समसामयिकी 2020/पुलिस जेल और न्यायालय
‘हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम’ (Haryana Official Language (Amendment) Act)- 2020
सम्पादनजून 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को असंवैधानिक घोषित करने की मांग करनेवाले याचिकाकर्त्ताओं को पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय में अपील करने को कहा है। यह अधिनियम हिंदी को राज्य की निचली अदालतों में प्रयोग की जाने वाली एकमात्र आधिकारिक भाषा के रूप में लागू करता है।
- ‘हरियाणा राजभाषा अधिनियम’ में आवश्यक परिवर्तन के लिये अधिनियम में एक नवीन उप-धारा 3(a) जोड़ी गई है। जिसके तहत पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के अधीनस्थ सभी सिविल, आपराधिक तथा राजस्व न्यायालयों, किराया न्यायाधिकरणों तथा राज्य सरकार द्वारा गठित अन्य न्यायाधिकरणों में केवल हिंदी भाषा में कार्य करने का प्रावधान करती है।
साथ हीं हरियाणा राज्य के सभी आधिकारिक उद्देश्यों के लिये हिंदी का उपयोग किया जाएगा केवल उन अपवादित कार्यों को छोड़कर, जिन्हें हरियाणा सरकार अधिसूचना के माध्यम से निर्दिष्ट करती है।
- अनुच्छेद-345 किसी राज्य के विधानमंडल को उस राज्य में हिंदी या अन्य एक या अधिक भाषाओं को कार्यालयों में अपनाने का अधिकार देता है।
संशोधन का महत्त्व:-निचली अदालतों में अंग्रेजी भाषा के प्रयोग के कारण हरियाणा राज्य में वादकारों को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। लोगों को शिकायतों या अन्य दस्तावेज़ों की समझ के लिये पूरी तरह से वकीलों पर निर्भर रहना पड़ता है। अंग्रेजी भाषा के प्रयोग के कारण गवाहों को भी परेशान होना पड़ता है, क्योंकि उनमें से अधिकांश को अंग्रेजी भाषा की अच्छी समझ नहीं होती है।
- संशोधन के विपक्ष में तर्क:- वकीलों का मानना है कि हिंदी को एकमात्र भाषा के रूप में लागू करने से वकीलों के दो स्पष्ट वर्ग बन जाएंगे।
- प्रथम वे जो हिंदी भाषा में बहुत सहज हैं।
- दूसरे वे जो हिंदी में सहज महसूस नहीं करते हैं।
याचिककर्त्ताओं का मानना है कि किसी भी मामले में बहस करने के लिये भाषा प्रवणता का किसी भाषा के सामान्य उपयोग की तुलना में बहुत अधिक महत्त्व है।
- यह संशोधन कानून समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14) तथा किसी भी पेशे को चुनने की स्वतंत्रता, गरिमा तथा आजीविका के अधिकारों का उल्लंघन करता है।
हाल ही में किये संशोधन के पीछे सरकार का यह तर्क था कि राज्य की निचली अदालतों में कानून की प्रैक्टिस करने वाले अधिकांश व्यक्ति हिंदी में दक्ष हैं जबकि वास्तविकता इससे काफी अलग है। हरियाणा में अनेक औद्योगिक केंद्र है तथा औद्योगिक विवाद के मामलों में हिंदी में बहस करना अनेक वकीलों के लिये आसान नहीं होगा। इससे वकीलों के व्यवसाय पर संकट मंडरा सकता है। निष्कर्ष:- हरियाणा मुख्य रूप से हिंदी भाषी राज्य है, जिसकी लगभग 100% आबादी हिंदी बोलती या समझती है। यह समझना उचित होगा कि न्यायपालिका का उद्देश्य लोगों का कल्याण है, न कि संस्थाओं के स्वार्थों की पूर्ति करना।
- अनुच्छेद- 348:-जब तक संसद द्वारा अन्य व्यवस्था को न अपनाया जाए, उच्चतम व प्रत्येक उच्च न्यायालय की कार्यवाही, केवल अंग्रेजी भाषा में होंगी। हालाँकि किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से हिंदी या अन्य राजभाषा को उच्च न्यायालय की कार्यवाही की भाषा का दर्जा दे सकता है। परंतु न्यायालय के निर्णय,आज्ञा अथवा आदेश केवल अंग्रेजी में ही होंगे जब तक संसद अन्यथा व्यवस्था न दे।
राजभाषा अधिनियम- 1963 राज्यपाल को यह अधिकार देता है कि वह राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से उच्च न्यायलय द्वारा दिये गए निर्णयों, पारित आदेशों में हिंदी अथवा राज्य की किसी अन्य भाषा के प्रयोग की अनुमति दे सकता है, परंतु इसके साथ ही इसका अंग्रेजी अनुवाद भी संलग्न करना होगा।
COVID-19 महामारी और ई-कोर्ट
सम्पादनलॉकडाउन की चुनौतियों को देखते हुए देश के मुख्य न्यायाधीश ने याचिकाकर्त्ताओं और वकीलों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक याचिका दायर करने की सुविधा की शुरुआत की। इसके तहत 24x7 ई- फाइलिंग की सुविधा दी गई है और फीस का भुगतान भी ऑनलाइन किया जा सकता है। हाल के दिनों में कुछ ऐसी ही व्यवस्था देश के कई अन्य न्यायालयों में भी देखने को मिली है।
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
वर्ष 2005 में उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित एक ‘ई-कमेटी’ (e-Committee)के निर्देशों के आधार पर न्यायालयों में ई-फाइलिंग और इंटरनेट से जुड़ी अन्य सुविधाओं की शुरुआत की गई। इसके पश्चात प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक ‘ई-कमेटी' का गठन किया गया और ज़िला न्यायालयों तक भी इन सुविधाओं का विस्तार किया गया।
- दिल्ली उच्च न्यायालय में वर्ष 2009, बाम्बे उच्च न्यायालय में वर्ष 2013 और मद्रास उच्च न्यायालय में अप्रैल 2020 में ई-फाइलिंग की सुविधा की शुरुआत की गई थी।
6 अप्रैल, 2020 उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद-142 में निहित अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, देश में लागू लॉकडाउन के दौरान वीडियोकॉन्फ्रेंस के माध्यम से मामलों की सुनवाई किये जाने के संदर्भ में कुछ दिशा-निर्देश जारी किये थे। उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्यों के ‘राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्रों’ (National Informatics Centre- NIC) के अधिकारियों को संबंधित उच्च न्यायालयों से विचार-विमर्श कर वर्चुअल (Virtual) माध्यम से न्यायालय के संचालन की एक नीति बनाने का निर्देश दिया था। उच्चतम न्यायालय के अनुसार, राज्यों में स्थित ज़िला न्यायालय भी संबंधित उच्च न्यायालय द्वारा स्वीकृत प्रक्रिया के तहत ही ई-कोर्ट का संचालन कर सकेंगे।
- सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने लोक जनहित याचिका (Public Interest litigation-PIL) दाखिल कर यह अनुरोध किया था कि राष्ट्रीय महत्त्व और संवैधानिक महत्त्व के मामलों की पहचान कर उन मामलों की रिकॉर्डिंग की जानी चाहिये और उनका सीधा प्रसारण भी किया जाना चाहिये।
- वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिये संवैधानिक महत्त्व वाले मामलों में की जाने वाली न्यायिक कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग को अनुमति दे दी है।
चूँकि ‘न्यायालय की खुली सुनवाई’ के संबंध में संविधान में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, ऐसे में दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure- CrPC), 1973 की धारा 327 और सिविल प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure- CPC), 1908 की धारा 153 (ख) के प्रावधानों का अनुसरण किया जा सकता है।
- दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 327 के अनुसार वह स्थान जहाँ कोई दंड न्यायालय किसी अपराध की जाँच या विचारण के प्रयोजन से बैठता है उसे खुला न्यायालय समझा जाएगा जिसमें जनता साधारणतः वहाँ तक प्रवेश कर सकेगी जहाँ तक कि वह सुविधापूर्वक उसमें एकत्र हो सके।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 153ख के अनुसार, वह स्थान जहाँ किसी वाद के विचरण के प्रयोजन के लिये कोई सिविल न्यायालय लगता है तो उसे खुला न्यायालय समझा जाएगा और उसमें जनता की साधारणतः वहाँ तक पहुँच होगी जहाँ तक वह इसमें सुविधापूर्वक एकत्र हो सके।
परंतु दोनों हिं मामलों में यदि पीठासीन न्यायाधीश ठीक समझे तो वह किसी विशिष्ट मामले की जाँच या विचारण के किसी भी प्रक्रम पर यह आदेश दे सकता है कि न्यायालय द्वारा उक्त प्रक्रिया के दौरान इस्तेमाल किये गए कमरे या भवन तक जनता अथवा किसी विशिष्ट व्यक्ति को न पहुँचने दिया जाए।
- ई-कोर्ट मिशन मोड प्रोज़ेक्ट ज़िला न्यायालयों के लिये चलाई गई एक राष्ट्रव्यापी योजना है। इसके लिये आर्थिक सहायता और इसकी निगरानी का कार्य ‘केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय’ के न्याय विभाग द्वारा किया जाता है।
इस योजना की शुरुआत उच्चतम न्यायालय की ई-कमेटी द्वारा प्रस्तुत ‘भारतीय न्यायपालिका में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) के कार्यान्वयन के लिये राष्ट्रीय नीति और कार्य योजना - 2005’ नामक रिपोर्ट के आधार पर की गई थी।
- उद्देश्य:-
- ई-कोर्ट प्रोज़ेक्ट में प्रस्तावित प्रावधानों के तहत प्रभावी और समयबद्ध तरीके से नागरिक केंद्रित सेवाएँ प्रदान करना।
- न्यायालयों में निर्णय समर्थन प्रणाली को विकसित और स्थापित करना।
- न्यायिक प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने और सूचना प्राप्ति को अधिक सुगम बनाने के लिये इससे जुड़ी प्रणाली को स्वचालित बनाना।
- न्यायिक वितरण प्रणाली को सुलभ, लागत प्रभावी, अनुमानित, विश्वसनीय और पारदर्शी बनाने के लिये न्यायिक प्रक्रिया में आवश्यक (गुणवत्ता और मात्रात्मक) सुधार करना।
- कार्यान्वयन:
इस योजना के पहले चरण (वर्ष 2007-2015) के तहत देश में ब्लॉक और तालुका स्तर के न्यायालयों को कंप्यूटर और इंटरनेट के माध्यम से जोड़ा गया। इस चरण के तहत न्यायिक अधिकारियों और न्यायालय के अन्य कर्मचारियों को प्रशिक्षण प्रदान करने के साथ न्यायालय के आँकड़ों को इंटरनेट पर अपलोड किया गया।
- दूसरे चरण (4 अगस्त, 2015 से लागू) के तहत पहले चरण में किन्हीं कारणों से छूट गए न्यायालयों को इस प्रणाली से जोड़ने के साथ न्यायालयों को अतिरिक्त उपकरणों उपलब्ध कराए गए।
दूसरे चरण में ई-कमेटी, न्याय विभाग (भारत सरकार), NIC,वित्त मंत्रालय और अन्य हितधारकों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया गया। इस चरण के तहत बचे हुए न्यायालयों को जेलों से जोड़ा जाएगा और डेक्सटॉप आधारित वीडियोकॉन्फ्रेंसिंग सुविधा को रिमांड और विचाराधीन कैदियों को प्रस्तुत करने के अलावा अन्य मामलों के लिये आगे भी बढ़ाया जाएगा। इस योजना के दूसरे चरण के तहत न्यायालयों, सरकार और जनता के लिये गुणवत्तापूर्ण जानकारी उपलब्ध करने हेतु ‘राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड’ (National Judicial Data Grid-NJDG) का विकास किया जायेगा। साथ ही मोबाइल एप, एसएमएस (SMS) और ईमेल के माध्यम से प्रपत्र डाउनलोड करने, शुल्क या ज़ुर्माना जमा करने की प्रक्रिया को और अधिक मज़बूत बनाना शामिल है।
- 2019 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने फरीदाबाद में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग (Video Confrencing) के माध्यम से अपना पहला वर्चुअल न्यायालय (virtual court) शुरू किया। न्यायालय वर्चुअल कोर्ट के मध्यम से राज्य भर में ट्रैफिक चालान के मामलों को निपटाएगी। यह परियोजना भारत के सर्वोच्च न्यायालय की ई-समिति के मार्गदर्शन में शुरू की जाएगी।
इस परियोजना के तहत, वर्चुअल कोर्ट में प्राप्त मामलों को जुर्माने की स्वचलित गणना के साथ स्क्रीन पर न्यायाधीश द्वारा देखा जा सकता है। सम्मन जेनरेट होने के बाद, आरोपी को ईमेल पर या एक टेक्स्ट मैसेज के जरिए जानकारी मिलती है।
न्यायपालिका न्यायपालिका की स्वतंत्रता
सम्पादनउच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश ने अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन 2020 (International Judicial Conference 2020) में भारत के प्रधानमंत्री की प्रशंसा की वहीं हाल ही में प्रधानमंत्री ने भी उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए कुछ ‘महत्वपूर्ण निर्णयों’ का हवाला देते हुए उच्चतम न्यायालय की सराहना की थी। इससे न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच बढ़ती घनिष्ठता से संवैधानिक व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं उपरोक्त घटनाक्रम को देखें तो कार्यपालिका और न्यायपालिका आपस में मेल-जोल प्रतीत होता है जबकि भारतीय संविधान में दोनों की स्वतंत्रता की बात कही गई है।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता(Independence of The Judiciary) लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का आधार स्तम्भ है। इसमें तीन आवश्यक शर्तें निहित हैं-
- न्यायपालिका को सरकार के अन्य विभागों के हस्तक्षेप से उन्मुक्त होना चाहिये।
- न्यायपालिका के निर्णय व आदेश कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के हस्तक्षेप से मुक्त होने चाहिये।
- न्यायाधीशों को भय या पक्षपात के बिना न्याय करने की स्वतंत्रता होनी चाहिये।
वर्ष 1981 के एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने कहा था कि न्यायाधीशों को आर्थिक या राजनीतिक शक्ति के सामने सख्त होना चाहिये और उन्हें विधि के शासन (Rule of Law) के मूल सिद्धांत को बनाए रखना चाहिये। विधि का शासन न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सिद्धांत है जो वास्तविक सहभागी लोकतंत्र की स्थापना करने, एक गतिशील अवधारणा के रूप में कानून के शासन को बनाए रखने और समाज के कमज़ोर वर्गों को सामाजिक न्याय (Social Justice) प्रदान करने हेतु महत्वपूर्ण है। न्यायपालिका को संविधान में उल्लेखित प्रावधानों की व्याख्या करते समय विधि के शासन को ध्यान में रखना चाहिये। न्यायिक प्रशासन को संविधान से कानूनी मंजूरी प्राप्त है और इसकी विश्वसनीयता लोगों के विश्वास पर टिकी हुई है और उस विश्वास के लिये न्यायपालिका की स्वतंत्रता अपरिहार्य है।
- वर्ष 1993 का द्वितीय न्यायाधीश केस(The Second Judges Case of 1993)
वर्ष 1993 के ‘सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन’ (SCARA) बनाम भारत संघ मामले में नौ न्यायाधीशों की एक संविधान पीठ ने वर्ष 1981 के एसपी गुप्ता मामले के निर्णय को खारिज़ कर दिया और उच्चतम/उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं स्थानांतरण के लिये 'कॉलेजियम सिस्टम' नामक एक विशिष्ट प्रक्रिया तैयार करने की बात कही। साथ ही संवैधानिक पीठ ने कहा कि उच्चतम/उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये केवल उसी व्यक्ति को उपयुक्त माना जाना चाहिये जो सक्षम, स्वतंत्र और निडर हो। कानूनी विशेषज्ञता, किसी मामले को संभालने की क्षमता, उचित व्यक्तिगत आचरण, नैतिक व्यवहार, दृढ़ता एवं निर्भयता एक श्रेष्ठ न्यायाधीश के रूप में उसकी नियुक्ति के लिये आवश्यक विशेषताएँ हैं।
- आचरण का मानक(Standard of conduct):-
वर्ष 1995 के ‘सी. रविचंद्रन अय्यर बनाम न्यायमूर्ति ए.एम. भट्टाचार्जी एवं अन्य’ मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एक न्यायाधीश के लिये आचरण का मानक सामान्य जन के आचरण के मानक की अपेक्षा अधिक है। इसलिये न्यायाधीश समाज में आचरण के गिरते मानकों में आश्रय लेने से उनके द्वारा दिये गए निर्णयों से न्यायिक ढाँचा बिखर सकता है। उच्चतम/उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों को मानवीय दुर्बलताओं और कमजोर चरित्र से युक्त नहीं होना चाहिये। बल्कि उन्हें किसी आर्थिक, राजनीतिक या अन्य किसी भी प्रकार दबाव में आये बिना जनता के प्रति संवेदनशील होना चाहिये। अर्थात् न्यायाधीशों का व्यवहार लोगों के लिये लोकतंत्र, स्वतंत्रता एवं न्याय प्राप्ति का स्रोत होता है तथा विरोधाभासी ‘विधि के शासन’ की बारीकियों तक पहुँचता है। फ्रांसिस बेकन ने न्यायाधीशों के बारे में कहा है कि “न्यायाधीशों को मज़ाकिया से अधिक प्रबुद्ध, प्रशंसनीय से अधिक श्रद्धेय और आत्मविश्वास से अधिक विचारपूर्ण होना चाहिये। सभी चीजों के ऊपर सत्यनिष्ठा उनकी औषधि एवं मुख्य गुण है। मूल्यों में संतुलन, बार कौंसिल और न्यायिक खंडपीठ के बीच श्रद्धा, स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली की बुनियाद है।” [१]
- 24 मई, 1949 को संविधान सभा में बहस के दौरान के. टी. शाह का वक्तव्य:-यह संविधान न्यायाधीशों, राजदूतों या राज्यपालों की नियुक्ति के संबंध में कार्यपालिका के हाथों में इतनी शक्ति एवं प्रभाव को केंद्रित करने का विकल्प चुनता है तो कार्यपालिका की तानाशाही प्रवृत्ति उभर सकती है। इसलिये ऐसी कुछ नियुक्तियों को राजनीतिक प्रभाव से हटाना चाहिये और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को राजनीतिक प्रभाव से पूरी तरह बाहर होना चाहिये।
न्याय की लंबी प्रक्रिया: एक चिंताजनक स्थिति
सम्पादनप्रसिद्द दार्शनिक जाॅन राल्स ने अपनी कृति ‘A Theory of Justice’ में यह माना है कि ‘न्याय सामाजिक संस्थाओं का प्रथम एवं प्रधान सद्गुण है अर्थात सभी सामाजिक संस्थाएँ न्याय के आधार पर ही अपनी औचित्यपूर्णता को सिद्ध कर सकती हैं।’ देश के न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों को आँकड़ा लगभग 3.5 करोड़ पहुँच गया है। इनका प्रत्यक्ष उदाहरण निर्भया केस है। वर्ष 2012 में निर्भया के साथ हुए जघन्य अपराध के विचारण में सात वर्ष से अधिक समय लगा, जो न्याय व्यवस्था की लचर कार्यप्रणाली को उज़ागर करता है।
- न्यायिक प्रणाली की समस्याएँ :- भारतीय न्यायिक प्रणाली दुनिया की सबसे पुरानी न्यायिक प्रणालियों में से एक है। भारतीय न्यायिक प्रणाली ‘सामान्य प्रणाली’ के साथ नियामक कानून और वैधानिक कानून का पालन करती है।
भारतीय न्यायिक प्रणाली की निम्नलिखित समस्याएँ हैं-
- न्यायालय में लंबित मामले सरकारी आँकड़ों के अनुसार, उच्चतम न्यायालय में 58,700 तथा उच्च न्यायालयों में करीब 44 लाख और ज़िला एवं सत्र न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालयों में लगभग तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं। इन कुल लंबित मामलों में से 80 प्रतिशत से अधिक मामले ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में हैं। इसका मुख्य कारण भारत में न्यायालयों की कमी, न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों का कम होना तथा पदों की रिक्त्तता का होना है। वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर देश में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 18 न्यायाधीश हैं। विधि आयोग की एक रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या तकरीबन 50 होनी चाहिये। इस स्थिति तक पहुँचने के लिये पदों की संख्या बढ़ाकर तीन गुना करनी होगी।
- पारदर्शिता का अभाव- न्यायालयों में नियुक्ति, स्थानांतरण में पारदर्शिता को लेकर सवाल उठते रहे है। वर्तमान में कॉलेजियम प्रणाली के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं उनका स्थानांतरण किया जाता है। कॉलेजियम प्रणाली में उच्चतम न्यायालय के संबंध में निर्णय के लिये मुख्य न्यायाधीश सहित 5 वरिष्ठतम न्यायाधीश होते है। वहीं उच्च न्यायालय के संबंध में इनकी संख्या 3 होती है। इस प्रणाली की क्रियाविधि जटिल और अपारदर्शी होने के कारण सामान्य नागरिक की समझ से परे होती है। ऐसी स्थिति में इस प्रणाली को पारदर्शी बनाने के लिये संसद द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के माध्यम से असफल प्रयास किया जा चुका है। भारत के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रावधान है, जिसमें जानने का अधिकार भी शामिल है। इसको ध्यान में रखते हुए कोई भी ऐसी प्रणाली जो अपारदर्शी हो उसको नागरिकों के अधिकारों की पूर्ति के लिये पारदर्शी बनाया जाना चाहिये।
- न्यायालयों में भ्रष्टाचार- किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जवाबदेहिता एक आवश्यक पक्ष होता है। इसको ध्यान में रखते हुए सभी सार्वजनिक पदों पर स्थित व्यक्तियों का उत्तरदायित्त्व निश्चित किया जाता है। भारत में भी विधायिका और कार्यपालिका के संबंध में कई कानूनों एवं चुनावी प्रक्रिया द्वारा उत्तरदायित्व सुनिश्चित किये गए हैं, लेकिन न्यायपालिका के संदर्भ में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाने का एक मात्र उपाय सिर्फ महाभियोग ही होता है। ज्ञात हो कि अभी तक किसी भी न्यायाधीश पर महाभियोग की कार्यवाही नहीं की गई है। हालाँकि अभी कुछ समय पहले ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश ने एक न्यायाधीश को जाँच में कदाचार का दोषी पाए जाने के बाद उसे पद से हटाने के लिये प्रधानमंत्री से अनुरोध करने संबंधी मामला चर्चा में रहा है। न्यायालय के संबंध में ऐसी कोई माध्यमिक व्यवस्था नहीं है, जिससे न्यायालय स्वयं ही न्यायाधीशों से जुड़े कदाचार के मामले में उचित कार्यवाही कर सके।
- विचाराधीन कैदियों की समस्या- भारत के सभी न्यायालयों में लगभग 3.5 करोड़ मामले लंबित है, इनमें से कई मामले लंबे समय से लंबित हैं। मामलों का लंबित होना पीड़ितों और ऐसे लोगों, जो किसी मामले के चलते जेल में कैद है किंतु उनको दोषी करार नहीं दिया गया है, दोनों के दृष्टिकोण से अन्याय को जन्म देता है। पीड़ितों के मामले में कुछ ऐसे संदर्भ भी रहे हैं जब आरोपी को दोषी ठहराए जाने में 30 वर्ष तक का समय लगा, हालाँकि तब तक आरोपी की मृत्यु हो चुकी थी। तो वहीं दूसरी ओर भारत की जेलों में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे विचाराधीन कैदी बंद है, जिनके मामले में अब तक निर्णय नहीं दिया जा सका है। कई बार ऐसी स्थिति भी आती है जब कैदी अपने आरोपों के दंड से अधिक समय कैद में बिता देते है। साथ ही इतने वर्ष जेल में रहने के पश्चात् उसे न्यायालय से आरोप मुक्त कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति न्याय की दृष्टि से अन्याय को जन्म देती है। इस स्थिति में त्वरित सुधार किये जाने की आवश्यकता है।
- समस्याओं का कारण
- देशभर के न्यायालयों में न्यायिक अवसंरचना का अभाव है। न्यायालय परिसरों में मूलभूत सुविधाओं की कमी है।
- भारतीय न्यायिक व्यवस्था में किसी वाद के सुलझाने की कोई नियत अवधि तय नहीं की गई है, जबकि अमेरिका में यह तीन वर्ष निर्धारित है।
- केंद्र एवं राज्य सरकारों के मामले न्यायालयों में सबसे ज्यादा है। यह आँकड़ा 70% के लगभग है। सामान्य और गंभीर मामलों की भी सीमाएँ तय होनी चाहिये।
- न्यायालयों में लंबे अवकाश की प्रथा है, जो मामलों के लंबित होने का एक प्रमुख कारण है।
- न्यायिक मामलों के संदर्भ में अधिवक्ताओं द्वारा किये जाने वाला विलंब एक चिंतनीय विषय है, जिसके कारण मामलें लंबे समय तक अटके रहते हैं।
- न्यायिक व्यवस्था में तकनीकी का अभाव है।
- न्यायालयों तथा संबंधित विभागों में संचार की कमी व समन्वय का अभाव है, जिससे मामलों में अनावश्यक विलंब होता है।
उच्च न्यायालय
सम्पादन- केरल उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के उस निर्णय पर आगामी 3 हफ्ते के लिये रोक लगा दी है, जिसमें राज्य सरकार ने अल्कोहल विड्रोवल सिंड्रोम (Alcohol Withdrawal Syndrome-AWS) के पीड़ितों को शराब प्राप्त करने की अनुमति दी थी। केरल सरकार ने AWS से पीड़ित लोगों की बुरी हालत को देखते हुए उन्हें चिकित्सीय परामर्श पर शराब मुहैया कराने के लिये विशेष पास जारी करने का निर्णय लिया गया था, ताकि वे आबकारी विभाग के माध्यम से आसानी से शराब प्राप्त कर सकें। कोरोनावायरस के बढ़ते प्रसार को देखते हुए अप्रैल माह में 21 दिवसीय लॉकडाउन की घोषणा की थी, जिसके कारण देश भर के कई हिस्सों मुख्य रूप से केरल में शराब न मिल पाने के कारण हताश होकर आत्महत्या की प्रवृत्ति जैसी समस्याएँ देखी जा रही हैं।