जलवायु विज्ञान

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  • भारतीय मानसून का पूर्वानुमान करते समय कभी-कभी समाचारों में उल्लिखित ‘इंडियन ओशन डाइपोल (IOD)’ के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं ? (2017)
  1. IOD परिघटना, उष्णकटिबंधीय पश्चिमी हिंद महासागर एवं उष्णकटिबंधीय पूर्वी प्रशांत महासागर के बीच सागर पृष्ठ तापमान के अंतर से विशेषित होती है।
  2. IOD परिघटना मानसून पर एल-नीनो के असर को प्रभावित कर सकती है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:-(b) केवल 2

  • भारत मौसम विज्ञान विभाग ने मैदानी क्षेत्रों में 40 डिग्री सेल्सियस और पहाड़ी क्षेत्रों में 30 डिग्री सेल्सियस तापमान को ग्रीष्म लहर के मानक के रूप में निर्धारित किया है।

हिंद महासागर द्विध्रुव के दौरान हिंद महासागर का पश्चिमी भाग पूर्वी भाग की अपेक्षा ज़्यादा गर्म या ठंडा होता रहता है। पश्चिमी हिंद महासागर के गर्म होने पर भारत के मानसून पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जबकि ठंडा होने पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन (MJO) के कारण भारत में मानसून के आगमन में देरी

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यू. एस. नेशनल वेदर सर्विस के क्लाइमेट प्रेडिक्शन सेंटर के अनुसार, मैडेन-जूलियन ऑसिलेशन (Madden Julian Oscillation- MJO) लहर की स्थिति और तीव्रता द्वारा भारतीय मानसून का विकास प्रभावित हुआ है, इसी के कारण हो रही है। मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन (MJO) एक समुद्री-वायुमंडलीय घटना है जो दुनिया भर में मौसम की गतिविधियों को प्रभावित करती है।यह साप्ताहिक से लेकर मासिक समयावधि तक उष्णकटिबंधीय मौसम में बड़े उतार-चढ़ाव लाने के लिये ज़िम्मेदार मानी जाती है। MJO को भूमध्य रेखा के पास पूर्व की ओर सक्रिय बादलों और वर्षा के प्रमुख घटक या निर्धारक (जैसे मानव शरीर में नाड़ी (Pulse) एक प्रमुख निर्धारक होती है) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो आमतौर पर हर 30 से 60 दिनों में स्वयं की पुनरावृत्ति करती है। IOD केवल हिंद महासागर से संबंधित है, लेकिन अन्य दो वैश्विक स्तर पर मौसम को मध्य अक्षांश तक प्रभावित करती हैं। IOD और अल नीनो अपने पूर्ववर्ती स्थिति में बने हुए हैं,

यह निरंतर प्रवाहित होने वाली घटना है एवं हिंद एवं प्रशांत महासागरों में सबसे प्रभावशाली है। इसलिये MJO हवा, बादल और दबाव की एक चलती हुई प्रणाली है। यह जैसे ही भूमध्य रेखा के चारों ओर घूमती है वर्षा की शुरुआत हो जाती है। इस घटना का नाम दो वैज्ञानिकों रोलैंड मैडेन और पॉल जूलियन के नाम पर रखा गया था, जिन्होंने वर्ष 1971 में इसकी खोज की थी।

मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन का भारतीय मानसून पर प्रभाव

इंडियन ओशन डाईपोल (The Indian Ocean Dipole-IOD), अल-नीनो (El-Nino) और मैडेन-जूलियन ऑसीलेशन (Madden-julian Oscillation-MJO) सभी महासागरीय और वायुमंडलीय घटनाएँ हैं, जो बड़े पैमाने पर मौसम को प्रभावित करती हैं। MJO एक निरंतर प्रवाहित होने वाली भौगोलिक घटना है। MJO की यात्रा आठ चरणों से होकर गुज़रती है। जब यह मानसून के दौरान हिंद महासागर के ऊपर होता है, तो संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में अच्छी बारिश होती है। दूसरी ओर, जब यह एक लंबे चक्र की समयावधि के रूप में होता है और प्रशांत महासागर के ऊपर रहता है तब भारतीय मानसूनी मौसम में कम वर्षा होती है। यह उष्णकटिबंध में अत्यधिक परंतु दमित स्वरूप के साथ वर्षा की गतिविधियों को संपादित करता है जो कि भारतीय मानसूनी वर्षा के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है।

चक्रवात ‘वायु’ को पश्चिम हिंद महासागर और दक्षिण अरब सागर से सटी एक MJO लहर से बल प्राप्त हुआ। वर्तमान में यह लहर पूर्वी हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी तक पहुँच गई है।

अमेरिकी एजेंसी के अनुसार, अरब सागर में असामान्य रूप से गर्म पानी ने हिंद महासागर पर तेज़ हवाओं का एक दुर्लभ कटिबंध (rare band) स्थापित किया है, जिसके कारण ही केरल तट पर मानसून की शुरुआत में देरी हुई है।

भौतिक भूगोल

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  • यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी' के 'स्वॉर्म' (Swarm) उपग्रहों द्वारा प्राप्त आँकड़ों के अध्ययन से दक्षिण अटलांटिक क्षेत्र के ऊपर ‘चुंबकीय विसंगति’ (Magnetic Anomaly) का पता चला है। चुंबकीय विसंगति पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में स्थानिक भिन्नता को बताता है। चुंबकीय विसंगति को 'दक्षिण अटलांटिक विसंगति' (South Atlantic Anomaly- SAA) के रूप में भी जाना जाता है।

'दक्षिण अटलांटिक विसंगति' का विस्तार दक्षिण अमेरिका से दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका तक है। वर्ष 1970 के बाद से चुंबकीय विसंगति के आकार में लगातार वृद्धि देखी गई है तथा यह 20 किमी. प्रतिवर्ष की गति से पश्चिम की ओर बढ़ रही है।

दक्षिण अटलांटिक विसंगति (South Atlantic Anomaly- SAA) अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के बीच के क्षेत्र में पृथ्वी के भू-चुंबकीय क्षेत्र के व्यवहार को संदर्भित करता है। पृथ्वी के निकटस्थ उस क्षेत्र को बताता है जहाँ पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र, सामान्य चुंबकीय क्षेत्र की तुलना में कमज़ोर पाया गया है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां पृथ्वी की ‘वान एलन रेडियशन बेल्ट' (Van Allen Radiation Belt) पृथ्वी की सतह के निकटतम आ जाती है।

दक्षिण अटलांटिक विसंगति क्षेत्र में 'वान एलन रेडियशन बेल्ट' की ऊँचाई सामान्य से 200 किमी. तक कम हो गई है। इससे इस क्षेत्र में ऊर्जावान कणों का प्रवाह बढ़ जाता है। वान एलन रेडिएशन बेल्ट (Van Allen Radiation Belt): किसी भी ग्रह के चुंबकीय क्षेत्र के कारण ग्रह के चारों तरफ आवेशित एवं ऊर्जावान कणों की एक ‘रेडिएशन बेल्ट’ (Radiation Belt) पाई जाती है। ‘वान एलन रेडिएशन बेल्ट’ पृथ्वी के चारों ओर विकिरण बेल्ट को संदर्भित करता है। इन बेल्टों की खोज वर्ष 1958 में डॉ. जेम्स वान एलन तथा उनकी टीम द्वारा की गई थी। डॉ. जेम्स वान एलन के नाम पर ही पृथ्वी के रेडिएशन बेल्ट को ‘वान एलन रेडिएशन बेल्ट’ कहा जाता है। बृहस्पति, शनि जैसे ग्रहों के भी समान रेडिएशन बेल्ट पाई जाती है। ये बेल्ट पृथ्वी के मैग्नेटोस्फीयर के आंतरिक भाग में पाई जाती है।

  • 'वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी' (WIHG) द्वारा भारत के सबसे पूर्वी हिस्से में अरुणाचल हिमालय के चट्टानों की लोचशीलता और भूकंपीयता के अध्ययन से पता चला है कि यह क्षेत्र दो अलग-अलग गहराई पर मध्यम तीव्रता के भूकंप उत्पन्न कर रहा है।
WIGH भारत सरकार के 'विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग' (Department of Science & Technology- DST) के तहत एक स्वायत्त संस्थान है। यह हिमालय के भू-आवेग संबंधी विकास के संबंध में नई अवधारणाओं और मॉडलों के विकास के लिये अनुसंधान कार्यों को संपन्न करता है। अरुणाचल हिमालय को भूकंपीय ज़ोन-V में रखा गया है, इस प्रकार यह भूकंप के लिये सबसे अधिक संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है।

शोध के निष्कर्ष:-अरुणाचल हिमालयी क्षेत्र की भू-पर्पटी में दो अलग-अलग गहराईयों पर मध्यम तीव्रता के भूकंपीय क्षेत्र अवस्थित है। कम परिमाण (Low magnitude) के भूकंप, जो कि 1-15 किमी. की गहराई पर उत्पन्न होते हैं। 4.0 से अधिक परिमाण वाले भूकंप, जो अधिकतर 25-35 किमी. की गहराई पर उत्पन्न होते हैं। मध्यवर्ती गहराई का क्षेत्र भूकंपीयता से रहित है तथा यह आंशिक रूप से पिघलित अवस्था में है। इस क्षेत्र में भू-पर्पटी की मोटाई ब्रह्मपुत्र घाटी में 46.7 किमी. से लेकर अरुणाचल हिमालय में लगभग 55 किमी. तक विस्तृत है और सीमांत पर उत्थान के कारण भू-पर्पटी और मेंटल के बीच एक असंबद्धता पाई जाती है, जिसे मोहो असंबद्धता (Moho D) कहा जाता है। लोहित घाटी के उच्च भागों में अत्यधिक उच्च पॉइसन अनुपात (High Poisson’s Ratio) दर्ज किया गया है, जो अधिक गहराई पर भू-पर्पटी की आंशिक पिघलित अवस्था को दर्शाता है।

पॉइसन अनुपात (Poisson’s Ratio) पॉइसन प्रभाव का एक मापक है, जो लोडिंग या बल की दिशा की लंबवत दिशाओं में किसी सामग्री के विस्तार या संकुचन का वर्णन करता है। किसी सामग्री का जितना अधिक पॉइसन अनुपात होगा, वह सामग्री उतनी ही लोचदार विरूपण प्रदर्शित करती है।

रबड़ का पॉइसन अनुपात उच्च जबकि कॉर्क में शून्य के करीब होता है। शोध की प्रक्रिया: WIHG ने भारत के पूर्वी भाग में चट्टानों और भूकंपीय गुणों को समझने के लिये अरुणाचल हिमालय की लोहित नदी घाटी के किनारे ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम (GPS) के माध्यम से जुड़े हुए 11 ब्रॉडबैंड भूकंपीय स्टेशन स्थापित किये हैं। शोध के लिये टेलिसिस्मिक (Teleseismic) और सिस्मोमीटरों (Seismometers) की मदद से मापे गए स्थानीय भूकंप डेटा का उपयोग किया गया। टेलिसिस्मिक ऐसे भूकंपों के विषय में जानकारी देता है जो माप स्थल से 1000 किमी. से अधिक दूरी पर उत्पन्न होते हैं। शोध का महत्त्व: क्षेपण प्रक्रिया को समझने में सहायक:

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार, हिमालय का निर्माण भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के बीच लगभग 50-60 मिलियन वर्ष पूर्व टकराव के कारण हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार यूरेशियन प्लेट के नीचे भारतीय प्लेट का निरंतर क्षेपण हो रहा है जिसके कारण अभी भी हिमालय का उत्थान जारी है। यह अध्ययन, ट्यूटिंग-टिडिंग सेचर ज़ोन (Tuting-Tidding Suture Zone) में भारतीय प्लेट की क्षेपण प्रक्रिया को समझने में मदद करता है। ट्यूटिंग-टिडिंग सेचर ज़ोन (TTSZ) पूर्वी हिमालय का एक प्रमुख हिस्सा है जहाँ हिमालय अक्षसंघीय मोड़ (Syntaxial Bend) अर्थात् हेयरपिन मोड़ बनाता हुआ दक्षिण की तरफ इंडो-बर्मा श्रेणी से जुड़ जाता है। क्षेपण प्रक्रिया के क्षेत्र के अपवाह प्रतिरूप तथा स्थलाकृतियों में बदलाव आता है जिसके कारण हिमालय पर्वत बेल्ट और आसपास के क्षेत्रों में बड़े भूकंप आने का खतरा रहता है। अत: ऐसे क्षेत्रों में किसी भी प्रकार की निर्माण गतिविधियों को शुरू करने से पूर्व भूकंप की संभावित गहराई और तीव्रता की जानकारी होना आवश्यक है।

  • हैरियट-वॉट यूनिवर्सिटी (Heriot-Watt University), स्कॉटलैंड के शोधकर्त्ताओं ने भूकंप की भविष्यवाणी की प्रक्रिया में सुधार करने के लिये एक नए गणितीय मॉडल का विकास किया है। विकसित किये गए इस नए गणितीय समीकरण ने भूकंप की भविष्यवाणी के मुद्दे को एक बार पुनः चर्चा में ला दिया है। इस नए मॉडल में शोधकर्त्ताओं ने प्रयोगशालाओं में किये जाने वाले अध्ययन के स्थान पर गणितीय समीकरणों का प्रयोग किया है।

नया गणितीय मॉडल शोधकर्त्ताओं ने अपनी खोज इस तथ्य के साथ शुरू की कि कुछ विशिष्ट प्रकार की चट्टाने भूकंप के दौरान महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। इन चट्टानों को सामूहिक तौर पर फीलोसिलीकेटस (Phyllosilicates) कहा जाता है। चट्टानों के एक दूसरे से टकराने के पश्चात् भूकंप की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार चट्टानों के टकराने अथवा फिसलन में घर्षण शक्ति (Frictional Strength) एक महत्त्वपूर्ण कारक होती है। घर्षण शक्ति (Frictional Strength) को एक प्लेट के विरुद्ध दूसरी प्लेट को धकेलने के लिये आवश्यक बल के रूप में परिभाषित किया जाता है। गौरतलब है कि घर्षण शक्ति एक ऐसा कारक है जिसकी गणितीय माध्यम से गणना की जा सकती है। इस अध्ययन के दौरान शोधकर्त्ताओं ने फीलोसिलीकेटस (Phyllosilicates) की घर्षण शक्ति (Frictional Strength) की भविष्यवाणी करने की कोशिश की। इसके पश्चात् शोधकर्त्ताओं ने यह अनुमान लगाने के लिये गणितीय समीकरणों का एक समूह विकसित किया कि आर्द्रता और फाॅॅ‍ल्ट अथवा भ्रंश (Fault) की गति की दर जैसी स्थितियों में परिवर्तन का फीलोसिलीकेटस की घर्षण शक्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है। इसके माध्यम से शोधकर्त्ताओं के लिये प्राकृतिक स्थितियों जैसे- भूकंप आदि में फाॅॅ‍ल्ट अथवा भ्रंश (Fault) की गति को समझना काफी आसान हो गया है।

  • नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications) नामक पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया कि पृथ्वी के आतंरिक भाग में मेंटल का विकास न केवल वायुमंडल के विकास को नियंत्रित कर सकता था बल्कि जीवन के विकास को भी नियंत्रित कर सकता था।

अध्ययन के अनुसार, ‘ग्रेट ऑक्सीडेशन इवेंट’ (Great Oxidation Event) से पहले वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा मौजूद थी किंतु यह वायुमंडल में संकेंद्रित नहीं हो सकी। वायुमंडल में ऑक्सीजन के संकेंद्रित न होने का मुख्य कारण ज्वालामुखी द्वारा उत्सर्जित गैसों की बड़ी मात्रा के साथ ऑक्सीजन की प्रतिक्रिया थी। जब ज्वालामुखी सक्रिय होते हैं तो उनसे बड़ी मात्रा में गैसों का वायुमंडल में उद्गार होता हैं। इन गैसों की प्रकृति पृथ्वी के मेंटल में सामग्रियों की प्रकृति पर निर्भर करती है। ज्वालामुखी उद्गार के लगातार जारी रहने के कारण इससे बाहर आने वाली सामग्री का उत्पादन कम होता गया जिसने आसानी से ऑक्सीजन के साथ संयोजन किया। और पृथ्वी का मेंटल अधिक से अधिक ऑक्सीकृत होता गया। समय के साथ विभिन्न जीवन-रूपों द्वारा उत्पन्न ऑक्सीजन वातावरण में जमा होती गई। इससे ‘ग्रेट ऑक्सीडेशन इवेंट’ की शुरुआत हुई जिससे जटिल जीवन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

माना जाता है कि पृथ्वी के वायुमंडल में मुक्त ऑक्सीजन की उपस्थिति के कारण ग्रेट ऑक्सीडेशन इवेंट की घटना हुई।

यह घटना ऑक्सीजन उत्पन्न करने वाले साइनोबैक्टीरिया के कारण संभव हो सकी जो 2.3 अरब वर्ष पहले बहुकोशिकीय रूपों में थे। साइनोबैक्टीरिया पृथ्वी पर सबसे पुराने जीव माने जाते हैं। ये जीव आज भी महासागरों एवं गर्म क्षेत्रों में मौजूद हैं। इन जीवों ने ऑक्सीजन का उत्पादन करके और बहुकोशिकीय रूपों में विकसित होकर साँस लेने वाले जीवों के उद्भव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वैज्ञानिकों के अनुसार, समुद्र एवं वातावरण में मुक्त ऑक्सीजन के स्तर में वृद्धि से कुछ ही समय पहले बहुकोशिकीयता (Multicellularity) विकसित हुई थी।

  • एक अध्ययन से यह पता चला है कि एयरक्राफ्ट की तुलना में वायु-यानों द्वारा निकलने वाले कंट्रेल (Contrails)/(वायु-यान के धुएँ से निर्मित कृत्रिम बादल) अत्यधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन करते हैं जो ग्लोबल वार्मिंग के लिये ज़िम्मेदार है।
  • ब्रिटिश अनुसंधानकर्त्ताओं ने पता लगाया है कि पृथ्वी का उत्तरी चुंबकीय ध्रुव तीव्र गति से कनाडा से साइबेरियाई क्षेत्र की ओर खिसक रहा है। वस्तुत: वैज्ञानिकों/अनुसंधानकर्ताओं को ‘विश्व चुंबकीय मॉडल’ में संशोधन करना पड़ेगा। विश्व चुंबकीय मॉडल ‘आधुनिक नेविगेशन का आधार है जिसकी सहायता से समुद्री जहाज एवं नौकाएँ सागरों’ में अपने मार्ग की पहचान करते हैं।

इसके अतिरिक्त विश्व चुंबकीय मॉडल कोर और बड़े पैमाने पर क्रस्टल चुंबकीय क्षेत्र का एक मानक मॉडल है जिसका उपयोग यूनाईटेड किंगडम एवं संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा रक्षा उद्देश्यों के लिये किया जाता है तथा नाटो (NATO) एवं अंतर्राष्ट्रीय हाइड्रोग्राफिक संगठन इसका उपयोग नागरिक नेविगेशन और हेडिंग सिस्टम में व्यापक रूप से करते हैं। गौरतलब है कि पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुव में परिवर्तन होता रहता है। वस्तुत: विश्व चुंबकीय मॉडल को प्रत्येक 5 वर्ष बाद संशोधित किया जाता है, जिसे 2020 में संशोधित किया जाना था। परंतु उत्तरी चुंबकीय ध्रुव में अप्रत्याशित बदलाव के कारण 2019 में ही इसे संशोधित करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई।

अमेरिकन एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी के शोध पत्र के अनुसार, ‘भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं शोध संस्थान’(IISER) कोलकाता के शोधकर्त्ताओं ने सौर कलंक के नवीन सौर चक्र (Solar Cycle) की पहचान की है।

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पिछले कुछ सौर चक्रों में सौर कलंक की तीव्रता कम रही है, जिससे ऐसा अनुमान था कि एक लंबे सौर ह्रास काल के साथ यह चक्र समाप्त हो जाएगा। ऐसे संकेत हैं कि 25वाँ सौर चक्र हाल ही में प्रारंभ हुआ है। पिछले तीन सौर चक्रों पर सौर गतिविधियाँ कमज़ोर रही हैं अत: 25वें सौर चक्र के प्रारंभ होने से समय को लेकर अनेक विवाद जुड़ गए हैं। IISER ने इस शोध कार्य में नासा के अंतरिक्ष-आधारित ‘सोलर डायनेमिक्स ऑब्ज़र्वेटरी’ के डेटा का इस्तेमाल किया।

सौर कलंक सूर्य की सतह पर अपेक्षाकृत ठंडे स्थान होते हैं, जिनकी संख्या में लगभग 11 वर्षों के चक्र में वृद्धि तथा कमी होती है जिन्हें क्रमशः सौर कलंक के विकास तथा ह्रास का चरण कहा जाता है, वर्तमान में इस चक्र की न्यूनतम संख्या या ह्रास का चरण चल रहा है।

पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 148 मिलियन किमी. होने के कारण यह शांत और स्थिर प्रतीत होता है लेकिन वास्तविकता में सूर्य की सतह से विशाल सौर फ्लेयर्स एवं कोरोनल मास इजेक्शन्स (Coronal Mass Ejections- CMEs) का बाहरी अंतरिक्ष में उत्सर्जन होता है। इनकी उत्पति सूर्य के आंतरिक भागों से होती है लेकिन ये तभी दिखाई देते हैं जब ये सतह पर उत्पन्न होते हैं। वर्ष 2019 तक खगोलविदों ने 24 सौर चक्रों का दस्तावेज़ीकरण किया है। सौर प्रज्वला (Solar Flares) सौर प्रज्वला सूर्य के निकट चुंबकीय क्षेत्र की रेखाओं के स्पर्श, क्रॉसिंग या पुनर्गठन के कारण होने वाली ऊर्जा का अचानक विस्फोट है। कोरोनल मास इजेक्शन्स (CME) सूर्य के कोरोना से प्लाज़्मा एवं चुंबकीय क्षेत्र का विस्फोट है जिसमें अरबों टन कोरोनल सामग्री उत्सर्जित होती है तथा इससे पिंडों के चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन हो सकता है। माउंडर मिनिमम (Maunder Minimum) जब न्यूनतम सौर कलंक सक्रियता की अवधि दीर्घकाल तक रहती है तो इसे ‘माउंडर मिनिमम’ कहते हैं। वर्ष 1645-1715 के बीच की अवधि में सौर कलंक परिघटना में विराम देखा गया जिसे ‘माउंडर मिनिमम’ कहा जाता है। यह अवधि तीव्र शीतकाल से युक्त रही, अत: सौर कलंक अवधारणा को जलवायु परिवर्तन के साथ जोड़ा जाता है। माउंडर मिनिमम के समय धरातलीय सतह तथा उसके वायुमंडल का शीतलन, जबकि अधिकतम सौर कलंक सक्रियता काल के समय वायुमंडलीय उष्मन होता है। इस तरह के संबंधों का कम महत्त्व है, लेकिन सौर गतिविधि निश्चित रूप से अंतरिक्ष मौसम को प्रभावित करती है तथा इससे अंतरिक्ष-आधारित उपग्रह, जीपीएस, पावर ग्रिड प्रभावित हो सकते हैं। डाल्टन मिनिमम (Dalton Minimum) यह वर्ष 1790-1830 के बीच की अवधि है जिसमे सौर कलंक की तीव्रता कम रही, परंतु इस अवधि में सौर कलंकों की संख्या ‘माउंडर मिनिमम’ से अधिक थी। सौर गतिकी (Solar dynamo) सूर्य में उच्च तापमान के कारण पदार्थ प्लाज़्मा के रूप में उत्सर्जित होते हैं, सूर्य गर्म आयनित प्लाज़्मा से बना होता है, सूर्य की गतिकी के कारण प्लाज़्मा में दोलन के कारण चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। सौर डायनेमो की इस प्रकृति के कारण चुंबकीय क्षेत्र में भी परिवर्तन होता है तथा इस चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन के साथ सौर कलंक की संख्या में भी परिवर्तन होता है। 25वाँ सौर चक्र सौर कलंक जोडे़ के रूप में पाए जाते हैं, शोधकर्त्ताओं ने चुंबकीय क्षेत्रों के ऐसे 74 जोड़ों के अध्ययन में पाया कि इनमें से 41 का अभिविन्यास 24वें चक्र के अनुरूप एवं 33 का अभिविन्यास 25वें चक्र के अनुरूप है। अत: इस प्रकार वे निष्कर्ष निकालते हैं कि सौर कलंक का 25वाँ चक्र सूर्य के आंतरिक भाग में चल रहा है। छोटे चुंबकीय क्षेत्र और चुंबकीय ध्रुवीयता अभिविन्यास के साथ कुछ पूर्ण विकसित सौर कलंक दिखाई देने लगे हैं जो बताते हैं कि सौर कलंक चक्र का 25वाँ चक्र सौर सतह पर दिखाई देना शुरू हो गया है और यह 25वें सौर चक्र के प्रारंभ को बताता है।

काराकोरम रेंज में ग्लेशियरों पर मौसमी प्रभाव

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विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग'के स्वायत्त संस्थान 'वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी'- देहरादून के वैज्ञानिकों द्वारा मई में काराकोरम श्रेणी के ग्लेशियरों पर किए गए अध्ययन के अनुसार,काराकोरम श्रेणी के 220 अधिक गलेशियरों में ‘ग्लेशियल सर्ज’ (Glacial surges) की घटना देखने को मिली।ग्रीष्मकाल में पिघले हुए जल के प्रणालीगत प्रवाह (Channelised Flow) के कारण गर्मियों में ‘ग्लेशियल सर्ज’ मे वृद्धि रुक जाती है।

‘ग्लेशियल सर्ज’ एक अल्पकालिक घटना है जिसमें ग्लेशियर की लंबाई तथा आयतन में वृद्धि देखने को मिलती है। इस प्रकार ग्लेशियर सर्ज की घटना हिमालय के अधिकांश ग्लेशियरों; जिनके आयतन तथा लंबाई में कमी देखी गई है, के विपरीत घटना है। इन ग्लेशियर की गति सामान्य से 100 गुना अधिक तक देखने को मिलती है।

ग्लेशियर सर्ज अर्थात ग्लेशियरों के आगे बढ़ने की क्रिया एक स्थिर गति से न होकर चक्रीय प्रवाह के रूप में होती है। इस तरह के ग्लेशियरों के चक्रीय दोलन को सामान्यत: दो चरणों में वर्गीकृत किया गया है।

  1. सक्रिय (वृद्धि) चरण (Active Phase):-इसमें ग्लेशियरों का तीव्र प्रवाह होता है तथा यह कुछ महीनों से कुछ वर्ष तक हो सकता है।
  2. निष्क्रिय चरण (Quiescent Phase):-यह धीमी प्रक्रिया है तथा कई वर्षों तक कार्य करती है।

अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष: पूर्व में ऐसा माना जाता था कि ग्लेशियर की गति का निर्धारण ग्लेशियर की भौतिक विशेषताओं यथा- मोटाई, आकार तथा उस क्षेत्र द्वारा निर्धारित किया जाता है जहाँ ये ग्लेशियर पाए पाते हैं। वर्तमान में वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ग्लेशियरों की गति को न केवल उनकी भौतिक विशेषताओं से अपितु ये बाह्य कारकों से भी प्रभावित होती है। इन बाह्य कारकों में वर्षा की मात्रा और पिघला हुआ जल प्रमुख भूमिका निभाता है। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इन दोनों कारकों में वैश्विक तापन के कारण वृद्धि होती है।

काराकोरम श्रेणी:-काराकोरम और पीर पंजाल श्रेणी हिमालय श्रेणी के उत्तर-पश्चिम तथा दक्षिण में स्थित है। काराकोरम श्रेणी का एक बड़ा हिस्सा भारत और पाकिस्तान के मध्य विवादित है। काराकोरम की लंबाई लगभग 500 किमी. है तथा इसमें पृथ्वी की कई शीर्ष चोटियाँ स्थित हैं। K2; जिसकी ऊँचाई 8,611 मीटर है तथा जो दुनिया की दूसरी सबसे ऊँची चोटी है, काराकोरम श्रेणी में स्थित है।

हिंदू-कुश श्रेणी जो काराकोरम श्रेणी का ही विस्तार माना जाता है अफगानिस्तान में स्थित है। ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद काराकोरम में सबसे अधिक ग्लेशियर हैं। सियाचिन ग्लेशियर और बिआफो(Biafo) ग्लेशियर; जो दुनिया के क्रमश: दूसरे और तीसरे बड़े ग्लेशियर हैं, इस सीमा में स्थित हैं।

जल नीति पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन तथा अपर्याप्त शहरी नियोजन के कारण हिंदू-कुश हिमालय क्षेत्र के चार देशों - बांग्लादेश, भारत, नेपाल और पाकिस्तान के 13 नगरों में से 12 नगर जल-असुरक्षा (Water Insecurity) का सामना कर रहे हैं।

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यह हिंदू-कुश हिमालय पर किया गया प्रथम अध्ययन है जो पानी की उपलब्धता, पानी की आपूर्ति प्रणाली, बढ़ते नगरीकरण और जल की मांग (दैनिक और मौसमी दोनों) में वृद्धि तथा बढ़ती जल असुरक्षा के मध्य संबंध स्थापित करता है। इस अध्ययन में भौतिक वैज्ञानिक, मानवविज्ञानी, भूगोलविद् और योजनाकार आदि से मिलकर बनी बहु-अनुशासित टीम शामिल थी।

हिंदू-कुश हिमालयन (HKH) क्षेत्र भारत, नेपाल और चीन सहित आठ देशों में फैला हुआ है, जो लगभग 240 मिलियन लोगों की आजीविका का साधन है। HKH क्षेत्र को तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है क्योंकि यह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाद स्थायी हिम आवरण का तीसरा बड़ा क्षेत्र है। यहाँ से 10 से अधिक नदियों का उद्गम होता है, जिनमें गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेकांग जैसी बड़ी नदियाँ शामिल हैं।

जलवायु संबंधी जोखिम और चुनौतियाँ यहाँ के योजनाकारों और स्थानीय सरकारों ने इन नगरों में दीर्घकालिक रणनीतियँ बनाने पर विशेष ध्यान नहीं दिया। ग्रामीण क्षेत्रों से नगरों की ओर प्रवासन से हिंदू-कुश हिमालय क्षेत्र में नगरीकरण लगातार बढ़ रहा है। यद्यपि वर्तमान में यहाँ के बड़े नगरों की आबादी केवल 3% तथा छोटे शहरों की आबादी केवल 8% है, लेकिन अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2050 तक नगरीय आबादी 50% से अधिक हो जाएगी, इससे जल तनाव बहुत बढ़ जाएगा। यहाँ 8 कस्बों में जल की मांग और आपूर्ति का अंतर 20-70% के बीच है तथा मांग-आपूर्ति का यह अंतर वर्ष 2050 तक दोगुना हो सकता है। यहाँ की नियोजन प्रक्रियाओं में नगरों के आसपास के क्षेत्रों को शामिल नहीं किया गया है, इससे प्राकृतिक जल निकायों (स्प्रिंग्स, तालाबों, झीलों, नहरों और नदियों) का अतिक्रमण तथा अवनयन हो गया, साथ ही इन क्षेत्रों की पारंपरिक जल प्रणालियाँ भी नष्ट हो गईं। जल संकट से प्रभावित नगर: हिंदू-कुश हिमालय क्षेत्र के 12 नगरों में जल प्रबंधन संबंधी समस्या देखी गई है, ये इस प्रकार हैं:

  1. मुर्रे(Murree) और हैवेलियन (पाकिस्तान)
  2. काठमांडू, भरतपुर, तानसेन और दामौली (नेपाल)
  3. मसूरी, देवप्रयाग, सिंगतम, कलिम्पोंग और दार्जिलिंग (भारत)
  4. सिलहट (बांग्लादेश)

भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान के शोधकर्त्ताओं ने भू-जल में मौसमी बदलावों के आधार पर हिमालय को घटते और अपनी स्थिति परिवर्तित करते हुए पाया है।

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जर्नल ऑफ जियोफिजिकल रिसर्च में प्रकाशित इस नए अध्ययन के अनुसार, जल एक लुब्रिकेटिंग एजेंट (Lubricating Agent) के रूप में कार्य करता है, और इसलिये जब शुष्क मौसम में बर्फ पिघलने पर पानी की मौजूदगी में इस क्षेत्र में फिसलन की दर कम हो जाती है। ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम (GPS) और ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (GRACE) डेटा का एक साथ उपयोग किया, जिसके कारण शोधकर्त्ताओं के लिये हाइड्रोलॉजिकल द्रव्यमान की विविधता को निर्धारित करना संभव हो पाया है। GPS और GRACE का संयुक्त डेटा हिमालय की उप-सतह में 12 प्रतिशत की कमी होने का संकेत देता है।

ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम (GPS) जो कि उपग्रह आधारित नौवहन प्रणाली है, मुख्यत: तीन प्रकार की सेवाएँ प्रदान करती है- अवस्थिति, नेविगेशन एवं समय संबंधी सेवाएँ। ये सेवाएँ पृथ्वी की कक्षा में परिभ्रमण करते उपग्रहों की सहायता से प्राप्त की जाती हैं।
वर्ष 2002 में अमेरिका द्वारा लॉन्च किये गए ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (GRACE) उपग्रह, विभिन्न महाद्वीपों पर पानी और बर्फ के भंडार में बदलाव की निगरानी करते हैं।

चूँकि हिमालय भारतीय उपमहाद्वीप में जलवायु को प्रभावित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिये इस अध्ययन से यह समझने में मदद मिलेगी कि जल-विज्ञान किस प्रकार जलवायु को प्रभावित करता है। यह अध्ययन वैज्ञानिकों और नीति-निर्माताओं के लिये हिमालयी क्षेत्र की मौजूदा स्थिति से निपटने में मददगार साबित हो सकता है जहाँ जल की उपलब्धता के बावजूद शहरी क्षेत्र पानी की कमी से जूझ रहे हैं। अब तक किसी ने भी जल-विज्ञान संबंधी दृष्टिकोण से हिमालय का अध्ययन नहीं किया है। यह अध्ययन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) द्वारा वित्तपोषित है।

भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान(Indian Institute of Geomagnetism-IIG) भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा स्थापित एक स्वायत्त अनुसंधान संस्थान है।

भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान (IIG) की स्थापना वर्ष 1971 में एक स्वायत्त संस्थान के रूप में की गई थी और इसका मुख्यालय मुंबई (महाराष्ट्र) में स्थित है। IIG का उद्देश्य भू-चुंबकत्व के क्षेत्र में गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान करना और वैश्विक स्तर पर भारत को एक मानक ज्ञान संसाधन केंद्र के रूप में स्थापित करना है। IIG जियोमैग्नेटिज़्म और संबद्ध क्षेत्रों जैसे- सॉलिड अर्थ जियोमैग्नेटिज़्म/जियोफिज़िक्स, मैग्नेटोस्फीयर, स्पेस तथा एटमॉस्फेरिक साइंसेज़ आदि में बुनियादी अनुसंधानों का आयोजन करता है।

जनवरी में प्रकाशित रिपोर्ट ‘इम्पैक्टस ऑफ कार्बन डाइऑक्साइड इमिसंस ऑन ग्लोबल इंटेंस हाइड्रोमीट्रोलोज़िकल डिज़ास्टर्स’ में भारत में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता की वृद्धि के प्रभावों का उल्लेख किया गया है।

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जलवायु परिवर्तन और जल-मौसम संबंधी घटनाओं विशेष रूप से दुनिया भर में बाढ़ और तूफान की बढ़ती घटनाओं के बीच एक कड़ी स्थापित की है। इस रिपोर्ट को 155 देशों से एकत्रित किये गए 46 वर्ष (वर्ष 1970-2016) के जलवायु संबंधी आँकड़ों के आधार परतैयार किया गया है। ‘इकोनॉमीट्रिक मॉडलिंग’ (Econometric Modelling) पर आधारित इस रिपोर्ट के अंतर्गत किसी देश की खतरों के प्रति भेद्यता, सकल घरेलू उत्पाद, जनसंख्या घनत्व और औसत वर्षा में परिवर्तन संबंधी आँकड़ों को शामिल किया जाता है। अध्ययन से संबंधित प्रमुख बिंदु: ‘क्लाइमेट, डिज़ास्टर एंड डेवलपमेंट’ (Climate, Disaster and Development) नामक जर्नल में प्रकशित इस अध्ययन के अनुसार, भारत में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता के कारण वातावरण में अतिशय बाढ़ या तूफान का जोखिम प्रत्येक 13 वर्षों के अंतराल पर दोगुना हो सकता है। इससे भारत में तबाही की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। वार्षिक रूप से लगभग एक चरम आपदा का सामना करने वाले भारत में तीव्र ‘जलीय-मौसम संबंधी’ (Hydro-Meteorological) आपदाओं की संख्या वार्षिक रूप से 5.4% तक बढ़ सकती है। चरम आपदा(Extreme Disaster):-एक ऐसी आपदा जो 100 या उससे अधिक मौतों का कारण बनती है या जिससे 1,000 या अधिक व्यक्ति प्रभावित होते हैं।

वर्ष 2018 में भारत के केरल में आई बाढ़ की एक और चरम घटना, जिसमें लगभग 400 व्यक्तियों की मृत्यु हुई थी, ने देश में आपदा का सामना करने की क्षमता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया। भारत को एक सामान्य देश से 5-10 गुना अधिक चरम आपदाओं के जोखिम का सामना करना पड़ता है।

भारत मौसम विज्ञान विभाग द्वारा वर्ष 1901 के बाद वर्ष 2010-2019 के दशक को भारत का सबसे गर्म दशक घोषित

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वर्ष 2010-2019 के दशक का औसत तापमान पिछले 30 वर्षों (1981-2010) के औसत तापमान से 0.36 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। वर्ष 2019 भारत में सातवाँ सबसे गर्म वर्ष रहा। यह घोषणा यूरोपियन मौसम एजेंसी के कॉपरनिकस जलवायु परिवर्तन कार्यक्रम के तहत की गई थी। यूरोपियन मौसम एजेंसी ने COP-25 मैड्रिड जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में विश्व मौसम संगठन द्वारा (World Meteorological Organisation) वर्ष 2019 को निश्चित रूप से दशक के दूसरे या तीसरे सबसे गर्म वर्ष होने के अनुमान को सही प्रमाणित किया है। नासा,नेशनल ओशनिक एंड एटमोस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन (National Oceanic and Atmospheric Administration-NOAA) द्वारा किये गए विश्लेषण के अनुसार, वर्ष 2019 में सतह का वैश्विक औसत तापमान पिछली सदी के मध्य के औसत तापमान से लगभग 1 डिग्री सेल्सियस अधिक था।

NASA, NOAA तथा यूरोपियन मौसम एजेंसी द्वारा आँकड़ों का एकत्रीकरण:

NASA और NOAA ज़्यादातर समान तापमान संबंधी आँकड़ों का उपयोग करते हैं। ये दोनों संस्थाएँ समुद्री तापमान संबंधी आँकड़े जहाज़ों और प्लवकों (Buoys)के माध्यम से एकत्रित करती हैं तथा भूमि तापमान संबंधी आँकड़े अमेरिकी सरकार की मौसम संबंधी एजेंसियों के अवलोकन केंद्रों से एकत्रित करती हैं। यूरोपियन सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्टिंग द्वारा चलाए जाने वाले कॉपरनिकस कार्यक्रम (Copernicus programme) का निष्कर्ष NASA और NOAA के अवलोकित आँकड़ों के विपरीत कंप्यूटर मॉडलिंग के आँकड़ों पर अधिक आधारित था।

1960 के दशक के बाद प्रत्येक दशक पिछले दशक की तुलना में अधिक गर्म रहा है।

यह प्रवृत्ति 2010 के दशक में भी जारी रही और इस दशक के दूसरे भाग के पाँच वर्ष सर्वाधिक गर्म रहे। वर्ष 2010-2019 के दशक के गर्म रहने का कारण काफी हद तक कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन और जीवाश्म ईंधन के जलने से उत्पन्न तापमान में वृद्धि करने वाली गैसों का उत्सर्जन है। अत्यधिक तापमान के कारण दक्षिणी अफ्रीका में इस दशक में सर्वाधिक सूखे की स्थिति देखी गई। अफ्रीकी देश ज़ाम्बिया (Zambia) और ज़िम्बाब्वे (Zimbabwe) में मक्का तथा अन्य अनाज के उत्पादन में 30% या उससे अधिक की गिरावट आई है एवं ज़ांबेजी (Zambezi) नदी का जल स्तर गिरने के कारण जलविद्युत आपूर्ति खतरे में है।

वर्ष 2019 के जलवायु हॉटस्पॉट (Climate Hotspots of 2019) में शामिल आस्ट्रेलिया, अलास्का, दक्षिणी अफ्रीका, मध्य कनाडा और उत्तरी अमेरिका जैसे स्थानों पर वैश्विक औसत तापमान से कम तापमान का अनुभव किया गया।

ऑस्ट्रेलिया में वर्ष 2019 सबसे गर्म वर्ष रिकॉर्ड किया गया। इसका औसत तापमान 20वीं शताब्दी के मध्य के औसत तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक था। यह औसत वर्षा के संदर्भ में भी सबसे सूखा वर्ष था। वर्ष 2017 के बाद से अधिकांश देश भयंकर सूखे की चपेट में हैं और न्यू साउथ वेल्स वर्तमान में 20 वर्षों की सबसे विनाशकारी वनाग्नि से प्रभावित है। अलास्का में भी वर्ष 2019 सबसे गर्म वर्ष रिकॉर्ड किया गया। दीर्घकालिक तापमान वृद्धि की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप राज्य के हजारों ग्लेशियर तथा पर्माफ्रॉस्ट (Permafrost) पिघल रहे हैं। बेरिंग सागर में वर्ष 2019 में अधिकांश समय बर्फ की उपस्थिति नहीं देखी गई तथा मार्च के अंत में ली गई उपग्रह छवियों में भी बड़े पैमाने पर इस समुद्र में बर्फ की अनुपस्थिति देखी गई जबकि पहले इस यह समुद्र सामान्य रूप से पूरी तरह बर्फ से ढका रहता था।

भूविज्ञान में स्थायी तुषार या पर्माफ्रॉस्ट (Permafrost) ऐसे स्थान को कहते हैं जो कम-से-कम लगातार दो वर्षों तक पानी जमने के तापमान (अर्थात शून्य डिग्री सेंटीग्रेड) से कम तापमान पर होने के कारण जमा हुआ हो।

द जर्नल अर्थ फ्यूचर’ (The Journal Earth's Future) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, यदि वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी लगातार जारी रही तो वर्ष 2100 तक विश्व के लगभग आधे प्राकृतिक ग्लेशियर पिघल जाएँगे।

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हेरिटेज ग्लेशियर पर खतरा

‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर’ (IUCN) द्वारा हेरिटेज ग्लेशियर्स पर कराया गया यह दुनिया का पहला शोध माना जा रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार, स्विटज़रलैंड के प्रसिद्ध ग्रोसर एलेत्स ग्लेशियर (Grosser Aletsch Glacier) और ग्रीनलैंड के जकॉब्सवैन आइसबारे (Jakobshavn Isbrae) ग्लेशियरों को भी खतरे के दायरे में शामिल किया गया है। वैज्ञानिकों ने वैश्विक स्तर पर जाँच के बाद ग्लेशियरों की वर्तमान स्थिति का आकलन किया। साथ ही वैश्विक तापमान में वृद्धि और कार्बन उत्सर्जन की दर के जारी रहने की स्थिति में हेरिटेज ग्लेशियर पर पड़ने वाले प्रभावों के संबंध में अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किये।

प्रमुख बिंदु

अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2100 तक 46 प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थलों में से 21 ग्लेशियर समाप्त हो जाएँगे, जिसमें हिमालय में स्थित खुम्ब ग्लेशियर (Khumbu Glacier) भी शामिल है। अर्जेंटीना में स्थित लॉस ग्लेशियर्स नेशनल पार्क (Los Glaciares National Park) में पृथ्वी के कुछ बड़े ग्लेशियर पाए जाते हैं, वर्ष 2100 तक इन ग्लेशियरों में से लगभग 60% बर्फ के समाप्त होने की संभावना है। उत्तरी अमेरिका में बहुत कम कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के बाद भी वाटरटन ग्लेशियर इंटरनेशनल पीस पार्क (Waterton Glacier International Peace Park), कनाडाई रॉकी माउंटेन पार्क (Canadian Rocky Mountain Parks) और ओलंपिक नेशनल पार्क (Olympic National Park) ग्लेशियर में लगभग 70% तक बर्फ में कमी की संभावना है।