सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा सहायिका/जलवायु परिवर्तन और इसका प्रभाव


COP-23,बॉन(जर्मनी के शहर)सम्मेलन,nov 2017 सम्पादन

संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के दलों के 23वें सम्मेलन (23rd Conference of Parties-COP) का आयोजन किया गया है। कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति बनी वहीं वित्तपोषण और समीक्षा तंत्र से जुड़े अहम् बिन्दुओं पर कुछ चिंताएँ ज्यों की त्यों हैं। इस सम्मलेन में विवाद के मुख्य विषय वित्तीय सहायता, (financial support) शमन कार्रवाई, (mitigation action) विभेदीकरण, (differentiation) और नुकसान एवं क्षति (loss and damage) से संबंधित थे।

  • बोन सम्मलेन में यह सवाल उठाया गया था कि उपलब्ध कार्बन स्पेस के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर चुके विकसित देश क्या गरीब और विकासशील देशों को सहायता देंगे?
  • अमीर देशों द्वारा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये अब तक क्या कार्रवाई की गई है और क्या कोयले का उपयोग सीमित नहीं किया जाना चाहिये?

COP-23 में जिन मुद्दों पर महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है वे हैं:-

चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को सीमित करने (coal phase-out) पर सहमति बनी।

हरित इमारतों (green-buildings) को स्थापित करने और इको- गतिशीलता (eco-mobility) में तेज़ी लाने का निर्णय लिया गया।

मुद्दों के समाधान की दिशा में कार्य करने के दौरान लिंग संबंधी कारकों की पहचान करने का निर्णय हुआ।

जलवायु वार्ताओं में स्थानीय लोगों की राय को अहमियत देने का निर्णय लिया गया।

कृषि कार्यों के माध्यम से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मुद्दे पर विचार-विमर्श का निर्णय।

सम्मलेन में एक महत्त्वपूर्ण प्रगति ‘टलानोआ वार्ता’ (Talanoa Dialogue) के रूप में हुई।

कार्बन स्पेस (carbon space) सम्पादन

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) ने अपने 5वें आकलन रिपोर्ट में एक कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जन बजट प्रकाशित किया था। जो बताता है कि

  1. ग्लोबल वार्मिंग को औद्योगिक क्रांति से पहले के तापमान के मुकाबले अधिकतम 2 डिग्री सेल्सियस तक और इससे कम रखने के लिये CO2 के उत्सर्जन की सीमा क्या होनी चाहिये?
  2. बजट के अनुसार इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु औद्योगिक क्रांति के उतरार्द्ध के समय से लेकर वर्ष 2100 तक CO2 उत्सर्जन की सीमा 2900 गीगाटन होनी चाहिये।
  3. विदित हो कि 2011 तक विश्व में 1,900 गीगाटन कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जित हो चुकी है। इसका अर्थ यह है कि वर्ष 2011 और 2100 के बीच अब केवल 1,000 गीगाटन का ही उत्सर्जन संभव है।

दरअसल, CO2 उत्सर्जन की 2900 गीगाटन की यह सीमा ही कार्बन स्पेस है। इसे कार्बन बजट के नाम से भी जाना जाता।

‘टलानोआ वार्ता’(Talanoa Dialogue)? सम्पादन

इस सम्मलेन में देशों द्वारा 'टलानोआ वार्ता' के लिये एक रोड मैप लाया गया है जो जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में विभिन्न देशों द्वारा किये जा रहे प्रयासों एवं इस संबंध में प्रगति का आकलन करने के लिये एक वर्षीय प्रक्रिया है।

इसके तहत यह सहमति व्यक्त की गई है कि वर्ष 2018 और वर्ष 2019 में होने वाले अगले दो जलवायु सम्मेलनों में विशेष 'स्टॉक टेकिंग' सत्र होंगे।

इस स्टॉक-टेकिंग सत्र में ‘प्री-2020 एक्शन्स’ (pre-2020 actions) यानी ग्रीनहाउस गैस-उत्सर्जन से संबंधित वर्तमान प्रतिबद्धताओं के संबंध में विभिन्न देशों द्वारा उठाए जा रहे कदमों की समीक्षा की जाएगी।

उल्लेखनीय है कि 'टलानोआ', फिजी एवं प्रशांत क्षेत्र में प्रयोग होने वाला एक परंपरागत शब्द है जो एक समावेशी, सहभागी एवं पारदर्शी वार्ता की प्रक्रिया को निर्दिष्ट करता है|

‘प्री-2020 एक्शन्स’ सम्पादन

पेरिस समझौते से यह तय होगा कि वर्ष 2020 के बाद क्या किया जाना चाहिये, लेकिन अभी यानी वर्ष 2017 के अंत से लेकर वर्ष 2020 तक क्या किया जाए? क्या इस समयावधि के अन्दर ग्लोबल वार्मिंग से बचाव के लिये कुछ भी नहीं किया जाएगा?

वर्ष 2017 के अंत से लेकर वर्ष 2020 तक ग्लोबल वार्मिंग से बचाव के लिये किये जा रहे प्रयास क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण के हिस्सा हैं।

विदित हो कि क्योटो प्रोटोकॉल के प्रथम चरण (2005-2012) और दूसरे चरण (2013-2020) में तय किया गया है कि उत्सर्जन को कम करने की मुख्य ज़िम्मेदारी अमीर और विकसित देशों की है।

COP-24,काटोविस(पोलैंड का शहर)सम्मेलन 2 से 15 दिसंबर,2018, सम्पादन

इस सम्मेलन में तीन प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया, जिसमें शामिल थे-

पेरिस समझौते के कार्यान्वयन के लिये दिशा निर्देशों/तौर-तरीकों/नियमों को अंतिम रूप देना।

सुविधा प्रदान करने वाले तालानोआ संवाद-2018 (2018 Facilitative Talanoa Dialogue) का समापन।

2020 से पूर्व उठाए जाने वाले कदमों का कार्यान्वयन एवं महत्त्वाकांक्षाओं का सर्वेक्षण।

COP-25,मैड्रिड(स्पेन की राजधानी)सम्मेलन 2-13 दिसंबर,2019 सम्पादन

पेरिस जलवायु समझौता-COP-21,2015 सम्पादन

‘जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन फ्रेमवर्क’ (UNFCCC) की 21वीं बैठक में अपनाया गया, जिसे COP21 के नाम से जाना जाता है। इस समझौते को 2020 से लागू किया जाना है। इसके तहत यह प्रावधान किया गया है कि सभी देशों को वैश्विक तापमान को औद्योगिकीकरण से पूर्व के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देना है (दूसरे शब्दों में कहें तो 2 डिग्री सेल्सियस से कम ही रखना है) और 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिये सक्रिय प्रयास करना है।

पहली बार, विकसित और विकासशील देश, दोनों ने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान (INDC) को प्रस्तुत किया, जो प्रत्येक देश का अपने स्तर पर स्वेच्छा से जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये एक विस्तृत कार्रवाइयों का समूह है।
पेरिस समझौते का मुख्य सार इसके 27 में से छः अनुच्छेदों में निहित है। ये इस प्रकार हैं-
  1. 'बाज़ार तंत्र' (market mechanism) (A-6):- यह एक देश को किसी दूसरे देश में हरित परियोजनाओं को वित्तपोषित करने और क्रेडिट खरीदने की अनुमति देता है।
  2. 'वित्त' (Finance) (A-9)
  3. 'प्रौद्योगिकी विकास और हस्तांतरण' (technology development and transfer) (A-10);
  4. 'क्षमता निर्माण' capacity building (A-11);
  5. 'पारदर्शिता ढाँचा' (transparency framework) (A-13), यह प्रत्येक देश के कार्यों की रिपोर्टिंग से संबंधित है;
  6. 'ग्लोबल स्टॉक-टेक'(global stock-take) (A-14),यह जलवायु परिवर्तन से लड़ने में प्रत्येक देश की प्रतिबद्धता और उसकी कार्रवाई की आवधिक समीक्षा करता है तथा उसमें सुधार की मांग करता है।

UNFCCCएक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जिसका उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है। यह समझौता जून, 1992 के पृथ्वी सम्मेलन के दौरान किया गया था। विभिन्न देशों द्वारा इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद 21 मार्च, 1994 को इसे लागू किया गया। वर्ष 1995 से लगातार UNFCCC की वार्षिक बैठकों का आयोजन किया जाता है। इसके तहत ही वर्ष 1997 में बहुचर्चित क्योटो समझौता (Kyoto Protocol) हुआ और विकसित देशों (एनेक्स-1 में शामिल देश) द्वारा ग्रीनहाउस गैसों को नियंत्रित करने के लिये लक्ष्य तय किया गया। क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों को अलग सूची एनेक्स-1 में रखा गया है। UNFCCC की वार्षिक बैठक को कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (COP) के नाम से जाना जाता है।

  • पेरिस में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन,2015 में भारत ने स्वैच्छिक रूप से बॉन चुनौती पर स्वीकृति दी थी।

बॉन चुनौती (Bonn Challenge) एक वैश्विक प्रयास है। इसके तहत दुनिया के 150 मिलियन हेक्टेयर गैर-वनीकृत एवं बंजर भूमि पर 2020 तक और 350 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर 2030 तक वनस्पतियाँ उगाई जाएंगी।

भारत ने 2020 तक 13 मिलियन हेक्टेयर गैर-वनीकृत एवं बंजर भूमि पर और वर्ष 2030 तक अतिरिक्त 8 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर वनस्पतियाँ उगाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है।

जलवायु परिवर्तन पर अन्य पहल सम्पादन

जलवायु एवं स्वच्छ वायु गठबंधन(Climate and Clean Air Coalition-CCAC) सम्पादन

सरकारों, अंतर-सरकारी संगठनों,व्यवसायों,वैज्ञानिक संस्थानों और नागरिक समाज के संगठनों की एक स्वैच्छिक साझेदारी है जो अल्पजीवी जलवायु प्रदूषकों को कम करने के लिये वायु गुणवत्ता में सुधार तथा कार्यों के माध्यम से जलवायु की रक्षा करने के लिये प्रतिबद्ध हैं। गठबंधन का प्रारंभिक ध्यान मीथेन, काला कार्बन और HFCs पर है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (United Nations Environment Programme- UNEP) के साथ बांग्लादेश, कनाडा, घाना, मैक्सिको, स्वीडन और संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकारों ने सामूहिक चुनौती के रूप में इन प्रदूषकों के उपचार के लिये यह पहला प्रयास शुरू किया। भारत इसका साझेदार देश नहीं है, लेकिन ऊर्जा और संसाधन संस्थान (The Energy and Resources Institute- TERI) वर्ष 2015 से इसका एक सहयोगी NGO है।

  • संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम(UNEP)के उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट के मुख्य बिंदु हैं:-

वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में वर्ष 2020-30 के दौरान प्रतिवर्ष 7.6% की कमी नहीं की गई तो, विश्व पेरिस समझौते के तहत निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकेगा। विश्व के शीर्ष चार उत्सर्जक देशों (C,US,EU,I) ने पिछले दशक में कुल उत्सर्जन में 55% से अधिक का योगदान दिया है जबकि इस उत्सर्जन में भूमि-उपयोग परिवर्तन जनित जैसे वनोन्मूलन उत्सर्जन शामिल नहीं है। यदि भूमि उपयोग परिवर्तन जनित उत्सर्जन को शामिल करने पर ब्राज़ील के सबसे बड़े उत्सर्जक देश बनने की संभावना है।

वे क्षेत्र जो सबसे बड़े उत्सर्जक हैं- ऊर्जा> उद्योग> वानिकी> परिवहन> कृषि> निर्माण।

भारत उन चुनिंदा देशों के समूह में शामिल है जो पेरिस समझौते के तहत अपने स्व-घोषित जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने के मार्ग पर हैं।

  • संश्लेषण गैस (Synthesis Gas) को संक्षिप्त रूप में सिनगैस कहा जाता है।

सिनगैस हाइड्रोजन, कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) और कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का मिश्रण है। इसका उपयोग ईंधन, फार्मास्यूटिकल्स, प्लास्टिक और उर्वरक उत्पादन जैसे कई अनुप्रयोगों में किया जाता है।

  • अटलांटिक मेरिडिनल ओवरटर्निंग करंट पृथ्वी की सबसे बड़ी जल संचलन प्रणालियों में से एक है।

इसके तहत महासागरों की धाराएंँ उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों से गर्म और लवणीय जल को उत्तर दिशा जैसे कि पश्चिमी यूरोप की ओर ले जाती हैं तथा दक्षिण की ओर ठंडा जल भेजती हैं। यह एक ऐसी धारा प्रणाली है जो एक वाहक बेल्ट (Conveyor Belt) के रूप में तापमान और लवणता के अंतर (पानी का घनत्व) से संचालित होती है। इस प्रकार के समुद्री जल संचलन से महासागरों का तापमान संतुलित रहता है और चरम जलवायु के बजाय सामान्य जलवायु की उपस्थिति बनी रहती है। इस प्रकार की जल संचलन प्रणाली से वायुमंडल में ताप और ऊर्जा मुक्त होती है।