समसामयिकी 2020/सामाजिक,जनसंख्या एवं संबद्ध मुद्दे

सर्विस पोर्टल (SERVICE)SAIL Employee Rendering Voluntarism and Initiatives for Community Engagement केंद्रीय इस्पात मंत्री ने अपने कर्मचारियों की स्वैच्छिक परोपकारी गतिविधियों (Voluntary Philanthropist Activities-VPA) को बढ़ावा देने के लिये की शुरुआत की। SERVICE का पूर्ण रुप है। यह पोर्टल स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (Steel Authority of India Limited-SAIL) के कर्मचारियों को परोपकारी गतिविधियों को व्यवस्थित तरीके से बढ़ावा देने और सेवाएँ प्रदान करने में मदद करेगा। इस पोर्टल के माध्यम से स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड के कर्मचारी शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तीकरण और पोषण के क्षेत्र में योगदान देंगे। इस पोर्टल को सेल के स्थापना दिवस (24 जनवरी) पर शुरू किया जाएगा। गौरतलब है कि स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड एक महारत्न कंपनी है।

  • कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (Employees’ Provident Fund Organisation-EPFO) ने कोरोनावायरस (COVID-19) महामारी के मद्देनज़र EPFO के संदर्भ में सरकार द्वारा शुरू की गई योजना के तहत अब तक लगभग 1.37 लाख के दावों का निपटान किया है और तकरीबन 279.65 करोड़ रुपए वितरित किये हैं।

प्रमुख बिंदु उल्लेखनीय है कि सरकार ने COVID-19 महामारी के मद्देनज़र कर्मचारी भविष्य निधि नियमनों में संशोधन कर ‘महामारी’ को भी उन कारणों में शामिल कर दिया है जिसे ध्‍यान में रखते हुए कर्मचारियों को अपने खातों से कुल राशि के 75 प्रतिशत का गैर-वापसी योग्य अग्रिम या तीन माह का पारिश्रमिक, इनमें से जो भी कम हो, प्राप्‍त करने की अनुमति दी गई है। सरकार के इस निर्णय से EPF के तहत पंजीकृत तकरीबन 4 करोड़ कामगारों के परिवार इस सुविधा का लाभ उठा सकते हैं। इसके अलावा EPFO ने केवाईसी (Know Your Customer-KYC) के अनुपालन में आसानी के लिये जन्म तिथि में सुधार मानदंडों की प्रक्रिया में भी ढील दी है। अब EPFO ग्राहक के आधार कार्ड में दर्ज जन्म तिथि को PF रिकॉर्ड में दर्ज जन्म तिथि को सुधारने के प्रमाण के रूप में स्वीकार कर रहा है। साथ ही जन्म तिथि में तीन वर्ष तक की भिन्नता वाले सभी मामलों को भी EPFO द्वारा स्वीकार किया जा रहा है। बीते महीने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कोरोनावायरस (COVID-19) महामारी के प्रकोप का मुकाबला करने के लिये सरकार के वित्तीय पैकेज की घोषणा की थी, जिसमें आगामी तीन महीनों के लिये नियोक्ता और कर्मचारी (12 प्रतिशत प्रत्येक) के योगदान का भुगतान करना था, यदि संगठन में 100 कर्मचारी हैं और उनमें से 90 प्रतिशत कर्मचारी 15000/- रुपए प्रतिमाह से कम कमाते हैं। विश्लेषकों के अनुसर, सरकार का यह निर्णय विभिन्न छोटे संगठनों को वित्तीय रूप से लाभान्वित करेगा और पेरोल पर कर्मचारियों की निरंतरता बनाए रखने में मदद करेगा। चुनौतियाँ ध्यातव्य है कि कई EPFO ग्राहकों ने दावों के निपटान में देरी का मुद्दा उठाया था, जिसकी जाँच संगठन के अधिकारियों द्वारा की जा रही है। EPFO के अनुसार, KYC के मापदंडों का अनुपालन करने वाले सभी आवेदनों का निपटान स्वतः ही हो जाता है, किंतु शेष आवेदनों की जाँच अधिकारियों द्वारा की जा रही है, जिसके कारण कुछ अधिक समय लग रहा है। आगे की राह EPFO के संदर्भ में सरकार द्वारा लिया गया निर्णय कोरोनावायरस (COVID-19) महामारी के समय में नियोक्ताओं और कर्मचारियों को राहत प्रदान करने हेतु लिया गया महत्त्वपूर्ण निर्णय है। हालाँकि ग्राहकों को इस योजना का लाभ उठाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, इसके अलावा कई लोगों ऐसे भी हैं जो इस योजना के पात्र है, किंतु उन्हें इस संदर्भ में कोई जानकारी नहीं है। आवश्यक है कि नीति निर्माताओं द्वारा इस मुद्दों पर विचार किया जाए और इन्हें जल्द-से-जल्द सुलझाने का प्रयास किया जाए, ताकि आम लोगों को वित्तीय समस्याओं का सामना न करना पड़े।


मृत्युदंड (Capital Punishment) विश्व में किसी भी तरह के दंड कानून के तहत किसी व्यक्ति को दी जाने वाली उच्चतम सज़ा होती है। हालाँकि भारत में मृत्युदंड की सज़ा का इतिहास काफी लंबा है, किंतु हाल के दिनों में इसे खत्म करने को लेकर भी कई आंदोलन किये गए हैं। भारतीय दंड संहिता, 1860 में आपराधिक षड्यंत्र, हत्या, राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने, डकैती जैसे विभिन्न अपराधों के लिये मौत की सज़ा का प्रावधान है। इसके अलावा कई अन्य कानूनों जैसे- गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 में भी मृत्युदंड का प्रावधान किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-72 में मृत्युदंड के संबंध में क्षमादान का प्रावधान किया गया है। इस अनुच्छेद के तहत भारत के राष्ट्रपति को कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में मृत्युदंड पर रोक लगाने का अधिकार है। इसी प्रकार संविधान का अनुच्छेद-161 राज्य के राज्यपाल को कुछ विशिष्ट मामलों में मृत्युदंड पर रोक लगाने का अधिकार देता है।

सुभेद्य वर्ग के लोग

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  • COVID-19 महामारी के दौरान आजीविका के स्रोतों से वंचित होने के कारण यौनकर्मियों, एचआईवी/एड्स, ट्रांसपर्सन (Transperson) जैसे कमज़ोर समूहों द्वारा द ग्लोबल फंड टू फाइट एड्स, टीबी एंड मलेरिया (THE Global Fund to Fight AIDS, TB and Malaria- GFATM) में याचिका दायर की गई। ‘एचआईवी/एड्स से प्रभावित आबादी’ या की पॉपुलेशन (Key Populations- KPs) की ओर से दायर याचिका में भोजन, आश्रय एवं आपातकालीन चिकित्सा देखभाल हेतु बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये धन का आवंटन करने की मांग की गई है। याचिकाकर्त्ताओं ने GFATM से आग्रह किया है कि वे सरकारों के लिये गाइडलाइंस जारी करे ताकि वे अपने COVID-19 राहत कोष से प्रमुख आबादी (Key populations- KPs) की ज़रूरतों को पूरा करें।
की पॉपुलेशन (Key Populations- KPs) ऐसे लोगों का व्यापक समूह है जिसमें इंजेक्शन से ड्रग्स लेने वाले लोग, सेक्स वर्कर, ट्रांसपर्संस, ट्रांसजेंडर एवं जेलों में बंद लोग जो संभवतः एचआईवी/एड्स महामारी से प्रभावित हैं, शामिल हैं।

द ग्लोबल फंड टू फाइट एड्स, टीबी एंड मलेरिया (GFATM) एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषक एवं सहयोगात्मक संगठन है। इसे वर्ष 2002 में सरकारों, नागरिक समाज, निजी क्षेत्रों एवं बीमारियों से प्रभावित लोगों के बीच एक साझेदारी के रूप में गठित किया गया था। इसका उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्थापित सतत् विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायता हेतु एचआईवी/एड्स, तपेदिक एवं मलेरिया की महामारी को समाप्त करने के लिये अतिरिक्त संसाधनों को आकर्षित करना तथा उनका लाभ उठाना एवं निवेश करना है। GFATM एड्स, टीबी और मलेरिया की रोकथाम, उपचार एवं देखभाल के लिये दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम है। यह एक वित्तपोषण तंत्र (Financing Mechanism) है न कि कार्यान्वयन एजेंसी (Implementing Agency)।

मुख्यालय: जेनेवा (स्विट्ज़रलैंड)

बालकों से संबंधित विषय

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  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने एक हालिया निर्णय में कहा है कि लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो अधिनियम) की धारा-29 केवल तभी लागू होती है, जब आधिकारिक तौर पर ट्रायल की शुरुआत हो जाए, इस प्रकार आरोपियों के विरुद्ध आरोप तय किये जाने के पश्चात् ही अधिनियम की धारा-29 का प्रयोग किया जा सकता है।

लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो अधिनियम) की धारा-29 के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति को अधिनियम की धारा-3, धारा-5, धारा-7 और धारा-9 के अधीन किसी अपराध को करने अथवा अपराध को करने का प्रयत्न करने के लिये अभियोजित किया गया है तो इस मामले की सुनवाई करने वाला न्यायालय तब तक यह उपधारणा (Presumption) करेगा कि ऐसे व्यक्ति ने वह अपराध किया है अथवा करने का प्रयत्न किया है, जब तक कि यह गलत साबित न हो जाए। न्यायालय का अवलोकन दिल्ली उच्च न्यायालय ने पाया कि पोक्सो अधिनियम, 2012 के तहत कथित अपराधों के लिये जमानत की याचिका पर सुनवाई करते समय जमानत देने संबंधी सामान्य सिद्धांतों के अलावा कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कारकों को ध्यान में रखना भी आवश्यक है। जस्टिस अनूप जयराम की एक-सदस्यीय पीठ ने उल्लेख किया कि सामान्यतः न्यायिक व्यवस्था में ‘निरपराधता की उपधारणा’ (Presumption of Innocence) के सिद्धांत का पालन किया जाता है, अर्थात् सामान्य स्थिति में यह माना जाता है कि कोई भी अभियुक्त तब तक अपराधी नहीं है जब कि अपराध सिद्ध न हो जाए। जबकि पोक्सो अधिनियम, 2012 की धारा-29 इस सिद्धांत को पूर्णतः परिवर्तित कर देती है। जस्टिस अनूप जयराम की एक-सदस्यीय पीठ ने पूर्व में पोक्सो अधिनियम से संबंधित मामलों में विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा दिये गए निर्णयों का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘कतिपय अपराध के बारे में उपधारणा’ का सिद्धांत (धारा-29) तभी लागू होगा, जब अभियोजन पक्ष द्वारा उपधारणा (Presumption) के निर्माण हेतु सभी बुनियादी तथ्य प्रस्तुत कर दिये जाएंगे। इसके मद्देनज़र दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि धारा-29 केवल तभी लागू होती है, जब अभियुक्त के विरुद्ध ट्रायल की शुरुआत हो जाए और सभी आरोप तय कर दिये जाएँ। इस प्रकार यदि जमानत याचिका आरोप तय करने से पूर्व दायर की जाती है, तो वहाँ धारा-29 का प्रावधान लागू नहीं होगा। साथ ही न्यायालय ने आरोप तय होने के पश्चात् जमानत याचिका पर फैसला लेने के लिये भी कुछ नए मापदंड स्थापित किये हैं। न्यायालय के अनुसार, साक्ष्यों की प्रकृति और गुणवत्ता के अतिरिक्त, अदालत कुछ वास्तविक जीवन संबंधी कारकों पर भी विचार करेगी। इसके अलावा अब जमानत याचिका पर सुनवाई करने वाली अदालत इस बात पर भी विचार करेगी कि क्या पीड़ित के विरुद्ध अपराध दोहराया गया है अथवा नहीं।

पृष्ठभूमि असल में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पोक्सो अधिनियम, 2012 के तहत हिरासत में लिये गए एक 24-वर्षीय व्यक्ति की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए इस प्रश्न पर विचार किया जा रहा था कि क्या अधिनियम के अनुच्छेद-29 के तहत ‘कतिपय अपराध के बारे में उपधारणा’ के सिद्धांत को केवल ट्रायल के दौरान लागू किया जाएगा अथवा यह जमानत याचिका के समय भी लागू किया जाएगा। धारा-29 की आलोचना यद्यपि यह आवश्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया को बच्चों के अनुकूल बनाया जाए, किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि स्वयं को निरपराध सिद्ध करने का पूरा बोझ अभियुक्त पर डाल दिया जाए। भारतीय संविधान में उल्लिखित मौलिक अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि सभी के साथ एक समान व्यवहार किया जाए। समानता का अधिकार न केवल भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है, बल्कि राज्य के मनमाने या तर्कहीन कार्य के खिलाफ भी सुरक्षा प्रदान करता है। भारत के संविधान का अनुच्छेद-14 कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण को सुनिश्चित करता है। इस प्रकार पोक्सो अधिनियम, 2012 कुछ विशिष्ट लोगों के समूह को ‘निरपराधता की उपधारणा’ (Presumption of Innocence) के सामान्य सिद्धांत से वंचित करके समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।

  • 12 जून-विश्व बाल श्रम निषेध दिवस

प्रत्येक वर्ष 12 जून को बाल श्रम जैसी क्रूर और बर्बर प्रथा को रेखांकित करने और आम लोगों में इसके विरुद्ध जागरुकता पैदा करने के लिये विश्व बाल श्रम निषेध दिवस (World Day Against Child Labour) का आयोजन किया जाता है। वर्ष 2020 के लिये इस दिवस का थीम है: ‘COVID-19- प्रोटेक्ट चिल्ड्रेन फ्रॉम चाइल्ड लेबर, नाओ मोर देन एवर!’ (Covid-19: Protect Children from Child Labour, Now More Than Ever!)। इस दिवस की शुरुआत वर्ष 2002 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organization-ILO) द्वारा वैश्विक स्तर पर बाल श्रम को समाप्त करने के प्रयासों की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित के उद्देश्य से की गई थी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2020 के लिये विश्व बाल श्रम निषेध दिवस का थीम बाल श्रम पर मौजूदा महामारी के प्रभाव को रेखांकित करती है। ध्यातव्य है कि कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी के कारण लाखों लोगों का जीवन प्रभावित हुआ है, जिसमें छोटे बच्चे भी शामिल हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार, विश्व स्तर पर लगभग 152 मिलियन बच्चे ऐसे हैं जो बाल श्रम में लगे हुए हैं, जिनमें से 72 मिलियन बच्चों की कार्य स्थिति काफी चिंताजनक है।

  • हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization-WHO), संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (United Nations Children's Fund-UNICEF) तथा ‘द लैंसेट’ द्वारा सम्मिलित रूप से गठित आयोग ने बच्चों के स्वास्थ्य और भविष्य के संदर्भ में एक रिपोर्ट जारी की है।

प्रमुख बिंदु आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि विश्व का कोई भी देश बच्चों के स्वास्थ्य, पर्यावरण तथा उनके भविष्य को संरक्षित करने की दिशा में गंभीरता पूर्वक प्रयास नहीं कर रहा है। ‘अ फ्यूचर फॉर द वर्ल्डस चिल्ड्रेन (A Future for the World’s Children)’ नामक रिपोर्ट ने अपने शोध में पाया कि प्रत्येक बच्चे का स्वास्थ्य और भविष्य पारिस्थितिक क्षरण, जलवायु परिवर्तन और हानिकारक वाणिज्यिक विपणन प्रथाओं (संसाधित फास्ट फूड, शराब तथा तंबाकू उत्पादों को प्रोत्साहन) जैसी समस्याओं के कारण खतरे में है। विगत 20 वर्षों में बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार के बावजूद प्रगति रुक गई है तथा इसमें गिरावट भी देखी जा रही है। यह अनुमान लगाया गया है कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों में पाँच वर्ष से कम आयु के लगभग 250 मिलियन बच्चें बौनेपन की समस्या से ग्रस्त हैं और गरीबी के छद्म उपायों के कारण इनकी विकास क्षमता में वृद्धि नहीं हो पा रही है। रिपोर्ट में बाल और किशोर स्वास्थ्य के प्रति सभी देशों को अपने दृष्टिकोण में सुधार लाने की ज़रूरत पर बल दिया गया है, ताकि यह संदेश दिया जा सके कि हम वर्तमान और भविष्य के संसाधनों को संरक्षित करने के प्रति गंभीर हैं।

दिव्यांगजन संबंधित मुद्दे

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  • ‘एकम उत्सव’ (EKAM Fest) प्रदर्शनी-सह-मेला का आयोजन केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के राष्ट्रीय दिव्यांग वित्त विकास निगम (National Handicapped Finance Development Corporation- NHFDC) द्वारा किया गया।

यह दिव्यांगजन समुदाय के बीच उद्यमशीलता एवं ज्ञान को बढ़ावा देने हेतु एक प्रयास है जिसका उद्देश्य समाज में PwDs की संभावनाओं के बारे में जागरूकता पैदा करना, साथ ही PwDs उद्यमियों को एक प्रमुख विपणन अवसर प्रदान करना है। NHFDC इन उद्यमियों के उत्पादों के विपणन हेतु एक ब्रांड एवं मंच के विकास के लिये प्रयास कर रहा है। ब्रांड का नाम एकम (उद्यमिता,ज्ञान,जागरूकता,विपणन) तय किया गया है।

NHFDC दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग के तत्त्वावधान में एक सर्वोच्च निगम है और यह केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के तहत वर्ष 1997 से कार्य कर रहा है।

यह निगम लाभ के उद्देश्य से पंजीकृत नहीं किया गया है और दिव्यांगजन/विकलांग व्यक्तियों (दिव्यांगजन/PWDs) को उनके आर्थिक पुनर्वास के लिये वित्तीय सहायता प्रदान करता है तथा उन्हें अपने उद्यमों को विकसित करने और उनको सशक्त बनाने के लिये कौशल विकास कार्यक्रमों के तहत मदद भी देता है।

अल्पसंख्यक संबंधित मुद्दे

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  • केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्री ने बताया है कि भारत में हज यात्रियों के लिये डिजिटल/ऑनलाइन व्यवस्था हेतु ‘ईज़ ऑफ डूइंग हज’ (Ease of Doing Haj) के लक्ष्य को पूरा किया गया है।

भारत हज तीर्थयात्रियों की पूरी प्रक्रिया को पूर्णरुप से डिजिटल करने वाला विश्व का पहला देश बन गया है। इस व्यवस्था के ज़रिये भारत से मक्का-मदीना जाने वाले हज यात्रियों को ऑनलाइन आवेदन, ई-वीज़ा, हज पोर्टल, हज मोबाइल एप, भारतीय तीर्थयात्रियों के लिये ई-चिकित्सा सहायता प्रणाली हेतु ई-मसीहा (E-MASIHA), मक्का और मदीना में आवास एवं परिवहन से संबंधित सभी प्रकार की जानकारी प्रदान करने के लिये ‘ई-लगेज प्री टैगिंग’ (E-Luggage Pre-Tagging) नामक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से जोड़ा गया है। ‘ई-मसीहा’ स्वास्थ्य सुविधा के माध्यम से प्रत्येक हज यात्री की सेहत से जुड़ी सभी जानकारियाँ ऑनलाइन उपलब्ध रहेंगी। इससे किसी भी आपात स्थिति में तुरंत मेडिकल सेवा उपलब्ध कराई जा सकेगी। पहली बार हज तीर्थयात्रियों के सामान की डिजिटल प्री-टैगिंग की सुविधाएँ प्रदान की गईं। इसके अंतर्गत हज ग्रुप ऑर्गेनाइज़र्स (Haj Group Organisers- HGOs) का एक पोर्टल भी विकसित किया गया है जिसमें हज ग्रुप ऑर्गेनाइजर्स एवं उनके पैकेज से संबंधित सभी विवरण उपलब्ध होंगे। गौरतलब है कि भारत ने सऊदी अरब के साथ द्विपक्षीय वार्षिक हज 2020 समझौते पर वर्ष 2019 में हस्ताक्षर किये थे।


कर्नाटक के बीदर शहर में स्थित एक स्कूल में नागरिकता संशोधन अधिनियम से संबंधित नाटक के मंचन के कारण देशद्रोह के आरोपों की जाँच के संदर्भ में उपस्थित बच्चों से पूछताछ

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  • कर्नाटक बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने बच्चों से बार-बार पूछताछ करने तथा उनका मानसिक उत्पीड़न करने के कारण ज़िला पुलिस की आलोचना की।
  • इसके अतिरिक्त कर्नाटक उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर उन पुलिसकर्मियों पर विभागीय कार्रवाई की मांग की गई है जिन्होंने स्कूल के बच्चों से उनके माता-पिता अथवा अभिभावकों की अनुमति लिये बिना साक्षी के रूप में कई बार पूछताछ की।
  • याचिका में यह भी बताया गया कि हथियारों से लैस पुलिसकर्मियों द्वारा बच्चों से की गई पूछताछ भयभीत व भयपूर्ण वातावरण निर्मित करने वाला कार्य था।
  • जनहित याचिका में किशोर न्याय अधिनियम और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के अनुसार आपराधिक कार्रवाई में नाबालिगों से पूछताछ करने के लिये पुलिस को दिशा-निर्देश जारी करने की मांग की गई है।
अंतर्राष्ट्रीय कानून
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  • भारत,वर्ष 1992 से बाल अधिकारों पर निर्मित अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय का हस्ताक्षरकर्त्ता देश है,जिसे वर्ष 1989 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा अपनाया गया था।
  • अभिसमय में कहा गया है कि सार्वजनिक,निजी या सामाजिक कल्याणकारी संस्थानों,विधि न्यायालयों,प्रशासनिक अधिकारियों या विधायी निकायों द्वारा बच्चों के संरक्षण के लिये किये जाने वाले सभी कार्यों में बच्चे के सर्वोत्तम हित को प्राथमिकता दी जाएगी।
  • वर्ष 2009 में निर्मित ‘बच्चों को साक्षी और बाल पीड़ितों के रूप में न्याय’ उपलब्ध कराने संबंधी संयुक्त राष्ट्र के अभिसमय ने दिशा-निर्देशों के नए मानक प्रदान किये।
  • इसके अनुसार बच्चों से साक्षी के रूप में पूछताछ करने के लिये विशेष रूप से प्रशिक्षित एक अन्वेषक को बच्चे के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण का उपयोग करते हुए साक्षात्कार निर्देशित करने के लिये नियुक्त किया जाए।
भारतीय कानून
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भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा-118 के अंतर्गत साक्षी के रूप में प्रस्तुत होने के लिये कोई न्यूनतम आयु निर्धारित नहीं है।

  • न्यायालय के पूर्ववर्ती निर्णय में तीन वर्ष के बच्चे को यौन शोषण के मामलों में साक्षी के रूप में विचारण न्यायालय (Trial Court) के समक्ष पेश किया गया था ।
  • सामान्यतः विचारण के दौरान साक्षी के रूप में बच्चे के बयान दर्ज करने से पहले न्यायालय तर्कसंगत जवाब देने की उसकी क्षमता का निर्धारण करती है।
  • एक बच्चे की योग्यता निर्धारित करने के लिये आमतौर पर उसका नाम, स्कूल का नाम और उसके माता-पिता के नाम पर आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं।
  • साक्षी के रूप में बच्चों को शामिल करने वाले परीक्षण मुख्य रूप से बाल यौन शोषण के मामलों में हुए हैं। घरेलू हिंसा से संबंधित अन्य अपराधों में भी बच्चों को शामिल किया जा सकता है।

न्यायालयों के निर्णय

  1. बच्चों को साक्षी के रूप में प्रस्तुत करते समय दिल्ली उच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश आपराधिक न्याय प्रणाली के महत्त्व को रेखांकित करते हैं,जिसमे कहा गया है कि बच्चों के साथ व्यवहार करते समय संवेदनशीलता अतिआवश्यक है।
  2. न्यायालय ने बच्चों को सुभेद्य साक्षी (18 वर्ष से कम आयु के बच्चे) माना है, इसलिये इनसे प्रभावी संचार हेतु एक दक्ष अन्वेषक की नियुक्ति को अनिवार्य बताया है।
  3. वर्ष 2016 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि जब बच्चे सामान्य अवस्था में आ जाएँ तो सावधानीपूर्वक जाँच के बाद उनके बयान पर विचार किया जा सकता है।

राज्यसभा के एक सदस्य द्वारा दो बच्चों की नीति से संबंधित एक निजी विधेयक या गैर सरकारी विधेयक (Private Member Bill) सदन में प्रस्तुत किया गया

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  • विधेयक संविधान में अनुच्छेद-47 के बाद अनुच्छेद-47A के सम्मिलन का प्रस्ताव करता है।
  • प्रस्तावित अनुच्छेद 47A के अनुसार “राज्य, बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने की दृष्टि से छोटे परिवार को बढ़ावा दें।दो बच्चों तक सीमित रखनेवाले परिवार को,इस संविधान संशोधन विधेयक में कराधान,शिक्षा और रोज़गार के प्रोत्साहन का प्रस्ताव है और जो लोग इस नीति का पालन न करें उनसे सभी तरह की छूट वापस ले ली जाए।
  • इससे पूर्व मार्च 2018 में दो बच्चों की नीति की आवश्यकता पर सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई थी।
  • हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि नीति निर्माण न्यायालय का कार्य नहीं है। यह संसद से संबंधित मामला है और न्यायालय इसमें दखल नहीं दे सकता।
  • नीति के पक्ष में तर्कजनसंख्या बढ़ने से बेरोज़गारी,गरीबी,अशिक्षा,खराब स्वास्थ्य और प्रदूषण जैसी समस्याएँ उत्पन्न होंगी। इसलिये दो बच्चों की नीति इस दिशा में एक कारगर उपाय सिद्ध होगा।
  • वर्ष 2050 तक देश की शहरी आबादी दोगुनी हो जाएगी,जिसके चलते शहरी सुविधाओं में सुधार और सभी को आवास उपलब्ध कराने की चुनौती होगी,साथ ही पर्यावरण को भी मद्देनज़र रखना ज़रूरी होगा।
  • आय का असमान वितरण और लोगों के बीच बढ़ती असमानता अत्यधिक जनसंख्या के नकारात्मक परिणामों के रूप में सामने आएगा।
  • जहाँ एक ओर जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है तो वहीं दूसरी ओर कृषि योग्य भूमि तथा खाद्य फसल के उत्पादन में कमी हो रही है जिससे लोगों के समक्ष खाद्यान्न का संकट उत्पन्न हो रहा है।
  • नीति के विपक्ष में तर्कनीति के क्रियान्वयन में बड़े पैमाने पर जबरन नसबंदी और गर्भपात जैसे उपाय अपनाए जाने की आशंका है।
  • इस नीति से वृद्ध लोगों की जनसंख्या बढ़ती जाएगी तथा वृद्ध लोगों को सहारा देने के लिये युवा जनसंख्या में कमी आ जाएगी।
  • इस नीति से हम जनसांख्यिकीय लाभांश की अवस्था को खो देंगे।
  • जनसंख्या नियंत्रण के अन्य उपाय
  • आयु की एक निश्चित अवधि में मनुष्य की प्रजनन दर अधिक होती है। यदि विवाह की आयु में वृद्धि की जाए तो बच्चों की जन्म दर को नियंत्रित किया जा सकता है।
  • शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार तथा लोगों के अधिक बच्चों को जन्म देने के दृष्टिकोण को परिवर्तित करना।
  • भारतीय समाज में किसी भी दंपत्ति के लिये संतान प्राप्ति आवश्यक समझा जाता है तथा इसके बिना दंपत्ति को हेय दृष्टि से देखा जाता है,यदि इस सोच में बदलाव किया जाता है तो यह जनसंख्या में कमी करने में सहायक होगा।

आगे की राह जनसंख्या वृद्धि ने कई चुनौतियों को जन्म दिया है किंतु इसके नियंत्रण के लिये क़ानूनी तरीका एक उपयुक्त कदम नहीं माना जा सकता। भारत की स्थिति चीन से पृथक है तथा चीन के विपरीत भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ हर किसी को अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में निर्णय लेने का अधिकार है। भारत में कानून का सहारा लेने के बजाय जागरूकता अभियान, शिक्षा के स्तर को बढ़ाकर तथा गरीबी को समाप्त करने जैसे उपाय अपनाकर जनसंख्या नियंत्रण के लिये प्रयास करना चाहिये। परिवार नियोजन से जुड़े परिवारों को आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये तथा ऐसे परिवार जिन्होंने परिवार नियोजन को नहीं अपनाया है उन्हें विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से परिवार नियोजन हेतु प्रेरित करना चाहिये।

स्टेट ऑफ़ इंडियाज़ एन्वायरनमेंटल रिपोर्ट 2020 के अनुसार,भारत सरकार के पोषण अभियान को कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

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9 फरवरी, 2020 को जारी इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 तक भारत में कुपोषण उन्मूलन के लक्ष्यप्राप्ति में समस्याएँ आ सकती है। यह स्थिति इस तथ्य के बावजूद है कि भारत की अर्थव्यवस्था में वर्ष 1991 की तुलना में दोगुनी वृद्धि हुई है और बाल कुपोषण से निपटने के लिये वर्ष 1975 से देश में ‘एकीकृत बाल विकास सेवा’लागू है जो कि कुपोषण से मुक्ति हेतु दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम है।

भारत में कुपोषण की स्थिति:

वर्ष 2017 मे पाँच वर्ष से कम उम्र के लगभग 1.04 मिलियन मौतों में से 68.2% से ज़्यादा मौतें कुपोषण के कारण हुई। ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’के नवीनतम संस्करण में 117 देशों की सूची में भारत 102वें स्थान पर रहा। पिछले दो दशकों में भारत के GHI स्कोर में केवल 21.9% का सुधार हुआ है, जबकि ब्राज़ील के स्कोर में 55.8%, नेपाल में 43.5% और पाकिस्तान में 25.6% का सुधार हुआ है।

भारत सरकार की पहल: इस चुनौती का सामना करने के लिये केंद्र सरकार ने वर्ष 2018 में ‘प्रधानमंत्री पोषण अभियान’ की शुरुआत की। सरकार ने वर्ष 2017-18 की शुरुआत में इस योजना हेतु तीन वर्ष के लिये 2,849.54 करोड़ रुपए आवंटित किये और वर्ष 2022 तक ‘कुपोषण मुक्त भारत’ का लक्ष्य रखा। योजना से जुड़ी समस्याएँ:

  1. योजना द्वारा प्रवर्तित ‘नवजात शिशु आहार कार्यक्रमों’ का क्रियान्वयन खराब रहा है,परिणामस्वरूप ज़मीनी स्तर पर इसके प्रभाव नहीं दिखाई दिये।
  2. कुपोषण समस्या की गंभीरता पर विचार करने पर योजना का लक्ष्य,वर्ष-दर-वर्ष असंभव प्रतीत होता है।
  3. पूर्वानुमान बताते हैं कि मौजूदा दर पर स्टंटिंग (Stunting) के मानक पर SDG लक्ष्यों को प्राप्त करने में पंजाब को 23 वर्ष और झारखंड को 100 वर्ष लगेंगे।
  4. इसी तरह वेस्टिंग (Wasting) संबंधी SDG लक्ष्यों को पूरा करने में मध्य प्रदेश को 28 वर्ष और झारखंड को 88 वर्ष लगेंगे।

आगे के प्रमुख कदम :

  • आँगनवाड़ी केंद्रों को क्रेच (पालना-घर) में बदलना।
  • सार्वभौमिक रूप से मज़दूरी क्षतिपूर्ति आधारित मातृत्व लाभ प्रदान करना।
  • भोजन और पोषण सुरक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में अपनाना।
  • कुपोषण से लड़ने में समुदाय आधारित प्रबंधन के लिये प्रतिबद्धता।
  • अतः आवश्यकता है कि हम अधिक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित करें परंतु साथ ही इस संबंध में की गई प्रगति के आकलन की प्रक्रिया को भी अपनाना चाहिये।

तस्करी और लैंगिक हिंसा के खिलाफ कार्य करने वाले कोलकाता स्थित एक तकनीकी संगठन‘संजोग’ द्वारा ‘UNCOMPENSATE VICTESS’ नामक रिपोर्ट प्रकाशित

सम्पादन
  • दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 357-A में अपराध पीड़ितों को मुआवज़ा देने का प्रावधान है।
  • देश भर में पाँच वकीलों द्वारा दिये गए आवेदनों के आधार पर सूचना के अधिकार के तहत तस्करों के चंगुल से बचाए गए लोगों को दिये गए मुआवज़े के बारे में जानकारी प्राप्त की गई।
  • उपर्युक्त रिपोर्ट में RTI के तहत दायर याचिका के जवाब में देश में मानव तस्करों के चंगुल से छुड़ाए गए लोगों को दिये गए मुआवजे की खराब स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।
  • ये आँकड़े 25 राज्यों(29राज्यों)और सात केंद्रशासित प्रदेशों में मानव तस्करी की स्थिति के आधार पर एकत्रित किये गए हैं।
  • मानव तस्करी से छुड़ाए गए केवल 82 जीवित बचे लोगों को मुआवजा प्रदान करने की घोषणा की गई थी, जिनमें से केवल 77 व्यक्तियों को ही राहत राशि मिली।
  • इसका अर्थ है कि NCRB द्वारा बताए गए मानव तस्करी से बचे लोगों के कुल मामलों में से केवल 0.2% लोगों को पिछले आठ वर्षों में सरकार द्वारा मुआवजा प्रदान किया गया।
  • वर्ष 2011 और 2019 के बीच इस योजना के तहत 107 व्यक्तियों ने मुआवज़े के लिये आवेदन किया, जिनमें से 102 मामलों में न्यायालय ने अधिकारियों को मुआवज़ा जारी करने का निर्देश दिया।
  • वर्ष 2011 और 2019 के बीच मानव तस्करी से छुड़ाए गए व्यक्तियों को दिये गए मुआवज़े के राज्यवार विवरण के अनुसार, दिल्ली में 47, झारखंड में 17, असम में 8, पश्चिम बंगाल में 3, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और मेघालय में 2-2 और हरियाणा में एक व्यक्ति को मुआवजा प्रदान किया गया था।
  • पीड़ित मुआवज़ा योजना के तहत पश्चिम बंगाल में 28,कर्नाटक और झारखंड में 26 और असम में 14 व्यक्तियों ने मुआवज़े के लिये आवेदन किया,जबकि सात व्यक्तियों ने दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आवेदन किया।
  • दिल्ली का डेटा विसंगतिपूर्ण है क्योंकि यहाँ कुछ व्यक्तियों को घोषित मुआवज़े से अधिक मुआवज़ा मिला है।
  • मणिपुर में वर्ष 2019 की पीड़ित क्षतिपूर्ति योजना में मानव तस्करी के मामले में कोई प्रविष्टि दर्ज नहीं हुई है।
  • निर्भया फंड (Nirbhaya Fund):

  • वर्ष 2012 में निर्भया गैंगरेप और हत्या मामले में राष्ट्रीय आक्रोश के बाद सरकार ने 1,000 करोड़ रूपए के फंड की घोषणा की थी जिसका उपयोग व्यक्तियों,बच्चों या वयस्कों के खिलाफ यौन हिंसा से निपटने के लिये किया जाता है।
  • निर्भया फंड के कुछ भाग को विक्टिम कॉम्पेंसेशन स्कीम (Victim Compensation Scheme) में प्रयोग किया जा रहा है जो कि पिछले कुछ वर्षों से बलात्कार,एसिड बर्न और ट्रैफिकिंग तथा अन्य प्रकार की हिंसा से बचे लोगों को मुआवज़ा देने की एक राष्ट्रीय योजना है।
  • मानव तस्करी के पीड़ितों को दी जाने वाली मुआवज़े की राशि अलग-अलग राज्यों में भिन्न होती है।
  • वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने नेशनल लीगल सर्विसेज़ अथॉरिटी (National Legal Services Authority-NALSA) को एक मानकीकृत पीड़ित मुआवजा योजना तैयार करने का निर्देश दिया था।