• भारत और चीन के मध्य हालिया तनाव के मद्देनज़र एक बार पुनः चीन की सलामी-स्लाइसिंग रणनीति (Salami-Slicing Tactics) चर्चा के केंद्र बिंदु में है। सैन्य बोलचाल की भाषा में ‘सलामी-स्लाइसिंग’ शब्द ऐसी रणनीति के रूप में वर्णित किया जाता है जिसमें अपने खिलाफ हो रहे विरोध को समाप्त करने एवं नए क्षेत्रों को हासिल करने के लिये खतरों एवं गठबंधनों की प्रक्रिया को विभाजित करना तथा उन पर जीत हासिल करना शामिल है अर्थात् एक संचित प्रक्रिया के माध्यम से एक बहुत बड़ी कार्यवाही को अंजाम देना है।

चीन के संदर्भ में सलामी स्लाइसिंग दक्षिण चीन सागर एवं हिमालयी क्षेत्रों में क्षेत्रीय विस्तार की रणनीति को दर्शाता है। कई रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि डोकलाम गतिरोध हिमालयी क्षेत्र में चीन की सलामी स्लाइसिंग रणनीति का ही परिणाम था और हाल ही में गलवान घाटी में गतिरोध भी चीन की इसी रणनीति का परिणाम है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद चीन दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है जो अपने पड़ोसी देशों के क्षेत्राधिकार वाले देशों में अपनी विस्तारवादी नीति को बढ़ावा दे रहा है। यह विस्तार क्षेत्रीय एवं समुद्री दोनों क्षेत्रों में हुआ है। तिब्बत का अधिग्रहण, अक्साई चिन पर कब्ज़ा और पार्सेल द्वीपों का अधिग्रहण चीनी विस्तारवादी नीति के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। भारत का वह स्थान जहाँ चीन सलामी स्लाइसिंग रणनीति का प्रयोग कर रहा है: पूर्वोत्तर भारत के अरुणाचल प्रदेश के 90,000 वर्ग किमी. क्षेत्र पर चीन इस रणनीति का प्रयोग करता है भारत के इस भाग को वह ‘दक्षिण तिब्बत’ कहता है। इसी प्रकार चीन उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर के छोटे क्षेत्रों पर भी अपना दावा करता है। चीन डोकलाम पठार पर नज़र गड़ाए हुए है क्योंकि यहाँ से वह भारत के सिलिगुड़ी कॉरिडोर पर नज़र रख सकता है। सिलिगुड़ी कॉरिडोर पूर्वोत्तर भारत को देश के बाकी हिस्सों से जोड़ता है।

चीन ने संयुक्त राष्ट्र की शस्त्र व्यापार संधि (Arms Trade Treaty-ATT) में शामिल होने की घोषणा की

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विश्व में शांति और स्थिरता के प्रयासों के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेतृत्त्व ने संयुक्त राष्ट्र की शस्त्र व्यापार संधि में शामिल होने के विषय में निर्णय लेने हेतु मतदान किया। चीन के विदेश मंत्रालय के अनुसार, संधि में शामिल होना ‘बहुपक्षवाद (Multilateralism) का समर्थन करने हेतु चीन का एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अप्रैल, 2019 में संयुक्त राष्ट्र की इस संधि से बाहर निकलने की घोषणा की थी।

संयुक्त राष्ट्र की शस्त्र व्यापार संधि भी उन कई अंतर्राष्ट्रीय संधियों और समझौतों में से एक है, जिन्हें पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल में पूरा किया गया और अब जिन्हें राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा वापस लिया जा रहा है, इसमें जलवायु परिवर्तन से संबंधित पेरिस समझौता और ईरान परमाणु समझौता आदि शामिल हैं। क्यों लिया था अमेरिका ने यह निर्णय? अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अनुसार, यह संधि अमेरिका के आतंरिक कानून में दखल देती है। इसके अलावा यह संधि दूसरे संशोधन विधेयक में मिले अधिकारों का भी हनन करती है। दरअसल, अमेरिका में द्वितीय संशोधन विधेयक के तहत प्रत्येक नागरिक को हथियार रखने का अधिकार मिला हुआ है। राष्ट्रीय राइफल एसोसिएशन लंबे समय से इस संधि का विरोध कर रहा था। यह अमेरिका स्थित बंदूक के अधिकार की वकालत करने वाला एक नागरिक संगठन है, जिसके तकरीबन 5 मिलियन से भी अधिक सदस्य हैं । कई जानकार मानते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति राष्ट्रीय राइफल एसोसिएशन को नाराज़ नहीं करना चाहते थे, क्योंकि यह उनके राजनीतिक हित में नहीं था।

24 दिसंबर, 2014 को शस्त्र व्यापार संधि (Arms Trade Treaty-ATT) के लागू होने से पूर्व विश्व में हथियारों के व्यापार को विनियमित करने के लिये कोई भी अंतर्राष्ट्रीय कानून नहीं था, इस कमी को महसूस करते हुए कई वर्षों तक विभिन्न नागरिक संगठनों ने वैश्विक कार्रवाई का आह्वान किया। वर्ष 2006 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्वीकार किया कि पारंपरिक हथियारों के हस्तांतरण हेतु एक सामान्य अंतर्राष्ट्रीय मानक की अनुपस्थिति दुनिया भर में सशस्त्र संघर्ष, लोगों के विस्थापन, अपराध और आतंकवाद को बढ़ावा देने में योगदान देती है। इसके कारण वैश्विक स्तर पर शांति, सामंजस्य, सुरक्षा, स्थिरता और सतत् सामाजिक एवं आर्थिक विकास के प्रयास कमज़ोर होते हैं। इन्ही तथ्यों के आधार पर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हथियारों के हस्तांतरण हेतु एक सामान्य अंतर्राष्ट्रीय मानक की स्थापना करने वाली एक संधि की व्यवहार्यता की जाँच करने के लिये एक प्रक्रिया शुरू कर दी। विभिन्न सम्मेलनों और बैठकों के बाद इस प्रकार की संधि को अंतिम रूप दिया गया और अंततः संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2 अप्रैल, 2013 को इसे अपना लिया गया तथा यह संधि 24 दिसंबर 2014 से लागू हो गई। ध्यातव्य है कि अब तक कुल 130 देशों ने इस संधि पर हस्ताक्षर किये हैं, जिसमें से 103 देशों ने अपने क्षेत्राधिकार में इसे लागू भी कर दिया है। शस्त्र व्यापार संधि- प्रमुख प्रावधान शस्त्र व्यापार संधि (ATT) एक बहुपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय संधि है जो पारंपरिक हथियारों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को विनियमित करने के लिये प्रतिबद्ध है। इस संधि का उद्देश्य संघर्ष वाले क्षेत्रों में हथियारों के प्रवाह पर नियंत्रण लगाना, मानवाधिकारों की रक्षा करना और घातक हथियारों को समुद्री डाकुओं, गिरोहों तथा अपराधियों के हाथों में पहुँचने से रोकना है। इस संधि के तहत छोटे हथियारों से लेकर युद्ध टैंक, लड़ाकू विमानों और युद्धपोतों के व्यापार के लिये नियम बनाने का भी प्रावधान है। इस संधि के तहत सदस्य देशों पर प्रतिबंध है कि वह ऐसे देशों को हथियार न दें जो नरसंहार, मानवता के प्रति अपराध या आतंकवाद में शामिल होते हैं। ध्यातव्य है कि यह संधि घरेलू हथियारों के व्यापार या सदस्य देशों में शस्त्र रखने के अधिकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं करती है। साथ ही यह संप्रभु देशों को प्राप्त आत्मरक्षा के वैधानिक अधिकारों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करती है। शस्त्र व्यापार संधि और चीन चीन के विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि चीन विश्व में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिये निरंतर प्रयास करेगा। चीन के विदेश मंत्रालय के अनुसार, चीन ने सदैव सैन्य उत्पादों के निर्यात को सख्ती से नियंत्रित किया है। चीन इस प्रकार के सैन्य उत्पादों का निर्यात केवल संप्रभु राष्ट्रों को भी करता है न कि गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं को। उल्लेखनीय है कि संधि में शामिल होने की घोषणा से पूर्व भी चीन का मानना था कि पारंपरिक हथियारों के कारोबार को नियंत्रित करने की दिशा में इस संधि की सकारात्मक भूमिका है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (Stockholm International Peace Research Institute) द्वारा इसी वर्ष जनवरी माह में किये गए एक अध्ययन से ज्ञात हुआ था कि चीन अमेरिका के पश्चात् विश्व का दूसरा सबसे बड़ा हथियार उत्पादक है। शस्त्र व्यापार संधि पर भारत का पक्ष वर्ष 2014 में संधि के अस्तित्त्व में आते ही भारत ने अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया था, भारत का मत है कि इस तरह की संधि का उद्देश्य हथियारों के गलत प्रयोग और तस्करी को रोकना होना चाहिये। ATT का लाभ पूरी दुनिया को तब होगा जब आतंकवादियों के हाथों में घातक हथियार न पहुँच पाएँ। वर्ष 2013 में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय हथियार संधि के प्रस्ताव को कमज़ोर और एकतरफा बताया था और संधि में शामिल नहीं हुआ था। भारत का मानना था कि संधि के प्रस्ताव में संतुलन नहीं है। संधि के अंतर्गत हथियार निर्यात करने वाले देशों और आयात करने वाले देशों की नैतिक ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिये। इसके अतिरिक्त भारत का मानना था कि संधि के मसौदे में आतंकवादियों और नॉन-स्टेट एक्टर्स पर नियंत्रण हेतु कोई सख्त नियम नहीं है। साथ ही ऐसे लोगों के हाथ में घातक हथियार न पहुँचे इसके लिये कोई विशेष प्रतिबंध नहीं किया गया है। हालाँकि इसके बावजूद भारत ATT वार्ता में एक सक्रिय भागीदार रहा है और भारत ने लगातार इस बात पर ज़ोर दिया है कि ATT निर्यात और आयात करने वाले राष्ट्रों के बीच दायित्त्वों का संतुलन सुनिश्चित करे।

वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव के कारणों में पैंगोंग त्सो (Pangong Tso), गैलवान घाटी (Galwan Valley), सिक्किम के नाकु ला और डेमचोक शामिल

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राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ‘G-7 प्लस’ समूह में भारत को आमंत्रित करना उसके बढ़ते रणनीतिक कद को दर्शाता है। चीन द्वारा सेना को युद्ध की तैयारियों को बढ़ाने और देश की संप्रभुता का पूरी तरह से बचाव करने के आदेश के बाद से दोनों देशों के बीच 'वास्तविक नियंत्रण रेखा' पर तनाव बढ़ गया था। चीन के इस रवैये के पश्चात् भारत ने लद्दाख, उत्तर सिक्किम, उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में अपनी उपस्थिति बढ़ा दी है। अब तक लद्दाख में भारतीय और चीनी सैन्य कमांडरों के बीच कम-से-कम छह दौर की वार्ता असफल हो चुकी हैं। भारत का पक्ष:-अमेरिका द्वारा दोनों देशों के बीच मध्यस्थता हेतु की गई पेशकश को भारत ने तीसरा पक्ष करार देते हुए अस्वीकार किया है। भारत शांतिपूर्ण तरीके से इस मुद्दे को हल करने के लिये उच्च स्तरीय बैठकें कर रहा है। चीन का पक्ष:-चीन ने साफ किया है कि दोनों देश द्विपक्षीय चर्चा के माध्यम से गतिरोध का समाधान करेंगे। साथ ही यह भी कहा कि भारत के साथ सीमा पर स्थिति ‘समग्र स्थिर और नियंत्रण’ में है।


भारत-चीन के मध्य हालिया विवाद का केंद्र अक्साई चिन में स्थित गालवन घाटी (Galwan Valley) है, जिसको लेकर दोनो देशों की सेनाएँ आमने-सामने आ गईं हैं। जहाँ भारत का आरोप है कि गालवन घाटी के किनारे चीनी सेना अवैध रूप से टेंट लगाकर सैनिकों की संख्या में वृद्धि कर रही है, तो वहीं दूसरी ओर चीन का आरोप है कि भारत गालवन घाटी के पास रक्षा संबंधी अवैध निर्माण कर रहा है।

G-7 समूह के विस्तारीकरण और उसमें भारत की सदस्यता के कारण भी चीन नाखुश नज़र आ रहा है। पूर्व में हुए अन्य सीमा विवाद, जैसे- पैंगोंग त्सो मोरीरी झील विवाद-2019, डोकलाम गतिरोध-2017, अरुणाचल प्रदेश में आसफिला क्षेत्र पर हुआ विवाद प्रमुख है। परमाणु आपूर्तिकर्त्ता समूह (Nuclear Suppliers Group- NSG) में भारत का प्रवेश, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में भारत की स्थायी सदस्यता आदि पर चीन का प्रतिकूल रुख दोनों देशों के मध्य संबंधों को प्रभावित कर रहा है। बेल्ट एंड रोड पहल (Belt and Road Initiative) संबंधी विवाद और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (China Pakistan Economic Corridor- CPEC) भारत की संप्रभुता का उल्लंघन करता है। सीमा पार आतंकवाद के मुद्दे पर चीन द्वारा पाकिस्तान का बचाव एवं समर्थन।

अमेरिका व चीन के मध्य हालिया विवाद का कारण COVID-19 संक्रमण व उससे जुड़ी जानकारियाँ छिपाने को लेकर है। दोनों ही देशों ने COVID-19 संक्रमण को लेकर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप किये हैं, परिणामस्वरूप उनके मध्य संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं।

इसके अतिरिक्त, विगत वर्ष हॉन्गकॉन्ग में लोकतंत्र के समर्थकों के प्रति एकजुटता दिखाते हुए अमेरिका ने हॉन्गकॉन्ग मानवाधिकार और लोकतंत्र अधिनियम पारित किया था, जिसके तहत अमेरिकी प्रशासन को इस बात का आकलन करने की शक्ति दी गई है कि हॉन्गकॉन्ग में अशांति की वजह से इसे विशेष क्षेत्र का दर्जा दिया जाना उचित है या नहीं। चीन की सरकार ने हॉन्गकॉन्ग को उसका आंतरिक विषय बताते हुए अमेरिका के इस अधिनियम को चीन की संप्रभुता पर खतरा माना था। हाल ही में अमेरिका के 'प्रतिनिधि सभा' (House of Representatives) ने ‘उइगर मानवाधिकार विधेयक’ (Uighur Human Rights Bill)[शिनजियांग प्रांत में रहने वाले उइगर मुस्लिम(तुर्क मूल के उइगर मुसलमानों की इस क्षेत्र में आबादी लगभग 40 प्रतिशत है। इस क्षेत्र में उनकी आबादी बहुसंख्यक थी। परंतु जब से इस क्षेत्र में चीनी समुदाय हान की संख्या बढ़ी है और सेना की तैनाती हुई है तब से स्थिति बदल गई है और यह समुदाय अल्पसंख्यक स्थिति में आ गया है।) 'ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट' चला रहे हैं जिसका उद्देश्य चीन से अलग होना है। ] को मंज़ूरी दी है। विधेयक में ट्रंप प्रशासन से चीन के उन शीर्ष अधिकारियों को दंडित करने की मांग की गई है जिनके द्वारा अल्पसंख्यक मुसलमानों को हिरासत में रखा गया है। वर्ष 2019 में अमेरिका ने चीन की बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनी हुआवे (Huawei) पर जासूसी का आरोप लगाते हुए उस पर प्रतिबंध लगा दिया था। अमेरिकी इंटेलिजेंस विभाग का मानना था कि हुआवे द्वारा तैयार किये जा रहे उपकरण देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये खतरा पैदा कर सकते हैं।

भारत-चीन संबंधों का विकास

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भारत के पास एक विकल्प यह भी है कि वह चीन को दिया सबसे पसंदीदा राष्ट्र (Most-Favoured Nation) का दर्जा वापस ले सकता है। MFN (Most-Favoured Nation) क्या है? विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organisation-WTO) के टैरिफ एंड ट्रेड पर जनरल समझौते (General Agreement on Tariffs and Trade-GATT) के तहत MFN का दर्जा दिया गया था। भारत और चीन दोनों ही WTO के हस्ताक्षरकर्त्ता देश हैं तथा विश्व व्यापार संगठन के सदस्य हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें माल पर सीमा शुल्क लगाने के मामले में एक-दूसरे एवं WTO के अन्य सदस्य देशों के साथ व्यापारिक साझेदार के रूप में व्यवहार करना आवश्यक है।

प्रभाव :-MFN का दर्जा वापस लेने का मतलब है कि भारत अब चीन से आने वाले सामान पर सीमा शुल्क बढ़ा सकता है। इससे भारत में चीन द्वारा किया गया निर्यात प्रभावित होगा।

यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि, भारत अपने कुल निर्यात का लगभग 8 प्रतिशत चीन को निर्यात करता है जबकि चीन अपने कुल निर्यात का केवल 2 प्रतिशत भारत को निर्यात करता है। इस प्रकार यदि भारत, चीन के उत्पादों को प्रतिबंधित करता है तो चीन भी ऐसा ही करेगा जिससे ज्यादा नुकसान चीन का ना होकर भारत का ही होगा। चीन के इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों को प्रतिबंधित करना भी भारत के हित में नही होगा क्योंकि भारत में अधिकतर इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद चीन से ही आती है जिनका मूल्य कम होता है। यदि भारत ने इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों पर रोक लगा भी दी तो इतनी जल्दी इन उत्पादों का उत्पादन भारत में शुरू नही हो सकता क्योंकि इसमें अधिक समय और अधिक निवेश की ज़रुरत होती है।

हज़ारों वर्षों तक तिब्बत ने एक ऐसे क्षेत्र के रूप में काम किया जिसने भारत और चीन को भौगोलिक रूप से अलग और शांत रखा, परंतु जब वर्ष 1950 में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर वहाँ कब्ज़ा कर लिया तब भारत और चीन आपस में सीमा साझा करने लगे और पड़ोसी देश बन गए। 20वीं सदी के मध्य तक भारत और चीन के बीच संबंध न्यूनतम थे एवं कुछ व्यापारियों, तीर्थयात्रियों और विद्वानों के आवागमन तक ही सीमित थे।

  • वर्ष 1954 में नेहरू और झोउ एनलाई (Zhou Enlai) ने “हिंदी-चीनी भाई-भाई” के नारे के साथ पंचशील सिद्धांत पर हस्ताक्षर किये, ताकि क्षेत्र में शांति स्थापित करने के लिये कार्ययोजना तैयार की जा सके।
  • वर्ष 1959 में तिब्बती लोगों के आध्यात्मिक और लौकिक प्रमुख दलाई लामा तथा उनके साथ अन्य कई तिब्बती शरणार्थी हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में बस गए। इसके पश्चात् चीन ने भारत पर तिब्बत और पूरे हिमालयी क्षेत्र में विस्तारवाद और साम्राज्यवाद के प्रसार का आरोप लगा दिया।
  • वर्ष 1962 में सीमा संघर्ष से द्विपक्षीय संबंधों को गंभीर झटका लगा तथा उसके बाद वर्ष 1976 मे भारत-चीन राजनयिक संबंधों को फिर से बहाल किया गया। इसके बाद समय के साथ-साथ द्विपक्षीय संबंधों में धीरे-धीरे सुधार देखने को मिला।
  • वर्ष 1988 में भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने द्विपक्षीय संबंधों के सामान्यीकरण की प्रक्रिया शुरू करते हुए चीन का दौरा किया। दोनों पक्ष सीमा विवाद के प्रश्न पर पारस्परिक स्वीकार्य समाधान निकालने तथा अन्य क्षेत्रों में सक्रिय रूप से द्विपक्षीय संबंधों को विकसित करने के लिये सहमत हुए। वर्ष 1992 में, भारतीय राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन भारत गणराज्य की स्वतंत्रता के बाद चीन का दौरा करने वाले प्रथम भारतीय राष्ट्रपति थे।
  • वर्ष 2003 में भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेयी ने चीन का दौरा किया। दोनों पक्षों ने भारत-चीन संबंधों में सिद्धांतों और व्यापक सहयोग पर घोषणा (The Declaration on the Principles and Comprehensive Cooperation in China-India Relations) पर हस्ताक्षर किये।
  • वर्ष 2011 को 'चीन-भारत विनिमय वर्ष' तथा वर्ष 2012 को 'चीन-भारत मैत्री एवं सहयोग वर्ष' के रूप में मनाया गया।
  • वर्ष 2015 में भारतीय प्रधानमंत्री ने चीन का दौरा किया इसके बाद चीन ने भारतीय आधिकारिक तीर्थयात्रियों के लिये नाथू ला दर्रा खोलने का फैसला किया। भारत ने चीन में भारत पर्यटन वर्ष मनाया।
  • वर्ष 2018 में चीन के राष्ट्रपति तथा भारतीय प्रधानमंत्री के बीच वुहान में ‘भारत-चीन अनौपचारिक शिखर सम्मेलन’ का आयोजन किया गया। उनके बीच गहन विचार-विमर्श हुआ और वैश्विक और द्विपक्षीय रणनीतिक मुद्दों के साथ-साथ घरेलू एवं विदेशी नीतियों के लिये उनके संबंधित दृष्टिकोणों पर व्यापक सहमति बनी।
  • वर्ष 2019 में प्रधानमंत्री तथा चीन के राष्ट्रपति बीच चेन्नई में ‘दूसरा अनौपचारिक शिखर सम्मेलन’ आयोजित किया गया। इस बैठक में, 'प्रथम अनौपचारिक सम्मेलन' में बनी आम सहमति को और अधिक दृढ़ किया गया।
  • वर्ष 2020 में भारत और चीन के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना की 70 वीं वर्षगांठ है तथा भारत-चीन सांस्कृतिक तथा पीपल-टू-पीपल संपर्क का वर्ष भी है।

चीन-ताइवान विवाद

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भारत और चीन के संबंधों में तनाव के चलते चीन ने अपने दो दिवसीय सैन्य अभ्यास के दौरान ताइवान की सीमा के करीब अपनी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन किया, जिससे चीन और ताइवान के बीच तनाव और अधिक गहरा गया है। पृष्ठभूमि

  • तांग राजवंश (618-907ई.) के समय से ही चीनी लोग मुख्य भूमि से बाहर निकलकर ताइवान में बसने लगे थे। वर्ष 1624 से 1661 तक चीन एक डच (वर्तमान में नीदरलैंड) उपनिवेश था।
  • वर्ष 1894 में चीन के चिंग राजवंश (Qing Dynasty) और जापान के साम्राज्य के बीच पहला चीन-जापान युद्ध लड़ा गया था। एक वर्ष तक चलने वाले इस युद्ध में अंततः जापानी साम्राज्य की जीत हुई तथा जापान ने कोरिया और दक्षिण चीन सागर में अधिकांश भूमि पर कब्जा कर लिया, जिसमें ताइवान भी शामिल था। जापानी सेना के विरुद्ध मिली हार के कारण चीन की जनता में राजतंत्र के विरुद्ध संदेह पैदा हो गया और चीन में राजनीतिक विद्रोह की शुरुआत हो गई।

चीन में विद्रोह की शुरुआत वर्ष 1911 में हो गई थी और 12 फरवरी, 1912 को चीन में साम्राज्यवाद समाप्त कर दिया गया। इस तरह चीन में राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी की सरकार बनी और जितने क्षेत्र चिंग राजवंश के अधीन थे वे सभी चीन की नई सरकार के क्षेत्राधिकार में आ गए। इस दौरान चीन का आधिकारिक नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना कर दिया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की पराजय के बाद ताइवान पर भी फिर से राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी का अधिकार मान लिया गया।
  • वर्ष 1949 में चीन पूर्णतः गृह युद्ध की चपेट में था, इसी दौरान माओत्से तुंग के नेतृत्त्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने चिआंग काई शेक के नेतृत्त्व वाली राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी को सैन्य संघर्ष में हरा दिया और चीन पर कम्युनिस्ट पार्टी का शासन स्थापित हो गया। इस दौरान चिआंग काई शेक, राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी के सदस्यों के साथ ताइवान चले गए और वहाँ उन्होंने अपनी सरकार बनाई। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी उस समय ताइवान पर कब्ज़ा नहीं कर पाई थी, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी की नौसैनिक क्षमता काफी कम थी।
  • सत्ता में आने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन का आधिकारिक नाम बदलकर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना कर दिया, वहीं ताइवान अपने को आधिकारिक तौर पर रिपब्लिक ऑफ चाइना के रूप में संबोधित करने लगा।
चीन और ताइवान के बीच सबसे बड़ा विवाद आधिकारिक पहचान को लेकर है, जहाँ एक ओर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ के लिये आधिकारिक मान्यता चाहती है, वहीं ताइवान के लोग ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ के लिये आधिकारिक मान्यता चाहते हैं।

विश्व के अधिकांश देश ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ को तो मान्यता देते हैं लेकिन ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ को मान्यता देने वाले देशों की संख्या काफी कम है। इसके अलावा चीन का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो ताइवान को चीन के अभिन्न अंग के रूप में देखता है, इस वर्ग को ‘एक चीन नीति’ (One-China Policy) का समर्थक माना जाता है। इस समूह के अनुसार, ताइवान चीन का अभिन्न अंग है और जो लोग ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करना चाहते हैं उन्हें ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ के साथ अपने कूटनीतिक संबंध समाप्त करने होंगे।

भारत-ताइवान संबंध

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भारत और ताइवान के बीच संबंधों की शुरुआत वर्ष 1995 में तब हुई जब भारत और ताइवान द्वारा मिलकर संयुक्त तौर पर गैर-सरकारी सहभागिता को बढ़ाने हेतु इंडिया-ताइपे एसोसिएशन (ITA) की स्थापना की गई। इसलिये भारत-ताइवान के संबंधों की औपचारिक शुरुआत 1990 के दशक में मानी जाती है। भारत संयुक्त राष्ट्र के उन 179 सदस्य देशों में से एक है जिसने ताइवान के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित नहीं किया है। हालाँकि जानकार मानते हैं कि भारत समेत विश्व के तकरीबन 80 देश ऐसे हैं, जिन्होंने ताइवान के साथ अनौपचारिक और आर्थिक संबंध स्थापित किये हुए हैं। उल्लेखनीय है कि हाल ही में ताइवान ने कोरोना वायरस (COVID-19) रोगियों के इलाज में लगे चिकित्साकर्मियों की सुरक्षा के लिये भारत को 1 मिलियन फेस मास्क प्रदान किये थे।