समसामयिकी 2020/जैव प्रौद्योगिकी

  • संयुक्त राज्य अमेरिका की ‘ऑगस्टा यूनिवर्सिटी’ (Augusta University) के अंतर्गत आने वाले ‘ऑगस्टा मेडिकल कॉलेज’ के शोधकर्त्ताओं के अनुसार, माइक्रो आरएनए (MicroRNA) ‘जीन एक्सप्रेशन’ को नियंत्रित करने में मानव शरीर में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और वायरस के आक्रमण के समय फ्रंटलाइन का कार्य करते हैं।

एक माइक्रो आरएनए पौधों, जानवरों एवं कुछ विषाणुओं में पाया जाने वाला एक छोटा नॉन-कोडिंग आरएनए अणु (लंबाई लगभग 22 न्यूक्लियोटाइड) है, जो ‘आरएनए साइलेंसिंग’ (RNA Silencing) और ‘जीन एक्सप्रेशन’ के बाद के ट्रांसक्रिप्शनल विनियमन में कार्य करता है। ये वायरस के आक्रमण के समय फ्रंटलाइन का कार्य करते हैं और वायरस के आनुवंशिक पदार्थ (RNA) को काटकर वायरस से लड़ते हैं। गौरतलब है कि आयु एवं अंतर्निहित स्वास्थ्य की स्थिति, लोगों को COVID-19 के मद्देनज़र अधिक संवेदनशील बनाती है। ऐसा इसलिये है क्योंकि उनमें प्रतिक्रिया करने वाले माइक्रोआरएनए नंबर कम होते हैं।

  • रिलायंस लाइफ साइंसेज ने ऐसी RT-PCR किट विकसित की है, जो करीब दो घंटे में कोविड-19 की जांच का परिणाम दे देती है।

कोविड-19 के खिलाफ न्यूट्रलाइजिंग एंटीबॉडी सम्पादन

फ्राँस के एक अस्पताल में कार्यरत कर्मचारियों पर किये एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि COVID-19 के हल्के लक्षणों वाले लगभग सभी चिकित्सकों तथा नर्सों में ऐसे एंटीबॉडी का विकास हुआ है जो उन्हें इस वायरस से पुनः संक्रमित होने से बचा सकता है। यह अध्ययन ‘मेडरिक्सिव’ (Medrxiv) जोकि स्वास्थ विषयों में संबंधित एक इंटरनेट साइट है, पर प्रकाशित किया गया है। अध्ययन के अनुसार, COVID-19 के हल्के लक्षणों की शुरुआत के बाद लगभग 13 दिनों में अस्पताल के लगभग सभी कर्मचारियों में नोवेल कोरोना वायरस को निष्प्रभावी करने में सक्षम एंटीबॉडी विकसित हुए। इस अध्ययन में शामिल स्ट्रासबर्ग यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल्स (Strasbourg University Hospitals) के 91% व्यक्तियों में तटस्थ/निष्प्रभावकारी/न्यूट्रलाइजिंग एंटीबॉडी पाए गए। किसी भी संक्रमण के बाद, मेज़बान (Host) को न्यूट्रलाइजिंग एंटीबॉडी का उत्पादन करने में कुछ समय लगता है। ये एक प्रकार के एंटीबॉडी हैं जो एक संक्रामक एजेंट (उदाहरण के लिये, वायरस) द्वारा किसी कोशिका को संक्रमित करने या उसके जैविक प्रभाव को बाधित करने से रोकने में सक्षम होते हैं। एंटीबॉडी एक सुरक्षात्मक प्रोटीन है जो शरीर में बाह्य पदार्थ, जिसे एंटीजन कहते हैं, की उपस्थिति के कारण प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा निर्मित होता है।

गंभीर बीमारियों वाले रोगियों में एंटीबॉडी टिटर आमतौर पर अधिक होते हैं। लेकिन अध्ययन में पाया गया कि अधिक गंभीर बीमारी (जैसे- पुरुष, शरीर का अत्यधिक वज़न, और उच्च रक्तचाप) से जुड़े कारकों वाले व्यक्तियों में अन्य की तुलना में एंटीबॉडी को निष्क्रिय करने के लिये उच्च टिटर (आवश्यक मात्रा) होने की संभावना अधिक थी।

एंटीबॉडी टिटर (Antibody titres ) एक माप/परीक्षण है जो किसी जीव के रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी की मात्रा को प्रदर्शित करता है। एंटीबॉडी की मात्रा और विविधता शरीर की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया से संबंधित है। एलिसा एंटीबॉडी टिटर के निर्धारण का एक सामान्य साधन है।

प्रोटीन पीएलप्रो (PLpro) और SARS-CoV-2 वायरस सम्पादन

  • नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, वैज्ञानिकों ने मानव शरीर में उत्पन्न विशेष प्रोटीन पीएलप्रो (PLpro) की पहचान की है, जो SARS-CoV-2 वायरस के संक्रमण के दौरान मानव में उत्पन्न होता है तथा वायरस के प्रतिकृति निर्माण में मदद करता है। SARS-CoV-2 वायरस के शरीर में प्रवेश करने पर मानव कोशिका तंत्र द्वारा विशेष प्रकार का प्रोटीन; जिन्हें PLpro कहा जाता है, निर्मित होता है। वायरस की प्रतिकृति निर्माण के लिये यह PLpro प्रोटीन आवश्यक होता है।

SARS-CoV-2 के खिलाफ मानव प्रतिरक्षा प्रणाली: जब SARS-CoV-2 वायरस से मानव शरीर संक्रमित होता है, तो संक्रमित शरीर की कोशिकाओं द्वारा ‘टाइप-1 इंटरफेरॉन’ नामक संदेशवाहक पदार्थ मुक्त किया जाता है। ये संदेशवाहक पदार्थ शरीर की मारक कोशिकाओं (Killer Cells) या NK सेल को आकर्षित करते हैं और संक्रमित कोशिकाओं को खत्म करते हैं। मानव कोशिकाओं द्वारा PLpro प्रोटीन का उत्पादन प्रारंभ होने पर SARS-CoV-2 वायरस पुन: प्रतिरक्षा प्रणाली के खिलाफ लड़ना शुरू कर देता है, क्योंकि PLpro प्रोटीन टाइप 1 इंटरफेरॉन के निर्माण को प्रभावित करता है। इससे शरीर की मारक कोशिकाओं या NK कोशिकाओं को आकर्षित करने की क्षमता कम हो जाती है तथा शरीर वायरल से रोग ग्रस्त हो जाता है। शोध का महत्त्व: वैज्ञानिकों ने अध्ययन में पाया कि यदि PLpro प्रोटीन निर्माण को औषधीय तरीकों से रोक (ब्लॉक) दिया जाता है तो वायरस की प्रतिकृति निर्माण प्रक्रिया भी रुक जाती है और हमारी प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया प्रणाली भी मज़बूत होती है। शोधकर्त्ता अब 'सेल कल्चर' (कृत्रिम वातावरण) में इन प्रक्रियाओं की निगरानी कर सकते हैं। वायरस के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (Immune Responses to Viruses):

T सेल:-जब एक वायरस किसी व्यक्ति को संक्रमित करता है, तो यह जीवित रहने और अपनी प्रतिकृति निर्माण के लिये मेज़बान कोशिकाओं पर हमला करता है। इस दौरान प्रतिरक्षा प्रणाली की विशेष कोशिकाएँ; जिन्हें T सेल कहा जाता है, संक्रमित कोशिकाओं की तलाश करती है। 'T सेल रिसेप्टर' वायरस से उत्पन्न पेप्टाइड (संक्रमित कोशिकाओं द्वारा उत्सर्जित कारक) का पता लगाता है तथा T सेल को संक्रमण की चेतावनी देता है। ‘T सेल’ संक्रमित कोशिका को नष्ट करने के लिये साइटोटोक्सिक कारक (Cytotoxic Factors) नामक प्रोटीन मुक्त करता है जो वायरस को नष्ट कर देता है। NK सेल: वायरस में अनुकूलन की अत्यधिक क्षमता होती हैं जो ‘T सेल’ की पहचान से बचने के लिये नवीन तरीके विकसित कर लेता हैं तथा T सेल संक्रमित कोशिकाओं का पता नहीं लगा पाती है। जब T सेल संक्रमित कोशिकाओं का पता नहीं लगा पाती है तो यह कार्य शरीर की विशेष प्रतिरक्षा कोशिकाओं; जिन्हें 'प्राकृतिक मारक कोशिका' (Natural Killer Cell) या संक्षेप में NK सेल कहा जाता है, द्वारा संपन्न किया जाता है। इंटरफेरॉन (Interferons): वायरस से संक्रमित होने पर कोशिकाओं द्वारा इंटरफेरॉन नामक प्रोटीन का उत्पादन किया जाता है जो वायरस के खिलाफ प्रतिरक्षा सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इंटरफेरॉन संक्रमित कोशिका में वायरस की प्रतिकृति निर्माण प्रक्रिया में प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करके इसे रोकते हैं। इंटरफेरॉन संक्रमित कोशिकाओं के संकेतक अणुओं के रूप में भी कार्य करते हैं तथा निकट की कोशिकाओं में वायरस की उपस्थिति के संबंध में चेतावनी देते हैं।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के कार्य सम्पादन

  • भारत सरकार के द्वारा स्थापित डीएसटी-इंस्पायर फैकल्टी फेलोशिप (DST-Inspire Faculty Fellowship) के तहत सेंटर फॉर प्लांट मॉलिक्यूलर बॉयोलॉजी (Centre for Plant Molecular Biology- CPMB), उस्मानिया विश्वविद्यालय (हैदराबाद) में कार्यरत एक वैज्ञानिक ने उस प्रणाली की खोज की है जिसके द्वारा ज़ो संक्रमण (Xoo Infection) से निपटा जा सकता है।

ज़ो (Xoo) जिसे एक्संथोमोनास ओर्यज़ेपीवी ओर्यज़े (Xanthomonas Oryzaepv. Oryzae) भी कहा जाता है, नामक एक जीवाणु जो चावल में एक गंभीर बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट रोग (Bacterial Leaf Blight Disease) का कारण बनता है। नई प्रणाली के तहत रोग नियंत्रण रणनीतियों का विकास किया जा रहा है जिनका उपयोग एक टीके के रूप में किया जा सकता है जो चावल की प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय करते हैं और रोगजनकों द्वारा बाद के संक्रमण से चावल के पौधों को प्रतिरक्षा प्रदान करते हैं। एक्संथोमोनास ओर्यज़ेपीवी ओर्यज़े (Xanthomonas Oryzae Pv. Oryzae) जिसे आमतौर पर ज़ो संक्रमण (Xoo Infection) के नाम से भी जाना जाता है, दुनिया भर में चावल की खेती की उपज को नुकसान पहुँचाता है। सेल्यूलेज़ (Cellulase) के साथ चावल का उपचार: सेल्यूलेज़ (Cellulase), ज़ो (Xoo) द्वारा स्रावित एक कोशिका भित्ति एंज़ाइम चावल प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं को प्रेरित करता है और ज़ो (Xoo) द्वारा चावल में संक्रमण से बचाता है। सेल्यूलेज़ (Cellulase): सेल्यूलेज़ मुख्य रूप से कवक, बैक्टीरिया एवं प्रोटोज़ोआंस (Protozoans) द्वारा उत्पादित कई एंज़ाइमों में से एक है जो सेल्युलोसिस (Cellulolysis) को उत्प्रेरित करता है। यह अध्ययन करने के लिये कि वास्तव में यह सेल्यूलेज़ प्रोटीन चावल की प्रतिरक्षा प्रणाली को कैसे प्रेरित करता है, शोधकर्त्ता यह परीक्षण कर रहे हैं कि क्या इस सेल्यूलेज़ प्रोटीन के किसी भी परत से बने पेप्टाइड को चावल प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा पहचाना जा रहा है जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं की सक्रियता के लिये अग्रणी है। पहचाने जाने वाले एलिसिटर अणु (पेप्टाइड/शर्करा) का उपयोग चावल की प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय करने और रोगजनकों द्वारा बाद के संक्रमणों से रक्षा करने के लिये एक टीके के रूप में किया जाएगा। रेज़िस्टेंस जीन या आर जीन (Resistance genes/R-Genes): रेज़िस्टेंस जीन (R-Genes) पादप जीनोम में वे जीन होते हैं जो आर प्रोटीन का निर्माण करके रोगजनकों के खिलाफ रोग प्रतिरोधक क्षमता को व्यक्त करते हैं। अभी तक रेज़िस्टेंस जीन या आर जीन के माध्यम से चावल के पौधों के प्रतिरोध में सुधार करना इस बीमारी को नियंत्रित करने का सबसे अच्छा तरीका माना जाता है जिसमें प्रजनन तकनीक शामिल है जो श्रमसाध्य एवं समय लेने वाली है। बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट रोग: राइस बैक्टीरियल ब्लाइट (Rice Bacterial Blight) जिसे चावल का बैक्टीरियल ब्लाइट भी कहा जाता है, एक खतरनाक बैक्टीरियल रोग है जो चावल की खेती को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। इस महामारी के कारण चावल की फसल को लगभग 75% तक का नुकसान हो सकता है और प्रतिवर्ष लाखों हेक्टेयर चावल इस रोग से संक्रमित होते हैं। इस बीमारी को पहली बार वर्ष 1884-85 में क्यूशू, जापान में देखा गया था किंतु क्संथोमोनास ओर्यज़ेपीवी ओर्यज़े (Xanthomonas Oryzae Pv. Oryzae) के रूप में इसकी आधिकारिक पहचान वर्ष 1911 में हुई थी।

  • भारतीय शोधकर्त्ताओं की टीम ने एक ऐसी प्रक्रिया की खोज की है जो ‘हेमटोपोइएटिक स्टेम सेल’ (Haematopoietic Stem Cells- HSCs) से लाल कणिकाओं (Red Blood Cells- RBCs) का उत्पादन शरीर के बाहर प्रयोगशाला (इन विट्रो ) में करने को गति प्रदान करेगी।

मुख्य बिंदु: खोजी गई प्रक्रिया, एनीमिया, प्रत्यारोपण सर्जरी, गर्भावस्था से संबंधित जटिलता, रक्त कैंसर आदि समस्याओं के उपचार में RBCs के आधान (Transfusion) की प्रक्रिया में सहायक होगी। आवश्यकता: ब्लड बैंकों को विशेष रूप से विकासशील देशों में अक्सर रक्त तथा उनके घटक यथा- लाल रक्त कणिकाओं की कमी का सामना करना पड़ता है। विभिन्न समूह HSCs से प्रयोगशाला में RBCs का उत्पादन करने में सक्षम हैं, हालाँकि इस प्रक्रिया में लगभग 21 दिन लगते हैं। गर्भनाल के रक्त में हेमटोपोइएटिक स्टेम सेल नामक विशेष कोशिकाएँ होती हैं जिनका उपयोग कुछ रोगों के उपचार के लिये किया जा सकता है। हेमटोपोइएटिक स्टेम कोशिकाएँ विभिन्न प्रकार की रक्त कोशिकाओं के निर्माण में समर्थ होती हैं। प्रयोगशाला में कोशिकाओं को विकसित करने में अधिक समय लगने के कारण काफी मात्रा में संसाधनों की आवश्यकता होती है। खोजी गई प्रक्रिया: प्रयोगशाला में हेमटोपोइएटिक स्टेम सेल से RBCs निर्माण प्रक्रिया को `ट्रांसफॉर्मिंग ग्रोथ फैक्टर’ β1 (TGF- β1) नामक एक छोटे प्रोटीन अणु की बहुत कम सांद्रता तथा एरिथ्रोपोइटिन (Erythropoietin- EPO) प्रोटीन को मिलाकर तेज़ किया जा सकता है एवं इस प्रक्रिया से RBCs निर्माण में 18 दिन लगते हैं। प्रकिया का महत्त्व: सामान्यत: HSCs प्रक्रिया जिसमें एरिथ्रोपोइटिन का उपयोग किया जाता है, में RBCs के निर्माण में 21 दिन लगते हैं। भारतीय शोधकर्त्ताओं ने पाया है कि EPO के साथ TGFβ1के जुड़ने से RBCs के निर्माण समय में तीन दिन की कमी आई है। रक्त (Blood) यह एक तरल संयोजी ऊतक होता है जिसमें प्लाज़्मा, रक्त कणिकाएँ तथा प्लेटलेट्स होते हैं। यह शरीर की विभिन्न कोशिकाओं तथा उतकों तक ऑक्सीजन और पोषक तत्त्वों का संचरण करने में मदद करता है। रक्त कोशिकाओं के प्रमुख प्रकारों में शामिल हैं: लाल रक्त कणिकाएँ (RBCs):

इनको एरिथ्रोसाइट (Erythrocyte) भी कहा जाता है। RBCs का रंग आयरन युक्त प्रोटीन, हीमोग्लोबिन के कारण लाल होता है। सफेद रक्त कणिकाएँ (WBCs):

WBC को ल्यूकोसाइट (Leucocyte) भी कहा जाता है। ये हीमोग्लोबिन से रहित होने के कारण रंगहीन होती हैं।

लोकसभा में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय बायोफार्मा मिशन से संबंधित सूचना जारी की गई सम्पादन

राष्ट्रीय बायोफार्मा मिशन(National Biopharma Mission-NBM)देश के बायोफार्मास्यूटिकल क्षेत्र के विकास हेतु एक उद्योग-अकादमिक सहयोग मिशन (Industry-Academia Collaborative Mission) है। इस मिशन के तहत सरकार ने बायोफार्मास्यूटिकल क्षेत्र में उद्यमिता और स्वदेशी विनिर्माण को बढ़ावा देने हेतु एक सक्षम तंत्र बनाने के लिये नवाचार-3 (i3) कार्यक्रम प्रारंभ किया है। इस मिशन का कार्यान्वयन जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (Biotechnology Industry Research Assistance Council-BIRAC) द्वारा किया जाता है। BIRAC एक ‘प्रोग्राम मैनेजमेंट यूनिट (Program Management Unit-PMU)’ के माध्यम से इस मिशन का संचालन करती है। मिशन की गतिविधियों का निरीक्षण जैव प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Biotechnology-DBT) के सचिव की अध्यक्षता वाली अंतर-मंत्रालय संचालन समिति द्वारा किया जाता है। तकनीकी सलाहकार समूह (Technical Advisory Group-TAG) वैज्ञानिक प्रगति की स्वीकृति के साथ ही उसकी समीक्षा करता है। मिशन का प्रमुख केंद्रबिंदु: किफायती उत्पादों का विकास: सार्वजनिक और निजी संस्थानों, शोधकर्त्ताओं, स्टार्टअप कंपनियों तथा उद्यमियों की मदद से भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य ज़रूरतों की पूर्ति करने हेतु सस्ते एवं सुलभ बायोफार्मास्यूटिकल (टीका, बायोसिमिलर्स-Biosimilars और चिकित्सा संबंधी उपकरण) का विकास करना। हैजा, इन्फ्लूएंज़ा, डेंगू, चिकनगुनिया और न्यूमोकोकल बीमारी हेतु टीके का विकास करना। मधुमेह, सोरायसिस, आपातकालीन स्थिति और ऑन्कोलॉजी हेतु बायोसिमिलर्स उत्पाद का विकास करना। डायलिसिस, एमआरआई और आणविक जीवविज्ञान उपकरणों के लिये मेडटेक उपकरण (MedTech Devices) का विकास करना। साझा बुनियादी ढाँचे की स्थापना और उसे मज़बूती प्रदान करना: मौजूदा साझा बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करना। तकनीकी विकास हेतु सहभागिता को बढ़ावा देना। साझा बुनियादी ढाँचे का अभ्युत्थान एवं उसे उत्पाद की खोज एवं विनिर्माण के केंद्र के रूप में स्थापित करना। 15 साझा बुनियादी ढाँचों का वित्तपोषण किया गया है, जो इस प्रकार हैं- बायोफार्मास्यूटिकल विकास- 7 मेडटेक उपकरण- 6 टीकाकरण- 2 ज्ञान और प्रबंधन कौशल को मज़बूत करना: इस मिशन का उद्देश्य मौजूदा एवं अगली पीढ़ी में अनुशासनात्मक कौशल का विकास करना है। उत्पाद विकास, बौद्धिक संपदा पंजीकरण, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और नियामक मानकों जैसे क्षेत्रों में उत्पाद के विकास हेतु नई जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों को महत्त्वपूर्ण कौशल के लिये विशिष्ट प्रशिक्षण प्रदान करना भी इस मिशन का प्रमुख उद्देश्य है। प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का विकास करना: टेक्नोलॉजी हस्तांतरण कार्यालयों की स्थापना करना। टेक्नोलॉजी हस्तांतरण और बौद्धिक संपदा के प्रबंधन हेतु प्रशिक्षण देना। टेक्नोलॉजी के अधिग्रहण हेतु सहायता प्रदान करना। शैक्षणिक क्षेत्र संबंधी उद्योगों को बढ़ाने में मदद करना एवं टेक्नोलॉजी के माध्यम से उत्पादों के विकास हेतु शिक्षाविदों, नवप्रवर्तकों और उद्यमियों को अवसर प्रदान करना। जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (Biotechnology Industry Research Assistance Council-BIRAC) BIRAC एक सार्वजनिक क्षेत्र का उद्यम है, जिसे जैव प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Biotechnology-DBT) द्वारा स्थापित किया गया है। इसका उद्देश्य रणनीतिक अनुसंधान और नवाचार से उभरते बायोटेक उद्यम को मजबूत और सशक्त बनाना है।


राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (National Botanical Research Institute-NBRI) लखनऊ ने कपास की एक कीट प्रतिरोधी किस्म का विकास किया है। व्हाइटफ्लाइज़ नामक कीट कपास की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले विनाशकारी कीटों में से एक है। व्हाइटफ्लाइज़ 2000 से अधिक पौधों की प्रजातियों को नुकसान पहुँचाते हैं एवं पौधों से संबंधित 200 विषाणुओं के प्रति रोग वाहक के रूप में भी कार्य करते हैं। NBRI लखनऊ द्वारा विकसित कपास की इस किस्म का परीक्षण अप्रैल-अक्तूबर 2020 तक पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के फरीदकोट केंद्र में किया जाएगा। ये कीट सबसे अधिक कपास की फसल को नुकसान पहुँचता है तथा वर्ष 2015 में पंजाब में कपास की दो-तिहाई फसल इसी कीट की वजह से नष्ट हो गई थी। आवश्यकता: बीटी कपास आनुवंशिक रूप से संशोधित और किसानों हेतु बाज़ार में मौजूद एक कपास है। विशेषज्ञों के अनुसार, बीटी कपास केवल दो कीटों के लिये प्रतिरोधी है, यह व्हाइटफ्लाइज़ के लिये प्रतिरोधी नहीं है। तथ्य को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2007 में विशेषज्ञों ने कीट प्रतिरोधी एक अन्य कपास पर काम करने का फैसला किया था। खोज से संबंधित मुद्दे: कीटरोधी किस्म विकसित करने हेतु शोधकर्त्ताओं ने 250 छोटे पौधों को चुना ताकि यह चिह्नित किया जा सके कि कौन-सा प्रोटीन अणु व्हाइटफ्लाइज़ को रोकने में सक्षम है। चुने गए सभी पौधों के पत्तों का अर्क अलग-अलग तैयार किया गया और व्हाइटफ्लाइज़ को खिलाया गया। खाद्य फर्न (Fern) टेक्टारियामैक्रोडोंटा (Tectariamacrodonta) की पत्ती का अर्क व्हाइटफ्लाइज़ के लिये विषैला साबित हुआ। इस फर्न का उपयोग नेपाल में सलाद के रूप में और एशिया के कई क्षेत्रों में गैस्ट्रिक विकारों को दूर करने हेतु एक पाचक के रूप में उपयोग में लाया जाता है। जब व्हाइटफ्लाइज़ को टेक्टोरियामैक्रोडोंटा कीटनाशक प्रोटीन की खुराक दी जाती है, तो इससे इस कीट का जीवन चक्र प्रभावित होता है जैसे- खराब अंडा देना, अविकसित कीट (Nymph), लार्वा का विकास न होना इत्यादि। इस प्रोटीन को अन्य कीटों पर निष्प्रभाव पाया गया जिससे यह स्पष्ट होता है कि प्रोटीन विशेष रूप से व्हाइटफ्लाइज़ के लिये विषाक्त है एवं तितली और शहद जैसे अन्य लाभकारी कीड़ों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है। टेक्टोरियामैक्रोडोंटा (Tectariamacrodonta): टेक्टोरियामैक्रोडोंटा एशिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में एवं आमतौर पर भारत के पश्चिमी घाटों में पाया जाता है।

राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान(National Botanical Research Institute-NBRI),CSIR नई दिल्ली के प्रमुख घटक अनुसंधान संस्थानों में से एक है। यह वनस्पति विज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर बुनियादी और अनुप्रयुक्त अनुसंधान करता है, जिसमें प्रलेखन, संरक्षण और आनुवंशिक सुधार शामिल है। इसकी स्थापना मूल रूप से उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा राष्ट्रीय वनस्पति उद्यान (NBG) के रूप में की गई थी जिसे वर्ष 1953 में CSIR ने अपने अधिकार में ले लिया था। यह वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान विभाग, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत कार्य करता है।

  • भारत के रक्षा मंत्री ने 23 अप्रैल, 2020 को एक मोबाइल वायरोलॉजी रिसर्च एंड डायग्नोस्टिक्स लैबोरेटरी (Mobile Virology Research and Diagnostics Laboratory- MVRLL) का वीडियो काॅन्फ्रेंसिंग के जरिये उद्घाटन किया।

इस मोबाइल वायरोलॉजी रिसर्च लैब का विकास रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) ने हैदराबाद के ESIC हॉस्पिटल, और निजी उद्योगों के साथ मिलकर विकसित किया है। MVRDL जैव-सुरक्षा स्तर (Bio-Safety Level) अर्थात् BSL-3 लैब और BSL-2 लैब का संयोजन है और इसे 15 दिनों के रिकॉर्ड समय में तैयार किया गया है। यह एक दिन में 1000-2000 नमूनों की जाँच कर सकता है। यह मोबाइल वायरोलॉजी रिसर्च लैब COVID-19 के निदान और वायरस संवर्द्धन में ड्रग स्क्रीनिंग हेतु, प्लाज्मा थेरेपी, टीके के प्रति रोगियों की व्यापक प्रतिरक्षा प्रोफाइलिंग आदि में सहायक होगी। यह लैबोरेटरी WHO और भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) के जैव सुरक्षा मानकों का अनुपालन करती है ताकि अंतर्राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों को पूरा किया जा सके। इस तरह के पहले MVRDL को ‘ESIC हॉस्पिटल’ के परामर्श से हैदराबाद के रिसर्च सेंटर इमरत (Research Centre Imarat- RCI) द्वारा विकसित किया गया था। इसे देश में कहीं भी स्थापित किया जा सकता है।

रिसर्च सेंटर इमरत(Research Centre Imarat- RCI) हैदराबाद में स्थित एक DRDO प्रयोगशाला है। यह प्रयोगशाला मिसाइल सिस्टम, गाइडेड हथियार और भारतीय सशस्त्र बलों के लिये उन्नत एवियोनिक्स (Avionics) के अनुसंधान एवं विकास में अहम भूमिका निभाती है। इसकी स्थापना डाॅ. एपीजे अब्दुल कलाम ने वर्ष 1988 में की थी।
  • ‘द तमिलनाडु डॉ. एम.जी.आर मेडिकल यूनिवर्सिटी’ (The Tamil Nadu Dr. MGR Medical University), चेन्नई ने रिवर्स वैक्सीनोलॉजी’ (Reverse Vaccinology) के माध्यम से सार्स-CoV-2 (COVID-19) से निपटने के लिये एक संभावित वैक्सीन को विकसित करने का प्रयास किया है।

शोध के पहले चरण में, एक सिंथेटिक पॉलीपेप्टाइड विकसित किया गया है जो वायरल जीनोम को बाँध सकता है और अनुसंधान के अगले चरण में जाने के लिये पूरी तरह से तैयार है। यह प्रक्रिया रिवर्स वैक्सीनोलॉजी (Reverse Vaccinology) कहलाती है। इसमें जैव सूचना विज्ञान का उपयोग करते हुए वायरल जीनोम अनुक्रम के साथ काम किया जाता है। जिसके तहत एक सिंथेटिक पॉलीपेप्टाइड की पहचान की गई है जो वायरल जीनोम को बाँध सकता है। अगले चरण में, ऊतक सेल लाइनों पर इस पॉलीपेप्टाइड का परीक्षण किया जाएगा। यह केवल पहला चरण है किंतु अध्ययन से पता चला है कि यह वैक्सीन 70% तक सही है। किंतु इसको अंतिम चरण तक पहुँचने में अभी कम-से- कम एक वर्ष लगेगा। विश्व भर में, इससे पहले रिवर्स वैक्सीनोलॉजी का उपयोग करके मेनिंगोकोकल (Meningococcal) और स्टाफ्यलोकोकल (Staphylococcal) संक्रमणों के लिये वैक्सीन निर्मित की गई थी।

जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा सार्वजनिक निजी भागीदारी (PPP) मॉडल के तहत राष्ट्रीय बायोमेडिकल संसाधन स्वदेशीकरण(NBRIC) कंसोर्टियम प्रारंभ सम्पादन

इसका उद्देश्य COVID-19 के लिये निदान, टीके और चिकित्सा विज्ञान के लिये अभिकर्मकों (Reagents) और संसाधनों का विकास करना है। इससे स्वदेशी नवाचार को बढ़ावा मिलेगा। NBRIC का नेतृत्त्व सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर प्लेटफॉर्म (Centre for Cellular and Molecular Platform-C-CAMP) द्वारा की जा रही है। NBRIC आयात प्रतिस्थापन को बढ़ावा देने की दिशा में बायोमेडिकल अनुसंधान और नवीन उत्पादों के लिये एक ‘मेक इन इंडिया' (Make in India) पहल है। COVID-19 हेतु निदान और टीके के विकास के लिये जैव प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Biotechnology-DBT), जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (Biotechnology Industry Research Assistance Council-BIRAC) और विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science and Technology-DST) आदि से आने वाली फंडिंग के लिये प्रवेश द्वार के रूप में कार्य करना।

सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिक्यूलर प्लेटफॉर्म (C-CAMP) भारत सरकार के अधीन जैव प्रौद्योगिकी विभाग की पहल और एक गैर-लाभकारी संगठन है। C-CAMP जीव विज्ञान के क्षेत्र में भारत में प्रौद्योगिकी आधारित नवाचार और उद्यमिता के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केंद्रों में से एक है। C-CAMP की स्थापना अत्याधुनिक जीव विज्ञान अनुसंधान और उद्यमशीलता को सक्षम करने के उद्देश्य से की गई थी।

COVID-19 रिसर्च कंसोर्टियम हाल ही में सार्स सीओवी- 2 (SARS-CoV-2) के विरुद्ध जल्द-से-जल्द सुरक्षित एवं प्रभावी जैव-चिकित्सा समाधान विकसित करने के लिये जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) और जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (BIRAC) ने COVID-19 रिसर्च कंसोर्टियम (COVID-19 Research Consortium) हेतु आवेदन आमंत्रित किये थे। DBT और BIRAC रिसर्च कंसोर्टियम के तहत COVID-19 के नियंत्रण हेतु निदान, टीके विकसित करने, दवाओं के नए उपयोग या अन्य हस्तक्षेप आदि के लिये उद्योग व शिक्षा जगत को समर्थन प्रदान करने के प्रस्तावों का निरंतर मूल्यांकन कर रहे हैं। बहुस्तरीय समीक्षा व्यवस्था के माध्यम से उपकरण, निदान, टीके विकसित करने, रोग-चिकित्सा तथा अन्य हस्तक्षेप से संबंधित 70 प्रस्तावों को वित्तीय सहायता प्रदान करने की सिफारिश की गई है। चुने गए प्रस्तावों में टीके के 10 , रोग-निदान उत्पाद के 34, चिकित्सीय विकल्प के 10, दवाओं के नए उपयोग के 02 प्रस्ताव और निवारक हस्तक्षेप के रूप में वर्गीकृत 14 परियोजनाएँ शामिल हैं।

पार्किंसंस रोग हेतू भारतीय शोधकर्त्ताओं द्वारा विकसित जेड-स्कैन (Z-scan) तकनीक सम्पादन

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान- भारतीय खनि विद्यापीठ, धनबाद और वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद- भारतीय रासायनिक जीव विज्ञान संस्थान, कोलकाता (Council of Scientific & Industrial Research- Indian Institute of Chemical Biology, Kolkata) ने एक तकनीक विकसित की है जो पार्किंसंस रोग (Parkinson’s disease) के अध्ययन में मददगार साबित हो सकती है।

पार्किंसंस रोग (Parkinson’s disease) एक ऐसी बीमारी है, जिसमें तंत्रिका तंत्र लगातार कमज़ोर होते जाते हैं। इस बीमारी का अब तक कोई इलाज़ उपलब्ध नहीं है। 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में पार्किंसंस रोग के लक्षण दिखते हैं किंतु यह रोग किसी भी उम्र में हो सकता है। लक्षण:-शरीर में कंपन, जकड़न, शिथिल गतिशीलता, झुककर चलना, याद्दाश्त संबंधी समस्याएँ और व्यवहार में बदलाव।

पार्किंसंस रोग पर अध्ययन:- पार्किंसंस रोग से पीड़ित लोगों के मस्तिष्क के मध्य (सब्सटेनटिया नाइग्रा- Substantia Nigra) भाग में अल्फा सिन्यूक्लिन (alpha synuclein- ASyn) नामक प्रोटीन अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती है। अल्फा सिन्यूक्लिन नामक प्रोटीन का एकत्रीकरण पार्किंसंस रोग की वृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। दुनियाभर के कई शोधकर्त्ता पार्किंसंस रोग से संबंधित यह अध्ययन कर रहे हैं कि प्रोटीन कैसे एकत्रित होती है और किस प्रकार यह एकत्रीकरण न्यूरोनल कोशिकाओं को खत्म कर देता है। अल्फा सिन्यूक्लिन नामक प्रोटीन (एकत्रीकरण) के अंतिम बिंदु पर छोटे पतले फाइबर या ‘फाइब्रिल्स’ (Fibrils) का निर्माण होता है इस ‘फाइब्रिल्स’ में प्रोटीन की एक संरचना होती है जिसे क्रॉस बीटा फोल्ड (Cross Beta Fold) कहा जाता है। फाइब्रिल्स का विस्तृत अध्ययन एक डाई थियोफ्लेविन टी (Dye Thioflavin T) की मदद से किया गया है। यह डाई क्रॉस-बीटा संरचना को जोड़ती है और प्रकाश उत्सर्जित करती है। इन अध्ययनों की मदद से दवा विकसित की गई लेकिन ये दवाएँ नैदानिक ​​परीक्षणों में सफल नहीं हो पाई। इन विफलताओं ने शोधकर्त्ताओं को यह सोचने पर मज़बूर कर दिया है कि शायद उन्हें न केवल फ़िब्रिल्स को समझने की आवश्यकता है, बल्कि प्रोटीन एकत्रीकरण की प्रक्रिया से पूर्व उत्पन्न होने वाले विभिन्न मध्यवर्तियों को भी समझना आवश्यक है।

भारतीय शोधकर्त्ताओं ने जेड-स्कैन (Z-scan) तकनीक विकसित की है। इस तकनीक का उपयोग करते हुए बायोमैटिरियल्स के असमान व्यवहार का अध्ययन किया जा सकता है। यह तकनीक अल्फा सिन्यूक्लिन नामक प्रोटीन के एकत्रीकरण के शुरुआती और बाद के दोनों चरणों की निगरानी में मदद कर सकती है। प्रोटीन में मोनोमेरिक स्थिति से लेकर फाइब्रिलर संरचना तक असमानता है। साथ ही शोधकर्त्ताओं ने इससे संबंधित तथ्य भी प्रस्तुत किये हैं-

प्रोटीन के अन्य अनुरूपों की तुलना में फाइब्रिल्स की विषमता की ताकत अत्यधिक होती है। एकत्रीकरण के विभिन्न चरणों में एक विशिष्ट विषमता है जिसे इस तकनीक की सहायता से लक्षित किया जा सकता है। लगभग 24 घंटों की देरी से बनाने वाले ऑलिगोमर्स जो विषमता में बदलाव के संकेत देते हैं। अल्फा सिन्यूक्लिन में सबसे खतरनाक देर से बनने वाले ऑलिगोमर्स को माना जाता है। अतः इस तकनीक की मदद से इस प्रोटीन पर आसानी से नज़र रखा जा सकता है जो दवा विकसित करने में कारगर साबित हो सकती है।

पुणे स्थित ‘अगरकर अनुसंधान संस्थान’ विकसित पोर्टेबल उपकरण सम्पादन

इसके माध्यम से 1 मिमी. के नमूने में मात्र 10 बैक्टीरिया कोशिकाओं के होने पर भी केवल 30 मिनट में इसकी पहचान की जा सकती है। शोधकर्त्ताओं ने इस उपकरण को ‘बग स्निफर’ (Bug Sniffer) नाम दिया है। वर्तमान में शोधकर्त्ता ‘एस्चेरिचिया कोलाई’ (Escherichia Coli) और ‘सैल्मोनेला टाइफिम्यूरियम’ (Salmonella Typhimurium) बैक्टीरिया को अलग कर उनकी पहचान करने की विधि पर कार्य कर रहें हैं। इसके लिये शोधकर्त्ताओं द्वारा ‘लूप-मीडिएटेड आइसोथर्मल एम्प्लिफिकेशन’ (Loop-mediated isothermal amplification- LAMP) तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस शोध के लिये ‘भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद’ (ICMR) द्वारा आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जा रही है।

‘एस्चेरिचिया कोलाई’(Escherichia Coli or E. Coli)खाद्य पदार्थों, मनुष्यों तथा जानवरों की आँत में पाया जाने वाला एक जीवाणु है। यद्यपि ये जीवाणु अधिकांशतः हानिकारक नहीं होते हैं, परंतु इनमें से कुछ ‘डायरिया’ जैसे रोग का कारण बन सकते हैं जबकि कुछ अन्य के संक्रमण से श्वसन संबंधी बीमारी और निमोनिया जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं।
सैल्मोनेला टाइफिम्यूरियम’(Salmonella Typhimurium) सैल्मोनेला समूह का एक रोगजनक जीवाणु है। यह मनुष्य और जानवर दोनों को प्रभावित कर सकता है। पक्षियों के मल से यह एक पक्षी से दूसरे पक्षी तक पहुँच जाता है।

इसके संक्रमण से व्यक्ति की आँत में सूजन हो जाती है, जो दस्त, उल्टी, बुखार और पेट में ऐंठन आदि का कारण बनती है। कार्य प्रणाली: इस बायोसेंसर में बैक्टीरिया की पहचान करने के लिये सिंथेटिक पेप्टाइड्स (Synthetic Peptides), चुंबकीय नैनोकणों (Magnetic Nanoparticles) और क्वांटम डॉट्स (Quantum Dots) का प्रयोग किया गया है। शोधकर्त्ताओं ने इस उपकरण के लिये तांबे के तार और पॉली (डाइमेथिलसिलॉक्सेन) से बने माइक्रो चैनल्स (Microchannels) युक्त एक चिप का विकास किया है। परीक्षण के दौरान पहले इस उपकरण के माध्यम से बैक्टीरिया की पहचान करने के लिये पेप्टाइड्स से जुड़े चुंबकीय नैनो कणों को बैक्टीरिया के साथ मैक्रोचैनल्स से होते हुए प्रवाहित होने दिया गया। इसके पश्चात् इस पर बाहरी मैग्नेटिक फील्ड सक्रिय कर पेप्टाइड्स से जुड़े बैक्टीरिया को अलग और स्थिर कर लिया गया। इसके अंतिम चरण में क्वांटम डॉट्स से जुड़े पेप्टाइड्स को पुनः मैक्रोचैनल्स से गुजारा गया। जीवाणुओं को पकड़ने के बाद ‘क्वांटम डॉट्स से जुड़े पेप्टाइड्स’ (Quantum-Dot-Tagged Peptides) के कारण मैक्रोचैनल्स से तीव्र और स्थिर (लगातार) प्रतिदीप्ति होती है। लाभ: रोगजनक जीवाणुओं की पहचान के लिये वर्तमान में उपलब्ध पारंपरिक तकनीकें उतनी संवेदनशील नहीं हैं और वे कोशिकाओं की कम संख्या होने पर इनकी पहचान नहीं कर सकती। इसके अतिरिक्त पारंपरिक तकनीक के प्रयोग में अधिक समय और श्रम लगता है, जबकि ARI शोधकर्त्ताओं द्वारा निर्मित उपकरण के माध्यम से 1 मिमी. के नमूने पर मात्र 10 कोशिकाओं के होने पर भी इनकी पहचान केवल 30 मिनट में की जा सकती है। शोधकर्त्ताओं के अनुसार, यह उपकरण काफी किफायती है और इसे बनाने के लिये आवश्यक सामग्री आसानी से प्राप्त है। इस उपकरण के उपयोग से सबसे आम रोगजनक जीवाणु ‘एस्चेरिचिया कोलाई’ और ‘सैल्मोनेला टाइफिम्यूरियम’ की आसानी से पहचान की जा सकती है। शोधकर्त्ताओं के अनुसार, नैनोसेंसर और इसे विकसित करने हेतु किये गए शोध से शीघ्र ‘लैब-ऑन-ए-चिप डायग्नोस्टिक्स’ (Lab-On-A-Chip Diagnostics) से जुड़ी नई संभावनाएँ खुलेगीं। अगरकर अनुसंधान संस्थान’ (Agharkar Research Institute- ARI) ARI भारत सरकार के ‘विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग’ (Department of Science and Technology- DST) के तहत एक स्वायत्त संस्थान है। इसकी स्थापना वर्ष 1946 में ‘महाराष्ट्र एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस’ (Maharashtra Association for the Cultivation of Science) के रूप में की गई थी। वर्ष 1992 में इस संस्थान के संस्थापक ‘प्रो. एस. पी. अगरकर’ के सम्मान में इसका नाम बदलकर ‘अगरकर अनुसंधान संस्थान’ कर दिया गया। वर्तमान में इस संस्थान में ‘जैव-विविधता और जीवाश्म विज्ञान’, बायोएनेर्जी (Bioenergy), बायोप्रोस्पेक्टिंग (Bioprospecting), डेवलपमेंटल बायोलाॅजी (Developmental Biology), जेनेटिक्स और प्लांट ब्रीडिंग (Genetics & Plant Breeding) तथा नैनोबायोसिस (Nanobiosis) जैसे क्षेत्रों में अनुसंधान और विकास का कार्य किया जाता है।

  • राजस्थान सरकार राज्य में पहले जैव प्रौद्योगिकी पार्क (Biotechnology Park) की स्थापना हेतु योजना बना रही है।

इस पार्क की स्थापना हेतु भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी विभाग तथा राजस्थान के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के मध्य एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये जाएंगे। समझौते के तहत राज्य में जैव प्रौद्योगिकी पार्क के साथ-साथ एक इनक्यूबेशन सेंटर (Incubation Center) भी स्थापित किया जाएँगे। जैव प्रौद्योगिकी पार्क एवं इक्यूबेशन केंद्र को भारत सरकार की सरकारी कंपनी, बायोटेक्नोलॉजी इंडस्ट्री रिसर्च अंसिस्टेंस कांउसिल (Biotechnology Industry Research Assistance Council- BIRAC) के सहयोग से स्थापित किया जाएगा। इस पार्क की स्थापना से राज्य में जैव प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहन मिलेगा जिससे औद्योगिक विकास एवं अनुसंधान के क्षेत्र को गति मिलेगी। राज्य में बायो-इनफार्मेशन, बायोमेडिकल इंजीनियरिंग एवं नैनो मेडिसीन इत्यादि के क्षेत्र में में प्रगति होगी। राज्य में बायो टेक्नोलॉजी कोर्स संचालित करने वाले सभी विश्वविद्यालयों एवं इससे जुड़े स्टार्टअप को मदद मिलेगी। पार्क और इनक्यूबेशन केंद्र की स्थापना से युवाओं को रोज़गार प्राप्त करने में भी मदद मिलेगी।

इनक्यूबेटर या इनक्यूबेशन केंद्र शब्द का उपयोग परस्पर सहयोग के लिये किया जाता है। इसे नए स्टार्टअप को सफल बनाने में मदद करने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
  • शेतकारी संगठन (Shetkari Sanghatana) नामक किसान संगठन द्वारा उन किसानों के खिलाफ एक आंदोलन चलाने की बात कही गई है जो चालू खरीफ के मौसम में बिना प्रशासनिक अनुमति के आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों (Genetically modified seeds/GM- seeds) का प्रयोग करने जा रहे हैं।

शेतकारी संगठन का मानना है कि चालू खरीफ ऋतु में, किसान बिना किसी अनुमति के बड़े पैमाने पर मक्का, सोयाबीन, सरसों, बैगन और शाकनाशी सहिष्णु कपास ( Herbicide Tolerant Cotton) के लिये जीएम बीजों की बुवाई करेंगे। शाकनाशी सहिष्णु कपास ( Herbicide Tolerant Cotton) में खरपतवार के प्रति अधिक प्रतिरोधक क्षमता होती है। संगठन का कहना है कि यदि किसान इस तरह के विभिन्न प्रकार के बीज़ अपने खेतों में प्रयोग करना चाहते हैं तो उन्हें फसल की जीएम प्रकृति की घोषणा करते हुए खेतों में बोर्ड लगाना होगा ताकि खेतों में आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों के प्रयोग के लिये नवीनतम प्रौद्योगिकीयों को अपनाया जा सके।

  • सरकार ने 'इथेनॉल सम्मिश्रण कार्यक्रम' (Ethanol Blending Programme- EBP) के तहत वर्ष 2022 तक पेट्रोल में 10 प्रतिशत बायो इथेनॉल सम्मिश्रण का लक्ष्य रखा है। जिसे वर्ष 2030 तक बढ़ाकर 20 प्रतिशत तक करना है।

'इथेनॉल सम्मिश्रण कार्यक्रम' को ‘राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति’- 2018 के अनुरूप लॉन्च किया गया था। वर्तमान में पेट्रोल में बायो इथेनॉल का सम्मिश्रण लगभग 5% है।

इथेनॉल सम्मिश्रण कार्यक्रम (Ethanol Blending Programme- EBP)

5% इथेनॉल सम्मिश्रित पेट्रोल की आपूर्ति के लिये 'पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय' द्वारा ‘इथेनॉल सम्मिश्रण पेट्रोल’ (Ethanol Blended Petrol- EBP) कार्यक्रम को जनवरी, 2003 में प्रारंभ किया गया था। तेल विपणन कंपनियाँ (OMCs), सरकार द्वारा तय की गई पारिश्रमिक कीमतों पर घरेलू स्रोतों से इथेनॉल की खरीद करती हैं। वर्तमान में कार्यक्रम का संपूर्ण भारत (अंडमान निकोबार और लक्षद्वीप द्वीपो को छोड़कर) में विस्तार कर दिया गया है। 1G और 2G जैव ईंधन संयंत्र: 1G बायो-इथेनॉल संयंत्र मे चीनी के उत्पादन से उत्पन्न उप-उत्पादों यथा- गन्ने के रस और गुड़ का उपयोग किया जाता है, जबकि 2G संयंत्र बायोएथेनॉल का उत्पादन करने के लिये अधिशेष बायोमास और कृषि अपशिष्ट का उपयोग करते हैं। वर्तमान में तीन OMCs; इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड, भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड और हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड, 2G बायो-इथेनॉल संयंत्र स्थापित करने की प्रक्रिया में हैं।

जैव ईंधन नीति सम्पादन

  • केंद्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री' की अध्यक्षता में 'राष्ट्रीय जैव ईंधन समन्वय समिति' (National Biofuel Coordination Committee- NBCC) ने 'भारतीय खाद्य निगम' (FCI) के पास उपलब्ध 'अधिशेष' चावल का इथेनॉल निर्माण में उपयोग करने का निर्णय लिया है।

यह निर्णय अल्कोहल-आधारित हैंड-सेनिटाइज़र बनाने और पेट्रोल के साथ इथेनॉल के सम्मिश्रण को बढ़ावा देने को दृष्टिगत रखकर लिया गया है। हालाँकि इस निर्णय से लोगों की खाद्य सुरक्षा गंभीर रूप से प्रभावित हो सकती है। 'राष्ट्रीय जैव ईंधन समन्वय समिति' (National Biofuel Coordination Committee- NBCC): NBCC में 'केंद्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री'; जो समिति की अध्यक्षता करता है, के अलावा 14 अन्य मंत्रालयों एवं विभागों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं। समिति 'जैव ईंधन कार्यक्रम' के कार्यान्वयन एवं प्रभावी निगरानी की दिशा में समन्वय तथा आवश्यक निर्णय लेने का कार्य करती है। जैव ईंधन नीति और खाद्य सुरक्षा: भारत के नीति निर्माता जैव ईंधन के उत्पादन में खाद्य अनाज के उपयोग से उत्पन्न होने वाले संभावित खतरों के बारे प्रारंभ से ही चिंतित थे। 'जैव ईंधन पर राष्ट्रीय नीति' (National Policy on Biofuels), 2009 में खाद्य बनाम ईंधन के बीच संभावित संघर्ष से बचने के लिये केवल गैर-खाद्य संसाधनों का जैव ईंधन सामग्री के रूप में उपयोग करने का प्रावधान किया। वर्ष 2018 में सरकार ने वर्ष 2009 की जैव ईंधन नीति को संशोधित किया। ‘जैव ईंधन पर नई राष्ट्रीय नीति’ में वर्ष 2030 तक पेट्रोल में इथेनॉल का 20% तथा डीज़ल में 5% के सम्मिश्रण का लक्ष्य रखा गया। इसमें दूसरी पीढ़ी की जैव-रिफाइनरियों के माध्यम से उत्पादन बढ़ाने तथा जैव ईंधन सामग्री के रूप में अवशिष्ट खाद्य पदार्थों के उपभोग की अनुमति प्रदान की गई। नवीन जैव ईंधन नीति के अनुसार, केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा समर्थन दिये जाने पर अतिरिक्त खाद्यान उत्पादन का उपयोग एथनॉल उत्पादन किया जा सकता है।

भारत में खाद्य सुरक्षा संबंधी चुनौतियाँ:

भारत उन देशों में शामिल है जहाँ तीव्र गरीबी, भुखमरी और कुपोषण की स्थिति है। 'वैश्विक भुखमरी सूचकांक' (Global Hunger Index)- 2019 के अनुसार, 117 देशों में भारत 102 वें स्थान पर रहा है। 'राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण' (National Family Health Survey- 4 NFHS-4) के अनुसार, पाँच वर्ष से कम उम्र के 38.4% फीसदी बच्चें 'बौने' (Stunted- उम्र के अनुसार लंबाई कम), जबकि 21% बच्चे 'वेस्टेड’ (Wasted: लंबाई के अनुसार कम वजन) हैं। वास्तव में 'वेस्टेड’ दर NFHS-3 में 19.8% से बढ़कर NFHS-4 में 21% हो गई है।