• भारत के तमिलनाडु राज्य में स्थित विश्व धरोहर स्थल मामल्लपुरम (Mamallapuram) परिसर के 11 एकड़ में फैली चोझिपोइगई (Chozhipoigai) को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है। इस चोझिपोइगई को मामल्लपुरम झील (Mamallapuram lake) भी कहा जाता है।

मामल्लपुरम जिसे महाबलीपुरम भी कहा जाता है, एक शहर है जो चेन्नई (तमिलनाडु) से 60 किलोमीटर दक्षिण में बंगाल की खाड़ी के कोरोमंडल तट पर स्थित है। यह पूर्ववर्ती पल्लवकालीन एक महत्वपूर्ण शहर है, पल्लव वंश ने दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में 275 ईस्वी से 897 ईस्वी तक शासन किया था। इसकी स्थापना 7वीं शताब्दी में पल्लव राजा नरसिंहवर्मन प्रथम ने की थी। मामल्लपुरम शब्द की उत्पत्ति ‘मामल्लन’ (Mamallan) से हुई है जिसका अर्थ ‘महान योद्धा’ होता है। मामल्लन शब्द का प्रयोग पल्लव राजा नरसिंहवर्मन प्रथम के लिये किया जाता था।ब्रिटिश काल के दौरान मामल्लपुरम नाम विकृत होकर महाबलीपुरम हो गया।

पल्लवकालीन मंदिर स्थापत्यकला शैलियों को क्रमश: महेंद्र शैली (610-640 ई.), मामल्ल शैली (640-674 ई.) और राजसिंह शैली (674-800 ई.) में विभाजित किया जाता है।
  1. महेंद्र शैली (610-640 ई.):-पल्लव राजा महेन्द्र वर्मन के समय वास्तुकला में ‘मंडप’ निर्माण प्रारंभ हुआ। जिनमें पल्लवकालीन आदि-वराह, महिषमर्दिनी, पंचपांडव, रामानुज आदि मंडप विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
  2. मामल्ल शैली (640-674 ई.):-राजा नरसिंह वर्मन के समय महाबलीपुरम में ‘रथ’ निर्माण का शुभारंभ हुआ। ‘रथमंदिर’ मूर्तिकला का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिनमें द्रौपदी रथ, नकुल- सहदेव रथ, अर्जुन रथ, भीम रथ, गणेश रथ, पिंडारी रथ तथा वलैयंकुट्टै प्रमुख हैं। इन आठ रथों में द्रौपदी रथ एकमंज़िला एवं छोटा है शेष सातों रथों को सप्त पैगोडा कहा गया है। मामल्लपुरम में 7-8वीं शताब्दी के कई जीवंत मंदिर एवं स्मारक हैं जो मुख्य रूप से चट्टानों को तराश कर निर्मित किये गए है जिनमें गुफा मंदिरों की श्रंखला में ‘अर्जुन की तपस्या’ (Arjuna’s Penance) या ‘गंगा का अवतरण’ (Descent of the Ganges) और शोर मंदिर (Shore Temple) अधिक लोकप्रिय हैं।
  3. राजसिंह शैली (674-800 ई.):-पल्लव काल की अंतिम एवं महत्त्वपूर्ण ‘राजसिंह शैली’ में रॉक कट आर्किटेक्चर के स्थान पर पत्थर, ईंट आदि से मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ।

इस शैली के उदाहरण महाबलीपुरम के तटीय मंदिर, अर्काट का पनमलाई मंदिर, कांची का कैलाशनाथ और बैकुंठ पेरूमल का मंदिर आदि हैं। मामल्लपुरम के स्मारक और मंदिर, जिनमें शोर मंदिर परिसर शामिल हैं, को सामूहिक रूप से वर्ष 1984 में यूनेस्को की विश्व विरासत स्थल के रूप में नामित किया गया था। महत्त्व:-मामल्लपुरम से प्राप्त प्राचीन चीनी, फारसी और रोमन सिक्कों से पता चलता है कि यह एक बंदरगाह था। वैश्विक दृष्टिकोण से प्राचीन समय में मामल्लपुरम और पल्लव वंश की भूमिका अधिक प्रासंगिक हैं। 8वीं शताब्दी की शुरुआत में चीन और पल्लव राजा राजसिम्हन या नरसिंह वर्मन द्वितीय के मध्य एक सुरक्षा समझौता हुआ जिसमें चीन ने तिब्बत का मुकाबला करने के लिये पल्लव राजा से मदद मांगी थी। अक्तूबर, 2019 में यहाँ पर भारत और चीन के बीच दूसरा अनौपचारिक शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया था।

  • नटेश मूर्ति (Natesa of Rajasthan temple returns to India) :- वर्ष 1998 में भारत से चोरी की गई ‘नटेश मूर्ति’ को लगभग 22 वर्षों बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को सौंप दिया गया है। यह मूल रूप से राजस्थान के बाड़ौली में स्थित घटेश्वर महादेव मंदिर की 10 वीं शताब्दी की शिव की मूर्ति है।

यह लगभग 4 फीट की ऊँचाई के साथ प्रतिहार शैली में एक दुर्लभ बलुआ पत्थर से निर्मित मूर्ति है। इसके दाहिने पैर के पीछे नंदी का एक सुंदर चित्रण दर्शाया गया है।

घटेश्वर मंदिर बाड़ौली के मंदिर समूहों में से एक है। इस मंदिर में शिव के नटराज स्वरुप को उत्कीर्ण किया गया है। यह मंदिर उड़ीसा मंदिर शैली से मिलता जुलता है।

अलंकृत मंदिर, तोरण द्वार, शिव का बलिष्ठ रूप आदि इसकी विशेषताएँ है। प्रतिहार शैली:-गुर्जर-प्रतिहार एक विशाल साम्राज्य था जिसके अंतर्गत गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश का क्षेत्र आता था। राजस्थान में जिस क्षेत्रीय शैली का विकास हुआ उसमें उसे गुर्जर-प्रतिहार अथवा महामारु कहा गया। इस शैली के अंतर्गत प्रारंभिक निर्माण मंडौर के प्रतिहारों, सांभर के चौहानों तथा चित्तौड़ के मौर्यों ने किया। इस प्रकार के मंदिरों में केकींद का नीलकंठेश्वर मंदिर, किराड़ू का सोमेश्वर मंदिर प्रमुख हैं। इस क्रम को आगे बढ़ाने वालों में जालौर के गुर्जर-प्रतिहार रहे और बाद में चौहानों, परमारों और गुहिलों ने मंदिर शिल्प को समृद्ध बनाया।

  • सुरंगा बावड़ी कर्नाटक के विजयपुरा स्थित यह प्राचीन भूमिगत जल प्रणाली प्राचीन कारेज़ प्रणाली पर आधारित है। न्यूयार्क स्थित गैर सरकारी संगठन विश्व स्मारक कोष (World Monuments Fund-WMF) ने सुरंगा बावड़ी को विश्व स्मारक निगरानी सूची-2020 में शामिल किया है।

इस बावड़ी का निर्माण 16वीं शताब्दी में आदिल शाह प्रथम ने करवाया था तथा आदिल शाह प्रथम के उत्तराधिकारी इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय ने इसको मज़बूत करने के लिये इसमें कई संरचनात्मक सुधार किये थे।

  • हिस्टोरिकल गैस्ट्रोनोमिका -द इंडस डाइनिंग एक्सपीरियंस (Historical Gastronomica -The Indus Dining Experience):-

केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय संग्रहालय भारत के द्वारा प्राचीन खाद्य इतिहास पर 19-25 फरवरी तक एक अनूठी प्रदर्शनी का आयोजन किया गाया। यह प्रदर्शनी भारत के 5000 वर्ष पुराने इतिहास के बारे में बताती है।

इसे संयुक्त रूप से राष्ट्रीय संग्रहालय और वन स्टेशन मिलियन स्टोरीज़ (One Station Million Stories- OSMS) द्वारा संचालित किया जा रहा है।
वन स्टेशन मिलियन स्टोरीज़ (OSMS) दिल्ली की एक टीम है जो व्यापक तकनीकी अनुसंधान के माध्यम से कहानी कहने की कला में पारंगत है।

इस प्रदर्शनी की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  1. मानव के उद्भव से लेकर सिंधु-सरस्वती सभ्यता तक उसका विकास और मानव के खाद्य इतिहास की उदाहरणात्मक कहानी का प्रस्तुतिकरण
  2. हड़प्पाकालीन मृद्भांड और कलाकृतियाँ
  3. भोजन: फिंगर-फूड सैंपलर और डिनर
  4. हड़प्पा सभ्यता की रसोई का एक माॅडल और वन स्टेशन मिलियन स्टोरीज़ (OSMS) द्वारा डिज़ाइन की गई कलाकृतियाँ।

यह प्रदर्शनी खाद्य आदतों के कारण मनुष्य का विकास कैसे हुआ और कैसे उसने गैर-खाद्य पदार्थों एवं खाद्य पदार्थों में भेद करना सीखा तथा उनकी खाद्य प्रसंस्करण तकनीक क्या थी एवं उनकी वास्तुकला को दर्शाती है। इस प्रदर्शनी में दिखाया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण खाद्य सुरक्षा कैसे प्रभावित होती है। विविध दक्षिण एशियाई लोगों के जीनोमिक डेटा (Genomic Data) से पता चलता है कि हमारे पूर्वजों में एक निरंतरता है जो हमें ईरानी कृषिविदों और दक्षिण एशिया में खाद्य संग्रहण करने वाले शिकारियों से जोड़ती है। राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, सिंध और बलूच के वर्तमान गाँवों में खाना पकाने के तरीकों के पारंपरिक ज्ञान पता चलता है कि हमारे मूल आहार और वर्तमान आहार में अधिक समानताएँ हैं।

  • केंद्रीय संस्कृति मंत्री ने बताया कि ओडिशा में लगभग 800 वर्ष पुराने कोणार्क सूर्य मंदिर को संरक्षित करने की योजना जल्द ही तैयार की जाएगी।

बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित कोणार्क सूर्य मंदिर भगवान सूर्य के रथ का एक विशाल प्रतिरूप है। यह मंदिर ओडिशा के पुरी ज़िले में चंद्रभागा नदी के तट पर स्थित है। रथ के 24 पहियों को प्रतीकात्मक डिज़ाइनों से सजाया गया है और सात घोड़ों द्वारा इस रथ को खींचते हुए दर्शाया गया है। अंग्रेज़ी भाषा में इसे ‘ब्लैक पैगोडा’ कहते हैं।

इस मंदिर का निर्माण 13वीं शताब्दी में गंग वंश के शासक नरसिंह देव प्रथम ने कराया था।

देउल (गर्भगृह के ऊपर उठता हुआ विमान तल),जगमोहन (गर्भगृह के बगल का विशाल हॉल),नटमंडप (जगमोहन के बगल में नृत्य के लिये हॉल), भोगमंडप के निर्माण के साथ-साथ परकोटा तथा ग्रेनाइट पत्थर का इस्तेमाल किया गया है। जो कि ओडिशा वास्तुकला की अपनी अलग पहचान देती है।कोणार्क का सूर्य मंदिर इस शैली का श्रेष्ठ उदाहरण है।

यूनेस्को (UNESCO) ने वर्ष 1984 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था और भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण इस मंदिर का संरक्षक है।
श्री बृहदेश्वर मंदिर
  • श्री बृहदेश्वर मंदिर (Sri Brihadeeswarar Temple) में कुम्भाभिषेगम (जलाभिषेक) समारोह संपन्न। यह समारोह 23 वर्षों बाद मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै बेंच ने एक पुराने मामले (जो तमिलनाडु राज्य में संस्कृत भाषा और तमिल परंपराओं के बीच वर्चस्व को लेकर था) में 31 जनवरी के निर्णय के बाद आयोजित किया गया है।

तमिलनाडु राज्य के तंजावुर में स्थित इस मंदिर को पेरुवुदैयार कोयिल (Peruvudaiyar Koyil) के नाम से भी जाता है। यह विश्व के सबसे बड़े एवं भव्य मंदिरों में से एक है, इस मंदिर का निर्माण चोल सम्राट राजाराज प्रथम द्वारा 1003 ईस्वी से 1010 ईस्वी के मध्य कराया गया था। उनके नाम पर ही इसे राजराजेश्वर मंदिर नाम भी दिया गया है। यह मंदिर ग्रेनाइट पत्थरों से निर्मित है और इसमें अधिकांशत: बड़े शिला-खण्डों का इस्तेमाल किया गया है। इसके गुंबद की परछाई पृथ्वी पर नहीं पड़ती। इसके शिखर पर एक स्वर्णकलश स्थित है और जिस पत्थर पर यह कलश स्थित है,उसका वज़न अनुमानत: 80 टन है। इस मंदिर की उत्कृष्टता के कारण ही यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर का दर्जा दिया है। वर्ष 2010 में श्री बृहदेश्वर मंदिर का 1000वाँ स्थापना वर्ष मनाया गया था। कुम्भाभिषेगम समारोह में पवित्र जल को यज्ञ सलाई (Yaga Salai) से लाकर स्वर्ण कलश में डाला जाता है,जो पवित्र गर्भगृह के 216 फुट ऊपर विमानम में है। मंदिर की अन्य मूर्तियों का भी पवित्र जल से जलाभिषेक किया जाता है।

यज्ञ सलाई (Yaga Salai) श्री बृहदेश्वर मंदिर परिसर में स्थित एक जलकुंड है।

अंतिम बार वर्ष 1997 में कुम्भाभिषेगम समारोह का आयोजन किया गया था जिसमें आग की घटना के कारण मची भगदड़ में कई लोगों की मौत हो गई थी। विवाद:-कुम्भाभिषेगम समारोह में श्लोकों का उच्चारण किस भाषा में किया जाना चाहिये? थंजै पेरिया कोइल उरीमाई मीतपु कुझु (Thanjai Periya Koil Urimai Meetpu Kuzhu) नामक संगठन जिसका उद्देश्य श्री बृहदेश्वर मंदिर में तमिल परंपराओं को बहाल करना है, ने मांग की थी कि कुम्भाभिषेगम समारोह केवल तमिल भाषा में आयोजित किया जाए। इस विवाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के हलफनामे पर सहमति जताई जिसमें कहा गया है कि समारोह संस्कृत और तमिल दोनों भाषाओं में होना चाहिये।

  • गुजरात के साबरकांठा ज़िले के देव नी मोरी (Dev Ni Mori) में चीन के स्प्रिंग टेम्पल (153 मीटर) के बाद गौतम बुद्ध की विश्व की दूसरी सबसे ऊँची मूर्ति (108 मीटर) बनाने का प्रस्ताव है।

देव नी मोरी की खुदाई वर्ष 1953 में राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा की गई थी। इसमें तीसरी-चौथी सदी से संबंधित बौद्ध मठ के अवशेषों का पता लगाया गया। इसकी खुदाई में 1700 वर्ष पुराना एक ताबूत मिला है जिसमें बुद्ध के अवशेष पाये गए हैं। हाल ही में गुजरात के वडनगर के गढ़वाले क्षेत्र में हुई खुदाई से दूसरी से सातवीं शताब्दी के बौद्ध मठ का पता चला है। इस मठ में दो विशाल स्तूप और एक खुला केंद्रीय प्रांगण है जिसके चारों ओर नौ कक्षों का निर्माण किया गया है। केंद्रीय प्रांगण के चारों ओर नौ कक्षों की यह व्यवस्था स्वास्तिक के चिन्ह जैसा पैटर्न बनाती है। स्टैच्यू ऑफ यूनिटी गुजरात के वडोदरा के पास नर्मदा ज़िले में स्थित राजपीपला के निकट साधुबेट नामक नदी द्वीप पर 182 मीटर ऊँची सरदार वल्लभभाई पटेल की विश्व की सबसे ऊँची मूर्ति है।

  • ननकाना साहिब गुरुद्वारा (जिसे गुरुद्वारा जन्म स्थान (Gurdwara Janam Asthan) भी कहा जाता है) उस जगह पर बनाया गया है जहाँ सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ था। इसका निर्माण महाराजा रणजीत सिंह ने कराया था।

सिख धर्म के संस्थापक एवं पहले सिख गुरु नानक देव जी का जन्म वर्ष 1469 में ननकाना साहिब में हुआ था। ननकाना साहिब वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित है। वर्ष 1818-19 में मुल्तान के युद्ध (Battle of Multan) से लौटते समय महाराजा रणजीत सिंह ने ननकाना साहिब का दौरा किया था। वर्ष 1921 में ब्रिटिश शासन के दौरान जब गुरुद्वारा जन्म स्थान के महंतों ने 130 से अधिक अकाली सिखों को मारा तब यह स्थान हिंसक प्रकरण का स्थल बन गया। इस घटना को गुरुद्वारा सुधार आंदोलन में मील का पत्थर माना जाता है, जिसके तहत वर्ष 1925 में सिख गुरुद्वारा अधिनियम पारित किया गया था और इससे गुरुद्वारों पर महंतों का नियंत्रण समाप्त हो गया।

बीबी का मकबरा
  • भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण 17वीं सदी के मुगलकालीन स्मारक ‘बीबी का मकबरा’ के गुंबद और संगमरमर से निर्मित अन्य हिस्सों का वैज्ञानिक संरक्षण करेगा।

यह मकबरा वर्ष 1660 में औरंगजेब की बेगम दिलरास बानो बेगम या रबिया-उद्-दौरानी की याद में बनवाया गया था। इसे ‘दक्कनी ताज’ या ‘बीबी का मकबरा’ भी कहते हैं।

यह महाराष्ट्र राज्य के औरंगाबाद में स्थित है।

इसके वास्तुकार अताउल्लाह (उस्ताद अहमद लाहौरी के पुत्र) और हंसपत राय थे। इसके निर्माण में भी संगमरमर का इस्तेमाल हुआ है तथा मकबरे के कक्ष की दीवारों और छतों में सुंदर नक्काशी की गई है, किंतु इसके ह्रास के लक्षण स्पष्ट दिखते हैं। औरंगजेब काल और उसके बाद के मुगल शासकों के दौर में बनी इमारतें स्थापत्य की दृष्टि से महत्त्वहीन रहीं (सफदरजंग के मकबरे को छोड़कर)। अतः औरंगजेब का काल मुगल स्थापत्य कला का अंतिम पड़ाव साबित हुआ।

  • निर्मल किला(‘शामगढ़ किला’):- निर्मल,तेलंगाना राज्य के आदिलाबाद ज़िले का एक प्रमुख नगर है। यहाँ के राजाओं द्वारा कला एवं संस्कृति को संरक्षण देने के कारण इसका गौरवशाली इतिहास है।

इस क्षेत्र पर काकतीय,चालुक्य,कुतुबशाह और निज़ाम का शासन था जिन्होंने सांस्कृतिक विरासत के विकास में अहम योगदान दिया है फ्राँसीसियों द्वारा बनवाया गया यह नगर हैदराबाद से लगभग 280 किलोमीटर उत्तर में है। यह शहर लकड़ी के खिलौनों पर आधारित उद्योग और निर्मल तश्तरी के लिये प्रसिद्ध है, इन निर्मल तश्तरियों को लघु चित्रकारी और पुष्प कलाकृतियों से सजाया जाता है।

उदासी मठ:-दीवान चंदूलाल जो निज़ाम,आसफ जाह III के प्रमुख मंत्री थे,ने वर्ष 1822 के आस-पास निर्मल नगर में उदासी मठ का निर्माण कराया था।

उदासी संप्रदाय गुरु नानक जी के बड़े पुत्र श्री चंद की शिक्षाओं पर आधारित था। श्री चंद के अनुयायियों ने गुरु नानक जी द्वारा दौरा किये गए सभी स्थानों पर मठ की स्थापना कराई थी। उदासी मठ का निर्माण गुरु नानक जी के दूसरे उदासी आगमन के दौरान 1511 ईस्वी से 1513 ईस्वी के मध्य कराया गया था। श्री गुरु नानक देव जी ने "ईश्वर के वास्तविक संदेश" को फैलाने के लिये चारों दिशाओं में यात्राएँ कीं। इन यात्राओं को "चार उदासिस" के रूप में जाना जाता है। उदासिस गुरु नानक की मिशनरी यात्राएँ थीं।

  • सप्तमातृका दक्षिण भारत में अब तक के सबसे पुराने संस्कृत शिलालेख की खोज की है। इस शिलालेख से के बारे में जानकारी मिलती है। सप्तमातृका (Saptamatrika)हिंदू धर्म में सात देवियों का एक समूह है जिसमें शामिल हैं ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, चामुण्डा, इंद्राणी।

किसी-किसी संप्रदाय में इन सातों देवियों को ‘महालक्ष्मी’ के साथ मिलाकर ‘अष्ट मातृ’ कहा जाता है। सप्तमातृका की जानकारी कदंब ताम्र प्लेट, प्रारंभिक चालुक्य तथा पूर्वी चालुक्य ताम्र प्लेट से मिलती है। चेब्रोलू शिलालेख विवरण: यह सबसे पुराना संस्कृत शिलालेख आंध्र प्रदेश के गुंटूर ज़िले के चेब्रोलू गाँव में पाया गया है। इस शिलालेख को स्थानीय भीमेश्वर मंदिर के जीर्णोद्धार और मरम्मत के दौरान प्राप्त किया गया है। इस शिलालेख में संस्कृत और ब्राह्मी वर्ण हैं, इसे सातवाहन वंश के राजा विजय द्वारा 207 ईसवी में जारी किया गया था। मत्स्य पुराण के अनुसार, राजा विजय सातवाहन वंश के 28वें राजा थे, इन्होंने 6 वर्षों तक शासन किया था।

इस शिलालेख में एक मंदिर तथा मंडप के निर्माण के बारे में वर्णन किया गया है। इस अभिलेख में कार्तिक नामक व्यक्ति को ताम्ब्रापे नामक गाँव में, जो कि चेब्रोलू गाँव का प्राचीन नाम था सप्तमातृका मंदिर के पास प्रासाद (मंदिर) व मंडप बनाने का आदेश दिया गया है। इस चेब्रोलू संस्कृत शिलालेख से पहले इक्ष्वाकु राजा एहवाल चंतामुला (Ehavala Chantamula) द्वारा चौथी सदी में जारी नागार्जुनकोंडा शिलालेख को दक्षिण भारत में सबसे पुराना संस्कृत शिलालेख माना जाता था। अन्य शिलालेख: इस स्थान पर एक अन्य शिलालेख भी मिला है जो प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है जिसे पहली सदी का बताया जा रहा है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India- ASI) भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण राष्‍ट्र की सांस्‍कृतिक विरासतों के पुरातत्त्वीय अनुसंधान तथा संरक्षण के लिये एक प्रमुख संगठन है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण का प्रमुख कार्य राष्‍ट्रीय महत्त्व के प्राचीन स्‍मारकों तथा पुरातत्त्वीय स्‍थलों और अवशेषों का रखरखाव करना है । इसके अतिरिक्‍त प्राचीन स्‍मारक तथा पुरातत्त्वीय स्‍थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के प्रावधानों के अनुसार, यह देश में सभी पुरातत्त्वीय गतिविधियों को विनियमित करता है। यह पुरावशेष तथा बहुमूल्‍य कलाकृति अधिनियम, 1972 को भी विनियमित करता है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण संस्‍कृति मंत्रालय के अधीन कार्य करता है। सातवाहन वंश: सातवाहन वंश का शासन क्षेत्र मुख्यतः महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक था। इस वंश की स्थापना सिमुक ने की थी तथा इसकी राजधानी महाराष्ट्र के प्रतिष्ठान/पैठन में थी। सातवाहन शासक ‘हाल’ एक बड़ा कवि था इसने प्राकृत भाषा में ‘गाथासप्तशती’ की रचना की है। सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी थी। सातवाहन काल में व्यापार व्यवसाय में चांदी एवं तांबे के सिक्कों का प्रयोग होता था जिसे ‘काषार्पण’ कहा जाता था। भड़ौच सातवाहन वंश का प्रमुख बंदरगाह एवं व्यापारिक केंद्र था। इक्ष्वाकु वंश: भारतीय प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में सातवाहनों के अवशेषों पर कृष्णा-गुंटूर क्षेत्र में इक्ष्वाकुओं का उदय हुआ। इक्ष्वाकुओं ने कृष्णा-गुंटूर क्षेत्र में भूमि-अनुदान की प्रथा चलाई। इस क्षेत्र में अनेक ताम्रपत्र सनदें पाई गई हैं।

आंध्र प्रदेश के शंकरम में स्थित बोज्जनकोंडा (Bojjannakonda) नामक बौद्ध स्थल पर पत्थर फेंकने की एक पुरानी प्रथा पर रोक सम्पादन

यहाँ के ग्रामीण एक प्राचीन प्रथा के भाग के रूप में बोज्जनकोंडा स्थित एक पेट के आकार की आकृति को राक्षस का रूप मानते हुए इस पर पत्थर फेंकते थे।mहालाँकि ‘इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज’ (Indian National Trust for Art and Cultural Heritage-INTACH) के हस्तक्षेप के बाद मकर संक्राति के बाद 16 जनवरी को कनुमा दिवस (Kanuma day) पर आयोजित होने वाली यह प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है।

INTACH ने इस बार भी इस पुरातात्त्विक रूप से महत्त्वपूर्ण इस स्थल को नुकसान से बचाने के लिये कनुमा दिवस के अवसर पर इस प्रथा को रोकने के लिये जिला प्रशासन से पर्याप्त सहायता की माँग की है।

बोज्जनकोंडा तथा लिंगलामेत्ता(Bojjannakonda and Lingalametta) ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में स्थापित जुड़वां बौद्ध मठ हैं। ये बौद्ध स्थल बौद्ध धर्म की तीन शाखाओं (थेरवाद, महायान, वज्रयान) से संबंधित हैं-

  1. थेरवाद- बुद्ध को एक शिक्षक के रूप में मान्यता।
  2. महायान- बौद्धधर्म अधिक भक्तिपूर्ण था।
  3. वज्रयान- जहाँ बौद्ध परंपरा में तंत्र एवं गूढ़ रूप में अधिक विश्वास।

शंकरम (Sankaram) शब्द की व्युत्पत्ति ‘संघरम’ (Sangharama) शब्द से हुई है। यह स्थल अत्यधिक स्तूपों, पत्थरों को काटकर निर्मित गुफाओं, ईंट-निर्मित संरचनात्मक आकृतियों, प्रारंभिक ऐतिहासिक मृदभांडों और पहली शताब्दी ईस्वी पूर्व के सातवाहन काल के सिक्कों के लिये प्रसिद्ध है। यहाँ स्थित मुख्य स्तूप को पत्थर की चट्टान को तराशकर बनाया गया है और फिर ईंटों से ढका गया है। यहाँ स्थित पहाड़ियों में पत्थरों पर बुद्ध की छवियों को उकेरा गया है। यहाँ स्थित लिंगलामेत्ता में एकाश्म पत्थर से निर्मित स्तूपों को देखा जा सकता है।

पर्यटन के लिये आकर्षण का बिंदु:-यहाँ स्थित अवशेष मंजूषा (Relic Casket), तीन चैत्यगृह, स्तूप और वज्रयान मूर्तिकला को देखने के लिये बड़ी संख्या में पर्यटक इन बौद्ध स्थलों पर आते हैं।

विशाखापत्तनम थोटलाकोंडा (Thotlakonda), एप्पिकोंडा (Appikonda) और बाविकोंडा (Bavikonda) जैसे बौद्ध स्थलों के लिये भी प्रसिद्ध है। इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज(Indian National Trust for Art and Cultural Heritage) की स्थापना भारत में संस्कृतिक विरासत के बारे में जानकारी के प्रसार और संरक्षण के उद्देश्य से वर्ष 1984 में नई दिल्ली में की गई थी। वर्तमान में INTACH को विश्व के सबसे बड़े विरासत संगठनों में से एक के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है। INTACH की भारत में में 190 से अधिक शाखाएँ हैं। INTACH ने न केवल अमूर्त विरासत बल्कि प्राकृतिक विरासत के संरक्षण में अभूतपूर्व कार्य किया है

हम्पी (Hampi) के विट्टल मंदिर (Vittala Temple) सम्पादन

 
विट्टल मंदिर
  • भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने हम्पी (Hampi) के विट्टल मंदिर (Vittala Temple) परिसर के अंदर स्थित पत्थर के रथ को सुरक्षित करने के लिये इसके चारों ओर एक लकड़ी का बाड़ा स्थापित करने का निर्णय लिया है। विट्टल मंदिर हम्पी में सबसे अधिक देखे जाने वाले संरक्षित स्मारकों में से एक है। यह अपनी असाधारण वास्तुकला और बेजोड़ शिल्प कौशल के लिये जाना जाता है। इसे हम्पी में सबसे बड़ी और सबसे प्रसिद्ध संरचना में से एक माना जाता है।
विट्टल मंदिर हम्पी के उत्तर-पूर्वी भाग में तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित है। इस मंदिर में अद्भुत पत्थर की संरचनाएँ हैं जैसे- पत्थरों से निर्मित रथ व संगीतमय स्तंभ।
विट्टल मंदिर का निर्माण 15वीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य के राजा देवराय द्वितीय(1422 - 1446 ईस्वी)के शासनकाल के दौरान बनवाया गया था। सबसे प्रसिद्ध शासक कृष्णदेवराय (1509-1529 ईस्वी) के शासनकाल के दौरान इस मंदिर के कई हिस्सों का विस्तार किया गया। उन्होंने स्मारक को उसका वर्तमान स्वरूप देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इसे‘श्री विजया विठ्ठला मंदिर’ के नाम से भी जाना जाता है। यह भगवान विष्णु के एक अवतार ‘भगवान विठ्ठल’ को समर्पित है। इस मंदिर में विठ्ठल-विष्णु की एक मूर्ति विराजमान है। द्रविड़ शैली में निर्मित इस मंदिर परिसर में स्थित पत्थर के रथ को विजयनगर साम्राज्य का सबसे आश्चर्यजनक वास्तुकला माना जाता है। पत्थर का रथ वास्तव में एक मंदिर है जिसे एक सजावटी रथ के आकार में डिज़ाइन किया गया है। यह मंदिर गरुड़ पक्षी को समर्पित है और गरुड़ की एक आकृति इस मंदिर के गर्भगृह में है।

यह भारत के तीन प्रसिद्ध पत्थर के रथों में से एक है। अन्य दो पत्थर के रथ कोणार्क(ओडिशा) और महाबलीपुरम (तमिलनाडु) में स्थित हैं।
रंगा मंडप के संगीतमय स्तंभ(Musical Pillars)इस मंदिर के मुख्य आकर्षणों में से एक है। यह विशाल मंडप अपने 56 संगीतमय स्तंभों के लिये प्रसिद्ध है। इन स्तंभों को सा,रे,गा,मा (SAREGAMA) स्तंभों के रूप में भी जाना जाता है जिनसे संगीत सुरों की ध्वनि प्रवाहित होती हैं।

मंडप के अंदर मुख्य स्तंभों और छोटे स्तंभों के कई सेट मौजूद हैं। प्रत्येक मुख्य स्तंभ रंगा मंडप की छत को सहारा देता है। मुख्य स्तंभों को संगीत वाद्ययंत्र के रूप में डिज़ाइन किया गया है। प्रत्येक मुख्य स्तंभ 7 छोटे स्तंभों से घिरा हुआ है। ये 7 स्तंभ प्रतिनिधि संगीत वाद्ययंत्रों से 7 अलग-अलग संगीत की ध्वनि निकलती है।

  • उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक के विरुपापुरा गद्दी में निर्मित रेस्तराँ,होटल,गेस्ट हाउस एवं अन्य इमारतों को ध्वस्त करने हेतु कर्नाटक सरकार के निर्णय की पुष्टि की। विरुपापुरा गद्दी, तुंगभद्रा (Tungabhadra) नदी द्वारा निर्मित एक अंडाकार आइलेट है जो हम्पी विश्व धरोहर स्थल के पश्चिम में स्थित है।
हम्पी के बारे में:- चौदहवीं शताब्दी के दौरान मध्यकालीन भारत के महानतम साम्राज्यों में से एक विजयनगर साम्राज्य की राजधानी हम्पी कर्नाटक राज्य में स्थित है।

हम्पी, उत्तर में तुंगभद्रा नदी और अन्य तीन ओर से पथरीले ग्रेनाइट के पहाड़ों से घिरा हुआ है। विजयनगर शहर के स्मारक जिन्हें विद्या नारायण संत के सम्मान में विद्या सागर के नाम से भी जाना जाता है, को वर्ष 1336-1570 ईस्वी के बीच हरिहर-I से लेकर सदाशिव राय आदि राजाओं ने बनवाया था। यहाँ पर सबसे अधिक इमारतें तुलुव वंश (Tuluva Dynasty) के महान शासक कृष्णदेव राय (1509 -30 ईस्वी) ने बनवाई थीं। हम्पी के मंदिरों को उनकी बड़ी विमाओं,पुष्प अलंकरण,स्पष्ट नक्काशी,विशाल खम्भों,भव्य मंडपों एवं मूर्ति कला तथा पारंपरिक चित्र निरुपण के लिये जाना जाता है,जिसमें रामायण और महाभारत के विषय शामिल किये गए हैं।

हम्पी में मौजूद विठ्ठल मंदिर विजय नगर साम्राज्य की कलात्मक शैली का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। एक पत्थर से निर्मित देवी लक्ष्मी, नरसिंह तथा गणेश की मूर्तियाँ अपनी विशालता एवं भव्यता के लिये उल्लेखनीय हैं। यहाँ स्थित जैन मंदिरों में कृष्ण मंदिर,पट्टाभिराम मंदिर,हजारा राम चंद्र और चंद्र शेखर मंदिर प्रमुख हैं।
विजयनगर शहर के स्मारक जिन्हें विद्या नारायण संत के सम्मान में विद्या सागर के नाम से भी जाना जाता है, को वर्ष 1336-1570 ईस्वी के बीच हरिहर-I से लेकर सदाशिव राय आदि राजाओं ने बनवाया था। यहाँ पर सबसे अधिक इमारतें तुलुव वंश (Tuluva Dynasty) के महान शासक कृष्णदेव राय (1509 -30 ईस्वी) ने बनवाई थीं।