समसामयिकी 2020/त्योहार एवं संस्कृति

  • बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सर्वेक्षणकर्त्ताओं की एक टीम ने उत्तर प्रदेश के वाराणसी से 13 किमी. दूर बभनियाव (Babhaniyav) गाँव में लगभग 4,000 वर्ष पुरानी शहरी बस्ती का पता लगाया गया है।

अनुमान लगाया गया है कि यह प्राचीन ग्रंथों में वर्णित शिल्प ग्रामों में से एक हो सकता है। बुद्ध के काल में वाराणसी के आसपास कई उपनगरीय शिल्प ग्राम थे। जैसे- बढ़ई का गाँव या रथ बनाने वाला गाँव।

उत्तर प्रदेश में शिल्प ग्राम सारनाथ, तिलमापुर और रामनगर जिन्हें पहले खोजा जा चुका हैं।

बभनियाव गाँव में पुरातात्त्विक स्थल के प्रारंभिक सर्वेक्षण में 8वीं शताब्दी ईस्वी से 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच एक मंदिर का पता चला है। यहाँ से प्राप्त मिट्टी के बर्तन लगभग 4000 वर्ष पुराने हैं, जबकि मंदिर की दीवारें 2000 वर्ष पुरानी हैं। सर्वेक्षणकर्त्ताओं ने एक स्तंभ का भी पता लगाया है। जिसमें कुषाण-ब्राह्मी लिपि में दो-पंक्तियाँ लिखी हैं।

कुषाण वंश ने पहली शताब्दी से तीसरी शताब्दी के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर में, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के कुछ हिस्सों पर शासन किया।

कुषाण शासकों द्वारा जारी किये गए शिलालेख या उनके शासन क्षेत्रों में ग्रंथ बैक्ट्रियन भाषा (ग्रीक लिपि) में एवं प्राकृत भाषा (ब्राह्मी या खरोष्ठी लिपि) में लिखे गए हैं। इस स्थल की वाराणसी से निकटता के कारण इसका महत्त्व अधिक है जिसे 5,000 वर्ष पुराना माना जाता है, हालाँकि आधुनिक विद्वानों का मानना ​​है कि यह लगभग 3,000 वर्ष पुराना है। विशेषज्ञों के अनुसार, यह स्थल वाराणसी का एक छोटा उप-केंद्र हो सकता है जो एक नगरीय कस्बे के रूप में विकसित हुआ होगा। बभनियाव एक अनुषंगी शहर और वाराणसी-सारनाथ क्षेत्र के लिये एक निर्यातक केंद्र हो सकता है। वाराणसी: वाराणसी उत्तर प्रदेश राज्य के दक्षिण-पूर्व में गंगा नदी के बाएँ किनारे पर स्थित है और हिंदू धर्म के सात पवित्र शहरों में से एक है। यह विश्व के सबसे पुराने शहरों में से एक है। इसका प्रारंभिक इतिहास मध्य गंगा घाटी में पहली आर्य बस्ती से शुरू होता है। बुद्ध के समय (6वीं शताब्दी ईसा पूर्व) में वाराणसी, काशी राज्य की राजधानी थी। गौतम बुद्ध ने सारनाथ में अपना पहला उपदेश दिया था। प्रसिद्ध चीनी बौद्ध तीर्थयात्री जुआनज़ांग (Xuanzang) जिसने लगभग 635 ईस्वी में इस शहर का दौरा किया था, ने इस शहर को धार्मिक, शैक्षिक और कलात्मक गतिविधियों का केंद्र बताया। वर्ष 1194 में जब इस उपमहाद्वीप पर मुस्लिम आक्रमण हुए तब से वाराणसी के शहरीकरण में गिरावट आनी शुरू हुई। 18वीं शताब्दी में वाराणसी एक स्वतंत्र राज्य बना और बाद के ब्रिटिश शासन के तहत यह एक वाणिज्यिक और धार्मिक केंद्र बना रहा। वर्ष 1910 में अंग्रेज़ों ने वाराणसी को एक नया भारतीय राज्य बनाया जिसमें रामनगर (गंगा के विपरीत तट पर स्थित है ) को मुख्यालय बनाया गया था। वर्ष 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद वाराणसी राज्य उत्तर प्रदेश का हिस्सा बन गया।

संस्कृति के अन्य पहलु सम्पादन

  • बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि शीर्षक मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड (Waqf Board) ने घोषणा की है कि अयोध्या में मस्जिद बनाने के लिये एक ट्रस्ट का गठन किया जाएगा जिसमें अधिकतम 15 सदस्य शामिल होंगे।

प्रमुख बिंदु: इस ट्रस्ट को ‘इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन’ (Indo Islamic Cultural Foundation) कहा जायेगा। वक्फ (Waqf): धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिये भगवान के नाम पर दी गई संपत्ति को वक्फ (Waqf) कहा जाता है। कानूनी रूप से, वक्फ (Waqf) मुस्लिम कानून द्वारा पवित्र, धार्मिक या धर्मार्थ के रूप में मान्यता प्राप्त किसी भी उद्देश्य के लिये किसी भी चल या अचल संपत्ति के इस्लाम को स्वीकार करने वाले व्यक्ति द्वारा स्थायी अर्पण है। एक वक्फ का निर्माण एक विलेख या उपकरण के माध्यम से किया जा सकता है या एक संपत्ति को वक्फ माना जा सकता है यदि इसका उपयोग लंबे समय तक धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिये किया गया हो। एक गैर-मुस्लिम भी एक वक्फ बना सकता है किंतु व्यक्ति को इस्लाम को स्वीकार करना होगा और वक्फ बनाने का उद्देश्य इस्लामी होना चाहिये। प्रत्येक वक्फ को वक्फ अधिनियम, 1995 (Waqf Act, 1995) द्वारा शासित किया जाता है। इस अधिनियम के तहत एक सर्वेक्षण आयुक्त स्थानीय जाँच, गवाहों को बुलाकर और सार्वजनिक दस्तावेज़ों की मांग करके वक्फ के रूप में घोषित सभी संपत्तियों को सूचीबद्ध करता है। वक्फ का प्रबंधन एक मुतावली (Mutawali) द्वारा किया जाता है जो एक पर्यवेक्षक के रूप में कार्य करता है। यह भारतीय ट्रस्ट अधिनियम, 1882 के तहत स्थापित एक ट्रस्ट के समान है, किंतु इसे धार्मिक एवं धर्मार्थ उपयोग की तुलना में व्यापक उद्देश्य के लिये स्थापित किया जाता है। स्थापित ट्रस्ट को वक्फ के विपरीत बोर्ड द्वारा भंग भी किया जा सकता है। वक्फ बोर्ड (Waqf Board): यह संपत्ति प्राप्त करने एवं रखने और ऐसी किसी भी संपत्ति को हस्तांतरित करने की शक्ति रखने वाला एक न्यायिक व्यक्ति (Juristic Person) है। बोर्ड किसी पर मुकदमा कर सकता है और बोर्ड पर न्यायालय में मुकदमा चलाया जा सकता है क्योंकि इसे एक कानूनी संस्था या न्यायिक व्यक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त है। वक्फ बोर्ड की संरचना (Composition): प्रत्येक राज्य में एक वक्फ बोर्ड होता है जिसमें निम्नलिखित लोग शामिल होते हैं जिनकी वार्षिक आय 1 लाख या इससे अधिक होती है:- अध्यक्ष राज्य सरकार द्वारा नामित एक या दो सदस्य मुस्लिम विधायक एवं सांसद राज्य बार काउंसिल के मुस्लिम सदस्य इस्लामी धर्मशास्त्र के मान्यता प्राप्त विद्वान वक्फों के मुतावली

  • केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने आदिवासियों की भाषा, लोकनृत्य, कला और संस्कृति को संरक्षित करने एवं बढ़ावा देने के लिये कई योजनाएँ शुरू की हैं।

भारत सरकार ने पटियाला, नागपुर, उदयपुर, प्रयागराज, कोलकाता, दीमापुर और तंजावुर में क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र (Zonal Cultural Centres- ZCCs) स्थापित किये हैं। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के तहत ये ZCCs लोक/जनजातीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये कई योजनाएँ लागू कर रहे हैं। क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों द्वारा प्रारंभ की गईं योजनाएँ: युवा प्रतिभाशाली कलाकारों को पुरस्कार: ‘युवा प्रतिभाशाली कलाकार’ योजना का प्रारंभ विशेष रूप से दुर्लभ कला रूपों के क्षेत्र में युवा प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने और पहचानने के लिये किया गया है। इस योजना के अंतर्गत 18-30 वर्ष आयु वर्ग के प्रतिभाशाली युवाओं को चुना जाता है और उन्हें 10,000/- रुपए का नकद पुरस्कार दिया जाता है। गुरु शिष्य परंपरा: यह योजना आने वाली पीढ़ियों के लिये हमारी मूल्यवान परंपराओं को प्रसारित करने की परिकल्पना करती है। शिष्यों को कला के उन स्वरूपों में प्रशिक्षित किया जाता है जो दुर्लभ और लुप्तप्राय हैं। इस कार्यक्रम के अंतर्गत क्षेत्र के दुर्लभ और लुप्त हो रहे कला रूपों की पहचान की जाती है और गुरुकुलों की परंपरा में प्रशिक्षण कार्यक्रमों को पूरा करने हेतु प्रख्यात प्रशिक्षकों का चयन किया जाता है। इस योजना में गुरु को 7,500 रुपए, सहयोगी को 3,750 रुपए और शिष्य को 1,500 रुपए मासिक पारिश्रमिक के तौर पर छह महीने से लेकर अधिकतम 1 वर्ष की अवधि तक दिये जाएंगे। रंगमंच कायाकल्प: इस कार्यक्रम के अंतर्गत स्टेज शो और प्रोडक्शन आधारित वर्कशॉप सहित थिएटर गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिये TA और DA को छोड़कर प्रति शो 30,000 रुपए का भुगतान किया जाता है। इन समूहों को इनकी साख के साथ-साथ इनके द्वारा प्रस्तुत प्रोजेक्ट की योग्यता के आधार पर अंतिम रूप दिया जाएगा। अनुसंधान और प्रलेखन:-इस कार्यक्रम का उद्देश्य संगीत, नृत्य, रंगमंच, साहित्य, ललित कला आदि के माध्यम से क्षेत्रीय लोक कला, आदिवासी और शास्त्रीय संगीत सहित लुप्त दृश्य और प्रदर्शन कला रूपों को बढ़ावा देना और उनका प्रचार करना है। राज्य सांस्कृतिक विभाग के परामर्श से कला को अंतिम रूप दिया जाता है।

  1. शिल्पग्राम:-ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले कारीगरों को डिज़ाइन के विकास और विपणन सहायता के लिये संगोष्ठियों, कार्यशालाओं, प्रदर्शनियों, शिल्प मेलों का आयोजन कर क्षेत्र की लोक कला, आदिवासी कला और शिल्प को बढ़ावा देना।
  2. ऑक्टेव (सप्तक) (Octave):-इस कार्यक्रम के तहत उत्तर-पूर्व क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने हेतु प्रचार प्रसार करना है जिसमें आठ राज्य- अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, मिज़ोरम, सिक्किम, नगालैंड, मणिपुर और त्रिपुरा शामिल हैं।

राष्ट्रीय सांस्कृतिक विनिमय कार्यक्रम: (National Cultural Exchange Programme-NCEP): इसे क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों की जीवनरेखा कहा जा सकता है। इस योजना के तहत सदस्य राज्यों में कला प्रदर्शन, प्रदर्शनियाँ, यात्रा आदि से संबंधित विभिन्न उत्सव आयोजित किये जाते हैं। अन्य क्षेत्रों/राज्यों के कलाकारों को इन कार्यक्रमों में भाग लेने के लिये आमंत्रित किया जाता है। देश के अन्य हिस्सों में आयोजित होने वाले समारोहों में कलाकारों को भाग लेने हेतु सुविधा प्रदान की जाती है। क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र भी सदस्य राज्यों के प्रमुख त्योहारों में भाग लेते हैं, इन त्योहारों के दौरान अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं जहाँ बड़ी संख्या में दर्शकों को अन्य क्षेत्रों के कला रूपों का आनंद लेने और समझने का मौका मिलता है। ये त्योहार हमारे देश की विभिन्न संस्कृतियों को समझने का अवसर प्रदान करते हैं। साहित्य अकादमी जो कि संस्कृति मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संगठन है, भाषाओं के संरक्षण और संवर्द्धन को बढ़ावा देता है, विशेषकर लोक और आदिवासी भाषाओं को।

  • भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद ने अपना 70वाँ स्थापना दिवस 9 अप्रैल 2020 को मनाया।

COVID-19 के मद्देनज़र इस अवसर पर इस परिषद के अधिकतर कार्यक्रम ऑनलाइन आयोजित किये गए। विश्व के विभिन्न देशों के साथ भारत के सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। :जैसे:-जकार्ता (इंडोनेशिया) स्थित ICCR केंद्र तबला शिक्षकों की मदद से तबला की ऑनलाइन कक्षाओं का संचालन कर रहा है। सियोल, कोलंबो, तेहरान, ताशकंद, मैक्सिको, द हेग, जकार्ता एवं सिडनी में स्थित ICCR केंद्रों द्वारा ऑनलाइन योग कक्षाएँ भी संचालित की जा रही हैं।

मास्को (रूस) में भारतीय महाकाव्यों एवं पौराणिक कथाओं से परिचय कराने के लिये अमर चित्र कथा पुस्तकों का उपयोग किया जा रहा है।
दार-ए-सलाम (तंज़ानिया) में आभासी प्लेटफार्मों का उपयोग करके सूर्य नमस्कार कक्षाएँ भी संचालित की गयी।

वर्तमान में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद विश्व भर में 36 सांस्कृतिक केंद्रों का संचालन कर रही है। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद(Indian Council for Cultural Relations- ICCR) की स्थापना 9 अप्रैल, 1950 को स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने की थी। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है।

  • भारतीय डिजिटल विरासत (Indian Digital Heritage-IDH) पहल के तहत एक महीने तक चलने वाली एक विशेष प्रदर्शनी ‘डिजिटल स्पेस में भारतीय विरासत’ का शुभारंभ किया।

केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के तहत प्रारंभ इस प्रदर्शनी में देश के सांस्कृतिक विरासत क्षेत्र में भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की भारतीय डिजिटल विरासत (Indian Digital Heritage-IDH) पहल के तहत विकसित प्रौद्योगिकियों के अनुकूलन तथा सम्मिश्रण का प्रदर्शन किया गया है।

यह भारत की पहली प्रदर्शनी है जिसमें सांस्कृतिक विरासत क्षेत्र में आधुनिक प्रौद्योगिकियों जैसे 3D संरचना, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, संवर्धन, परोक्ष एवं मिश्रित वास्तविकता, होलोग्राफिक प्रोजेक्शन और प्रोजेक्शन मैपिंग आदि का प्रयोग किया गया है।
इस प्रदर्शनी में हंपी (कर्नाटक) और संवर्धित स्मारकों को प्रदर्शित करने हेतु भौतिक मॉडलों की वास्तविकता पर आधारित एक डिजिटल फिल्मांकन किया गया। हंपी तथा पाँच भारतीय स्मारकों काशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी (उत्तर प्रदेश), ताजमहल आगरा (उत्तर प्रदेश), सूर्य मंदिर कोणार्क (ओडिशा), रामचंद्र मंदिर हंपी (कर्नाटक) एवं रानी की वाव पाटन (गुजरात) के वैभव का वास्तविक व व्यापक अनुभव उपलब्ध कराया जा सके।
विरासत (ViRaasat), 3D प्रतिकृति से युक्त एक विशेष अधिष्ठापन है जो दर्शकों को चुनिंदा स्मारकों के मिले जुले वास्तविक अनुभव उपलब्ध कराएगा। इसमें लेजर स्कैनिंग,3D मॉडलिंग,3D प्रिंटिंग,कंप्यूटर विजन और स्थानिक संवर्धित वास्तविकता का उपयोग किया गया है।

भारत के प्रमुख त्योहार सम्पादन

अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध परिसंघ (International Buddhist Confederation- IBC) भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय (Ministry of Culture) के साथ मिलकर आगामी आषाढ़ पूर्णिमा (4 जुलाई, 2020) को धम्म चक्र दिवस (Dharma Chakra Day) मनाएगा। आषाढ़ पूर्णिमा का यह पावन दिवस भारतीय सूर्य कैलेंडर के अनुसार आषाढ़ महीने की पहली पूर्णिमा को होता है जो श्रीलंका में ‘एसाला पोया’ (Esala Poya) तथा थाईलैंड में ‘असान्हा बुचा’ (Asanha Bucha) के नाम से विख्यात है। बुद्ध पूर्णिमा या वेसाक (Vesak) के बाद बौद्धों का यह दूसरा सबसे पवित्र दिवस है। यह दिवस भगवान बुद्ध के ज्ञान प्राप्त करने के बाद वाराणसी (उत्तरप्रदेश) के निकट सारनाथ (ऋषिपत्तनम्) के हिरण उद्यान में आषाढ़ महीने की पहली पूर्णिमा को पहले पाँच तपस्वी शिष्यों (पंचवर्गिका) को उपदेश दिये जाने को चिह्नित करता है। जिसे बौद्ध ग्रंथों में धर्मचक्रप्रवर्तन कहा गया। धर्मचक्रप्रवर्तन: ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ सूत्र का यह उपदेश ‘धर्म के प्रथम चक्र के घूमने’ के नाम से भी विख्यात है और चार पवित्र सत्य तथा उच्च अष्टमार्ग से मिलकर बना है। इस सूत्र का उल्लेख बौद्ध ग्रंथ ‘धम्मचक्कपवत्तना सुत्त’ (Dhammacakkappavattana Sutta) में किया गया है। सन्यासियों (महिला एवं पुरुष दोनों) के लिये वर्षा ऋतु निवर्तन भी इसी दिन से आरंभ होता है जो जुलाई से अक्तूबर तक के तीन चंद्र महीनों तक चलता है। इस समय को सन्यासी एकल स्थान पर गहन साधना करते हुए व्यतीत करते हैं। इस अवधि के दौरान गृहस्थ समुदायों द्वारा उनकी सेवा की जाती है जो उपोस्था अर्थात् आठ नियमों का पालन करते हैं तथा अपने गुरुओं के दिशा-निर्देश में ध्यान करते हैं। इस दिन को बौद्धों एवं हिंदुओं के द्वारा अपने गुरुओं के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिये गुरु पूर्णिमा के रूप में भी मनाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध परिसंघ (International Buddhist Confederation): अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध परिसंघ दिल्ली स्थित सबसे बड़ा धार्मिक बौद्ध संघ है।

‘लामा लोबज़ंग’ (Lama Lobzang) ने इसके गठन में अहम् भूमिका निभाई है।

इस परिसंघ को सबसे पहले एक संगठन के रूप में नामित किया गया जो पूरी दुनिया से बौद्धों को एकजुट करता है।

  • COVID-19 के कारण राष्ट्रव्यापी लाॅकडाउन की स्थिति को देखते हुए केरल में 2 मई को आयोजित होने वाले त्रिशूर पूरम उत्सव को पहली बार रद्द कर दिया गया है। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान त्रिशूर पूरम उत्सव को सीमित तौर पर आयोजित किया गया था किंतु इस बार इसे पूरी तरह से रद्द कर दिया गया है।

त्रिशूर पूरम उत्सव (Thrissur Pooram Festival) भारत के केरल राज्य में आयोजित किया जाने वाला एक वार्षिक हिंदू त्योहार है। इसे प्रत्येक वर्ष त्रिशूर के वडक्कुनाथन मंदिर में पूरम दिन (मलयालम कैलेंडर के अनुसार पूरम वह दिन होता है जब मेडम (Medam) महीने में चंद्रमा पूरम तारे के साथ उदय होता है।) पर आयोजित किया जाता है। यह सभी पूरम में सबसे बड़ा एवं सबसे प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक संदर्भ:-त्रिशूर पूरम उत्सव के लिये राजा राम वर्मा का योगदान उल्लेखनीय है जो कोचीन के महाराजा (1790–1805) थे और सक्थान थामपुरन (Sakthan Thampuran) के नाम से मशहूर थे। इसकी शुरुआत से पहले, केरल में सबसे बड़ा मंदिर उत्सव अरट्टुपुझा में आयोजित एक दिवसीय उत्सव था जिसे अरट्टुपुझा पूरम (Arattupuzha Pooram) के नाम से जाना जाता था।

प्रतिभागी:-त्रिशूर के मुख्य मंदिरों जैसे- परमेक्कावु देवी (Paramekkavu Devi) मंदिर और तिरुवंबादि श्री कृष्ण (Thiruvambadi Sri Krishna) मंदिर में भगवान शिव के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करनी होती है।

उपर्युक्त दोनों मंदिर उत्सव के दौरान एक-दूसरे का विरोध करते हैं और उनकी ‘हाथियों की टीम’ एक दूसरे के साथ छठे दिन हाथी जुलूस, आतिशबाजी एवं समग्र सांस्कृतिक प्रतिनिधित्त्व के माध्यम से प्रतिस्पर्द्धा करती है। पंद्रह हाथियों का एक भव्य प्रदर्शन इस त्योहार के सबसे प्रमुख पहलुओं में से एक है। इन पंद्रह हाथियों को स्वर्ण धागों से सजाया जाता है। आतिशबाजी केरल के मंदिर समारोहों का एक अभिन्न हिस्सा है किंतु त्रिशूर पूरम को केरल में ‘सभी उत्सवों की माँ’ (Mother of All Festivals) के रूप में संदर्भित किया जाता है जो आतिशबाजी एवं मंदिर के उत्सवों की जननी है।

  • COVID-19 के मद्देनज़र जारी राष्ट्रव्यापी लाकडाउन के कारण ओडिशा के गंजम ज़िला प्रशासन ने 13 अप्रैल, 2020 को महाविशूब संक्रांति (Mahavishub Sankranti) के अवसर पर मंदिरों में मेरु जात्रा (Meru Jatra) उत्सव पर प्रतिबंध लगा दिया। मेरु जात्रा 21 दिन तक चलने वाली तपस्या के अंत का प्रतीक है जिसे 'दंड नाता' (Danda Nata) के नाम से जाना जाता है।
दंड नाता (Danda Nata) उत्सव 21 दिनों तक चलने वाला एक मौसमी लोक नृत्य उत्सव है जो दक्षिणी ओडिशा में 'चैत्र' महीने में मनाया जाता है। ‘दंड’ एक प्रकार की स्व-पीड़ा है, जिसे दांडू (त्योहार में भाग लेने वाले लोग) देवी काली को अपनी श्रद्धांजलि देने के लिये करते हैं। यह भगवान शिव एवं देवी पार्वती की पूजा करने का भी एक रूप है। लोग गर्मियों की दोपहर में धूल तथा शाम को तालाब में नृत्य करते हैं। इसके अलावा मध्यरात्रि में 'दांडू' लोग आग पर चलते हैं। इस त्योहार की उत्पत्ति ओडिशा में बौद्ध धर्म के पतन के बाद 8वीं से 9वीं ईस्वी के बीच मानी जाती है।
महाविशूब संक्रांति को ओडिया नव वर्ष की शुरुआत के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन ओडिशा के तारा तारिणी पहाड़ी मंदिर एवं अन्य मंदिरों में विशाल उत्सव का आयोजन होता है। इसे पाना संक्रांति के रूप में भी जाना जाता है। यह भारत में बौद्धों एवं हिंदुओं का पारंपरिक नववर्ष उत्सव है।

इस उत्सव की तारीख लुनिसोलर (lunisolar) कैलेंडर के सौर चक्र से निर्धारित की जाती है जो मेष (Mesha) के पारंपरिक सौर मास के पहले दिन के रूप में होता है। यह चंद्र मास बैसाख की पूर्णिमांता प्रणाली (Purnimanta System) के समान है। महाविशूब संक्रांति हिंदुओं द्वारा वैशाखी (उत्तर एवं मध्य भारत), बोहाग बिहू (असम एवं पूर्वोत्तर भारत), पोहेला बोइशाख (पश्चिम बंगाल), विशु (केरल) एवं पुथंडु (तमिलनाडु) जैसे अन्य स्थानों पर मनाए जाने वाले नये वर्ष के त्योहारों के समान है।

  • 23 जून, 2020 को प्रधानमंत्री ने कच्छी नव वर्ष ‘अषाढ़ी बीज’ (Ashadhi Bij) के अवसर पर लोगों को शुभकामनाएँ दी। आषाढ़ मास में शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन मनाया जाता है। यह हिंदू नव वर्ष गुजरात के कच्छ क्षेत्र में कच्छी समुदाय द्वारा मनाया जाता है। यह एक परंपरागत ‘वर्षा आगमन का उत्सव’ है। आषाढ़ी बीज के दौरान स्थानीय किसान यह अनुमान लगाते हैं कि वातावरण में नमी का स्तर कितना है जिसके आधार पर वे सबसे अनुकूल फसल की बुवाई कर सकें। गुजरात में कच्छ का क्षेत्र अधिकतर एक रेगिस्तानी क्षेत्र है इसलिये यहाँ रहने वाले निवासियों के लिये वर्षा की महत्ता अधिक है। यह उत्सव भारत में मुख्य रूप से दो स्थानों (उत्तर प्रदेश के वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर में और गुजरात के उमरेठ (Umreth) में मुलेश महादेव (Mulesh Mahadev) मंदिर में) पर मनाया जाता था।
कच्छ का रण (Rann of Kutch) ‘साल्ट मार्शेस’ (Salt Marshes) या रेह भूमि का एक बड़ा क्षेत्र है जो भारत एवं पाकिस्तान की सीमा पर फैला हुआ है। यह अधिकतर गुजरात (मुख्य रूप से कच्छ ज़िले में) और सिंध (पाकिस्तान) के कुछ हिस्सों में अवस्थित है। यह महान रण (Great Rann) एवं छोटे रण (Little Rann) में विभाजित है।

‘कच्छ का रण’ भारत-मलायन क्षेत्र (Indo-Malayan Region) का एकमात्र बड़ा बाढ़कृत घास का मैदान है।

  • ओडिशा में तीन दिवसीय रज-पर्व मनाया जा रहा है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जब सूर्य वृषभ राशि से निकलकर मिथुन राशि में प्रवेश करता है तो उस दिन से वर्षा ऋतु का आगमन माना जाता है। इसे मिथुन संक्राति के रूप मनाया जाता है और ओडिशा में इसे रज पर्व के नाम से मनाया जाता है जो मुख्यत: धरती माँ और व्यापक स्तर पर स्त्रीत्त्व को समर्पित उत्सव है।

उड़िया भाषा में रज शब्द का अर्थ है- मासिक धर्म। माना जाता है कि पृथ्वी भगवान जगन्नाथ की पत्नी है और धरती माता इस अवधि के दौरान तीन दिन के मासिक धर्म पर होती हैं। इसलिये इस पर्व पर पृथ्वी को नुकसान पहुँचाने वाली कोई भी गतिविधि जैसे- खेत की जुताई, टाइलिंग, निर्माण या कोई अन्य कार्य नहीं किया जाता है। पृथ्वी के मासिक धर्म चक्र के तीन दिवसीय रज-पर्व के पहले दिन को पहिली रज, दूसरे दिन को मिथुन संक्रांति और तीसरे दिन को बासी-रज कहा जाता है। बसुमती स्नान के साथ इस पर्व का समापन होता है जिसका अर्थ होता है- पृथ्वी माता का स्नान। इस दिन संध्याकाल में लोग धरती माता की प्रतिकृति के रूप में पत्थर के टुकड़ों को स्नान कराकर पूजा करते हैं और एक समृद्ध कृषि वर्ष हेतु प्रार्थना करते हैं। रज पर्व में धरती माता के मासिक धर्म को उत्सव की तरह मनाने की यह परंपरा इस तथ्य की स्वीकारोक्ति है कि अतीत में भी महिलाओं के मासिक धर्म को लेकर समाज में कोई वर्जना नहीं थी और मासिक धर्म को प्रजनन क्षमता का प्रतीक मानकर स्त्रीत्त्व को दूसरे जीवन को जन्म देने की शक्ति माना जाता था। यह रज पर्व मानव जीवन में प्रकृति के महत्त्व और प्रकृति के संरक्षण हेतु मानव के कर्त्तव्य को रेखांकित करता है। यह पारस्परिक संबंध प्रकृति के संरक्षण के साथ-साथ सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिये बहुत आवश्यक है। इसके अतिरिक्त यह पर्व स्त्री मुक्ति, मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता और लैंगिक न्याय के सतत् विकास लक्ष्य के अनुरूप है।

  • ओडिशा के तारा तारिणी पहाड़ी मंदिर में 17 मार्च, 2020 को आयोजित होने वाले प्रसिद्ध वार्षिक चैत्र जात्रा उत्सव को COVID -19 संक्रमण के खिलाफ ज़रूरी उपाय के रूप में रद्द कर दिया गया। यह त्योहार हिंदू कैलेंडर के अनुसार चैत्र महीने के प्रत्येक मंगलवार को ओडिशा के तारा तारिणी पहाड़ी मंदिर में मनाया जाता है। चैत्र महीने के दूसरे व तीसरे मंगलवार को सबसे बड़ी सभाएँ आयोजित की जाती हैं।

रुशिकुल्या नदी के किनारे कुमारी पहाड़ी पर स्थित तारा तारिणी पहाड़ी मंदिर ओडिशा में शक्ति की उपासना का एक प्रमुख केंद्र है।

रुशिकुल्या नदी का उद्गम पूर्वी घाट की दारिंगबाड़ी (Daringbadi) पहाड़ियों से लगभग 1000 मीटर की ऊँचाई पर होता है। दारिंगबाड़ी को ‘ओडिशा का कश्मीर’ कहा जाता है। यह ओडिशा की प्रमुख नदियों में से एक है जो ओडिशा के कंधमाल एवं गंजम ज़िलों के जलग्रहण क्षेत्र को समाहित करती है। यह बंगाल की खाड़ी में गंजम ज़िले के पुरूना बांध के पास मिलती है। इसकी सहायक नदियाँ बघुआ, धनेई, बाड़ानदी आदि हैं। यह नदी डेल्टा नहीं बनाती है। भारतीय नौसेना की सेलबोट आईएनएसवी तारिणी का नाम तारा तारिणी पहाड़ी मंदिर के नाम पर रखा गया था।

तारा तारिणी पहाड़ी मंदिर(Tara Tarini Hill Shrine) ओडिशा के गंजम ज़िले में ब्रह्मपुर शहर के पास रुशिकुल्या नदी के किनारे कुमारी पहाड़ियों पर स्थित तारा तारिणी पहाड़ी मंदिर को चरण पीठ एवं आदि शक्ति के रूप में पूजा जाता है। तारा तारिणी शक्ति पीठ भारत के चार प्रमुख तंत्र पीठों और शक्ति पीठों में से एक है। भारत में चार प्रमुख शक्तिपीठ निम्नलिखित हैं।

  1. पुरी में जगन्नाथ मंदिर
  2. गुवाहाटी के पास कामाख्या मंदिर
  3. कोलकाता में दक्षिण कालिका
  4. ब्रह्मपुर के पास तारा तारिणी मंदिर

यह मंदिर ओडिया (Odia) मंदिर वास्तुकला की पारंपरिक रेखा शैली के अनुसार बनाया गया था। इसी वास्तुकला शैली में पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर एवं भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर बनाया गया है। इस मंदिर की स्थापना किसी राजा ने नहीं बल्कि बसु प्रहाराज (Basu Praharaj) नामक एक ब्राह्मण ने की थी।

  • 14 अप्रैल, 2020 को भारतीय प्रधानमंत्री ने असम के लोगों को रोंगाली बिहू (Rongali Bihu) और असमिया नव वर्ष की शुरुआत के अवसर पर शुभकामनाएँ दी।

रोंगाली बिहू या हाट बिहू (Haat Bihu) असमिया नव वर्ष (Assamese New Year) को चिह्नित करता है। यह मुख्य रूप से असम तथा पूर्वोत्तर भारत के अन्य हिस्सों में असमिया लोगों द्वारा मनाया जाता है। माना जाता है कि 'बिहू' शब्द की उत्पत्ति 'बिशु' से हुई है जिसका अर्थ 'शांति के लिये पूछना' है। जबकि ‘रोंगाली’ शब्द की उत्पत्ति ‘रोंग’ से हुई है जिसका अर्थ खुशी और उत्सव मनाना होता है। आमतौर पर इसे अप्रैल महीने के दूसरे सप्ताह में मनाया जाता है। यह उत्सव असम के विभिन्न समुदायों को एकजुट करता है तथा विविधता को बढ़ावा देता है। भारत में यह वैशाख महीने की विषुव संक्रांति (Vishuva Sankranti) या स्थानीय रूप से 'बोहाग' (भास्कर कैलेंडर) के सात दिन बाद मनाया जाता है। असम में बिहू के तीन प्रकार बोहाग बिहू (Bohag Bihu) या रोंगाली बिहू, कटि बिहू (Kati Bihu) या कोंगाली बिहू (Kongali Bihu) और माघ बिहू (Magh Bihu) या भोगाली बिहू (Bhogali Bihu) हैं। प्रत्येक त्योहार ऐतिहासिक रूप से धान की फसलों के एक अलग कृषि चक्र को दर्शाता है। बिहू शब्द का प्रयोग बिहू नृत्य का प्रयोग करने के लिये भी किया जाता है और बिहू लोक गीतों को बिहू गीत भी कहा जाता है।

  • कर्नाटक के कंबाला (Kambala) सुपर स्प्रिंटर श्रीनिवास गौड़ा (Srinivasa Gowda) कीचड़ युक्त खेतों में विश्व के सबसे तेज़ धावक उसेन बोल्ट (Usain Bolt) की तुलना में अधिक तेज़ दौड़ने के कारण चर्चा में रहे।

कंबाला (Kambala) त्योहार भारत के कर्नाटक राज्य के तटीय इलाकों में आयोजित की जाने वाली दो दिवसीय भैंसा दौड़ प्रतियोगिता है। इस प्रतियोगिता का आयोजन नवंबर से मार्च तक होता है, इसमें किसान हल के साथ भैंसों के जोड़े को बाँधकर कीचड़ के समानांतर पथों (Parralel Muddy Tracks) पर दौड़ते हैं। इसमें सबसे तेज़ भागने वाली टीम विजयी होती है। इस त्योहार को कृषक समुदाय अच्छी फसल प्राप्त करने हेतु ईश्वर को खुश के लिये मनाता है। यह त्योहार तमिलनाडु के जल्लीकट्टू त्योहार जैसा है किंतु इसमें भैंसों को शामिल किया जाता है जबकि जल्लीकट्टू में बैलों को शामिल किया जाता है। वर्ष 2014 में पशु कल्याण संगठनों द्वारा दायर मुकदमों के आधार पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कंबाला और जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया। 3 जुलाई, 2017 को भारत के राष्ट्रपति ने पशु क्रूरता निवारण अधिनियम (कर्नाटक संशोधन) अध्यादेश, 2017 [11] की घोषणा को मंज़ूरी दे दी और कर्नाटक में कंबाला उत्सव को वैध कर दिया गया है।

  • आंध्र प्रदेश में श्रीकाकुलम ज़िले के अरसाविल्ली (Arasavilli) में स्थित प्रसिद्ध सूर्य मंदिर में रथ सप्तमी (Ratha Saptami) के अवसर पर सूर्यनारायण स्वामी की पूजा की जाती है।

रथ सप्तमी दो शब्दों (रथ और सप्तमी) से बना है- रथ का अर्थ एक प्रकार की गाड़ी और सप्तमी का अर्थ 7वें से है। प्रतीकात्मक रूप से यह त्योहार भगवान सूर्य को समर्पित है, इसमें सात घोड़ों वाले रथ को उत्तर-पूर्व दिशा में उत्तरी गोलार्द्ध की ओर ले जाते हैं। ये सात घोड़े इंद्रधनुष के सात रंगों या सप्ताह के सात दिनों का प्रतिनिधित्व करते हैं। रथ में 12 पहिये होते हैं जो राशि चक्र (360 डिग्री) के 12 चिंहों (प्रत्येक 30 डिग्री) का प्रतिनिधित्व करते हैं और एक पूरे वर्ष का गठन करते हैं जिसे संवत्सर (Samvatsara) कहा जाता है। रथ सप्तमी क्या है? रथ सप्तमी जिसे माघ सप्तमी के रूप में भी जाना जाता है, एक हिंदू त्योहार है जो हिंदू कैलेंडर के माघ महीने में 7वें दिन आता है। माघ महीने का 7वाँ दिन भी सूर्य के जन्म का प्रतीक है, इसलिये इसे सूर्य जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। रथ सप्तमी को सरस्वती पूजा या बसंत पंचमी के दो दिन बाद मनाया जाता है जो वसंत ऋतु की शुरुआत का प्रतीक है।

  • राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 1 फरवरी, 2020 को हरियाणा के सूरजकुंड में 34वें सूरजकुंड अंतर्राष्ट्रीय शिल्प मेले (34th Surajkund International Crafts Mela) का उद्घाटन किया।

प्रत्येक वर्ष 1 से 15 फरवरी तक हरियाणा के सूरजकुंड में भारत का एक पारंपरिक शिल्प उत्सव आयोजित किया जाता है। यह शिल्प मेला वर्ष 1987 में शुरू किया गया था। देश के सभी हिस्सों के पारंपरिक शिल्पकार (कलाकार, चित्रकार, बुनकर और मूर्तिकार) इस वार्षिक उत्सव में भाग लेते हैं जिसे ‘सूरजकुंड शिल्प मेला’ या ‘सूरजकुंड डिज़ाइनरों का गाँव’ नाम दिया गया है। सूरजकुंड मेला साधारण कारीगरों को उनके कौशल के लिये वास्तविक पहचान और मूल्य प्रदान करता है। यह उन्हें अपने उत्पादों को सीधे ग्राहकों के समक्ष प्रदर्शित करने और बेचने का एक उत्कृष्ट अवसर भी प्रदान करता है। सूरजकुंड मेले ने भारत की विभिन्न उल्लेखनीय शिल्प परंपराओं को संरक्षित किया है। कई कारीगरों और बुनकरों के लिये यह मेला उनकी वार्षिक आय का प्रमुख स्रोत है।

  • नागोबा जात्रा (Nagoba Jatara) एक आदिवासी त्योहार है जो तेलंगाना राज्य के आदिलाबाद ज़िले में मनाया जाता है।

यह त्योहार पुष्य मासम (Pushya Masam) में शुरू होता है और 10 दिनों तक चलता है। 10 दिनों तक चलने वाला यह त्योहार गोंड जनजाति के मेश्राम कुल (Mesram Clan) के लोगों द्वारा मनाया जाता है। यह मेश्राम कुल के लोगों द्वारा मनाया जाने वाला दूसरा सबसे बड़ा जनजातीय कार्निवल है। इस त्योहार पर मेश्राम कुल से संबंधित महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा और मध्य प्रदेश के आदिवासी लोग पूजा करते हैं। आदिवासी पुजारियों द्वारा केसलपुर गाँव (आदिलाबाद) से 70 किमी. दूर गोदावरी नदी से लाए गए जल से नागोबा की मूर्ति पर जलाभिषेक करने के बाद 10 दिवसीय उत्सव शुरू होता है। पारंपरिक परिधान: इस उत्सव के दौरान आदिवासी लोग सफेद धोती-कुर्ता और पगड़ी तथा महिलाएँ पारंपरिक रंगीन नौ-वारी (मराठी साड़ी) पहनती हैं। गुसाड़ी नृत्य (Gusadi Dance): इस अवसर पर गोंड जनजाति के लोगों द्वारा गुसाड़ी नृत्य (Gusadi Dance) का आयोजन किया जाता है। नागोबा (Nagoba) इस उत्सव के दौरान सभी गतिविधियों का केंद्र नाग देवता (नागोबा) का श्री शेक मंदिर है। यह मंदिर आदिवासी लोगों को समर्पित है। भेटिंग (Bheting) प्रथा: भेटिंग (Bheting) इस उत्सव का एक अभिन्न अंग है जहाँ पहले जात्रा के दौरान नई दुल्हनों को कुल देवता से परिचय कराया जाता है।

  • तमिलनाडु राज्य के मदुरै में जल्लीकट्टू (Jallikattu) कार्यक्रम में ज़िला प्रशासन और पुलिस द्वारा सुरक्षा नियमों को लागू करने से दुर्घटनाओं को कम करने में मदद मिली है।

जल्लीकट्टू का आयोजन प्रत्येक वर्ष जनवरी में पोंगल (फसलों की कटाई के त्योहार) के अवसर पर किया जाता है। जल्लीकट्टू,तमिलनाडु का लगभग 2000 साल पुराना एक प्राचीन पारंपरिक खेल है इस आयोजन में हर साल लोग गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं यहाँ तक कि उनकी मौत भी हो जाती है। जल्लीकट्टू तमिल भाषा के दो शब्दों ‘जल्ली’ और ‘कट्टू’ से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है साँड़ के सींग पर सोने या चाँदी के बांधे गए सिक्के। इस खेल में साँड़ की सींगों में सिक्के या नोट फँसाए जाते हैं और फिर उन्हें भड़काकर भीड़ में छोड़ दिया जाता है, ताकि लोग साँड़ की सींगों को पकड़कर उन्हें काबू में करें।

  • भारत में फसल कटाई त्योहार को मकर संक्रांति,लोहड़ी,पोंगल,भोगली बिहू,उत्तरायण और पौष पर्व जैसे विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है।

मकर संक्रांति एक हिंदू त्योहार जो सूर्य को आभार प्रकट करने के लिए समर्पित है। इस दिन लोग अपने प्रचुर संसाधनों और फसल की अच्छी उपज के लिए प्रकृति को धन्यवाद देते हैं। यह त्योहार सूर्य के मकर (मकर राशि) में प्रवेश को दर्शाता है। इसे भारत के कई राज्यों जैसे ओडिशा,महाराष्ट्र, गोवा,आंध्र प्रदेश,तेलंगाना,केरल और अधिकांश उत्तर भारत में मनाया जाता है। जबकि अन्य राज्यों में इसे निम्नलिखित नामों से जाना जाता है- त्योहार राज्य/क्षेत्र

  1. उत्तरायण (Uttarayan)-गुजरात
  2. पोंगल (Pongal)-तमिलनाडु
  3. भोगली बिहू (Bhogali Bihu)-असम
  4. लोहड़ी (Lohri)-पंजाब और जम्मू-कश्मीर
  5. माघी (Maghi)-हरियाणा और हिमाचल प्रदेश
  6. मकर संक्रामना (Makar Sankramana)-कर्नाटक
  7. सायन-करात (Saen-kraat)-कश्मीर
  8. खिचड़ी पर्व (Khichdi Parwa)-उत्तर प्रदेश,बिहार और झारखंड

ग्रीष्म अयनांत (Summer Solstice): जब सूर्य कर्क रेखा पर लंबवत चमकता है तो इस स्थिति को ग्रीष्म अयनांत कहते हैं। वस्तुतः 21 मार्च के बाद सूर्य उत्तरायण होने लगता है तथा उत्तरी गोलार्द्ध में दिन की अवधि बढ़ने लगती है, जिससे वहाँ ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। शीत अयनांत (Winter Solstice):जब सूर्य मकर रेखा पर लंबवत चमकता है तो इस स्थिति को शीत अयनांत कहते हैं। इस समय दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन की अवधि लंबी व रात छोटी होती हैं। वस्तुतः सूर्य के दक्षिणायन होने की प्रक्रिया 23 सितंबर के बाद प्रारंभ हो जाती है।

  • तमिलनाडु के सलेम ज़िले में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले कन्नुम पोंगल (Kaanum Pongal) का (जल्लीकट्टू की भाँति लेकिन इसमें बैल के बजाय भारतीय लोमड़ी का प्रयोग किया जाता है) का आयोजन किया जायेगा।

पूरे वर्ष भरपूर वर्षा होने की मान्यता से आयोजित किया जाता है। भारतीय लोमड़ी को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम,1972 के तहत एक संरक्षित (Protected) प्रजाति घोषित किया गया है जिससे इसका शिकार करना या पकड़ना प्रतिबंधित है।

भारतीय लोमड़ी या बंगाल फॉक्स[(Least Concern)-IUCN]का वैज्ञानिक नाम वुलपेस बेंगालेंसिस है। भारत,नेपाल और पाकिस्तान सहित पूरा भारतीय उपमहाद्वीप इसका मूल निवास है।
पोंगल त्योहार,तमिलनाडु राज्य में चार दिनों तक चलने वाला फसल कटाई उत्सव है। भोगी पोंगल (Bhogi Pongal) के दिन (तमिल कैलेडर के एक महीने मर्घाज़ी का अंतिम दिन) से शुरू होता है। इसी दिन ‘बोगी पांडिगई’ (Bogi Pandigai) भी मनाया जाता है।
बोगी पंडिगई उत्तर भारत के पंजाब राज्य में मनाये जाने वाले लोहड़ी (Lohri) नामक फसल त्योहार की तरह है।

पोंगल में दूसरा दिन सबसे महत्वपूर्ण होता है जिसे थाई पोंगल (Thai Pongal)/सूर्य पोंगल (Surya Pongal) कहा जाता है और यह उत्तर भारत में मनाये जाने वाले मकर संक्रांति (Makar Sankranti) उत्सव की तरह होता है। थाई पोंगल तमिल सौर कैलेंडर के अनुसार थाई महीने (Thai month) का पहला दिन है। थाई पोंगल के बाद क्रमशः मट्टू पोंगल (Mattu Pongal),कन्नुम पोंगल (Kaanum Pongal) का स्थान आता है।

  • एपिफेनी त्योहार (Epiphany Festival) को गोवा में पुर्तगाली नाम 'फेस्टा डॉस रीस' (Festa dos Reis) और केरल के कुछ हिस्सों में सिरिएक (Syriac) के 'देन्हा' (Denha) नाम से जाना जाता है।

ईसाई धर्म में क्रिसमस और ईस्टर के बाद एपिफेनी त्योहार सबसे पुराना एवं प्रमुख त्योहार है। इसे रोमन कैथोलिक (Roman Catholic) चर्च सहित कई ईसाई संप्रदायों द्वारा 6 जनवरी को और कुछ पूर्वी रूढ़िवादी (Eastern Orthodox) चर्चों द्वारा 19 जनवरी को मनाया जाता है।

पश्चिमी देशों में 25 दिसंबर से 6 जनवरी के बीच की अवधि को ‘क्रिसमस के बारह दिनों’(Twelve Days of Christmas) के रूप में जाना जाता है।
एपिफेनी एक दावत या स्मरणोत्सव का दिन है जो ईसाई धर्म में शिशु यीशु (12 वर्ष की आयु तक) के लिये ‘मागी’(Magi) की यात्रा को चिह्नित करता है। मागी का मतलब तीन बुद्धिमान आदमी (Three Wise Men) या तीन राजा (Three Kings) होता है।

ईसाई मान्यता के अनुसार, अरब के राजा बल्थासार (Balthasar), फारस के राजा मेल्चिओर (Melchior) और भारत के राजा गैस्पर (Gaspar) या कैस्पर (Casper) अर्थात् मागी ने बेथलहम में शिशु यीशु को श्रद्धांजलि देने के लिये एक चमत्कारी मार्गदर्शक तारे (Miraculous Guiding Star) का अनुसरण किया। यह दिन मध्य-पूर्व की जॉर्डन नदी में यीशु के बपतिस्मा के लिये भी याद किया जाता है।

भारत में एपिफेनी त्योहार:- भारत के गोवा राज्य में मागी या तीन राजाओं को पुर्तगाली भाषा में 'रीस मैगोस’ (Reis Magos) कहा जाता है।

बर्देज़ के रीस मैगोस का किला एवं चर्च और कनसौलिम (Cansaulim) के थ्री किंग्स चैपल (Three Kings Chapel) में मागी का नाम आदर से लिया जाता है। बर्देज़ (Bardez), चंदोर (Chandor), कनसौलिम (Cansaulim), अरोस्सिम (Arossim) और क्यूलिम(Cuelim) समुदाय एपिफेनी त्योहार मनाने के लिये जाने जाते हैं। ‘देन्हा’ केरल राज्य के पीरावोम (Piravom) में सेंट मैरी ऑर्थोडॉक्स सीरियन कैथेड्रल (St. Mary’s Orthodox Syrian Cathedral) चर्च का एक महत्त्वपूर्ण वार्षिक उत्सव है जिसमें एक बड़ी मंडली भाग लेती है।

  • 11 दिवसीय धनु जात्रा (Dhanu Jatra) की शुरुआत ओडिशा के बारगढ़ शहर में हुई।

वर्ष 1947-48 में प्रारंभ यह खुले स्थान पर मनाया जाने वाला एक वार्षिक नाट्य आधारित उत्सव है। इसे ओडिशा के बारगढ़ शहर और उसके आसपास के क्षेत्रों में मनाया जाता है। जात्रा भगवान कृष्ण और उनके राक्षस मामा राजा कंस की पौराणिक कहानी पर आधारित है। यह राजा कंस द्वारा आयोजित धनु समारोह को देखने के लिये कृष्ण और बलराम के मथुरा आगमन के बारे में है। इसे दुनिया का सबसे बड़ा ओपन-एयर थिएटर फेस्टिवल माना जाता है जिसे गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज किया गया है।

भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने नवंबर 2014 में धनु जात्रा को राष्ट्रीय त्योहार का दर्जा दिया।
  • महाराष्ट्र के गोरेगाँव की आरे कॉलोनी में विभिन्न आदिवासी समूहों द्वारा आरे महोत्सव (Aarey Mahotsav) के एक हिस्से के रूप में पारंपरिक नृत्य (वारली नृत्य) का आयोजन किया गया।

सेव आरे संरक्षण समूह (Save Aarey Conservation Group),वनशक्ति (Vanshakti),ग्रीन लाइन (Green Line) जैसे संगठनों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस (22 मई) के अवसर पर आरे महोत्सव ( Aarey Mahotsav) का आयोजन किया जाता है। इस महोत्सव का आयोजन पहली बार वर्ष 2015 में किया गया था। इसका उद्देश्य मानव-प्रकृति के अंतर्संबंधों के प्रति जागरूक करने के लिये विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को एक साथ लाना है। इस महोत्सव के अवसर पर आरे कॉलोनी में रहने वाली वारली जनजाति पारंपरिक वारली नृत्य करती है।

वारली जनजाति (Warli Painting):-वारली एक स्वदेशी जनजाति है जो महाराष्ट्र-गुजरात सीमा पर पहाड़ी एवं तटीय इलाकों में रहते हैं।

इनकी अपनी मान्यताएँ, रीति-रिवाज और परंपराएँ हैं किंतु इन्होंने हिंदू धर्म की कई मान्यताओं को भी अपनाया है। ये अलिखित भाषा बोलते हैं जो भारत के दक्षिणी क्षेत्र की इंडो-आर्यन भाषाओं से संबंधित है। वारली चित्रकारी (Warli Painting): वारली चित्रकारी मनुष्य और प्रकृति के बीच घनिष्ठ संबंध को दर्शाती है।

  • मध्य प्रदेश के मांडू शहर में 28 दिसंबर, 2019 से 1 जनवरी, 2020 तक मांडू महोत्सव के पहले संस्करण का आयोजन किया गया।

मांडू उत्सव का आयोजन मध्य प्रदेश पर्यटन बोर्ड द्वारा किया गया। इसका उद्देश्य मांडू शहर की मिश्रित ऐतिहासिक धरोहरों और संस्कृति को आधुनिक जीवंतता प्रदान करना है। मांडू उत्सव “खोजने में खो जाओ” (Khojne Me Kho Jao) के विचार पर आधारित था।

  • मकरविलक्कू (Makaravilakku) केरल के सबरीमाला मंदिर में मकर संक्रांति पर आयोजित किया जाने वाला एक वार्षिक उत्सव है।

इस उत्सव के दौरान ‘प्रकाश’ जिसे स्थानीय भाषा में ‘मकरविलक्कू’ कहा जाता है, सबरीमाला मंदिर के पास स्थित पोनम्बलमेडु नामक पठार पर जलाया जाता है। प्रकाश जिसे ब्रह्मांडीय उत्पत्ति का कारक माना जाता है, पंबा मंदिर (सबरीमाला मंदिर का बेस स्टेशन) के मुख्य पुजारी द्वारा तीन बार दिखाया जाता है। यह अनुष्ठान आकाश में व्याध तारा (Sirius Star) दिखाई देने के बाद किया जाता है। यह अनुष्ठान पूर्व में मलाया अरया (Malaya Araya) आदिवासियों द्वारा किया जाता था किंतु 1950 के दशक में जब त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड (Travancore Devaswom Board) ने मंदिर का प्रशासन संभाला तो आदिवासी समुदाय ने यह अधिकार खो दिया। गौरतलब है कि मकर ज्योति (Makara Jyothi) एक तारा है जो मकर संक्रांति के दिन जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है, आसमान में दिखाई देता है।