समसामयिकी 2020/चर्चित वनस्पति एवं जंतु


विदेशी आक्रमणकारी समुद्री प्रजातियों में सबसे अधिक संख्या जीनस एसाइडिया (Ascidia) (31) की है। इसके बाद इस क्रम में आरथ्रोपोड्स (Arthropods) (26), एनालडि्स (Annelids) (16), सीनिडेरियन (Cnidarian) (11), ब्रायोजन (Bryzoans) (6), मोलास्कस (Molluscs) (5), टेनोफोरा (Ctenophora) (3) और एन्टोप्रोकटा (Entoprocta) (1) का स्थान आता है। विशेषज्ञों के अनुसार, टूब्रैसट्रिया कोकसीनी (Tubastrea Coccinea) अथवा ऑरेंज कप-कोरल, यह प्रजाति इंडो-ईस्ट पैसिफिक में पाई जाती है, लेकिन अब यह प्रजाति अंडमान निकोबार द्वीप समूह, कच्छ की खाड़ी, केरल और लक्षद्वीप के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रही है।

  • वर्ष 9 मई को मनाये जाने वाले ‘विश्व प्रवासी पक्षी दिवस’ (World Migratory Bird Day- WMBD) का थीम ‘पक्षी हमारी दुनिया को जोड़ते हैं’ (Birds Connect Our World) है। इसका उद्देश्य प्रवासी पक्षियों के खतरों (पारिस्थितिक महत्त्व एवं संरक्षण) के बारे में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता से वैश्विक जागरूकता उत्पन्न करना है। इसे संयुक्त राष्ट्र की दो संधियों [‘वन्यजीवों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर सम्मेलन’ (Convention on Conservation of Migratory Species of Wild Animals- CMS)] एवं ‘अफ्रीकन-यूरेशियन वॉटरबर्ड एग्रीमेंट’ (AEWA) और एक गैर-लाभकारी संगठन (एनवायरमेंट फॉर द अमेरिका-EFTA) के बीच एक सहयोगात्मक साझेदारी द्वारा मनाया जाता है।

अफ्रीकन-यूरेशियन वॉटरबर्ड एग्रीमेंट (AEWA) एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है जो संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के सम्मेलन में प्रवासी प्रजातियों के तत्त्वावधान में विकसित की गई है। इस संधि पर वर्ष 1996 में नीदरलैंड के हेग में हस्ताक्षर किये गए थे। पहली बार ‘विश्व प्रवासी पक्षी दिवस’ को वर्ष 2006 में मनाया गया था। यह दिवस वर्ष में दो बार (मई एवं अक्तूबर महीने के दूसरे शनिवार को) मनाया जाता है।

  • 3 मार्च-विश्व वन्यजीव दिवस (World Wildlife Day) की थीम ‘पृथ्वी पर जीवन कायम रखना’ (Sustaining all life on Earth) है।
20 दिसंबर, 2013 को संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के 68वें सत्र में 3 मार्च को विश्व वन्यजीव दिवस मनाने का निर्णय लिया गया था क्योंकि वर्ष 1973 में 3 मार्च के दिन वन्यजीवों एवं वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES) को अपनाया गया था जोकि 1 जुलाई, 1975 से प्रभावी हुआ।

इसमें सभी जंगली जानवरों एवं पौधों की प्रजातियों को विश्व की जैव विविधता के प्रमुख घटक के रूप में शामिल किया गया है। यह संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्यों 1, 12, 14 व 15 तथा गरीबी को कम करने,संसाधनों सतत् उपयोग सुनिश्चित करने व जैव विविधता के नुकसान को रोकने हेतु भूमि एवं जल के नीचे जीवन के संरक्षण पर व्यापक प्रतिबद्धताओं को संरेखित करता है।

  • ‘एन्वायरनमेंटल मॉनीटरिंग एंड असेसमेंट’ नामक जर्नल में छपे एक शोध के अनुसार,पूर्वी घाट(ओडिश से तमिलनाडु)भारत के सर्वाधिक दोहन किये गए और निम्नीकृत पारिस्थितिक तंत्रों में से एक है।

यहाँ 450 से अधिक स्थानिक पौधों की प्रजातियाँ विद्यमान होने के बावजूद भी यह क्षेत्र भारत के सर्वाधिक दोहन किये गए और निम्नीकृत पारिस्थितिक तंत्रों में से एक है। पूर्वी घाट क्षेत्र को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने में मानवीय, खनन, शहरीकरण, बांध निर्माण, जलाऊ लकड़ी संग्रहण और कृषि विस्तार गतिविधियाँ प्रमुख हैं।

शोधकर्त्ताओं ने उपलब्ध पौधों की प्रजातियों के आँकड़ों का अध्ययन किया तथा 250 से अधिक स्थानों पर प्राप्त 22 प्रजातियों की पहचान की और पूर्वी घाट के लगभग 800 स्थानों पर 28 दुर्लभ, लुप्तप्राय एवं संकटग्रस्त (Rare, Endangered and Threatened- RET) प्रजातियों की उपस्थिति दर्ज की।
पूर्वी घाट क्षेत्र में वर्ष 2050 तक कुल मानव आबादी 2.6 मिलियन तक पहुँचने का अनुमान है जिससे यहाँ मानवजनित हस्तक्षेपों का पर्यावरण पर दबाव बढ़ेगा। जनसंख्या बढ़ने से यहाँ भोजन, सड़क और अन्य गतिविधियों के लिये भूमि की मांग में वृद्धि होगी जो स्थानीय और RET प्रजातियों के निवास के लिये खतरा उत्पन्न करेगा।
असुरक्षित पर्यटन भी इन प्रजातियों के वितरण को प्रभावित करता है।

विनियामक दिशा-निर्देशों के साथ ‘इको-टूरिज़्म’ (Ecotourism) को लागू करना पर्यावरण संरक्षण को सुधारने और बढ़ावा देने का एक सकारात्मक तरीका है।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव:
  1. शोधकर्त्ताओं के अनुसार, क्षेत्रीय या स्थानीय जलवायु परिवर्तन के कारण लगातार बिना वर्षा वाले दिनों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है।
  2. वहीं अधिकतम और न्यूनतम तापमान वाले दिनों की संख्या में वृद्धि होने से मृदा की नमी में कमी और मृदा निम्नीकरण में वृद्धि हुई है।
  3. इन कारकों ने लगातार वनाग्नि की घटनाएँ बढ़ने में योगदान दिया है, जिससे जंगलों में स्थानिक प्रजातियों का पुनरुत्पादन नहीं हो पाता है।
  • मछलियों से खतरे की वजह

एलियन शिकारी मछलियाँ आसानी से नए पारिस्थितिकी तंत्र में खुद को आसानी से ढाल लेती हैं। एक बार पारिस्थितिकी तंत्र में ढल जाने के बाद ये मछलियाँ मूल प्रजातियों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने लगती हैं। उदाहरण के लिये- गोल्ड फिश, अमेरिकन कैटफ़िश, टाइनी गप्पी, थ्री-स्पॉट गौरामी

  1. गोल्ड फिश: यह मछली जलीय वनस्पतियों के साथ ही मूल प्रजातियों के वंश-वृद्धि क्षेत्र को भी कम करती है
  2. अमेरिकन कैटफिश: यह मछली अत्यधिक चराई (Overgrazing) की वज़ह से खाद्य श्रृंखला को प्रभावित करती है। ये मछलियाँ शैवाल भक्षक भी कहलाती हैं।

जीवों के संरक्षण के सरकारी प्रयास सम्पादन

अंडमान-दुर्लभ ताड़ का संरक्षण सम्पादन

दक्षिणी अंडमान द्वीप के दुर्लभ ताड़/पाम को ‘जवाहरलाल नेहरू ट्रॉपिकल बोटैनिकल गार्डन एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट’(JNTBGRI) की मदद से पलोदे (Palode) (केरल) में उगाया जाएगा। पिनंगा अंडमानेंसिस (Pinanga andamanensis) जिसे एक समय विलुप्त प्रजाति के रूप में दर्ज किया गया था। यह एरेका ताड़ (Areca Palm) से संबंधित है। दक्षिण अंडमान के 'माउंट हैरियट नेशनल पार्क' के एक छोटे क्षेत्र में 600 पौधे पाए जाते है। भारतीय मुख्य भूमि पर ‘अंडमान द्वीप के दुर्लभ ताड़’ के जर्मप्लाज़्म का संरक्षण किया जाएगा ताकि प्राकृतिक आपदा के समय यदि अंडमान द्वीप से यह नष्ट भी हो जाए तो इसका निरंतर अस्तित्त्व सुनिश्चित हो सके। पिनंगा अंडमानेंसिस (Pinanga andamanensis): ‘पिनंगा अंडमानेंसिस’ ‘चरम लुप्तप्राय प्रजाति’ (Critically Endangered Species) है, जो अंडमान द्वीप समूह के स्थानिक लुप्तप्राय प्रजातियों में से एक है। सर्वप्रथम वर्ष 1934 में ‘इतालवी वनस्पतिशास्त्री’ ओडोराडो बेस्करी द्वारा इसे वर्णित किया गया था। वर्ष 1992 में इसे विलुप्त मान लिया गया था। ताड़ के पेड़ का नाम पिनंगा क्यों? यह नाम 'पेनांग ’से लिया गया है, जो मलेशिया का एक राज्य है। पिनांग का मूल 'पुलाऊ पिनांग' (Pulau Pinang) में है, जिसका अर्थ है 'अरेका नट पाम का द्वीप' (Island of the Areca Nut Palm)।

मानव-हाथी संघर्ष पर ‘सुरक्षा’नामक राष्ट्रीय पोर्टल का एक बीटा संस्करण लॉन्च सम्पादन

विश्व हाथी दिवस की पूर्व संध्या पर केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री द्वारा लॉन्च इस पोर्टल का उद्देश्य मानव-हाथी संघर्ष से संबंधित रियल टाइम जानकारी एकत्र करना है जिसके आधार पर मानव-हाथी संघर्ष प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।

प्रत्येक वर्ष 12 अगस्त को मनाये जानेवाले विश्व हाथी दिवस का उद्देश्य अफ्रीकी[V-IUCN] एवं एशियाई [En-IUCN]हाथियों की स्थिति के बारे में जागरूकता पैदा करना और बंदी एवं जंगली हाथियों की बेहतर देखभाल एवं प्रबंधन के लिये सकारात्मक समाधान साझा करना है। एशियाई हाथी की तीन उप-प्रजातियाँ हैं: भारतीय, सुमात्रन तथा श्रीलंकन।

12 अगस्त, 2012 को पहला विश्व हाथी दिवस मनाया गया था तब से यह वार्षिक रूप से मनाया जाता है। वर्ष 2011 में ‘एलीफैंट रिइंट्रोडक्शन फाउंडेशन’ (Elephant Reintroduction Foundation) और कनाडाई फिल्म निर्माता पेट्रीसिया सिम्स (Patricia Sims) एवं माइकल क्लार्क (Michael Clark) द्वारा विश्व हाथी दिवस की कल्पना की गई थी। इसे आधिकारिक तौर पर 12 अगस्त, 2012 को शुरू किया गया था।

एलीफैंट रिइंट्रोडक्शन फाउंडेशन थाईलैंड में स्थित एक धर्मार्थ गैर-लाभकारी संगठन है। इसे वर्ष 1996 में थाईलैंड की रानी सिरीकित की शाही पहल के रूप में स्थापित किया गया था। इसका मिशन बंदी हाथियों को उनके प्राकृतिक आवास एवं वन्यजीवों के साथ पुनः स्थापित करना तथा एशियाई हाथियों के बारे में लोगों को शिक्षित करना है।

भारत में हाथी को वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची I में शामिल है।

प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर अभिसमय (CMS) द्वारा वन्यजीवों की सूची में नए बदलाव के साथ ही भारत के प्रवासी जीवों की कुल संख्या 457 हो गई है। सम्पादन

भारतीय प्राणी सर्वेक्षण ने पहली बार गुजरात में आयोजित सम्मेलन (COP 13) से पहले CMS के तहत भारत की प्रवासी प्रजातियों की सूची तैयार की थी। तब ZSI ने भारत के प्रवासी जीवों की कुल संख्या को 451 बताया गया था। निम्नलिखित छह प्रजातियों को बाद में इस सूची में जोड़ा गया था:

  • एशियाई हाथी (Elephas maximus)
  • ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (Ardeotis nigriceps)
  • बंगाल फ्लोरिकन (Bengal florican)
  • ओशनिक व्हाइट-टिप शार्क (Carcharhinus longimanus)
  • यूरियाल (Ovis orientalis vignei)
  • स्मूथ हैमरहेड शार्क (Sphyrna zygaena)

गुजरात के गांधीनगर में आयोजित ‘प्रवासी प्रजातियों पर संयुक्त राष्ट्र के काॅप-13 सम्मेलन में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, एशियाई हाथी और बंगाल फ्लोरिकन को प्रवासी प्रजातियों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय के परिशिष्ट-I में शामिल करने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया है। उक्त तीन प्रजातियों के अलावा सात अन्य प्रजातियों- जगुआर, यूरियाल, लिटिल बस्टर्ड, एंटीपोडियन अल्बाट्रॉस, ओशनिक व्हाइट-टिप शार्क, स्मूथ हैमरहेड शार्क और टोपे शार्क को भी CMS परिशिष्टों में सूचीबद्ध करने लिये प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया था।

विश्व स्तर पर 650 से अधिक प्रजातियों को CMS के परिशिष्ट में सूचीबद्ध किया गया है और 450 से अधिक प्रजातियों के साथ भारत, उनके संरक्षण में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

पक्षी वर्ग से संबंधित आँकड़े: प्रवासी जीवों के इन नवीनतम आँकड़ों में पक्षियों की हिस्सेदारी 83% है। ध्यातव्य है कि COP-13 से पहले, प्रवासी पक्षी प्रजातियों की संख्या 378 थी और अब यह 380 तक पहुँच गई है। पक्षी वर्ग में मूसिकैपिडे (Muscicapidae) से संबंधित प्रवासी प्रजातियों की संख्या सर्वाधिक है। प्रवासी पक्षियों की सर्वाधिक संख्या वाला दूसरा समूह राप्टर्स या एक्सीपीट्रिडे (Accipitridae) वर्ग के उल्लू, गिद्ध और चील जैसे शिकारी पक्षियों का है। बड़ी संख्या में प्रवास करने वाले पक्षियों का एक अन्य समूह वेडर (wader) या जलपक्षियों का है। भारत में इन प्रवासी पक्षी प्रजातियों की संख्या 41 है, इसके बाद ऐनाटीडे वर्ग से संबंधित बत्तखों का स्थान आता है जिनकी संख्या 38 हैं।

चर्चित वैश्विक जंतु सम्पादन

  • मायकोकीज़ (MycoKeys) पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार शोधकर्त्ताओं ने ट्विटर पर एक नई प्रजाति ‘ट्रोग्लॉमीज़ ट्विटरी’ (Troglomyces Twitteri) खोजी है। डेनमार्क के कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय से संबद्ध जीवविज्ञानी एवं एसोसिएट प्रोफेसर ‘एना सोफिया रेबोलेइरा’ (Ana Sofia Reboleira) जब अपने ट्विटर पर स्क्रॉल कर रही थीं तब उन्होंने उत्तरी अमेरिकी मिलिपेड (North American Millipede) की एक तस्वीर को देखा।

यह एक प्रकार का परजीवी कवक है। यह एक व्यवस्था या ऑर्डर के अंतर्गत आते हैं जिसे लबोउलबेंनिअलेस (Laboulbeniales) कहा जाता है। ये छोटे परजीवी कवक होते हैं जो कीड़े एवं मिलीपेड पर हमला करते हैं। लबोउलबेंनिअलेस (Laboulbeniales) को पहली बार 19वीं शताब्दी के मध्य में खोजा गया था।

  • न्यूज़ीलैंड सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर चलाई जा रही संरक्षण परियोजना के कारण पिछले दो वर्षों में वनों में पाए जाने वाले काकी (Kaki) पक्षियों की संख्या को दोगुना करने में मदद मिली है।

संरक्षण परियोजना के कारण न्यूजीलैंड में वयस्क काकी पक्षियों की आबादी में 30% की वृद्धि हुई है। न्यूज़ीलैंड के जंगलों में अब कुल 169 काकी पक्षी हैं। न्यूज़ीलैंड के संरक्षण विभाग ने लगभग 40 वर्ष पहले अपना ‘काकी रिकवरी प्रोग्राम’ (Kaki Recovery Program) लॉन्च किया था और तब से इन दुर्लभ एवं अद्वितीय पक्षियों की आबादी बढ़ाने की दिशा में काम कर रहा है। ये पक्षी न्यूज़ीलैंड के मैकेंज़ी बेसिन (Mackenzie Basin) और दक्षिण द्वीप (South Island) में बड़े पैमाने पर प्रजनन करते हैं। काकी (Kaki): ‘काकी’ को ब्लैक स्टिल्ट (Black Stilt) भी कहा जाता है। यह न्यूज़ीलैंड का स्थानीय पक्षी है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘हिमांटोपस नोवेज़ीलैंडिया’ (Himantopus Novaezelandiae) है। इसका शरीर व चोंच काले रंग की होती है तथा इसके लंबे पैर गुलाबी रंग के होते हैं। IUCN की रेड लिस्ट में इसे ‘गंभीर संकटग्रस्त’ (Critically Endangered) की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है।

  • अफ्रीका महाद्वीप में बोत्सवाना (Botswana) के प्रसिद्ध ओकावांगो डेल्टाई क्षेत्र में सैकड़ों हाथियों की रहस्यमय तरीके से मौत हो गई। अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिणी में स्थित बोत्सवाना एक भू-आबद्ध देश है।

बोत्सवाना दुनिया की सबसे बड़ी हाथी आबादी वाला देश है जहाँ हाथियों की अनुमानित संख्या लगभग 130,000 है। यहाँ के ओकावांगो डेल्टाई क्षेत्र के उत्तर में मृत हाथियों की संख्या 356 दर्ज की गई है इनमें से 275 हाथियों की मृत्यु की पुष्टि हो चुकी है। इन मृत हाथियों की संख्या को एक वन्यजीव संरक्षण चैरिटी ‘एलीफैंट विदाउट बॉर्डर्स’ (Elephants Without Borders- EWB) द्वारा चिह्नित किया गया था, जिसकी गोपनीय रिपोर्ट में 356 मृत हाथियों का जिक्र किया गया है। एलीफैंट विदाउट बॉर्डर्स (Elephants Without Borders): अफ्रीकी महाद्वीप के बोत्सवाना गणराज्य में ‘एलीफैंट विदाउट बॉर्डर्स’ (EWB) एक गैर-लाभकारी, कर-मुक्त, पंजीकृत संगठन है। EWB बोत्सवाना के सीमावर्ती शहर काज़ुंगुला (Kazungula) में स्थित है जहाँ बोत्सवाना, नामीबिया, ज़ाम्बिया एवं ज़िम्बाब्वे की सीमाएँ ज़ाम्बेजी नदी के साथ मिलती हैं। EWB आधिकारिक समर्थन के तहत अंगोला, बोत्सवाना, नामीबिया, ज़ाम्बिया एवं ज़िम्बाब्वे के बीच सन्निहित वन्यजीवों के लिये अपनी परियोजनाओं एवं गतिविधियों का संचालन करता है। बोत्सवाना को वन्यजीव संरक्षण के लिये मिली सफलताओं के लिये जाना जाता है। यहाँ के वन्यजीव हॉट-स्पॉट EWB के लिये आदर्श स्थान है जो शोधकर्त्ताओं को हाथियों के आवास, प्रवास पैटर्न, व्यवहार एवं उनका पारिस्थितिकी अध्ययन करने की सुविधा प्रदान करते हैं। ओकावांगो डेल्टाई क्षेत्र (Okavango Delta region): बोत्सवाना में ओकावांगो डेल्टाई क्षेत्र एक दलदली अंतर्देशीय डेल्टा है जहाँ ओकावांगो नदी कालाहारी के एंडोरेहिक बेसिन (Endorheic Basin) के मध्य भाग में एक विवर्तनिक गर्त तक पहुँचती है। यह क्षेत्र कभी मक्गादिक्गादी झील (Makgadikgadi Lake) का हिस्सा था जो एक प्राचीन झील थी और होलोसीन युग के दौरान सूख गई थी। इस डेल्टा को अफ्रीका महाद्वीप के सात प्राकृतिक आश्चर्यों में से एक के रूप में नामित किया गया था जिसकी आधिकारिक घोषणा पर वर्ष 2013 में तंज़ानिया में की गई थी। वर्ष 2014 में ओकावांगो डेल्टा को आधिकारिक तौर पर यूनेस्को (UNESCO) की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया था।

  • ‘स्ट्रिआनास्सा लेराई’ (Strianassa Lerayi) झींगा (Shrimp) की एक नई प्रजाति की खोज प्रशांत महासागर में पनामा के कोइबा नेशनल पार्क (Coiba National Park) में स्मिथसोनियन ट्रॉपिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (Smithsonian Tropical Research Institute- STRI) के समुद्री जीवविज्ञानियों ने की है।

झींगा की खोजी गई यह नई प्रजाति ‘स्ट्रिआनास्सा लेराई’ (Strianassa Lerayi) लाओमेडीडाए (Laomediidae) परिवार से संबंधित है।‘स्ट्रिआनास्सा लेराई’ (Strianassa Lerayi) के अतिरिक्त कोइबा नेशनल पार्क में STRI टीम ने वर्ष 2019 के बाद से झींगा की अन्य निम्नलिखित प्रजातियों की खोज की है। यूनिस्कोनिया कोइबेंसिस (Unesconia Coibensis): इस प्रजाति का जीनस नाम यूनिस्कोनिया (Unesconia), यूनेस्को (UNESCO) से लिया गया है जिसने वर्ष 2005 में कोइबा नेशनल पार्क को विश्व विरासत स्थल घोषित किया था। पचेलफेअस पाच्याकैंथस (Pachelpheus Pachyacanthus) ट्राईकैंथोनस ब्लैंका (Triacanthoneus Blanca) कोइबा नेशनल पार्क (Coiba National Park):

चिरिकुई की खाड़ी (Gulf of Chiriquí) में अवस्थित कोइबा नेशनल पार्क पनामा के प्रशांत महासागरीय तट से दूर एक समुद्री रिज़र्व है। कोइबा नेशनल पार्क में 38 द्वीपों का एक समूह शामिल है। गौरतलब है कि कोइबा (Coiba), मध्य अमेरिका का सबसे बड़ा द्वीप है। वर्ष 1992 में पनामा ने कोइबा नेशनल पार्क बनाया था जिसमें 1042 वर्ग मील के क्षेत्र में वन, मैंग्रोव एवं प्रवाल भित्तियाँ आदि शामिल हैं। वर्ष 2005 में यूनेस्को (UNESCO) द्वारा विश्व विरासत स्थल का दर्जा पाने वाला कोइबा नेशनल पार्क समृद्ध एवं संरक्षित प्राकृतिक संसाधन का क्षेत्र है।

  • उत्तरी कॉर्सिका (Corsica) द्वीप के जंगलों में लोमड़ी जैसी दिखने वाली बिल्ली (Cat fox) की एक नई प्रजाति पाई गई है, जो आकार में पालतू बिल्लियों से बड़ी है। यह बिल्ली अब तक की अज्ञात प्रजातियों का हिस्सा है संभवतः यह हज़ारों साल पहले अफ्रीका या मध्य पूर्व में उत्पन्न हुई थी। इसकी पूंछ चक्राकार और रदनक दांत (Canine Teeth) ‘अत्यधिक विकसित’ होते हैं। इन्हें चैट-रेनार्ड (Chat-Renard) या ‘कैट-फॉक्स’ (Cat-Fox) के रूप में भी जाना जाता है। इस बिल्ली के डीएनए (DNA) का विश्लेषण किये जाने के बाद यह स्पष्ट किया गया है कि यह यूरोप में पाई जाने वाली जंगली बिल्ली, फेलिस सिल्वट्रिस सिल्विस्ट्रिस (Felis silvestris silvestris) की प्रजाति से भिन्न हैं। लेकिन अफ्रीकी जंगली बिल्ली, फेलिस सिल्वेस्ट्रिस लिबिका (Felis Silvestris Lybica) की प्रजाति से इसके लक्षण काफी मिलते जुलते हैं।

फिलहाल अभी तक इसकी निश्चित पहचान नहीं की जा सकी है।

  • पूर्वोत्तर मेडागास्कर के उष्णकटिबंधीय जंगलों में माउस लेमूर (Mouse Lemur) की एक नई प्रजाति पाई गई है। यह दुनिया में सबसे छोटे प्राइमेट्स में से एक जिसकी लंबाई नाक से पूंछ तक लगभग 26 सेमी (10.2 इंच) है और इसका द्रव्यमान केवल 60 ग्राम है। इसे माइक्रोसेबस जोनाही (Microcebus Jonahi) का नाम दिया गया है।

मेडागास्कर में सभी माउस लेमूर प्रजातियों का लगभग एक तिहाई (31%) अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) गंभीर रूप से लुप्तप्राय (Critically Endangered) श्रेणी में है। वर्ग:-यह छोटे शरीरवाला, सर्वभक्षी, निशाचर प्राइमेट, माइक्रोसेबस (Microcebus) वर्ग से संबंधित है। संकट:-प्राकृतिक आवास को नुकसान और इनसे संबंधित क्षेत्र में भूमि के उपयोग में लगातार परिवर्तन इनकी विलुप्ति का कारण बनते जा रहे हैं।

  • महाराष्ट्र के गोंदिया शहर में दीवार से टकराने के कारण ‘काला हिरण’ (Blackbuck) की मौत हो गई। काला हिरण (Blackbuck) जिसे ‘भारतीय मृग’ के रूप में भी जाना जाता है यह भारत के अतिरिक्त भारतीय उपमहाद्वीप में नेपाल एवं पाकिस्तान में भी पाया जाने वाला एक मृग है। इसे बांग्लादेश से विलुप्त घोषित किया जा चुका है। यह आंध्रप्रदेश, पंजाब एवं हरियाणा का राजकीय पशु है। यह उन घास के मैदान एवं कम घने जंगलों में निवास करता है जहाँ जल की नियमित उपलब्धता होती है। यह मध्य एवं पश्चिमी भारत (मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र एवं ओडिशा) और दक्षिणी भारत (कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु) में पाया जाता है।

राजस्थान का बिश्नोई समुदाय विश्व भर में ‘काले हिरण’ एवं चिंकारा के संरक्षण के लिये किये गए प्रयासों के लिये जाना जाता है। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 की अनुसूची-I के तहत भारत में काला हिरण (Blackbuck) का शिकार निषिद्ध है। इसे ‘अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ’ (International Union for Conservation of Nature- IUCN) की रेड लिस्ट में ‘संकटमुक्त’ (Least Concern) श्रेणी में रखा गया है।

  • अवायवीय श्वसन करने वाले जीव हेनेगुया सालमिनिकोला (Henneguya Salminicola) की खोज इज़राइल में तेल अवीव विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओं ने एक की।

यह जेलीफिश के आकार का एक छोटा परजीवी है जो ऑक्सीजन के बिना जीवित रह सकता है। यह परजीवी सालमन मछली (Salmon Fish) के अंदर पाया जाता है तथा यह अवायवीय श्वसन पर निर्भर रहते हैं। इस परजीवी में माइटोकांड्रिया नहीं पाया जाता है।

कवक एवं अमीबा जैसे जीव अवायवीय वातावरण में पाए जाते हैं तथा समय के साथ साँस लेने की क्षमता खो देते हैं।

इस परजीवी की खोज ने जीव जगत के बारे में विज्ञान की धारणाओं को चुनौती दी है क्योंकि सभी जीव वायवीय श्वसन करते हैं और श्वसन में ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं।

 
ब्रुनेई
  • क्रास्पेडोट्रोपिस ग्रेटाथनबर्ग ब्रुनेई में खोजा गया घोंघे की एक नई प्रजाति। इसका नामकरण स्वीडन की जलवायु परिवर्तन का विरोध करनेवाली कार्यकर्त्ता ग्रेटाथनबर्ग के सम्मान में किया गया।

यह नई प्रजाति उष्णकटिबंधीय वर्षावनों में निवास करती हैं और सूखे एवं अत्यधिक तापमान के प्रति संवेदनशील है।

हाल ही में बीटल की एक छोटी प्रजाति का नाम भी उनके नाम पर नेलोप्टोडे ग्रेटे रखा गया था। वर्ष 2018 में बीटल की एक नई प्रजाति (ग्रोवेल्लिनस लियोनार्डोडिकैप्रियो-Grouvellinus Leonardodicaprioi) का नाम लियोनार्डो डिकैप्रियो (एक अमेरिकी अभिनेता, निर्माता और पर्यावरणविद्) के नाम पर रखा गया था।
  • वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि कनाडा के अल्बर्टा (Alberta) में वर्ष 2010 में पाया गया डायनासोर का एक जीवाश्म इसकी नई प्रजाति टायरानोसोर (Tyrannosaur) की है।

वैज्ञानिकों ने इसे थानाटोथेरिस्तेस (THANATOTHERISTES) अर्थात् ‘रीपर ऑफ डेथ’ नाम दिया है। टायरानोसोर बड़े मांसाहारी डायनासोरों में से एक थे जिनकी खोपड़ी बड़ी एवं ऊँची थी। इनमें प्रमुख रूप से टायरानोसोरस रेक्स (Tyrannosaurus Rex) प्रसिद्ध थे। शोधकर्त्ताओं ने उत्तरी अमेरिका के सुदूर उत्तर में टायरानोसोर का जीवाश्म पाया है जो 79 मिलियन वर्ष पुराना है। इसी जीवाश्म के आधार पर कनाडा के अल्बर्टा (Alberta) में वर्ष 2010 में पाए गए डायनासोर के जीवाश्म के बारे में पता लगाया गया। टायरानोसोर के जीवाश्म से क्रिटेशियस युग (Cretaceous Period) को समझने में आसानी होगी क्योंकि इसी काल में टायरानोसोरस पृथ्वी पर घूमते थे। क्रेटेशियस एक भूवैज्ञानिक अवधि है जो लगभग 145-66 मिलियन वर्ष पहले तक थी। यह मेसोज़ोइक युग की तीसरी और अंतिम अवधि है।

 
प्लैटिपस [IUCN- निकट संकटग्रस्त (Near Threatened)]
  • बायोलॉजिकल कंज़र्वेशन पत्रिका के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण आस्ट्रेलिया में विनाशकारी सूखे की वजह से प्लैटिपस (Platypus) विलुप्त होने के कगार पर है।

पूर्वी ऑस्ट्रेलिया और तस्मानिया में पाया जाता है। यह एक स्तनधारी जीव है जो बच्चे को जन्म देने के बजाय अंडे देता है। ओरनिथोरिनचिडे (Ornithorhynchidae) परिवार की एकमात्र जीवित प्रजाति है। हालाँकि जीवाश्म रिकॉर्ड में अन्य संबंधित प्रजातियों का जिक्र किया गया है। यह मोनोट्रेम (Monotreme) की पाँच विलुप्त प्रजातियों में से एक है। मोनोट्रेम जीवित स्तनधारियों के तीन मुख्य समूहों में से एक है इसके दो अन्य समूह हैं- प्लेसेंटल्स (यूथेरिया-Eutheria) और मार्सुपियल्स (मेटाथेरिया-Metatheria) यह एक ज़हरीला स्तनधारी जीव है तथा इसमें इलेक्ट्रोलोकेशन की शक्ति होती है, अर्थात् ये किसी जीव का शिकार उसके पेशी संकुचन द्वारा उत्पन्न विद्युत तरंगों का पता लगाकर करते हैं।

  • वैज्ञानिकों ने ऑस्ट्रेलियाई मच्छरों में पाए गए एक नए वायरस को यादा यादा वायरस (Yada Yada Virus-YYV) का नाम दिया है।

यह एक अल्फावायरस है। अल्फावायरस, पाज़िटिव-सेंस सिंगल-स्ट्रेंडेड आरएनए वायरस (Positive-sense Single-Stranded RNA Virus or (+)ssRNA virus) के एक जीनोम के साथ छोटे, गोलाकार,आवरण युक्त विषाणु होते हैं। पाज़िटिव-सेंस RNA वायरस में हेपेटाइटिस सी वायरस, वेस्ट नील वायरस, डेंगू वायरस, और SARS और MERS कोरोनावायरस शामिल हैं। यह वायरस के एक ऐसे समूह से संबंधित है जिसमें चिकुनगुनिया वायरस (Chikungunya Virus) और ईस्टर्न इक्वाइन इंसेफेलाइटिस वायरस (Eastern Equine Encephalitis Virus) जैसे अन्य अल्फावायरस शामिल हैं। ये मुख्य रूप से मच्छरों द्वारा प्रसारित होते हैं। कुछ अन्य अल्फावायरस के विपरीत यादा यादा वायरस मनुष्य के लिए कम खतरनाक है।

  • इन-विट्रो-फर्टिलाइज़ेशन प्रक्रिया का उपयोग करके उत्तरी सफेद राइनो का एक भ्रूण[CR-IUCN] बनाया है।

वर्तमान में विश्व में केवल दो उत्तरी सफेद राइनो हैं। सफेद राइनो (White Rhino) हाथी के बाद दूसरा सबसे बड़ा स्थलीय स्तनपायी है। सफेद राइनो के ऊपरी होंठ वर्गाकार होने के कारण इसे वर्गाकार होंठ वाले गैंडे (Square-lipped Rhinoceros) के रूप में भी जाना जाता है। इसकी आनुवंशिक रूप से भिन्न दो उप-प्रजातियाँ (उत्तरी सफेद राइनो और दक्षिणी सफेद राइनो) मौजूद हैं और ये अफ्रीकी महाद्वीप में दो अलग-अलग क्षेत्रों में पाए जाते हैं। सफेद राइनो को IUCN की लाल सूची में निकट संकटग्रस्त (Near Threatened) की श्रेणी में रखा गया है और इसकी उप-प्रजातियों में उत्तरी सफेद राइनो को अतिसंकट ग्रस्त (Critically Endangered) तथा दक्षिणी सफेद राइनो को निकट संकटग्रस्त (Near Threatened) की श्रेणी में रखा गया है।

अफ्रीकी राइनो के बारे में

अफ्रीका महाद्वीप में एक काला राइनो भी पाया जाता है जिसकी संख्या बहुत कम बची है और इसकी तीन उप-प्रजातियाँ पहले से ही विलुप्त हो चुकी हैं। काला राइनो को IUCN-अतिसंकटग्रस्त (Critically Endangered)

एशियाई राइनो के बारे में

भारतीय राइनो [सुभेद्य (Vulnerable)], अफ्रीकी राइनो से अलग है और इसका केवल एक सींग होता है। एक जावा राइनो भी है जिसका एक सींग होता है और एक सुमात्रा राइनो जिसके अफ्रीकी राइनो की तरह दो सींग होते हैं।

 
इक्वाडोर (Ecuador) का गैलापागोस नेशनल पार्क
  • डिएगो(Diego)[Critically Endangered-IUCN]नामक विशालकाय कछुए को इक्वाडोर (Ecuador) के गैलापागोस नेशनल पार्क के कैप्टिव प्रजनन कार्यक्रम से अवकाश दे दिया गया।

डिएगो को एस्पानॉला द्वीप (Española Island) पर वापस लौटा दिया गया जहाँ से इसे लगभग 80 वर्ष पहले लिया गया था। डिएगो का वैज्ञानिक नाम चेलोनोइडिस हुडेंसिस (Chelonoidis Hoodensis) है। डिएगो की उम्र 100 वर्ष है और इसे वर्ष 1976 में प्रजनन कार्यक्रम में शामिल किया गया था तब से कछुओं की आबादी 15 से बढ़कर 2,000 हो गई है। डिएगो की गर्दन लंबी,चेहरा हल्का पीला और आँखें चमकीली होती हैं। इसकी अधिकतम लंबाई पाँच फीट और वज़न लगभग 176 पाउंड होता है।

गैलापागोस नेशनल पार्क इक्वाडोर का पहला राष्ट्रीय उद्यान है,जिसे वर्ष 1959 में बनाया गया था। गैलापागोस द्वीपसमूह को वर्ष 1978 में यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थल के रूप में नामित किया गया था।
  • मगर (क्रोकोडायलस पेलोस्ट्रिस)Mugger (Crocodylus Palustris)[सुभेद्य (Vulnerable)-IUCN]:-

वार्षिक मगरमच्छ जनगणना (Annual Crocodile Census) के अनुसार,ओडिशा के गंजम जिले के घोड़हाडा जलाशय (Ghodahada Reservoir) और उसके आसपास के क्षेत्र में मगर (Mugger Crocodile) की संख्या बढ़ गई है। इसे मार्श क्रोकोडाइल (Marsh Crocodile) या स्वैम्प क्रोकोडाइल (Swamp Crocodile) भी कहा जाता है। यह उत्तरी भारत के एक छोटे से हिस्से को छोड़कर अधिकांश भारत पाया जाता है। यह पूर्व में म्यांमार से लेकर पश्चिम में ईरान के मध्य पाया जाता है।

मगर अधिकतर ताजे पानी जैसे नदियों,झीलों,पहाड़ी धाराओं और गाँव के तालाबों में पाया जाता है किंतु यह ताजे पानी और तटीय खारे पानी के लैगून में रह सकता है।

यह ओडिशा में पाई जाने वाली तीन मगरमच्छ प्रजातियों में से एक है इसके इतर दो अन्य सतकोसिया के घड़ियाल और भितरकनिका में खारे पानी के मगर हैं। यह मगर अन्य मगरमच्छ प्रजातियों की तुलना में कम आक्रामक होता है और ये जलाशय एवं उसके आस-पास के तालाबों की मछलियों को आहार के रुप में उपयोग करते हैं।

घोड़हाडा जलाशय ओडिशा के लखारी घाटी अभयारण्य (Lakhari Valley Sanctuary) के पास स्थित है और यह पूर्वी घाट का एक हिस्सा है। इस जलाशय को जल, घोड़हाडा नदी (Ghodahada River) से प्राप्त होता है जो रुशिकुल्या (Rushikulya) की सहायक नदी है।
 
चीनी पैडलफिश
  • साइंस ऑफ द टोटल एन्वायरनमेंट (Science of the Total Environment) पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में ताज़े पानी की सबसे बड़ी मछलियों में से एक चीनी पैडलफिश (Chinese Paddlefish) को विलुप्त घोषित किया गया। 7 मीटर यानी 23 फीट लंबी इस मछली की

उत्पत्ति 200 मिलियन साल पहले हुई थी जब धरती पर डायनासोर की उपस्थिति थी।

इसके पैतृक निवास चीन के यांग्त्ज़ी नदी (Yangtze River) में अंतिम बार वर्ष 2003 में देखा गया था।

पैडलफिश की छह ज्ञात प्रजातियाँ है जिनमें चार विलुप्त प्रजातियों (तीन पश्चिमी उत्तरी अमेरिका से और एक चीन से) को केवल जीवाश्मों से जाना जा सकता है। एक मौजूद प्रजाति अमेरिकी पैडलफिश (पॉलयोडोन स्पथुला-Polyodon spathula) का मूल निवास संयुक्त राज्य अमेरिका की मिसिसिपी नदी (Mississippi River) में है, जबकि चीनी पैडलफिश को वर्ष 2019 में विलुप्त घोषित कर दिया गया।

 
भंगुर सितारें(Brittle stars)
  • पहली बार शोधकर्त्ताओं ने पता लगाया है कि आँखें न होने के बावजूद भंगुर सितारों (Brittle Stars) की एक प्रजाति देख सकती है।

आँखों के बिना देखने की क्षमता को नेत्रेतर दृष्टि (Extraocular Vision) के रूप में जाना जाता है। समुद्री अर्चिन प्रजातियों (Sea Urchin Species) के बाद लाल भंगुर सितारा (Ophiocoma Wendtii-ओफियोकोमा वेंडटी) ऐसा दूसरा समुद्री जीव है जिसकी नेत्रेतर दृष्टि होती है।

समुद्री अर्चिन (Sea Urchin) और भंगुर सितारे के शरीर पर पाई जाने वाली फोटोरिसेप्टर कोशिकाएँ नेत्रेतर दृष्टि जैसी सुविधा प्रदान करती हैं। ये प्रकाश-संवेदी कोशिकाओं (Light-Sensing Cells) की मदद से देखता है जो उसके पूरे शरीर को ढँके होती हैं। ये प्रकाश-संवेदी कोशिकाएँ भंगुर तारे में दृश्य उत्तेजना (Visual Stimuli) उत्पन्न करती हैं जिससे यह चट्टानों जैसी मोटे संरचनाओं को पहचान लेता है।
लाल भंगुर सितारे (Red Brittle Star) का सांकेतिक रुप से रंग बदलना इसकी एक अन्य विशेषता है। यह जीव दिन में गहरे लाल रंग का होता है,किंतु रात में गहरे पीले रंग में बदल जाता है।

चर्चित भारतीय जीव सम्पादन

  • पहली बार पूर्वोत्तर भारत के त्रिपुरा राज्य से प्राप्त हुए हॉग बैजर (Hog Badger)[Vu-IUCN] के तीन शावकों को पोषण के लिये सेपाहीजला वन्यजीव अभयारण्य (Sepahijala Wildlife Sanctuary) में स्थानांतरित कर दिया गया है। सुअर एवं भालू दोनों की विशेषता वाले ये जीव छोटे फलों एवं जानवरों को खाता है। वर्ष 2019 में इन्हें पूर्वोत्तर भारत के असम राज्य में देखा गया था।
सेपाहीजला वन्यजीव अभयारण्य (Sepahijala Wildlife Sanctuary)अगरतला शहर से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित त्रिपुरा राज्य के चार अभयारण्यों में सबसे बड़ा है। यह अभयारण्य कृत्रिम झील तथा प्राकृतिक वनस्पति एवं प्राणि उद्यान से घिरा हुआ है। यह अभयारण्य तेंदुए के बाड़ों के लिये प्रसिद्ध है।
  • चितकबरे कोयल (Pied Cuckoo) के प्रवास पैटर्न का अध्ययन करने हेतू भारतीय वन्यजीव संस्थान,देहरादून एवं भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान (Indian Institute of Remote Sensing- IIRS) का एक संयुक्त प्रयास एक परियोजना (इसरो के अंतर्गत) में नैनो तकनीक का उपयोग किया जा रहा है। इस पक्षी का प्रवास पैटर्न भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसून के आगमन से संबंधित है।

भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान(Indian Institute of Remote Sensing- IIRS): भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान (I IRS), भारत सरकार के अंतरिक्ष विभाग के राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र के अंतर्गत एक प्रमुख प्रशिक्षण एवं शिक्षण संस्थान है। इसे सुदूर संवेदन, भू-सूचना एवं प्राकृतिक संसाधनों तथा आपदा प्रबंधन हेतु GPS प्रौद्योगिकी में व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिये गठित किया गया है। इसकी स्थापना वर्ष 1966 में की गई थी। चितकबरा कोयल (Pied Cuckoo):-मूल रूप से चितकबरे कोयल की तीन उप-प्रजातियाँ हैं जिनमें एक अफ्रीका का निवासी पक्षी है वहीँ दूसरा दक्षिण भारत का निवासी पक्षी है। जबकि तीसरा भारत एवं अफ्रीका के बीच विचरण करने वाला प्रवासी पक्षी है और यह गर्मियों के दौरान भारत में चला जाता है एक छोटा, स्थलीय पक्षी होने के कारण इस कोयल के लिये समुद्र पार करना अधिक जोखिम वाला होता है। चितकबरा कोयल उत्तर भारतीय लोक कथाओं में 'चातक' (Chatak) पक्षी के रूप में प्रसिद्ध है जो केवल बारिश की बूंदों से अपनी प्यास बुझाता है। प्रत्येक वर्ष प्रजनन के लिये यह दक्षिणी अफ्रीका से हिमालय की तलहटी (जम्मू से असम तक फैली) में आता है। ये पक्षी प्रत्येक वर्ष एक ही इलाके में आते हैं।

यह एक ब्रूड (Brood) परजीवी पक्षी है जो अपना घोंसला नहीं बनाता है बल्कि अन्य पक्षियों विशेष रूप से जंगल बब्बलर (Jungle Babbler) के घोंसले में अपना अंडा देता है।

जंगल बब्बलर (Jungle Babbler)(अर्ग्या स्ट्रिअटा-Argya striata) भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले लियोथ्रीचिडे (Leiothrichidae) परिवार का सदस्य है। ये पक्षी छह से दस पक्षियों के छोटे समूहों में दिखाई देते हैं जिसके कारण इन्हें उत्तरी भारत के शहरों में ‘सात बहन’ के नाम से भी जाना जाता है। जबकि बंगाली में इन्हें ‘सात भाई’ के स्थानीय नाम से जाना जाता है। जंगल बब्बलर को IUCN की रेड लिस्ट में कम चिंताजनक (Least Concern) की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है। इसे (चितकबरे कोयल) IUCN की रेड लिस्ट में कम चिंताजनक (Least Concern) की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है। परियोजना: चितकबरे कोयल के प्रवास पैटर्न से संबंधित अध्ययन भारतीय जैव संसाधन सूचना (Indian Bioresource Information- IBIN) नामक बड़ी परियोजना के अंतर्गत किया जा रहा है। जिसे केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय (Union Ministry of Science and Technology) के तहत प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा वित्त पोषित किया गया है। उद्देश्य: इस परियोजना का उद्देश्य वेब पोर्टल के माध्यम से भारत के प्रासंगिक जैव संसाधन (पौधे, पशु एवं अन्य जैविक जीव) की जानकारी देना है। अन्य प्रमुख बिंदु: IBIN परियोजना में विभिन्न जैव विविधता एवं पर्यावरणीय पैरामीटर शामिल किये गए हैं जो परिवर्तित जलवायु परिदृश्यों में चितकबरे कोयले के संभावित वितरण पर अनुमानित जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का आकलन करने में मदद करेंगे।

  • जून, 2020 में मध्य प्रदेश वन विभाग की नवीनतम डॉल्फिन जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, 425 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य में सिर्फ 68 डॉल्फिनस (En-IUCN) बची हैं जो तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान) से होकर गुजरती हैं। पिछले चार वर्षों में चंबल नदी में डॉल्फिन की संख्या में 13% की कमी आई है। वर्ष 2016 में चंबल में डॉल्फिन की संख्या 78 थी। वर्ष 2016 से ही डॉल्फिन की संख्या में घटने की प्रवृत्ति लगातार जारी है। अवैध शिकार और प्रतिकूल आवासमुख्य कारण है।

देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान के शोधकर्त्ताओं जो चंबल नदी में डॉल्फिन पर शोध कर रहे हैं, के अनुसार:- चंबल नदी में डॉल्फिन की अधिकतम वहन क्षमता 125 है। डॉल्फिन को टिकाऊ आवास (Sustainable Habitat) के लिये नदी में कम-से-कम 3 मीटर गहराई और 266.42-289.67 क्यूबिक मीटर प्रति सेकंड का जल प्रवाह होना आवश्यक है। चंबल नदी डॉल्फिन की एक दुर्लभ प्रजाति (प्लैटनिस्टा गैंगेटिका- Platanista Gangetica) का निवास स्थान है और इसे IUCN की रेड लिस्ट में लुप्तप्राय (Endangered) श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है। डॉल्फिन की शारीरिक विशेषताएँ:-इसकी आँखें अल्पविकसित (Rudimentary) होती हैं। ‘शिकार करने’ से लेकर ‘सर्फिंग’ (नदी या समुद्र की लहरों के साथ तैरना) तक की सभी प्रक्रियाओं में डॉल्फिन अल्ट्रासोनिक ध्वनि (20,000 हर्ट्ज से अधिक वाली सभी ध्वनियाँ) का प्रयोग करती है। डॉल्फिन तेज़ी से बढ़ते शिकार को पकड़ने के लिये शंक्वाकार दाँतों का उपयोग करती है। इनके पास अच्छी तरह से विकसित श्रवण क्षमता होती है जो हवा एवं पानी दोनों के लिये अनुकूलित है।

चंबल नदी में वर्ष 1985 में पहली बार इटावा (उत्तर प्रदेश) के पास चंबल नदी में डॉल्फिन को देखा गया था। उस समय इनकी संख्या 110 से अधिक थी किंतु अवैध शिकार ने संख्या को कम कर दिया। भी है। इससे चंबल नदी में न केवल डॉल्फिन, बल्कि घड़ियालों की आबादी भी प्रभावित हुई है।

राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य की स्थापना वर्ष 1979 में चंबल नदी की 425 किलोमीटर की लंबाई के साथ की गई थी। इसे राष्ट्रीय चंबल घड़ियाल वन्यजीव अभयारण्य भी कहा जाता है। यह उत्तर भारत में ‘गंभीर रूप से लुप्तप्राय’ घड़ियाल, रेड क्राउन्ड रूफ कछुए (Red-Crowned Roof Turtle) और लुप्तप्राय गंगा डॉल्फिन (राष्ट्रीय जलीय पशु) के संरक्षण के लिये 5,400 वर्ग किमी. में फैला त्रिकोणीय राज्य संरक्षित क्षेत्र है। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 (Wildlife Protection Act of 1972) के तहत संरक्षित क्षेत्र है। इस अभयारण्य परियोजना का प्रबंधन उत्तर प्रदेश वन विभाग के वन्यजीव विंग द्वारा किया जाता है और इसका मुख्यालय आगरा में है। उच्चतम न्यायालय की सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी (Central Empowered Committee- CEC): वर्ष 2006 में, उच्चतम न्यायालय की ‘सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी’ (CEC) ने चंबल नदी की वनस्पतियों एवं जीवों को बचाने के लिये अभयारण्य क्षेत्र में खनन पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था किंतु अवैध रेत खनन एवं जल की अनुचित खपत चंबल नदी के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को खतरे में डाल रही है। चंबल नदी तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान) की एक जीवन रेखा है। जहाँ इसके जल का प्रतिदिन उपयोग किया जाता है। वहीँ मध्यप्रदेश के भिंड एवं मुरैना तथा राजस्थान के धौलपुर में अवैध बालू खनन का धंधा जारी है।

  • हिमालयी तितली ‘गोल्डन बर्डविंग’ (Golden Birdwing) को 88 वर्षों के बाद भारत की सबसे बड़ी तितली के रूप में खोजा गया। वैज्ञानिक नाम ‘ट्रॉइडस आइकस’ (Troides aeacus) है। इस तितली की प्रजाति ने उस अज्ञात प्रजाति का स्थान लिया है जिसे एक ब्रिटिश सेना अधिकारी ब्रिगेडियर इवांस (Brigadier Evans) ने वर्ष 1932 में खोजा था।

गोल्डन बर्डविंग की खोज:-‘मादा गोल्डन बर्डविंग’ को उत्तराखंड के दीदीहाट (Didihat) से जबकि ‘नर गोल्डन बर्डविंग’ मेघालय के शिलांग में ‘वानखर तितली संग्रहालय’ (Wankhar Butterfly Museum) से खोजा गया। गोल्डन बर्डविंग की विशेषताएँ: इस प्रजाति के पंखों की लंबाई 194 मिलीमीटर तक होती है। इस प्रजाति की मादा गोल्डन बर्डविंग, दक्षिणी बर्डविंग (190 मिलीमीटर) की तुलना में मामूली रूप से बड़ी होती है। इससे पहले सबसे बड़ी भारतीय तितली जो वर्ष 1932 में दर्ज की गई थी वह ‘दक्षिणी बर्डविंग’ (Southern Birdwing) प्रजाति से ही संबंधित थी। जिसे तब ‘कॉमन बर्डविंग’ (Common Birdwing) [वैज्ञानिक नाम- ट्रॉइडेस हेलेना (Troides Helena)] की उप-प्रजाति के रूप में माना जाता था। दक्षिणी बर्डविंग (Southern Birdwing) का वैज्ञानिक नाम ‘ट्रॉइडेस मिनोस’ (Troides Minos) है। इसके पंखों की लंबाई 140-190 मिलीमीटर तक होती है। इसे भारत की सबसे बड़ी तितलियों में से एक माना जाता है। IUCN की रेड लिस्ट में ‘अत्यंत कम संकट’ (Least Concern) की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है। हालाँकि ब्रिगेडियर इवांस ने जिस तितली की माप की थी वह अज्ञात थी और किसी अन्य तितली के पंखों को 190 मिलीमीटर के रूप में नहीं मापा गया जिसे उन्होंने खोजा था। नर गोल्डन बर्डविंग के पंखों की लंबाई 106 मिलीमीटर होती है। जो मादा गोल्डन बर्डविंग से अत्यंत छोटा होता है। मापक (Measurement):-शल्कपंखी या लेपिडाॅॅप्टेरा (Lepidoptera) के अध्ययन में उपयोग किया जाने वाला एकमात्र पैमाना या माप ‘पंखों के फैलाव की माप’ है। इसमें तितलियों को ‘उनके पंखों के आधार’ से ‘ऊपरी छोर’ तक मापा जाता है।

  • ‘वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन सोसाइटी’ (WCS) भारत, फ्लोरिडा विश्वविद्यालय (यूएसए), वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट (WCT) और ‘नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज़’ (NCBS) के वैज्ञानिकों ने पारिस्थितिकी, सामाजिक, राजनीतिक एवं प्रशासनिक हस्तक्षेपों के संयोजन का उपयोग करके भारत में लुप्तप्राय ढोल (Dhole)[En-IUCN,CITES की परिशिष्ट II] के संरक्षण के लिये एक रूपरेखा का प्रस्ताव किया है।हालिया एक नए अध्ययन के अनुसार, कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश भारत में लुप्तप्राय ढोल के संरक्षण में उच्च स्थान पर हैं।

शीर्षक ‘भारत में लुप्तप्राय ढोल (कुऑन अल्पाइन-Cuon Alpines) के संरक्षण के लिये एक रणनीतिक रोड मैप’ नामक अध्ययन हाल ही में प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘मैमल रिव्यू’ (Mammal Review) में प्रकाशित हुआ था। अध्ययन में बताया गया है कि ढोल, भारत के 2342 उप-ज़िलों में से 685 उप-ज़िलों के 49% निवास स्थान को अधिग्रहीत किये हैं। ढोल (Dhole): -यह मध्य, दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशिया के उष्णकटिबंधीय वनों में निवास करने वाला एक शीर्ष सामाजिक मांसाहारी जीव है। इसे ‘एशियाई जंगली कुत्ता’ (Asiatic Wild Dog) के रूप में भी जाना जाता है। बाघ के अलावा भारत में ढोल एकमात्र बड़ा मांसाहारी है। वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 [Wildlife (Protection) Act] के तहत अनुसूची II में सूचीबद्ध किया गया है।

  • फिशिंग कैट (Fishing Cat)[En-IUCN] के लिये दो वर्षीय संरक्षण परियोजना की शुरूआत ओडिशा के वन विभाग द्वारा केंद्रपाड़ा (Kendrapara) ज़िले के भीतरकनिका नेशनल पार्क में की। एक प्रकार की मछली पकड़ने वाली बिल्लियाँ हैं। यह एक प्रसिद्ध प्रजाति नहीं है और इन्हें मगरमच्छों जैसा दर्ज़ा भी नहीं दिया गया है किंतु इसके संरक्षण का एक मुख्य उद्देश्य इस प्रजाति को लेकर लोगों में जागरूकता पैदा करना है। इस ‘संरक्षण परियोजना’ को वन विभाग (ओडिशा) द्वारा वित्त पोषित किया जाएगा। CITES के अनुच्छेद-IV की परिशिष्ट-II में सूचीबद्ध

भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 (Indian Wildlife (Protection) Act, 1972) की पहली अनुसूची के तहत भी वर्गीकृत किया गया है।

वर्ष 2019 में भीतरकनिका नेशनल पार्क में एक ‘स्तनधारी जनगणना’ (Mammal Census) के दौरान केवल 20 फिशिंग कैट को देखा गया था किंतु यह जनगणना दिन में की गई थी इसलिये पार्क में फिशिंग कैट की आबादी पर कोई सटीक पारिस्थितिक डेटा उपलब्ध नहीं है।

भीतरकनिका क्षेत्र में झींगा माफियाओं ने आर्द्र भूमि एवं मैंग्रोव वनों को झींगा क्षेत्र में परिवर्तित करके जलीय पारिस्थितिकी को नष्ट कर दिया है। जिससे फिशिंग कैट्स के निवास स्थान के लिये भी संकट उत्पन्न हो रहा है। रेंगने वाले जीवों की जनगणना (Reptile Census) हाल ही में भीतरकनिका नेशनल पार्क में खारे जल के मगरमच्छों के लिये संपन्न की गई थी। जनवरी 2020 की रेंगने वाले जीवों की जनगणना (Reptile Census) के अनुसार, भीतरकनिका (पश्चिम बंगाल के सुंदरबन के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन क्षेत्र) 1757 खारे पानी के मगरमच्छों का निवास स्थान है।

  • मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर ज़िले में ‘यलो इंडियन बुलफ्रॉग’ (Yellow Indian Bullfrog) का एक बड़े समूह को देखा गया। ‘इंडियन बुलफ्रॉग’ में मादाओं को आकर्षित करने के लिये मानसून के दौरान रंग बदलने की क्षमता होती है।‘इंडियन बुलफ्रॉग’ आमतौर पर चमकीले पीले रंग के नहीं होते हैं किंतु नर प्रजनन के दौरान रंग बदल सकते हैं।

मानसून काल के दौरान जब इनका प्रजनन काल शुरू होता है तो ये बुलफ्रॉग अपने रंग को हल्के हरे रंग से बदलकर पीला कर लेते हैं। इंडियन बुलफ्रॉग: ‘इंडियन बुलफ्रॉग’ का वैज्ञानिक नाम ‘होप्लाबत्राचुस टाइगरीनस’ (Hoplobatrachus Tigerinus) है। इसे आमतौर पर बुलफ्रॉग (Bullfrog), गोल्डन फ्रॉग (Golden Frog), टाइगर फ्रॉग (Tiger Frog) आदि नामों से भी जाना जाता है। इसे IUCN की रेड लिस्ट में कम चिंताजनक (Least Concern) की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है। यह अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भारत, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान की देशज प्रजाति है। इसे भारतीय वन्यजीव अधिनियम, 1972 (Indian Wildlife Act, 1972) अनुसूची-IV में सूचीबद्ध किया गया है। अर्थात् इस प्रजाति के विलुप्त होने का खतरा नहीं है किंतु इसके शिकार करने पर जुर्माना लगाया जाता है।

नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश में एक लोकप्रिय मंदिर शहर है जिसका नाम हिंदू देवता नरसिंह के नाम पर रखा गया है। यह शहर अपने मंदिर के लिये प्रसिद्ध है जो भगवान नरसिंह को समर्पित है जिन्हें भगवान विष्णु का एक उग्र अवतार माना जाता था। जो आधे शेर एवं आधे आदमी के रूप में अवतरित हुए थे। इस मंदिर का निर्माण 18वीं शताब्दी में खिरवार (Khirwar) वंश से संबंधित जाट सरदारों द्वारा किया गया था जो भगवान नरसिंह के अनुयायी थे। नरसिंहपुर के प्राचीन नरसिंह मंदिर को राज्य संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है।

अगस्त में 125 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद वैज्ञानिकों ने मुंबई (महाराष्ट्र) के पास माथेरान हिल स्टेशन (Matheran Hill Station) में 77 नई प्रजातियों सहित तितलियों की 140 दुर्लभ प्रजातियों की खोज की है। वर्ष 1894 में एक शोधकर्त्ता जे. ए. बेंथम (J.A. Betham) ने इस पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र (माथेरान हिल स्टेशन) में 78 तितली की प्रजातियों की पहचान करते हुए उन्हें संहिताबद्ध किया था। ‘बायोडायवर्सिटी डेटा जर्नल’ (Biodiversity Data Journal) में प्रकाशित बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी और सोमैया विद्या विहार विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए एक शोध पत्र ‘फाइंडिंग द फॉरगाटेन जेम्स: रीविज़िटिंग द बटरफ्लाईस ऑफ माथेरान आफ्टर 125 इयर्स’ (Finding the forgotten gems: Revisiting the butterflies of Matheran after 125 years) में माथेरान हिल स्टेशन में दुर्लभ तितलियों के बारे में जानकारी दी गई है। शोध पत्र में कहा गया है कि तितलियों की विविधता में एक दृढ़ मौसमी बदलाव को परिलक्षित होते देखा गया है। शीत ऋतु के दौरान तितलियों की अधिकतम विविधता (125) दर्ज की गई जबकि मानसून के दौरान सबसे कम (80) थी। इसमें वर्ष 2011 से वर्ष 2019 के बीच सर्वेक्षण की गई तितलियों की प्रजातियों को सूचीबद्ध किया गया है।

  • आरापैमा (Arapaima) और एलिगेटर गार (Alligator Gar)जलीय आक्रामक मत्सय प्रजातियां

बादल फटने से आने वाली बाढ़ और जलवायु परिवर्तन के चलते भारत में जलीय आक्रामक विदेशी प्रजातियों के प्रवेश में वृद्धि हुई। केरल विश्व विद्यालय द्वारा कराये गए एक अध्ययन में यह जानकारी सामने आई कि वर्ष 2018 में आई बाढ़ के चलते केरल की आर्द्र्भूमियों में कुछ हानिकारक मत्सय प्रजातियों [जैसे- आरापैमा (Arapaima) और एलिगेटर गार (Alligator Gar) ने प्रवेश किया। ये अवैध रूप से आयातित मत्सय प्रजातियाँ हैं जिन्हें देश भर में सजावटी और वाणिज्यिक मत्सय व्यापारियों द्वारा पाला जाता है।

एलियन शिकारी मछलियाँ आसानी से नए पारिस्थितिकी तंत्र में खुद को आसानी से ढाल लेती हैं। एक बार पारिस्थितिकी तंत्र में ढल जाने के बाद ये मछलियाँ मूल प्रजातियों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने लगती हैं। उदाहरण के लिये- गोल्ड फिश, अमेरिकन कैटफ़िश, टाइनी गप्पी, थ्री-स्पॉट गौरामी

गोल्ड फिश: यह मछली जलीय वनस्पतियों के साथ ही मूल प्रजातियों के वंश-वृद्धि क्षेत्र को भी कम करती है अमेरिकन कैटफिश: यह मछली अत्यधिक चराई (Overgrazing) की वज़ह से खाद्य श्रृंखला को प्रभावित करती है। ये मछलियाँ शैवाल भक्षक भी कहलाती हैं। वर्तमान में भारत के किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश में ऐसी आक्रामक सजावटी और व्यावसायिक रूप से महत्त्वपूर्ण मत्स्य प्रजातियों के अवैध पालन, प्रजनन एवं व्यापार के संबंध में कोई सुदृढ़ नीति या कानून मौजूद नहीं है।

विदेशी आक्रमणकारी समुद्री प्रजातियाँ
विदेशी आक्रमणकारी समुद्री प्रजातियों में सबसे अधिक संख्या जीनस एसाइडिया (Ascidia) (31) की है।

इसके बाद इस क्रम में आरथ्रोपोड्स (Arthropods) (26), एनालडि्स (Annelids) (16), सीनिडेरियन (Cnidarian) (11), ब्रायोजन (Bryzoans) (6), मोलास्कस (Molluscs) (5), टेनोफोरा (Ctenophora) (3) और एन्टोप्रोकटा (Entoprocta) (1) का स्थान आता है। विशेषज्ञों के अनुसार, टूब्रैसट्रिया कोकसीनी (Tubastrea Coccinea) अथवा ऑरेंज कप-कोरल, यह प्रजाति इंडो-ईस्ट पैसिफिक में पाई जाती है, लेकिन अब यह प्रजाति अंडमान निकोबार द्वीप समूह, कच्छ की खाड़ी, केरल और लक्षद्वीप के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रही है।

  1. अवैध स्टॉकिंग (Illegal stocking):-उदाहरण के लिये, तमिलनाडु में अवैध रूप से आयातित सजावटी और व्यावसायिक रूप से महत्त्वपूर्ण मत्स्य प्रजातियों की स्टॉकिंग एक मुनाफे का व्यवसाय है। उत्तरी चेन्नई में कोलाथुर अपने सजावटी मछली व्यापार (80 से अधिक दुकानें) के लिये जाना जाता है और क्षेत्र के अधिकांश निवासी 150-200 विदेशी सजावटी मछली प्रजातियों के प्रजनन और बिक्री में संलग्न हैं। इन प्रजातियों के प्रजनन के लिये अधिकतर छोटे सीमेंट के गढ्ढों, मिट्टी के तालाबों, प्लास्टिक-लाइन वाले पूलों, होमस्टेड तालाबों आदि का उपयोग किया जाता हैं। इस क्षेत्र में आने वाली मौसमी मानसूनी बाढ़ विदेशी प्रजातियों के प्रजनन स्टॉक और वयस्क मछलियों को बहाकर ताज़े जल में प्रवेश करा देती है।
  2. मानसून के मौसम में जलाशयों में वर्षा की मात्रा, जल स्तर और परिवहन, संचार और बिजली सहित आवश्यक सेवाओं के विषस्य में विवरण जारी किया जाता हैं लेकिन इससे जैव-विविधता को होने वाले नुकसान के विषय में कोई जानकारी नहीं दी जाती है।
  3. विभिन्न नदी प्रणालियों में पाई जाने वाली प्रमुख भारतीय मत्स्य प्रजातियां नील टीलापिया, अफ्रीकी कैटफिश, थाई पंगुस जैस कई विदेशी प्रजातियों के आक्रमण के कारण प्रभावित हुई हैं। ये स्थानीय जल निकायों से पहले से विद्यमान प्राकृतिक प्रजातियों के विलुप्त होने में भी योगदान करती हैं।
 
आर्मीवार्म कैटरपिलर
  • COVID-19 के अप्रैल माह में राष्ट्रव्यापी लाकडाउन के कारण असम के धेमाजी ज़िले के जिन क्षेत्रों में फसल की कटाई नहीं हो पाई थी वहाँ आर्मीवार्म कैटरपिलर (Armyworm Caterpillar) के हमले से फसल को नुकसान हुआ है।

कीट-पतंगों की कई प्रजातियों के लार्वल स्टेज (Larval Stage) वाले आर्मीवार्म कैटरपिलर में तीव्र भूख होती है,यह कैटरपिलर पौधों की 80 से अधिक प्रजातियों को खाता है। इस कैटरपिलर हमले के पीछे मौसम भी एक कारक है क्योंकि मानसून पूर्व की बारिश ने असम में कृषि के लिये विपरीत स्थिति उत्पन्न कर दी है। वहीं असम में अभी तापमान काफी अधिक है और वर्षा न होने पर आर्मीवार्म कीट फसलों को अधिक नुकसान पहुँचा सकते हैं।

आर्मीवार्म धान की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले कैटरपिलर हैं। इसकी कम-से-कम तीन प्रजातियाँ हैं जो एशिया महाद्वीप में धान की फसल को नुकसान पहुँचाती हैं। ये निम्नलिखित हैं-
  1. राइस स्वार्मिंग कैटरपिलर (Rice Swarming Caterpillar)
  2. कॉमन कटवार्म (Common Cutworm)
  3. राइस ईयर-कटिंग कैटरपिलर (Rice Ear-cutting Caterpillar)

आर्मीवॉर्म धान के पौधे के आधार (जड़ के पास) पर पत्तियों एवं नई रोपी गई फसल को काटकर खाता है। भारी वर्षा के बाद सूखे की अवधि आर्मीवॉर्म के विकास के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है। सूखे खेतों में आर्मीवॉर्म मिट्टी या चावल के पौधों के आधार में पाए जा सकते हैं।

  • ब्लैक रेडस्टार्ट (Black Redstart) [बहुत कम संकट (Least Concern)-IUCN] एक छोटे आकार का पक्षी है जो औद्योगिक एवं शहरी क्षेत्रों में रहने के लिये अनुकूल है।

इसका वैज्ञानिक नाम फाॅनिकुरुस ऑक्रूरोस (Phoenicurus Ochruros) है। नर ब्लैक रेडस्टार्ट का ऊपरी भाग काला होता है जो सर्दियों में कुछ ग्रे रंग का दिखाई देता है। इसके सिर का ऊपरी हिस्सा एवं पीठ का निचला हिस्सा ग्रे रंग का होता है। जबकि मादा ब्लैक रेडस्टार्ट का ऊपरी हिस्सा हल्का भूरा-धूसर होता है और इसकी पूँछ नर ब्लैक रेडस्टार्ट के समान ही होती है। यह पक्षी मुख्य रूप से अकशेरुकी कीटों एवं जामुन जैसे छोटे फलों को भोजन के रूप में ग्रहण करता है। यह हिमालय क्षेत्र में 2400-5200 मीटर की ऊँचाई पर प्रजनन करता है और सर्दियों में भारतीय उपमहाद्वीप के मैदानी एवं पठारी भागों में निवास करता है।

 
तिब्बती गैज़ल,गोवा निकट संकट (Near Threatened)
  • तिब्बती गैज़ल(Tibetan Gazelles) को गोआ-प्रोकाप्रा पिक्टीकाउडाटा (Goa-Procapra Picticaudata) के नाम से भी जाना जाता है।

तिब्बती गैज़ल एंटीलोपिना उप-परिवार (Antilopinae Sub-family) का सदस्य है। यह मृग की एक प्रजाति है जो तिब्बत के पठारी क्षेत्र में समुद्र तल से 4000-5500 मीटर की ऊँचाई पर निवास करती है। इसकी एक छोटी आबादी दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी लद्दाख के भारतीय चांगथांग एवं उत्तरी सिक्किम के गुरुडोंगमार-त्सो ल्हामो पठार में पाई जाती है।

  • फ्लेम-थ्रोटेड बुलबुल(Flame-Throated Bulbul)[IUCN) की रेड लिस्ट में ‘संकट बहुत कम’ (Least Concern)] जिसे रूबिगुला (Rubigula) भी कहा जाता है, को 36वें राष्ट्रीय खेलों के शुभंकर के रूप में चुना गया है। 36वें राष्ट्रीय खेल वर्ष 2020 में 20 अक्तूबर से 4 नवंबर के बीच आयोजित किया जाएगा।

फ्लेम-थ्रोटेड बुलबुल गोवा का राजकीय पक्षी है। यह प्रायद्वीपीय भारत में दक्षिणी आंध्र प्रदेश,पूर्वी कर्नाटक,गोवा,ओडिशा,पूर्वी केरल और उत्तरी तमिलनाडु में पाई जाती है। इसे वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के तहत अनुसूची- IV में रखा गया है।

 
रेड-व्हिस्कर्ड बुलबुल
  • रेड-व्हिस्कर्ड बुलबुल (Red-whiskered Bulbul)[संकटमुक्त (Least Concern)-IUCN] को आमतौर पर उद्यानों में गीत गाने वाले पक्षी इसे क्रेस्टेड बुलबुल (Crested Bulbul) भी कहते हैं। इसका वैज्ञानिक नाम पायक्नोनोटस जोकोसस (Pycnonotus Jocosus)है।
  • यह पक्षी विश्व के कई उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में तथा मुख्य रुप से एशिया में पाया जाता है।
  • इसकी लंबाई 20 सेमी. होती है। इसके ऊपरी हिस्से का रंग गहरा भूरा, जबकि निचले हिस्से का रंग सफेद होता है। इसके गाल पर एक सफेद पैच और सिर पर एक काली शिखा होती है।

की श्रेणी में रखा गया है।

  • अर्बन लिज़ार्ड(Urban Lizard):-असम के गुवाहाटी में छिपकली की एक नई प्रजाति अर्बन बेंट- टोऐड गेको (Urban Bent-Toed Gecko) की खोज की गई। मुख्य रूप से मेघालय की खासी पहाड़ियों में पाई जाने के कारण इसे पहले खासी हिल्स छिपकली के समान माना जाता था।

पूर्वोत्तर भारत की सभी बेंट- टोऐड गेको को एकल प्रजाति माना जाता था।

  • डॉल्फिन जनगणना के अनुसार ओडिशा की चिल्का झील में 146 इरावदी डॉल्फिन [En-IUCN] मिले।

इरावदी डॉल्फिन का वैज्ञानिक नाम ऑरकाले ब्रेविरियोस्ट्रिस (Orcaella Brevirostris) है। यह एक सुंदर स्तनपायी जलीय जीव है। इसकी दो प्रजातियाँ पाई जाती हैं:-इरावदी डॉल्फिन एवं स्नब-फिन-डॉल्फिन। इस प्रजाति का नाम म्याँमार की इरावदी नदी के नाम पर रखा गया है। इरावदी नदी में ये बड़ी संख्या में पाई जाती हैं। इरावदी नदी इनका प्राकृतिक वासस्थल है। चिल्का झील अति संकटापन्न इरावदी डॉल्फिनों का प्राकृतिक आवास है। इसका जल स्थिर होने के कारण यह डॉल्फिन के लिये अनुकूल है। यहाँ ये बहुतायत में पाई जाती हैं। वार्षिक डॉल्फिन जनगणना (Annual Dolphin Census): ओड़िशा के वन और पर्यावरण विभाग द्वारा ओडिशा राज्य में वार्षिक डॉल्फिन जनगणना की गई।

डॉल्फिन की गणना में हाइड्रोफोन निगरानी तकनीक का प्रयोग किया गया। हाइड्रोफोन एक माइक्रोफोन है जिसे पानी के नीचे की आवाज़ को रिकॉर्ड करने या सुनने के लिये इस्तेमाल किया जाता है।
  • एशियाई जलीय पक्षी गणना (Asian Waterbird Census) के दौरान आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में स्टेपी ईगल (Steppe Eagle) को देखा गया है।

यह दूसरी बार है जब पिछले दो दशकों में आंध्र प्रदेश में एक स्टेपी ईगल देखा गया है। इसका वैज्ञानिक नाम एक्विला निपलेंसिस (Aquila Nipalensis) है, यह ईगल के एसीपीट्रिडी (Accipitridae) परिवार से संबंधित है। यह प्रजाति पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया में पाई जाती है। ये पक्षी मुख्यतः घास के मैदानों, अर्द्ध-मरुभूमि, धान के खेत व खुले जंगलों में रहना पसंद करते है। ये सर्दियों के मौसम में भारत के अलग-अलग हिस्सों में यूरोप, कज़ाखस्तान, मंगोलिया व चीन आदि देशों से आते हैं। यह एक शिकारी पक्षी है।[IUCN-संकटग्रस्त (Endangered) श्रेणी में] रखा गया है। भारत में ये गैर-प्रजनन समय में आते हैं। माना जाता है कि स्टेपी ईगल भारत की दूसरी सबसे बड़ी प्रवासी ईगल प्रजाति है। स्टेपी ईगल की कम होती संख्या के मुख्य कारणों में निवास स्थान में कमी, बिजली के तारों से टकराव, खाद्य स्रोतों में जड़ी-बूटियों/कीटनाशकों/पशु चिकित्सकीय दवाओं (जैसे-डिक्लोफेनाक) द्वारा होने वाली विषाक्तता आदि शामिल है। स्टेपी ईगल को कज़ाखस्तान के राष्ट्रीय ध्वज में स्थान दिया गया है।

 
बार हेडेड गीज़
  • बार हेडेड गीज़ (Bar Headed Geese) ने कर्नाटक में कुंडवाड़ा झील (Kundavada Lake) की बजाय कोंडाज्जी झील (Kondajji Lake) को अपना निवास स्थान बनाया। मध्य चीन और मंगोलिया में पाया जाता है और ये सर्दियों के दौरान भारतीय उप-महाद्वीप में प्रवास करते हैं तथा मौसम के अंत तक रहते हैं।
कुंडवाड़ा झील (Kundavada Lake)कर्नाटक के दावणगेरे शहर को पीने का पानी उपलब्ध कराती है।

कुंडवाड़ा झील के आसपास के क्षेत्र में कृषि भूमि के बड़े हिस्से को आवासीय क्षेत्र में बदलने के कारण बार हेडेड गीज़ के आवास एवं आहार में कमी हो गई। किसानों द्वारा आसपास के कृषि क्षेत्र में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग।

कोंडाज्जी झील (Kondajji Lake)कर्नाटक के दावणगेरे शहर से लगभग 14 किलोमीटर दूर स्थित है। यह झील पर्यटकों के प्रमुख आकर्षणों में से एक है क्योंकि यह विभिन्न पक्षी प्रजातियों का निवास स्थान है। यहाँ दक्षिण भारत का प्रमुख स्काउट्स और गाइड्स प्रशिक्षण केंद्र भी है।
  • पुणे में नेशनल सेंटर फॉर माइक्रोबियल रिसोर्स के वैज्ञानिकों ने एक नए आर्किया का पता राजस्थान की सांभर झील में लगाया है। आर्किया,सूक्ष्मजीवों का एक प्राचीन समूह है जो गर्म झरनों, ठंडे रेगिस्तानों और अति लवणीय झीलों जैसे आवासों में पनपता है।

शोधकर्त्ताओं ने जीनोम विश्लेषण के आधार पर पता लगाया है कि इन जीवों में जीन क्लस्टर के निर्माण की क्षमता होती है जो बेहद कठोर परिस्थितियों में जीवित रहने के लिये आर्किया के उपापचय को बनाए रखने में मदद करते हैं। ये जीव धीमी गति से बढ़ते हैं और मनुष्य की आँतों में भी मौजूद होते हैं। इनमें मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करने की क्षमता होती है। विश्व के वैज्ञानिक आर्किया के वर्गीकरण पर काम कर रहे हैं किंतु आर्किया पर किये गए अध्ययनों से इस संबंध में बहुत कम जानकारी प्राप्त हुई है कि ये मानव शरीर में कैसे काम करते हैं। ये रोगाणुरोधी अणुओं के उत्पादन के लिये, अपशिष्ट जल उपचार में अनुप्रयोगों के लिये तथा एंटीऑक्सिडेंट गतिविधियों के लिये जाने जाते हैं। ये विशेष जीव डीएनए की प्रतिकृति, पुनर्संयोजन और मरम्मत में सहायता प्रदान करते हैं। नट्रीअल्बा स्वरूपिए (Natrialba Swarupiae) इस नए आर्किया को नट्रीअल्बा स्वरूपिए (Natrialba Swarupiae) नाम जैव प्रौद्योगिकी विभाग की सचिव डॉ रेनू स्वरूप की देश में माइक्रोबियल विविधता अध्ययनों में उनकी पहल के लिये दिया गया है।

नेशनल सेंटर फॉर माइक्रोबियल रिसोर्स (National Centre for Microbial Resource) इसकी शुरुआत वर्ष 2009 में माइक्रोबियल कल्चर कलेक्शन (MCC) के रूप में हुई थी। यह भारत के विभिन्न पारिस्थितिकी आवासों से एकत्र किये गए जीवाणुओं को संरक्षित करने और उन्हें सूचीबद्ध करने तथा शोधकर्त्ताओं को जैव-तकनीकी अन्वेषण के लिये उपलब्ध कराने का काम करता है। अप्रैल 2017 में माइक्रोबियल कल्चर कलेक्शन (MCC) को नेशनल सेंटर फ़ॉर माइक्रोबियल रिसोर्स (NCMR) में बदल दिया गया। यह नेशनल सेंटर फॉर सेल साइंस का एक हिस्सा है। नेशनल सेंटर फॉर सेल साइंस (National Centre for Cell Science) यह सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय (महाराष्ट्र) में स्थित एक राष्ट्रीय स्तर का जैव प्रौद्योगिकी, ऊतक इंजीनियरिंग और ऊतक बैंकिंग अनुसंधान केंद्र है। यह भारत के प्रमुख अनुसंधान केंद्रों में से एक है, जो सेल-कल्चर, सेल-रिपॉजिटरी, इम्यूनोलॉजी, क्रोमैटिन-रिमॉडलिंग पर कार्य करता है।

 
ईल
  • भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के तहत आने वाले एश्चुअरी बायोलॉजी रीज़नल सेंटर (Estuarine Biology Regional Centre- EBRC) ने समुद्री ईल (EEL) की नई प्रजाति का पता लगाया है।

यह भारत के तटीय क्षेत्र में पाए जाने वाली ओफिचथुस (Ophichthus) वर्ग की आठवीं प्रजाति है और पिछले दो वर्षों में ओडिशा के गोपालपुर में स्थित समुद्री केंद्र द्वारा खोजी गई पाँचवीं नई प्रजाति है। ओफिचथुस (Ophichthus) वर्ग की सात प्रजातियों की पहचान पहले ही भारत के तटीय क्षेत्र में की जा चुकी है। इस नई समुद्री ईल प्रजाति की खोज को प्राणी वर्गीकरण के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिका ज़ूटाक्सा (Zootaxa) ने भी स्वीकार किया है।

इस नई समुद्री प्रजाति को ओफिचथुस कैलाशचंद्रई (Ophichthus Kailashchandrai) नाम भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के निदेशक डॉ कैलाश चंद्र की भारतीय जीव वर्गीकरण में अहम योगदान का सम्मान करने के लिये दिया गया है।
भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के ओडिशा स्थित केंद्र द्वारा वर्ष 2019 में समुद्री ईल की दो नई प्रजातियों जिम्नोथोरैक्स अंडमानेसेसिस (Gymnothorax Andamanensesis) और जिम्नोथोरैक्स स्मिथी (Gymnothorax Smithi) की खोज की गई।

इसके दो उप-परिवार हैं- ईल के ओफिचथिडै (Ophichthidae) परिवार में दो उप-परिवार शामिल हैं-

  1. म्य्रोफिने (Myrophinae) (69 प्रजातियाँ)
  2. ओफिचथिने (Ophichthinae) (276 प्रजातियाँ)

विशेषताएँ:-ये समुद्र में लगभग 50 मीटर की गहराई पर रहते हैं। इसकी लंबाई लगभग 420 मिमी. से 462 मिमी. होती है। ये हल्के भूरे रंग के होते हैं और इनके सफेद पंख होते हैं। इनके पास अच्छी तरह से विकसित एक पृष्ठीय पंख होता है। इनके दाँत मध्यम लंबे एवं शंक्वाकार होते हैं। ये छोटी मछलियों और केकड़ों का शिकार करते हैं।

  • तमिलनाडु के कुछ क्षेत्रों में व्हाइटफ्लाइ (Whitefly) की वजह से नारियल की फसल को नुकसान हो रहा है।

व्हाइटफ्लाइ (इसे ग्लासहाउस व्हाइटफ्लाइ या ग्रीनहाउस व्हाइटफ्लाइ भी कहा जाता है।) एक कीट है जो विश्व के समशीतोष्ण क्षेत्रों में निवास करता है। इसका वैज्ञानिक नाम ट्रायलेरोड्स वेपरारिओरम (Trialeurodes vaporariorum) है। एक वयस्क व्हाइटफ्लाइ की लंबाई 1-2 मिमी. होती है इसके शरीर का रंग हल्का पीला और चार सफेद पंख होते हैं। व्हाइटफ्लाइ, हेमिप्टेरन्स(Hemipterans) हैं जो आम तौर पर पौधे की पत्तियों के नीचे के हिस्से को खाते हैं। गौरतलब है कि भारत में कुल नारियल उत्पादन का लगभग 11% तमिलनाडु के पोलाची क्षेत्र में होता है।

  • ओडिशा के गंजम ज़िले के सुनापुर तट के पास 14.9 फीट लंबी व्हेल शार्क (Whale shark) मृत पाई गई।

इसका वैज्ञानिक नाम रिंकोडॉन टायपस (Rhincodon Typus) है। वर्तमान मछली प्रजातियों में व्हेल शार्क सबसे बड़ी शार्क मछली है। व्हेल शार्क हानिरहित, धीमी गति से चलने वाले स्तनधारी होते हैं। उनके दाँतों की कई पंक्तियाँ होती हैं किंतु इनकी भोजन ग्रहण करने में कोई भूमिका नहीं होती है। वे भोजन के लिये प्लवक (Plankton) पर निर्भर रहते हैं और अपने विशाल आकार को बनाए रखने एवं प्रजनन के लिये पर्याप्त भोजन खोजने हेतु लंबी दूरी की यात्रा करते हैं। व्हेल शार्क विश्व के सभी उष्णकटिबंधीय महासागरों (Tropical Oceans) में पाए जाते हैं। इसे अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature- IUCN) की रेड लिस्ट में संकटग्रस्त (Endangered) श्रेणी में रखा गया है और इसे CITES (Convention of International Trade in Endangered Species of Wild Fauna and Flora) के परिशिष्ट II (Appendix II) में, जबकि भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत अनुसूची I में रखा गया है।

  • चिल्का झील में फिशिंग कैट, स्मूथ कोटेड ओटर और एक यूरेशियन ओटर (Eurasian Otter) की उपस्थिति दर्ज की गई है।
फिशिंग कैट (Fishing Cat)[संवेदनशील (V)-IUCN,CITES के परिशिष्ट II,भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम,1972 के तहत अनुसूची I में रखा गया है।]

यह भारत में गंगा एवं ब्रह्मपुत्र नदी की घाटियों,पश्चिमी घाट,हिमालय की तलहटी,सुंदरवन के मैंग्रोव वनों में मुख्य रूप से पाई जाती है।

स्मूथ कोटेड ओटर(Smooth-Coated Otter)पूरे भारत में हिमालय से लेकर सुदूर दक्षिण भारत तक में पाए जाते हैं।

IUCN-संवेदनशील (Vulnerable) श्रेणी में,CITES के परिशिष्ट II में,जबकि भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत अनुसूची II में रखा गया है।

यूरेशियन ओटर(Eurasian Otter)का वैज्ञानिक नाम लुट्रा लुट्रा (Lutra lutra) है।IUCN-निकट संकट (Near Threatened),CITES की परिशिष्ट I (Appendix I) में जबकि भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत अनुसूची II में रखा गया है।

यूरेशिया में (पश्चिम में आयरलैंड से लेकर पूर्वी रूस एवं चीन तक) पाए जाते हैं। इसके अलावा ये उत्तरी अफ्रीका (मोरक्को,अल्जीरिया और ट्यूनीशिया) और मध्य पूर्व(इज़राइल,जॉर्डन,इराक और ईरान) में भी पाए जाते हैं।

  • विश्व के सबसे छोटे समुद्री कछुए ओलिव रिडले[अतिसंवेदनशील (Vulnerable)-IUCN] प्रत्येक वर्ष अंडे देने के लिये ओडिशा के समुद्री तट के पास रुशिकुल्या नदी के मुहाने पर आते हैं। यहाँ इसके लिए सारी तैयारियाँ कर ली गई हैं। इन्हें ‘प्रशांत ओलिव रिडले समुद्री कछुओं’ के नाम से भी जाना जाता है। ये मुख्य रूप से प्रशांत, हिंद और अटलांटिक महासागरों के गर्म जल में पाए जाने वाले समुद्री कछुओं की एक मध्यम आकार की प्रजाति है। ये मांसाहारी होते हैं।

ओलिव रिडले कछुए हज़ारों किलोमीटर की यात्रा कर ओडिशा के गंजम तट पर अंडे देने आते हैं और फिर इन अंडों से निकले बच्चे समुद्री मार्ग से वापस हज़ारों किलोमीटर दूर अपने निवास-स्थान पर चले जाते हैं। लगभग 30 साल बाद यही कछुए जब प्रजनन के योग्य होते हैं, तो ठीक उसी जगह पर अंडे देने आते हैं, जहाँ उनका जन्म हुआ था। दरअसल अपनी यात्रा के दौरान वे भारत में गोवा, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश के समुद्री तटों से गुज़रते हैं, किंतु प्रजनन करने और घर बनाने के लिये ओडिशा के समुद्री तटों की रेत को ही चुनते हैं।

  • वन्यजीवों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण (Conservation of Migratory Species of Wild Animals-CMS) पर 13वें COP की मेज़बानी भारत करेगा

इस सम्मेलन में एशियाई हाथी (Asian Elephant)और ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (Great Indian Bustard)को वैश्विक संरक्षण सूची में शामिल किया जाएगा। भारत को अगले तीन वर्षों के लिये कान्फ्रेंस आफ पार्टीज़ (COP) का अध्यक्ष नामित किया गया है। इस सम्मेलन के तहत ऐसी प्रजातियाँ,जो विलुप्ति के कगार पर हैं या जिनका अस्तित्व संकट में है, को परिशिष्ट-। में सूचीबद्ध किया जाता है। वे प्रजातियाँ जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से मदद की ज़रूरत है, उन्हें परिशिष्ट-।। में शामिल किया गया है। CMS:-संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम(UNEP) के तत्त्वावधान में एक पर्यावरण संधि के रूप में CMS प्रवासी जानवरों और उनके आवासों के संरक्षण और स्थायी उपयोग के लिये एक वैश्विक मंच प्रदान करता है। इसे बॉन कन्वेंशन (Bonn Convention) के नाम से भी जाना जाता है। CMS वैश्विक एवं संयुक्त राष्ट्र आधारित अंतर सरकारी संगठन है जिसे विशेष रूप से स्थलीय,जलीय और एवियन प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण एवं प्रबंधन के लिये स्थापित किया गया है।

  • मध्य प्रदेश वन विभाग ने पहली बार एक इंडियन पैंगोलिन को रेडियो-टैग किया है। [नौवाँ विश्व पैंगोलिन दिवस 15 फरवरी,2020 को मनाया गया।]

रेडियो-टैगिंग में एक ट्रांसमीटर द्वारा किसी वन्यजीव की गतिविधियों पर नज़र रखी जाती है। इससे पहले कई वन्यजीवों जैसे- बाघ, तेंदुआ और प्रवासी पक्षियों को भी टैग किया जा चुका है। इंडियन पैंगोलिन की पारिस्थितिकी विशेषताओं एवं प्रभावी संरक्षण योजना विकसित करने के तरीके के बारे में जानने के लिये इसे रेडियो-टैग किया गया है। रेडियो-टैगिंग, वन विभाग और वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट (WCT) नामक गैर-लाभकारी संगठन की एक संयुक्त परियोजना का हिस्सा है। पैंगोलिन की आठ प्रजातियों में इंडियन पैंगोलिन(En) और चीनी पैंगोलिन(Cr-IUCN)भारत में पाए जाते हैं। यह एक बड़ा चींटीखोर (Anteater) है जिसकी पीठ पर शल्कनुमा संरचना की 11-13 पंक्तियाँ होती हैं।

इंडियन पैंगोलिन की पूँछ के निचले हिस्से में एक टर्मिनल स्केल मौजूद होता है जो चीनी पैंगोलिन में नहीं मिलता है।
इंडियन पैंगोलिन व्यापक रूप से शुष्क क्षेत्रों,उच्च हिमालय एवं पूर्वोत्तर भारत को छोड़कर शेष भारत में पाया जाता है। यह प्रजाति बांग्लादेश,पाकिस्तान,नेपाल और श्रीलंका में भी पाई जाती है।

चीनी पैंगोलिन पूर्वी नेपाल में हिमालय की तलहटी क्षेत्र में, भूटान, उत्तरी भारत, उत्तर-पूर्वी बांग्लादेश और दक्षिणी चीन में पाया जाता है।

  • विश्व की सबसे बड़ी केव फिश (Cave Fish)मेघालय राज्य की जयंतिया पहाड़ी में स्थित उम लाडाव (Um Ladaw) गुफा से खोजी गई।

पृथ्वी पर भूमिगत मछली (Subterranean Fish) की लगभग 250 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। कम भोजन की उपलब्धता होने के कारण ये बहुत छोटी(औसतन 8.5 सेमी.)होती हैं। जबकि पूर्वोत्तर भारत में पाई गई इस केव फिश की लंबाई लगभग एक फुट तक है और यह अब तक ज्ञात केव फिश से 10 गुना भारी है। इस प्रजाति की आँखें नहीं है और यह गोल्डन महसीर (Golden Mahseer) के समान प्रतीत होती है।

गोल्डन महसीर को भारतीय नदियों के बाघ के रूप में जाना जाता है।[संकटग्रस्त (Endangered)-IUCN] गोल्डन महासीर सबसे लंबे समय तक जीवित रहने वाली मीठे पानी की मछली है जो पहाड़ों एवं उप-पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है।
  • फ्लेमिंगो महोत्सव का आयोजन जनवरी-2020 के पहले सप्ताह में पुलीकट झील के पास किया गया।

आंध्र प्रदेश के नेल्लोर ज़िले में स्थित पुलिकट झील समृद्ध जैव-विविधता एवं मछली, झींगे और प्लैंक्टन के उच्च बायोमास के लिये प्रसिद्ध है। [१] इस बार यहाँ ब्लैक-टेल्ड गॉडविट (Black-Tailed Godwit) और केंटिश प्लोवर (Kentish Plover) जैसे दुर्लभ प्रवासी पक्षी भी देखे जा रहे हैं। पुलिकट झील: यह चिल्का झील (ओडिशा) के बाद देश की दूसरी सबसे बड़ी खारे पानी की झील है। आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु की सीमा पर स्थित इस झील का 96% भाग आंध्र प्रदेश एवं 4% भाग तमिलनाडु के अंतर्गत आता है। पुलिकट झील को तमिल भाषा में पजहवेर्कादु एरी कहा जाता है। बंगाल की खाड़ी से यह झील श्रीहरिकोटा द्वारा अलग होती है जो एक बैरियर द्वीप की तरह कार्य करता है। ग्रे पेलिकन (Grey Pelican), चित्रित सारस (Painted Stork) जैसे पक्षियों की प्रजातियाँ प्रत्येक वर्ष यहाँ आती हैं। ग्रे पेलिकन (Grey Pelican) और चित्रित सारस (Painted Stork) दोनों को IUCN की लाल सूची में ‘निकट संकटग्रस्त’ (Near Threatened) श्रेणी में रखा गया है।

मरुभूमि राष्ट्रीय उद्यान जैसलमेर के संरक्षण केंद्र में 9 स्वस्थ ग्रेट इंडियन बस्टर्ड चूजों के जन्म की पुष्टि सम्पादन

  • ग्रेट इंडियन बस्टर्ड या सोन चिड़िया विश्व में सबसे अधिक वज़न के उड़ने वाले पक्षियों में से एक है,यह पक्षी मुख्यतया भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है।
  • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 की अनुसूची-1 में तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) की रेड लिस्ट में गंभीर रूप से संकटग्रस्त (Critically Endangered) की श्रेणी में रखा गया है।
  • वर्तमान में विश्वभर में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की कुल संख्या लगभग 150 है।
  • केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने भारतीय वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India-WII),देहरादून के साथ मिलकर ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण के लिये एक कार्यक्रम शुरू किया है।
  • इसके लिये सरकार ने 33 करोड़ रुपए आवंटित किये हैं, इसी कार्यक्रम के तहत जैसलमेर में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के चूजों की देखभाल और विकास के लिये एक केंद्र की स्थापना की गई है।
  • नवंबर 2018 में WII ने मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के चूजों के पुनर्वास के लिये 14 स्थानों को चिह्नित करने की जानकारी दी थी, इन स्थानों की पहचान करते समय वर्षा, वन्य स्रोतों से निकटता,तापमान,निवास स्थान, पानी की उपलब्धता आदि पर विशेष ध्यान दिया गया। इन 14 स्थानों में से राजस्थान के सोरसन को ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के पुनर्वास के लिये सबसे उपयुक्त स्थान के रूप में चुना गया।

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण में चुनौतियाँ:

  1. प्रजनन और मृत्यु दर
  2. ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का औसत जीवनकाल 15 या 16 वर्षों का होता है तथा नर ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की प्रजनन योग्य आयु 4 से 5 वर्ष, जबकि मादा के लिये यह आयु 3 से 4 वर्ष है।
  3. एक मादा ग्रेट इंडियन बस्टर्ड 1 से 2 वर्षों में मात्र एक अंडा ही देती है और इससे निकलने वाले चूजे के जीवित बचने की दर 60%-70% होती है।
  4. WII की रिपोर्ट के अनुसार,लंबे जीवन के बावजूद इतने धीमे प्रजनन और मृत्यु दर का अधिक होना इस प्रजाति की उत्तरजीविता के लिये एक चुनौती है।
  5. भोजन व प्रवास के विषय में कम जानकारी
  6. ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के भोजन और वासस्थान पर किसी प्रमाणिक जानकारी का अभाव होना इन पक्षियों के पुनर्वास में एक बड़ी चुनौती है।
  7. गुजरात के वन्यजीव वैज्ञानिकों के सहयोग से राजस्थान वन्यजीव विभाग ने उच्च प्रोटीन और कैल्शियम युक्त कुछ पक्षी अहारों की पहचान की है,जिससे इस कार्यक्रम में कुछ मदद मिली है।
  8. राज्यों द्वारा अनदेखी
  9. WII की रिपोर्ट के अनुसार, कुछ वर्षों पहले महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक राज्यों के कच्छ, नागपुर, अमरावती, सोलापुर, बेलारी और कोपल जैसे के ज़िलों में बड़ी संख्या में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड पाए जाते थे। हालाँकि वर्तमान में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की घटती संख्या को देखते हुए इनके संरक्षण के लिये कर्नाटक ने WII के अभियान से जुड़ने की इच्छा जाहिर की है परंतु महाराष्ट्र से इस संदर्भ में कोई उत्तर नहीं प्राप्त हुआ है।
  10. अन्य चुनौतियाँ:-वैश्विक स्तर पर और विशेषकर भारत में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण उच्च वोल्टेज की विद्युत लाइनें (तार) हैं, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड पक्षी की सीधे देखने की क्षमता कमज़ोर होने के कारण वे जल्दी विद्युत तारों नहीं देख पाते।
  11. केवल जैसलमेर में 15% ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की मृत्यु विद्युत आघात से होती है।
  12. इसके साथ ही इन पक्षियों का अवैध शिकार तथा कुत्ते व अन्य जंगली जानवर इस प्रजाति की उत्तरजीविता के लिये चुनौती उत्पन्न करते हैं।
  • जनवरी,2020 में बिहार के भागलपुर वन प्रभाग में कछुओं के लिये पहले पुनर्वास केंद्र का उद्घाटन किये जाने की योजना। मीठे पानी में रहने वाले कछुओं के पुनर्वास के लिये बनाया जा रहा इस तरह का पहला केंद्र है। आधे एकड़ भूमि में फैला है तथा एक समय में लगभग 500 कछुओं को आश्रय देने में सक्षम होगा।

कछुए नदी से मृत कार्बनिक पदार्थों एवं रोगग्रस्त मछलियों की सफाई करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कछुए जलीय पारितंत्र में शिकारी मछलियों तथा जलीय पादपों एवं खरपतवारों की मात्रा को नियंत्रित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन्हें स्वस्थ जलीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के संकेतक के रूप में भी वर्णित किया जाता है।

चर्चित वनस्पति सम्पादन

  • पुणे के अगरकर रिसर्च इंस्टीट्यूट (Agharkar Research Institute) के वैज्ञानिकों ने महाराष्ट्र एवं कर्नाटक के पश्चिमी घाटों में पाइपवर्ट (Pipeworts) की दो नई प्रजातियों एरिओकौलोन परविसेफालम (Eriocaulon Parvicephalum) एवं एरिओकौलोन कारावलेंस (Eriocaulon Karaavalense) की खोज की है।

महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग ज़िले से खोजी गई प्रजाति को उसके अत्यंत छोटे आकार के पुष्पक्रम के कारण इसका नाम एरिओकौलोन परविसेफालम (Eriocaulon Parvicephalum) रखा गया है। जबकि दूसरी प्रजाति एरिओकौलोन कारावलेंस (Eriocaulon Karaavalense) को कर्नाटक के कुमटा (Kumta) से खोजा गया है, इसका नाम कर्नाटक के तटीय क्षेत्र ‘कारावली’ के नाम पर रखा गया है। पाइपवर्ट (Pipeworts) जिसे एरिओकौलोन (Eriocaulon) के नाम से भी जाना जाता है, वे पौधे हैं जो मानसून के दौरान एक छोटी अवधि में अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं। यह भारत के पश्चिमी घाटों में बहुत विविध रूप में पाया जाता है। भारत में पाइपवर्टों की लगभग 111 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें से अधिकांश प्रजातियाँ पश्चिमी घाट एवं पूर्वी हिमालय में पाई जाती हैं और उनमें से लगभग 70% देश के लिये स्थानिक हैं। पाइपवर्ट की अन्य प्रजातियाँ: पाइपवर्ट की एरिकोकौलोन सिनेरियम (Eriocaulon Cinereum) नामक प्रजाति अपने कैंसर विरोधी, दर्दरोधी (Analgesic), सूजनरोधी (Anti-inflammatory) एवं कसैले गुणों के लिये प्रसिद्ध है। एरिकोकौलोन क्विनक्वंगुलारे (Eriocaulon Quinquangulare) का उपयोग यकृत रोगों के इलाज के लिये किया जाता है। एरिकोकौलोन मदईपरेंसे (Eriocaulon Madayiparense) केरल में पाई जाने वाली एक एंटी-बैक्टीरियल प्रजाति है। एरिकोकौलोन से संबंधित प्रजातियों की पहचान: एरिकोकौलोन से संबंधित प्रजातियों की पहचान करना बहुत मुश्किल है क्योंकि ये सभी एक जैसी होती हैं यही कारण है कि इनके जीनस को अक्सर 'टैक्सोनोमिस्ट नाइटमेयर' (Taxonomist’s Nightmare) के रूप में जाना जाता है। छोटे फूल एवं बीज के कारण इसकी विभिन्न प्रजातियों के बीच अंतर करना अत्यंत मुश्किल है। इन प्रजातियों से संबंधित शोध को ‘फाइटोटैक्सा’ (Phytotaxa) और ‘एनलेस बोटानिकी फेनिकी’ (Annales Botanici Fennici) पत्रिकाओं में प्रकाशित किया गया था।

  • वैज्ञानिकों ने पहली बार मनाली (हिमाचल प्रदेश) के रोहतांग क्षेत्र में कुछ दुर्लभ एवं लुप्तप्राय प्रजातियों सहित अल्पाइन पौधों की लगभग 70 प्रजातियों की खोज की है।

रोहतांग राजमार्ग सहित रोहतांग के आसपास का क्षेत्र जंगली औषधीय फूलों से आच्छादित है। औषधीय जड़ी-बूटियों में पिकरोर्रिज़ा कुर्रोआ (Picrorhiza Kurroa), एकोनिटम हेटेरोफाइलम (Aconitum Heterophyllum), रहयूम इमोडी (Rheum Emodi), बेर्गेनिया स्ट्राचेई (Bergenia Stracheyi), अचिलिया मिल्लीफोलियम (Achillea Millefolium), रोडोडेंड्रोन एंथोपोगोन (Rhododendron Anthopogon) और एनीमोन ओब्टुसिलोबा (Anemone Obtusiloba) आदि शामिल हैं। दशकों से इस क्षेत्र में वनस्पतियों की प्रचुर वृद्धि देखी जा रही है। वैज्ञानिकों का मानना ​​है कि वनस्पतियों की वृद्धि के प्रमुख कारण पर्यटकों के दबाव में कमी, सीमित वाहनों की आवाजाही एवं अन्य मानवजनित गतिविधियों में कमी है। गौरतलब है कि पहले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT) के हस्तक्षेप तथा वर्तमान में COVID-19 महामारी के कारण रोहतांग क्षेत्र में पर्यटकों एवं वाहनों की आवाजाही में कमी आई है। ब्लू पॉपी जिसे ‘हिमालयी फूलों की रानी’ के रूप में जाना जाता है, रोहतांग के आसपास बहुतायत में पाया गया है। अल्पाइन प्लांट: अल्पाइन पौधे वे पौधे हैं जो अल्पाइन जलवायु में बढ़ते हैं और अधिक ऊँचाई पर एवं ट्री लाइन (Tree Line) से ऊपर उगते हैं। अल्पाइन पौधे, अल्पाइन पर्यावरण की कठोर परिस्थितियों के प्रति अनुकूलित होते हैं जिसमें कम तापमान, सूखापन, पराबैंगनी विकिरण, वायु, सूखा, खराब पोषण वाली मिट्टी एवं एक प्रतिकूल मौसम शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि कुछ अल्पाइन पौधे, औषधीय पौधे होते हैं।

  • दुधवा टाइगर रिज़र्व में एक नियमित निरीक्षण के दौरान वनविशेषज्ञों द्वारा एक दुर्लभ ऑर्किड प्रजाति ‘यूलोफिया ओबटुसा’ (Eulophia obtusa)[CR-IUCN] की पुनः खोज की गई। इसे ‘ग्राउंड ऑर्किड’ के रूप में भी जाना जाता है। इंग्लैंड में केव हर्बेरियम (Kew Herbarium) में प्रलेखित तथ्यों के अनुसार, भारत में इस प्रजाति को वर्ष 1902 में उत्तरप्रदेश के पीलीभीत में खोजा गया था। किंतु इस प्रजाति को मूल रूप से 19वीं शताब्दी में उत्तराखंड में खोजा गया था। इसे गंगा के मैदानों से वनस्पति विज्ञानियों द्वारा एकत्र किया गया था। जबकि इस प्रजाति को वर्ष 2008 में बांग्लादेश में पहली बार खोजा गया था।

केरल का ‘जवाहरलाल नेहरू ट्रॉपिकल बोटैनिकल गार्डन एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट’ (Jawaharlal Nehru Tropical Botanic Garden & Research Institute) 'सेलिब्रिटी ऑर्किड' के रूप में प्रसिद्ध ‘टाइगर आर्किड’ (Tiger Orchid) के खिलने के कारण आगंतुकों के लिये आकर्षण का केंद्र बना है। टाइगर आर्किड (Tiger Orchid) का वैज्ञानिक नाम ‘ग्राम्माटोफाइलम स्पेसिओसम’ (Grammatophyllum Speciosum) है। इसे विशाल आर्किड, गन्ना ऑर्किड या ‘ऑर्किड की रानी’ भी कहा जाता है। यह प्रजाति अपने विशाल आकार एवं टाइगर की त्वचा की तरह दिखने के कारण प्रसिद्ध है। यह न्यू गिनी, इंडोनेशिया, मलेशिया और फिलीपींस की मूल प्रजाति है। इसे ‘गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में दुनिया के सबसे ऊँचे आर्किड के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। जहाँ इसकी ऊँचाई 7.62 मीटर (25 फीट) तक दर्ज की गई है।

 
आक्रामक पौधा सेन्ना स्पेक्टबिलिस
  • आक्रामक पौधा सेन्ना स्पेक्टबिलिस को नियंत्रित करने की योजना केरल के वन और वन्यजीव विभाग द्वारा वायनाड वन्यजीव अभयारण्य सहित नीलगिरि जैवआरक्षित क्षेत्र (Nilgiri Biosphere Reserve) में किया जा रहा है।

फर्न नेचर कंज़र्वेशन सोसायटी (FNCS) द्वारा किये गए एक अध्ययन में यह बताया गया है कि इस आक्रामक पौधे की उपस्थिति अभयारण्य के 78.91 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र तक हो गई है। कर्नाटक के बांदीपुर और नागरहोल बाघ आरक्षित क्षेत्र तथा तमिलनाडु के मदुमलाई बाघ आरक्षित क्षेत्र में भी अपना विस्तार करना प्रारंभ कर दिया है।

वायनाड में इन पौधों की प्रजातियों को एवेन्यू ट्री ( सड़क किनारे उगाए जाने वाले पेड़) के रूप में रोपित किया गया था। वायनाड में बाँस प्रजाति के अत्यधिक फैलाव तथा कालांतर में उसके सूखने के कारण खुले स्थान सृजित हो गए थे जिसके परिणामस्वरूप सेन्ना स्पेक्टबिलिस प्रजाति को विस्तार करने के लिये पर्याप्त स्थान मिल गया।
  • केरल वन अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने आक्रामक पौधों पर एक अध्ययन किया, जिसमें यह बताया गया कि इस प्रजाति द्वारा उत्पादित एलैलोकेमिकल्स (Allelochemicals) मूल प्रजातियों के अंकुरण और विकास को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं ।
  • पीला रतुआ (Yellow Rust) रोग के कारण पंजाब एवं हरियाणा में गेहूं की पैदावार घटने का अनुमान है। गेहूं की फसल को प्रभावित करने वाले पीला रतुआ एक कवक रोग है जो पत्तियों को पीला कर देता है जिससे प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बाधित होती है।

यह रोग माग्नापोर्थ ओर्यज़े फंगस (Magnaporthe Oryzae Fungus) के कारण होता है और इसे वर्ष 1985 में ब्राज़ील में खोजा गया था। यह कवक गेहूँ की पत्तियों को प्रभावित करता है और इनके क्लोरोफिल को खाता है जिससे पौधे की वृद्धि प्रभावित होती है। माना जाता है इससे फसल उत्पादन में 20% तक गिरावट आ जाती है। पंजाब में गेहूँ की फसल की स्थिति: कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि पिछले कुछ दिनों में पंजाब के कई हिस्सों में न्यूनतम तापमान सामान्य से लगभग 1.6-3.0 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया है। इससे गेहूँ (Wheat) की फसल पीला रतुआ रोग से प्रभावित हुई है। गेहूँ, रबी की फसल है। इसके लिये 50 सेमी. से 75 सेमी. तक वर्षा, आरंभ में 10-15 डिग्री सेल्सियस तथा बाद में 20-25 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। इस फसल को अक्तूबर के अंत से दिसंबर के बीच बोया जाता है जबकि इस फसल की कटाई अप्रैल से शुरू हो जाती है। गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान बढ़ने से कवकों के प्रसार में उल्लेखनीय रूप से वृद्धि हुई है।

  • शेखर (Shekhar)-गुलदाउदी (Chrysanthemum) की एक नई किस्म

राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (National Botanical Research Institute-NBRI) के वैज्ञानिकों ने 'शेखर' (Shekhar) विकसित की है। गुलदाउदी की इस किस्म में दिसंबर के अंत से फरवरी के मध्य तक फूल आते हैं। इसके फूलों का आकार गुंबद की तरह होता है। इस पौधे की लंबाई 60 सेंटीमीटर और व्यास 9-9.5 सेंटीमीटर तक होता है। इस नई किस्म को गामा विकिरण द्वारा उत्परिवर्तन प्रेरण (Mutation Induction) प्रक्रिया से विकसित किया गया है। गुलदाउदी की अन्य प्रमुख देर से खिलने वाली किस्मों में सीएसआईआर-75, आशाकरन, पूजा, वसंतिका, माघी, गौरी और गुलाल शामिल हैं। इन किस्मों में मध्य दिसंबर से फरवरी तक फूल आते हैं। कुंदन, जयंती, हिमांशु और पुखराज सामान्य मौसम के गुलदाउदी की किस्में हैं। इनमें आमतौर पर नवंबर व दिसंबर के बीच फूल आते हैं। इसी तरह गुलदाउदी की कुछ किस्मों (विजय, विजय किरण और एनबीआरआई-कौल) में फूल अक्तूबर के महीने में आते हैं। गुलदाउदी की मुख्य विशेषता यह है कि इसे एक मौसम में दो बार लगाया जा सकता है। गुलदाउदी एक उष्णकटिबंधीय पौधा है किंतु इसे मूल रूप से यूरेशियन क्षेत्र में उगाया गया था।

  • ऑस्ट्रेलिया में प्रागैतिहासिक काल के वोल्लेमी पाइन ग्रोव (Wollemi Pine Grove) को दावानल से बचाया गया है। ये वृक्ष सिडनी के उत्तर-पश्चिम में वोल्लेमी नेशनल पार्क में मौजूद हैं।

माना जाता है कि जुरासिक काल के दौरान भी वोल्लेमी पाइन का अस्तित्व था और इसका सबसे पुराना जीवाश्म 90 मिलियन वर्ष पुराना है। वोल्लेमी पाइन जिसे वर्ष 1994 से पहले विलुप्त माना जाता था किंतु पर्यावरण संरक्षण मिशन के तहत संदूषण को रोकने के लिये इसे मानव पहुँच से दूर रखा गया था। वोल्लेमी पाइन (वोल्लेमिया नोबिलिस-Wollemia Nobilis) को अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature-IUCN) की लाल सूची में अति संकटग्रस्त (Critically Endangered) की श्रेणी में रखा गया है। वोल्लेमी नेशनल पार्क (Wollemi National Park): वोल्लेमी नेशनल पार्क आस्ट्रेलिया में सिडनी के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। वोल्लेमी नेशनल पार्क विश्व का एकमात्र स्थान है जहाँ ये जंगली पेड़ (वोल्लेमी पाइन) पाए जाते हैं। वर्तमान में वोल्लेमी पाइन के 200 से भी कम पेड़ बचे हैं। वोल्लेमी नेशनल पार्क, ग्रेटर ब्लू माउंटेंस एरिया (Greater Blue Mountains Area) का एक हिस्सा है जिसे यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थल घोषित किया है।

 
मधुबन

मधुबन (Madhuban) बीटा कैरोटीन (β-carotene) एवं लौह तत्व की उच्च मात्रा से युक्त गाजर की एक जैव-सशक्त किस्म है। गुजरात के जूनागढ़ ज़िले के एक किसान-वैज्ञानिक वल्लभभाई वसरमभाई मरवानिया (Vallabhhai Vasrambhai Marvaniya) ने ‘मधुबन’ (Madhuban) को विकसित किया है जिसमें मौजूद है। मधुबन उच्च पौष्टिकता वाली गाजर की एक किस्म है जिसमें बीटा-कैरोटीन (277.75 मिलिग्राम प्रति किलो) तथा लौह तत्व (276.7 मिलीग्राम प्रति किलो) मौजूद हैं। [२] भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत स्वायत्त संस्थान ‘नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन’ (National Innovation Foundation) ने वर्ष 2016-17 के दौरान जयपुर स्थित राजस्थान कृषि अनुसंधान संस्थान (Rajasthan Agricultural Research Institute- RARI) में मधुबन गाजर का सत्यापन परीक्षण किया था। जिसमें पाया गया था कि मधुबन गाजर की उपज 74.2 टन प्रति हेक्टेयर है और पौधे का बायोमास 275 ग्राम प्रति पौधा है। उपज प्रति हेक्टेअर: जूनागढ़ ज़िले के 200 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में इसकी खेती की गई है। जहाँ इसकी औसत पैदावार 40-50 टन प्रति हेक्टेयर है। स्थानीय किसानों के लिये यह किस्म आय का प्रमुख स्रोत बन गई है। पिछले 3 वर्षों के दौरान गुजरात,महाराष्ट्र,राजस्थान,पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के लगभग 1000 हेक्टेयर में मधुबन गाजर की खेती की जा रही है।

इसका उपयोग विभिन्न मूल्य वर्द्धित उत्पादों जैसे- गाजर चिप्स, जूस एवं अचार आदि के लिये भी किया जा सकता है।

गौरतलब है कि भारत के राष्ट्रपति ने फेस्टिवल ऑफ इनोवेशन (Festival of Innovation- FOIN)- 2017 कार्यक्रम में वल्लभभाई वसरमभाई मरवानिया को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया था। वहीं उनके इस असाधारण कार्य के लिये वर्ष 2019 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया है।

सन्दर्भ सम्पादन

  1. https://www.thehindu.com/news/national/andhra-pradesh/stage-set-for-flamingo-festival/article30464650.ece
  2. https://pib.gov.in/PressReleaseIframePage.aspx?PRID=1612159