.4% कृषि भूमि क्षेत्र है।
- खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये मौजूदा उत्पादन योग्य भूमि की उत्पादकता में सुधार लाने और अतिरिक्त भूमि बढ़ाने (बंजर भूमि रूपांतरण) की तत्काल आवश्यकता है।
- यह अनुपयोगी बंजर भूमि खाद्यान्नों के उत्पादन को बढ़ाने और वनस्पति आवरण का विस्तार करने में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती है।
आगे की राह: बंजर भूमि को उत्पादक उपयोग में लाने के लिये वनीकरण के प्रयासों, बुनियादी ढाँचे के विकास तथा नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं जैसे विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिये। सरकार द्वारा संचालित प्रयासों के साथ ही स्थानीय निवासियों द्वारा किये जाने वाले बंजर भूमि रूपांतरण के प्रयास महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं। पारंपरिक सार्वजनिक भूमि बंजर भूमि कई अवसरों पर पारंपरिक सार्वजनिक भूमि होती है जिस पर सार्वजानिक स्वामित्त्व होता है। दक्षिणी भारत में इन क्षेत्रों को पोरोम्बोक भूमि(Poromboke)कर्नाटक में इसेगोमल भूमि (Gomal land) कहा जाता है।