सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा सहायिका/प्राचीन भारत

I.A.S(PRELIMS)प्रश्न संग्रह

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  1. काकतीय राजवंश(लगभग 12वीं से 14वीं शताब्दी ईस्वी,वर्तमान के आंध्र क्षेत्र)1289 ई. के आसपास, मार्को पोलो ने काकतीय साम्राज्य की यात्रा की। उसने यात्रा वृतांतों में काकतीयों के सबसे समृद्ध बंदरगाह मोटुपल्ली (प्रकाशम ज़िला) का उल्लेख किया।

पल्लवों के समय में एरिपत्ति एक प्रकार की भूमि थी, जिससे प्राप्त राजस्व ग्राम जलाशय के रख-रखाव के लिये अलग से रखा जाता था। तनियूर चोल साम्राज्य के प्रशासन से संबंधित शब्द है। तनियूर बहुत बड़े गाँव थे जिन्हें एकल इकाई के रूप में प्रशासित किया जाता था। 7वीं-8वीं शताब्दी में, घटिका मंदिर से जुड़े हुए शिक्षण केंद्र थे। ये संस्कृत माध्यम में ब्राह्मणवादी शिक्षा प्रदान करते थे।


अजंता में बौद्ध धर्म से संबंधित पहली गुफा 200-100 ईसा पूर्व की है। गुप्तकाल (5वीं-6वीं शताब्दी ईस्वी) के दौरान, कई अलंकृत गुफाओं का निर्माण किया गया था। बौद्ध धार्मिक कला की उत्कृष्ट कृति माने जाने वाले अजंता के चित्र और मूर्तियाँ काफी कलात्मक है। गुफा संख्या 17 में उत्कीर्णित बुद्ध का परिनिर्वाण सबसे भव्य और अभी तक स्पष्ट रूप से व्यक्त किये गए दृश्यों में से एक है। इसमें बुद्ध के ऊपर कई दैवीय संगीतज्ञ और नीचे उनके अनुयायियों को दुखी मुद्रा में दर्शाया गया है।

मध्य प्रदेश में स्थित उदयगिरि चट्टानों को काटकर बनाई गई गुप्तकालीन हिंदू और जैन धर्म से संबंधित 20 गुफाओं के लिये प्रसिद्ध है।राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा गुफा संख्या 5 में विष्णु के वाराह अवतार की मूर्ति का निर्माण करवाया गया। इसमें भगवान वाराह द्वारा पृथ्वी देवी को हिरण्याक्ष राक्षस से बचाए जाने का दृश्य अंकित है। इसमें गुप्त राजाओं द्वारा उनकी भूमि (पृथ्वी) को सभी बुराइयों से बचाने के संकल्प को एक चित्र के रूप में दर्शाया गया है।

महाबलीपुरम या मामल्लपुरम, पल्लव राजाओं महेंद्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.) और उनके पुत्र नरसिंहवर्मन प्रथम (630 −668 ई.) की दूसरी राजधानी थी। महाभारत के और पौराणिक दृश्यों के साथ उत्कीर्णित दो विशालकाय एकाश्म चट्टानों को 'अर्जुन की तपस्या' या 'गंगा का अवतरण' के रूप में जाना जाता है। इसे चालुक्य शासक पुलकेशिन-II पर पल्लव शासक नरसिंहवर्मन प्रथम की विजय के स्मारक के रूप में बनाया गया था।

सिंधु घाटी सभ्यता

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हड़प्पा काल का समाज नगरीय समाज था, न कि अश्वारोही। वैदिक काल में समाज अश्वारोही और पशुपालक दोनों था। बड़े स्मारक ढॉंचों का निर्माण नहीं किया गया था। यहाँ महलों या मंदिरों या राजाओं, सेनाओं या पुजारी वर्ग के भी कोई निर्णायक प्रमाण नहीं मिले हैं। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और लोथल में पाए गए विशाल भवन अन्नागार और भंडारागार माने जाते हैं। उत्खनन के विभिन्न चरणों के दौरान प्राप्त मिट्टी की मुहरों पर एक पुरुष देवता की उपस्थिति की जानकारी मिलती है। खुदाई में मिली एक स्त्री की मूर्ति भी सृष्टि के स्रोत के रूप में देवी पूजा की पुष्टि करती है। सिंधु सभ्यता के लोग मातृदेवी, लिंग-योनि, वृक्ष प्रतीक, पशु आदि की पूजा करते थे। सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथों का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।

शमन में वे महिलाएं और पुरुष शामिल होते हैं जो जादुई तथा इलाज़ करने की शक्ति और साथ ही दूसरी दुनिया के साथ संपर्क साधने के सामर्थ्य का दावा करते हैं।
मोहनजोदड़ो में सबसे बड़ी इमारत एक अन्नागार थी।जिसका उपयोग अनाज के सुरक्षित भंडारण के लिये किया जाता था। अनाज का संग्रहण संभवतः राजस्व के रूप में अथवा आपात स्थितियों में उपयोग हेतु किया जाता था।

बेलन घाटी विंध्य श्रेणी में उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर ज़िले में स्थित है। यहाँ पर प्रागैतिहासिक काल की सभी तीनों अवस्थाएँ अर्थात् पुरापाषाण (Palaeolithic) मध्यपाषाण (Mesolithic) और नवपाषाण (Neolithic) काल एक अनुक्रम में मिलती हैं। बेलन घाटी के अलावा नर्मदा घाटी में प्रागैतिहासिक काल की तीनों अवस्थाएँ पाई जाती है। बेलन घाटी में लोग शिकार, मछली पकड़ने और भोजन संग्रहण पर आश्रित थे। परवर्ती चरण में उन्होंने जानवरों को पालतू बनाया, जिसका अंतर्संबंध नवपाषाण संस्कृति से था। बेलन घाटी में पाए गए जानवरों के अवशेष बताते हैं कि बकरियाँ, भेड़ें और मवेशी पाले जाते थे। बेलन घाटी से मिले औज़ार नवपाषाण काल के प्रमाण हैं।

जैन तथा बौद्ध धर्म

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जैन धर्म के उपदेशों को संकलित करने के लिये पाटलिपुत्र में आयोजित परिषद् में जैन धर्म दिगम्बर(दक्षिणी जैन)और श्वेताम्बर(मगध के जैन)में विभाजित हुए।महावीर की मृत्यु के 200 वर्षों के बाद मगध में 12 वर्षों तक अकाल पड़ा, जिससे भद्रबाहु के नेतृत्व में बहुत से जैन लोग दक्षिणापथ चले गए थे,तथा शेष स्थलबाहु के नेतृत्व में मगध में रह गए। अकाल समाप्त होने पर भद्रबाहु वापस लौटे तो स्थानीय जैनियों से उनका मतभेद हो गया।

जैन धर्म में धर्मोपदेश के लिये आम लोगों के बोलचाल की प्राकृत भाषा को अपनाया गया तथा धार्मिक ग्रन्थों के लिये अर्द्ध-मागधी भाषा को, ये ग्रन्थ ईसा की छठी सदी में गुजरात के वलभी नामक स्थान में जो महान विद्या का केन्द्र था, अंतिम रूप से संकलित किये गए। प्राकृत भाषा से कई क्षेत्रीय भाषाएँ विकसित हुईं। इनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय शौरसेनी है, जिनसे मराठी भाषा की उत्पत्ति हुई है। जैनियों ने अपभ्रंश भाषा में पहली बार कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे व इसका पहला व्याकरण तैयार किया। बौद्धों की तरह जैन लोग आरम्भ में मूर्तिपूजक नहीं थे, बाद में वे महावीर और तीर्थंकरों की पूजा करने लगे। इसके लिये सुन्दर और विशाल प्रस्तर-प्रतिमाएँ विशेषकर कर्नाटक,गुजरात,राजस्थान और मध्य प्रदेश में निर्मित हुईं।

बौद्ध धर्म में ईश्वर के अस्तित्व को नहीं माना गया है। ईश्वर निर्मित ब्रह्मांड की अवधारणा का बुद्ध ने खंडन किया था। बुद्ध ने एक महान कानून अथवा धम्म (धर्म) द्वारा विश्व व्यवस्था के संचालन का समर्थन किया था। इस धर्म के अनुसार ही करुणामय जीवनयापन करना ही सच्ची बुद्धिमता है और इसके अनुपालन द्वारा ही दुख से मुक्ति मिल सकती है। जैन धर्म में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है परंतु उनका स्थान जिन (महावीर) से नीचे माना गया है। जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था की निंदा नहीं की गई बल्कि वर्ण व्यवस्था और वैदिक धर्म की बुराइयों को कम करने का प्रयास किया गया। लेकिन बौद्ध धर्म ने वर्ण व्यवस्था की निंदा की। सभी जाति के लोगों को बौद्ध धर्म में शामिल किया गया था। महिलाओं को भी पुरुषों की तरह संघ में शामिल होने की अनुमति दी गई थी। महावीर के अनुसार, पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य या पाप के अनुसार ही किसी व्यक्ति का उच्च या निम्न वर्ण में जन्म होता है। इस प्रकार, जैन धर्म आत्मा के पुनरागमन और कर्मफल के सिद्धांत में विश्वास करता है। लेकिन, बौद्ध धर्म आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता है। बुद्ध ने एक स्थायी और शाश्वत आत्मा की अवधारणा को अस्वीकार कर दिया और अनात्मवाद का सिद्धांत दिया। अनात्मवाद एक अनित्य, परिवर्तनशील आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है।

बौद्ध धर्म

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सुत्त पिटक: इसमें बुद्ध की शिक्षाएँ शामिल हैं। इसे पाँच निकाय या संग्रह में विभाजित किया गया है: दीघ निकाय मज्झिम निकाय संयुक्त निकाय अंगुत्तर निकाय खुद्दक निकाय, अभिधम्म पिटक: यह बौद्ध धर्म के दर्शन और सिद्धांत से संबंधित है। विनय पिटक: यह बौद्ध संघ या मठों में रहने वाले लोगों के लिये नियमों और विनियमों का संग्रह था।

महावंश (अर्थात् महान इतिहास) और दीपवंश (अर्थात् द्वीप का इतिहास) पालि ग्रंथ है, जो सीलोन (आधुनिक श्रीलंका) में बौद्ध धर्म के क्षेत्रीय इतिहास का वर्णन करते है।

बौद्ध धर्म के विभिन्न संप्रदाय:

  1. हीनयान: इसका शाब्दिक अर्थ है 'निम्न मार्ग'। यह बुद्ध या ज्येष्ठों के सिद्धांत की मूल शिक्षा में विश्वास करता है।

यह मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करता है और आत्म-अनुशासन तथा ध्यान के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने हेतु व्यक्तिगत प्रयासों पर ज़ोर देता है। महायान एक संस्कृत शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘महान अथवा श्रेष्ठ मार्ग’। इसमें मूर्ति पूजा और बुद्ध को ईश्वर माना गया है। यह बोधिसत्त्वों के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति पर ध्यान केंद्रित करता है। बोधिसत्त्वों को अत्यंत करुणामय व्यक्ति के रूप में माना जाता था, जिन्होंने अपने प्रयासों से निर्वाण की योग्यता अर्जित की किंतु इसका उपयोग वे दूसरों की सहायता करने के लिये करते थे।

  1. वज्रयान: इसका अर्थ है "वज्र का वाहन", जिसे तांत्रिक बौद्ध धर्म के नाम से भी जाना जाता है।

यह बौद्ध धर्म की महायान शाखा की एक उप-शाखा थी। तांत्रिक बौद्ध धर्म के उद्गम को प्राचीन हिंदू और वैदिक प्रथाओं सहित शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त करने हेतु अभिकल्पित गूढ़ अनुष्ठानिक ग्रंथों में देखा जा सकता है। तांत्रिक बौद्ध धर्म अर्थात् वज्रयान को प्राय: आत्मज्ञान प्राप्ति के सरल मार्ग के रूप में भी देखा जाता है। ओडिशा में अवस्थित हीरक त्रिभुज में तीन स्थान शामिल हैं- रत्नागिरि, उदयगिरि और ललितगिरि। संस्कृत में 'हीरे' को वज्रमणि के रूप में जाना जाता है और इसलिये वज्रयान को हीरक मार्ग अथवा संप्रदाय भी कहा जाता है। ऐतिहासिक रूप से तिब्बत के प्राचीन ग्रंथों, जहाँ वज्रयान बौद्ध प्रचलित है, में इन स्थानों का उल्लेख वज्रयान की उत्पत्ति स्थल के रूप में उल्लेख किया गया है। इसलिये इसे 'ओडिशा का हीरक त्रिभुज' कहा जाता है। हीरक त्रिभुज एक समय में वज्रयान बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण शिक्षण केंद्र था, लेकिन समय बीतने के साथ यह 13वीं शताब्दी के बाद 20वीं शताब्दी में खोजे जाने तक यह महत्त्वहीन रहा।

  1. रत्नागिरि: यह भारत का एकमात्र ऐसा मठ है जहाँ वक्रनुमा छत है।

कई इच्छापूर्ति स्तूप (इच्छा पूरी होने पर निर्मित स्तूप), स्मारक स्तूप (भिक्षुओं की स्मृति में बनाए गए स्तूप), विशाल महास्तूप, चैत्यगृह, बुद्ध की प्रतिमाएँ मिली हैं। उदयगिरि: उदयगिरि को माधवपुरा महाविहार के रूप में जाना जाता है जो 7वीं-12वीं शताब्दी के काल में बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केंद्र था। उदयगिरि घोड़े की नाल के आकार की पहाड़ी के लिये प्रसिद्ध है। इस स्थल के उत्खनन में आंशिक रूप से 8वीं शताब्दी के जटिल संरचना युक्त दोमंजिला मठ और बुद्ध, तारा, मंजुश्री, अवलोकितेश्वर, जटामुकुट लोकेश्वर एवं टेराकोटा की मुहरों जैसी महत्त्वपूर्ण प्राचीन वस्तुओं की जानकारी मिली है। ललितगिरि: इसे हीरक त्रिभुज में सर्वाधिक पवित्र स्थल माना जाता है क्योंकि यहाँ से बुद्ध के अवशेषों के साथ एक विशाल स्तूप मिला है। यहाँ चार मठों की खुदाई की गई है। इसके अतिरिक्त एक अद्वितीय U-आकार का चैत्य गृह भी मिला है।

प्राचीन भारत में प्रसिद्ध बौद्ध विश्वविद्यालय:

  1. नागार्जुनकोंडा: यह आंध्र प्रदेश में अमरावती से 160 किलोमीटर दूर स्थित है और यह श्रीलंका, चीन आदि देशों से उच्च शिक्षा के लिये आने वाले विद्वानों हेतु एक प्रमुख बौद्ध केंद्र था। कई विहार, स्तूप आदि इसमें शामिल थे। इसका नाम महायान बौद्ध धर्म के दक्षिण भारतीय विद्वान नागार्जुन के नाम पर रखा गया था।
  2. जगदल: यह बंगाल में स्थित बौद्ध धर्म के वज्रयान संप्रदाय से संबंधित शिक्षण का केंद्र था। नालंदा और विक्रमशिला के पतन के बाद कई विद्वानों ने यहाँ शरण ली। इसे संभवतः पाल वंश के राजा रामपाल द्वारा स्थापित किया गया था। अतः युग्म 2 सही सुमेलित है।
  3. मान्यखेत: इसे अब मालखेड़ (कर्नाटक) कहा जाता है। यह राष्ट्रकूट शासन के अंतर्गत प्रमुखता से उभरा था। यहाँ जैन धर्म, बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के विद्वानों ने अध्ययन किया। इसमें द्वैत विचारधारा का एक मठ है।
  4. वल्लभी: यह गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित था। यह हीनयान बौद्ध धर्म का एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण केंद्र था। प्रशासन और राज्य-व्यवस्था, कानून, दर्शन आदि जैसे विभिन्न विषयों को यहाँ पढ़ाया जाता था। चीनी विद्वान ह्वेन त्सांग भी यहाँ आया था। इसे गुजरात के मैत्रक राजवंश के शासकों द्वारा अनुदान सहायता मिलती थी।
  5. ओदंतपुरी: यह बिहार में स्थित है और पाल वंश के गोपाल प्रथम के संरक्षण में बनाया गया था। यह बौद्ध महाविहार था। इसे बख्तियार खिलजी ने नष्ट कर दिया था।
  6. विक्रमशिला: यह बिहार के वर्तमान भागलपुर ज़िले में स्थित है। यह पाल वंश के राजा धर्मपाल द्वारा मुख्य रूप से एक बौद्ध शिक्षा केंद्र के रूप में स्थापित किया गया था। बौद्ध शिक्षाओं के प्रसार के लिये भारत के बाहर के राजाओं द्वारा विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था। यहाँ वज्रयान संप्रदाय विकसित हुआ और यहाँ तांत्रिक विद्या सिखाई जाती थी। अन्य विषयों जैसे तर्क, वेद, खगोल, शहरी विकास, कानून, व्याकरण, दर्शन आदि को भी पढ़ाया जाता था।

बौद्ध दर्शन के अनुसार विश्व अनित्य है और लगातार बदल रहा है। यह आत्माविहीन है, क्योंकि यहाँ कुछ भी स्थायी या शाश्वत नहीं है। इस क्षणभंगुर दुनिया में दुःख मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित तत्त्व है। घोर तपस्या और विषयासक्ति के बीच मध्यम मार्ग अपनाकर मनुष्य दुनिया के दुखों से मुक्ति पा सकता है। बौद्ध धर्म के आरम्भिक पालि साहित्य को तीन कोटियों में बाँटा जा सकता है। (a) बुद्ध (b) संघ और (c) धम्म। बौद्ध साहित्य की तीसरी कोटि ‘धम्म’ में दार्शनिक विवेचन दिये गए हैं। प्रथम कोटि में ‘बुद्ध’ के वचन और उपदेश हैं। दूसरी कोटि ‘संघ’ में सदस्यों द्वारा पालनीय नियम बताए गए हैं। बिहार में नालंदा और विक्रमशीला तथा गुजरात में वलभी स्थित बौद्ध विहार महान विद्या केंद्र थे।सम्राट अशोक के शासनकाल में तक्षशिला महान बौद्ध विद्या केंद्र था।

बौद्ध धर्म की प्रारंभिक परंपराओं में भगवान का होना न होना अप्रासंगिक था। थेरीगाथा,सुत्त पिटक का हिस्सा है। इसमें भिक्षुणियों द्वारा रचित छंदों का संकलन है।इससे महिलाओं के सामाजिक तथा आध्यात्मिक अनुभवों के विषय में अंतर्दृष्टि मिलती है।

बौद्ध धर्म के लोकायत संप्रदाय के प्रमुख अजित केसकंबलिन दार्शनिक थे। इस संप्रदाय के समर्थकों को भौतिकवादी कहा जाता है। मक्खलि गोशाल आजीवक परंपरा के थे, उन्हें अक्सर नियतिवादी कहा जाता था। ऐसे लोग जो विश्वास करते थे कि सब कुछ पहले से निर्धारित है। कुटागारशालाओं’ का संबंध वाद-विवाद से संबंधित बौद्ध स्थल से है। बौद्ध ग्रंथों में 64 संप्रदायों या चिंतन परंपराओं का उल्लेख मिलता है।

बौद्ध धर्म तथा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी दोनों समाज में वर्ग/वर्णमूलक व्यवस्था के समर्थक थे। परंतु बौद्ध धर्म गुण और कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था मानते थे, जबकि ब्राह्मण जन्म के अनुसार मानते थे।

बौद्ध भिक्षु संसार से विरक्त रहते थे और ब्राह्मणों की निंदा करते थे, परंतु दोनों के विचार परिवार का पालन करने, निजी सम्पत्ति की रक्षा करने और राजा का सम्मान करने पर समान थे। दोनों धर्मों में शांति और अहिंसा का उपदेश होता था, जिससे विभिन्न राजाओं के बीच होने वाले युद्धों का अंत हो सकता था। फलस्वरूप वैश्य वर्ग के व्यापार-वाणिज्य में उन्नति संभव थी। ब्राह्मणों की कानून संबंधी पुस्तक धर्मसूत्र सूद पर धन लगाने के कारोबार को निंदनीय मानती थी और सूद पर जीने वालों को अधम कहा जाता था।अतः जो वैश्य व्यापार-वाणिज्य में वृद्धि होने के कारण महाजनी करते थे, वे समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिये इन धर्मों (जैन एवं बौद्ध) की ओर आकर्षित हुए। व्यापार में सिक्कों के प्रचलन से व्यापार-वाणिज्य बढ़ा और उससे समाज में वैश्यों का महत्त्व बढ़ा। स्वभावतः वे किसी ऐसे धर्म की खोज में थे जहाँ उनकी सामाजिक स्थिति सुधरे। इसलिये उन्होंने उदारतापूर्वक दान दिये।


छठी शताब्दी ई. पू. में लगभग पूरे उपमहाद्वीप में नए नगरों के साथ राज्यों, साम्राज्यों तथा रजवाड़ों का विकास हुआ। इस राजनीतिक परिवर्तन की प्रक्रिया की शुरुआत नदियों के किनारे पर स्थित क्षेत्रों से हुई।लोहे के व्यापक उपयोग से कृषि उपज में वृद्धि हुई, जिससे कृषि अधिशेष अधिक हुआ तथा कृषि उपज को संगठित करने के नए तरीके ईजाद किये गए। इस आर्थिक प्रक्रिया ने साम्राज्यों की नींव पड़ने में मदद की। इस प्रक्रिया का विभिन्न संस्कृतियों से कोई संबंध नहीं था।

ऋग्वैदिक काल

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वैदिक काल में राजा की आय का मुख्य साधन युद्ध में की गई लूट था। वे शत्रुओं से सम्पत्ति छीनते और विरोधी जनजातियों से नज़राना लेते थे। राजा को दिया जाने वाला यह नजराना बलि (चढ़वा) कहलाता था।

ऋग्वैदिक काल की राजनीतिक संरचना का आरोही क्रम निम्नलिखित प्रकार का था:
परिवार (कुल)→ गाँव (ग्राम)का मुखिया ग्रामणी→कबीले (विश्)-प्रधान विश्पति→प्रजा (जन)→देश (राष्ट्र)
इसमें कुल (परिवार) सबसे छोटी इकाई थी। जिसमें एक ही छत के नीचे (गृह) रहने वाले सभी लोग शामिल थे।
जन के संदर्भ में यदुओं तथा भरतजनों का उल्लेख मिलता है।
राजा को जन का रक्षक भी कहा जाता है। कई जन से मिलकर राष्ट्र अर्थात् देश बनता था।
राजा का पद सामान्यतः आनुवंशिक होता था लेकिन कहीं-कहीं राजा के चुनाव का भी उल्लेख मिलता है। ऐसे गण प्रमुखों का भी उल्लेख मिलता है जो जन सभा द्वारा लोकतांत्रिक रूप से चुने जाते थे।

राष्ट्र आमतौर पर छोटे-छोटे राज्य होते थे, जिनका शासक राजन् (राजा) कहलाता था। लेकिन सम्राट शब्द के प्रयोग से यह पता चलता है कि कुछ राजा अधिक बड़े होते थे। उनके अधीन कई छोटे-छोटे राज्य होते थे और उनका प्रभुत्व अन्य राजाओं की तुलना में अधिक होता था। राजा पुरोहित तथा अन्य पदाधिकारियों की सहायता से न्यायपूर्ण प्रशासन चलाता था। राजा को बलि (राजस्व या भेंट) दी जाती थी। राजा को बलि अपनी प्रजा से तथा विजित जनों से भी प्राप्त होती थी। राजा इसके बदले में प्रजाजनों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेता था। राजा के प्रमुख पदाधिकारियों में पुरोहित जो पौरोहित्य कर्म के अलावा मंत्री का कार्य भी करते थे , सेनानी (सेना का प्रधान) और ग्रामणी (गाँव का मुखिया) आदि शामिल थे। साथ ही दूतों और गुप्तचरों का भी उल्लेख मिलता है।

ऋग्वैदिक समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र नामक चार वर्णों में विभक्त था। समाज का यह वर्गीकरण व्यक्तियों के व्यवसाय यानी काम पर आधारित था। शिक्षकों और पुरोहितों को ब्राह्मण; शासकों और प्रशासकों को क्षत्रिय; कृषकों, व्यापारियों और साहूकारों को वैश्य; एवं शिल्पियों, कारीगर तथा श्रमिकों को शुद्र कहा जाता था। लोगों द्वारा ये व्यवसाय अपनी योग्यता और पसंद के अनुसार अपनाए जाते थे, न कि जन्म या आनुवंशिक आधार पर। एक ही परिवार के लोग अपनी इच्छा और योग्यता के अनुसार अलग-अलग व्यवसाय अपनाते थे और अलग-अलग वर्णों के सदस्य बन जाते थे। समाज में वर्णव्यवस्था का कठोर स्वरूप प्रचलन में नहीं था।

निम्नलिखित युग्मों का सही सुमेलन इस प्रकार हैः (शब्द) (संबंधित अर्थ)

  1. गोमत्  : धनवान
  2. गोप  : राजा
  3. गोवाला : भैंस

वैदिक काल में गाय, बैल और धन समानार्थक माने जाते थे। गाय और बैल युद्ध का कारण होते थे। गायों की रक्षा करना राजा का मुख्य धर्म होता था। आर्यों में गाय का इतना अधिक महत्त्व था कि जब उन्होंने भारत में पहली बार भैंस को देखा तो वे उसे गोवाल अर्थात् गाय जैसी दिखने वाली कहने लगे।

वैदिक साहित्य में मज़दूर (वेज अर्नर) के लिये कोई शब्द नहीं आया है, बुद्ध के काल में खेती का कार्य दासों और मज़दूरों से कराना आम बात हो गई थी।

उत्तर वैदिक काल

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ऋग्वेद का रचना काल 1500-1000 ई. पू. के आस-पास के पश्चिमोत्तर भारत (पंजाब, हरियाणा) में हुई थी| उत्तर-वैदिककालीन ग्रन्थों की रचना 1000-500 ई.पू. में उत्तर गंगा के मैदान में हुई थी। इस काल में राजा अधिकाधिक शक्तिशाली हो गया था। राज्य में राजा का पद आनुवंशिक हो गया तथा ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी बनाया जाता था, परंतु राजा कोई स्थायी सेना नहीं रखता था। युद्ध के समय कबीले के जवान भर्ती कर लिये जाते थे। इस काल में सभा, समितियों के महत्त्व में कमी आ गई थी। विदथ का नामोनिशान नहीं रहा। सभा, समिति अपनी जगह बनी रही, परंतु उनका रंग-ढंग बदल गया। उनमें राजाओं और अभिजात्यों का अधिकार हो गया था। ‘राष्ट्र’ शब्द जिसका अर्थ प्रदेश या क्षेत्र होता है, पहले पहल इसी समय मिलने लगा था।

उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आई। उन्हें पुरुष के अधीनस्थ माना जाने लगा तथा उन्हें शिक्षा से वंचित किया जाने लगा। इस काल में स्त्रियों को सम्पत्ति के अधिकार तथा उपनयन संस्कार से प्रतिबंधित कर दिया गया। इस काल में सभा, समिति तथा विदथ अपनी जगह बनी रही, परंतु उनका महत्त्व पहले जैसा नहीं था। अब सभा में स्त्रियों का प्रवेश निषेध हो गया। उत्तर-वैदिक काल में इन्द्र व अग्नि देवता (वैदिककालीन) अब उतने प्रमुख नहीं रहे थे। इनकी जगह सृजन के देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला था। विष्णु देवता इस काल में पालक और रक्षक देवता के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। उल्लेखनीय है कि पशुओं के देवता रूद्र ने उत्तर-वैदिक काल में महत्ता पाई थी। ‘पूषन्’ जो पशुओं की रक्षा करने वाला माना जाता था, शूद्रों का देवता हो गया था।


इस काल में प्रयुक्त शब्द ‘निष्क और शतमान’ दर्शाते हैं? मुद्रा की इकाइयाँ वैदिक काल में दो प्रकार की धातु की मुद्राएँ प्रचलित थीं। उनमें से एक को हिरण्यपिंडा के रूप में जाना जाता था और दूसरे को निष्क कहा जाता था जो वास्तव में एक सोने का सिक्का था। यह एक विकसित सिक्का प्रणाली को दर्शाता है। निष्क वैदिक काल का ज्ञात सबसे पुराना सिक्का है।

लौह धातु को श्याम या कृष्ण अयस कहा गया है। इस काल के लोग लोहे के बने हथियारों और औज़ारों का प्रयोग करते थे।
इसकाल में प्रचलित उपनयन संस्कार के बाद व्यक्ति वेदाध्ययन का अधिकारी हो जाता था और उसकी शिक्षा आरंभ होती थी। उपनयन संस्कार को व्यक्ति का दूसरा जन्म समझा जाता था, इसलिये इस संस्कार के बाद बच्चे को द्विज भी कहा जाता था।

इस संस्कार के बाद बालक का उत्तरदायित्व बढ़ जाता था। इसी कारण इस संस्कार का बहुत महत्त्व था। बालक को इस बात की अनुभूति कराई जाती थी कि वह अपने परिवार और समुदाय के प्रति अपने कर्त्तव्य को भली- भाँति समझने के लिये ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर अभीष्ट योग्यता प्राप्त करें। इस संस्कार के पश्चात् बालक भिक्षा माँगता था, ताकि उसमें अहमन्यता (अहंकार का भाव) न रहे। इस काल के अंतिम दौर में, पुरोहितों के प्रभुत्व और कर्मकांडों के विरुद्ध प्रबल प्रतिक्रिया शुरू हुई। यह प्रतिक्रिया पांचाल और विदेह के राज्य में विशेषकर हुई। अतः कथन (1) सत्य है। उपनिषद ग्रन्थों की रचना 600 ई. पू. के आसपास हुई थी। इनका विषय दर्शन था, इनमें कर्मकांड की निंदा की गई है और यथार्थ विश्वास एवं ज्ञान को महत्त्व दिया गया। उपनिषदों में कहा गया है कि अपनी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और ब्रह्म के साथ आत्मा का संबंध ठीक से जानना चाहिये।

जनपद और प्रथम मगध साम्राज्य

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मगध ही पहला राज्य था जिसने अपने पड़ोसियों के विरुद्ध युद्ध में हाथियों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। देश के पूर्वांचल से मगध के शासकों के पास हाथी पहुँचते थे।
ईसा-पूर्व छठी सदी के निम्नलिखित महाजनपदों को पूर्व से पश्चिम की ओर क्रम में व्यवस्थित कीजियेः
अंग > मगध > काशी > कोसल > मत्स्य
मगध साम्राज्य पर शासन करने वाले राजवंशों का सही क्रम इस प्रकार हैः
हर्यक वंश > शिशुनाग वंश > नंद वंश > मौर्य वंश
बिम्बिसार की पहली पत्नी कोसलराज की पुत्री और प्रसेनजित की बहन थी।
बिम्बिसार ने वैवाहिक संबंधों से भी अपनी स्थिति को मजबूत किया। उसने तीन विवाह किये, प्रथम विवाह से काशी ग्राम दहेज स्वरूप मिला और कोसल के साथ शत्रुता समाप्त हो गई।उसकी दूसरी पत्नी वैशाली की लिच्छवि-राजकुमारी चेल्लणा थी, जिसने अजातशत्रु को जन्म दिया और तीसरी रानी पंजाब के मद्र कुल के प्रधान की पुत्री थी।
बिम्बिसार ने अंग देश पर अधिकार कर लिया और शासन अपने पुत्र अजातशत्रु को सौंप दिया।
उसने अपने राजवैद्य जीवक को अवन्ति राजा चण्डप्रद्योत महासेन के पीलिया रोग हो जाने पर इलाज़ करने के लिये उज्जैन भेजा था।
अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या करने सिंहासन पर अधिकार किया था।

अजातशत्रु ने राज्य विस्तार की आक्रमक नीति से काम लिया। उसने अपने समय में काशी और वैशाली को मगध में मिलाया और अपने साम्राज्य का विस्तार किया।

  • उदायिन अजातशत्रु के बाद मगध का राजा बना। उसके शासन की महत्त्वपूर्ण घटना है कि उसने पटना में गंगा और सोन के संगम पर एक किला बनवाया था

मगध पर शिशुनाग वंश के बाद नंद वंश का शासन हुआ। नंद वंश का महापद्म नंद ने कलिंग को जीतकर मगध शक्ति को बढ़ाया और विजय स्मारक के रूप में ‘जिन’ की मूर्ति भी उठा लाए थे। महापद्म नंद ने ‘एकराट’ की उपाधि धारण की थी। मगध पर शिशुनाग वंश के शासन के समय अवन्ति राज्य की शक्ति को समाप्त कर उसे मगध राज्य में मिला लिया था, इसके साथ ही अवन्ति और मगध के बीच की सौ साल पुरानी शत्रुता का अंत हो गया।

  • उदायिन अजातशत्रु के बाद मगध का राजा बना। उसके शासन की महत्त्वपूर्ण घटना है कि उसने पटना में गंगा और सोन के संगम पर एक किला बनवाया था

मगध पर शिशुनाग वंश के बाद नंद वंश का शासन हुआ। नंद वंश का महापद्म नंद ने कलिंग को जीतकर मगध शक्ति को बढ़ाया और विजय स्मारक के रूप में ‘जिन’ की मूर्ति भी उठा लाए थे। महापद्म नंद ने ‘एकराट’ की उपाधि धारण की थी। मगध पर शिशुनाग वंश के शासन के समय अवन्ति राज्य की शक्ति को समाप्त कर उसे मगध राज्य में मिला लिया था, इसके साथ ही अवन्ति और मगध के बीच की सौ साल पुरानी शत्रुता का अंत हो गया।

मौर्य वंश(323-184ई.पू.)

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मौर्य शासन का महत्व ‘समाहर्ता’ कर-निर्धारण का सर्वोच्च अधिकारी तथा ‘सन्निधाता’ राजकीय कोषागार और भंडागार का संरक्षक होता था। उल्लेखनीय है कि राज्य में समाहर्ता के कर-निर्धारण के चलते लाभ-हानि होती थी, इसलिये उसे अधिक महत्त्व दिया जाता था। कौटिल्य ने राजा को ‘धर्म-प्रवर्तक’ अर्थात् सामाजिक व्यवस्था का संचालक कहा है। अशोक ने धर्म का प्रवर्तन किया और उसके मूलतत्त्वों को सारे देश में समझाने और स्थापित करने के लिये अधिकारियों की नियुक्ति की। मौर्य शासन काल में शीर्षस्थ अधिकारी ‘तीर्थ’ कहलाते थे। ‘पण’ मुद्रा का प्रकार जो तीन/चार तोले के बराबर चांदी का सिक्का होता था। पत्थर के स्तम्भ वाराणसी के पास चुनार में तैयार किये जाते थे और यहीं से उत्तरी और दक्षिणी भारत में पहुँचाए जाते थे। इस काल में पत्थर की इमारत बनाने का काम भारी पैमाने पर शुरू हुआ। मौर्य शिल्पियों ने बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिये चट्टानों को काट कर गुफाएँ बनाने की परंपरा भी शुरू की। इसका सबसे पुराना उदाहरण बराबर की गुफाएँ हैं। इस काल में पाण्डु रंग वाले बलुआ पत्थर के एक ही टुकड़े से बना स्तम्भ उन्नत तकनीकी ज्ञान का उदाहरण है। मौर्य काल में अधिकारी ज़मीन को मापता और उन नहरों का निरीक्षण करता था जिनसे होकर पानी छोटी नहरों में पहुँचता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कृषि कार्यों में दासों के लगाए जाने की व्यवस्था का वर्णन मिलता है, जो महत्त्वपूर्ण सामाजिक विकास का परिचायक था। मौर्य काल में ही दासों को कृषि कार्यों में बड़े पैमाने पर लगाया गया। राज्य कृषकों की भलाई के लिये सिंचाई और जल वितरण की व्यवस्था करता था। इस काल में कर-निर्धारण की सुगठित प्रणाली का विकास किया गया।

केंद्रीय नियंत्रण पाटलिपुत्र की अनुकूल अवस्थिति के कारण संभव हुआ। यहाँ से जलमार्ग के द्वारा कर्मचारी चारों ओर आ-जा सकते थे। साम्राज्य पूरे में सड़कों का जाल बिछा हुआ था, इस सुगठित सड़क मार्ग प्रणाली में पाटलिपुत्र से एक राजमार्ग वैशाली और चम्पारण होते हुए नेपाल तक जाता था। उल्लेखनीय है कि मेगास्थनीज ने एक सड़क की चर्चा की है जो पश्चिमोत्तर भारत को पटना से जोड़ती थी। गंगा के मैदान की इस नई भौतिक संस्कृति के आधार थे- लोहे का प्रचुर प्रयोग, आहत मुद्राओं की बहुतायत, लेखन कला का प्रयोग, उत्तरी काला पॉलिशदार मृदभांड नाम से प्रसिद्ध मिट्टी के बरतनों की भरमार, पकी ईंटों और छल्लेदार कुओं का प्रचलन और सबसे ऊपर पूर्वोत्तर भारत में नगरों का उदय।

मौर्य शासन में मयूर, पर्वत और अर्ध-चंद्र की छापवाले आहत रजत-मुद्राएँ मान्य थी। ये मुद्राएँ कर की वसूली और अधिकारियों के वेतन भुगतान में सुविधाप्रद हुई होगी और अपनी शुद्ध समरूपता के कारण व्यापक क्षेत्र में बाजार की लेन-देन में सुविधा के साथ चलती थी। प्रांतों में हो रहे अत्याचारों को दूर करने के लिये अशोक ने तोसली, उज्जैन और तक्षशिला के अधिकारियों के स्थानांतरण की परिपाटी चलाई। मौर्य काल में ही पूर्वोत्तर भारत में सर्वप्रथम पकाई हुई ईंट का प्रयोग हुआ। मकान ईंटों के भी बनते थे और लकड़ी के भी। प्रायद्वीपीय भारत में राज्य स्थापित करने की प्रेरणा न केवल चेदियों और सातवाहनों को बल्कि चेरों (केरलपुत्रों), चोलों और पाण्ड्यों को भी मौर्यों से ही मिली है।

चीन की दीवार का निर्माण राजा शीह हुआँग ती ने सीथियन शकों के हमले से अपने साम्राज्य की सुरक्षा के और लिये करवाया। यूनानियों ने उत्तर अफगानिस्तान में बैक्ट्रिया नामक राज्य स्थापित किया था।

अशोक ने मगध के राजसिंहासन पर बैठने के पश्चात देवानांपिय पियदसि की उपाधि धारण की। यह प्रथम लघु शिलालेख को छोड़कर अन्य सब अभिलेखों में मिलता है,जो उसकी हिंदू धर्म में आस्था का प्रतीक है।

‘देवानांपिय पियदसि’ उपाधि तमिल में अनूदित संगम में उल्लिखित राजाओं ने धारण की। ‘अशोक’ के नाम का उल्लेख केवल प्रथम लघु शिलालेख में किया गया है।मास्की, गुर्जरा एवं उदेगोलम के लेखों में भी अशोक का व्यक्तिगत नाम मिलता है। किसान अपनी उपज का चौथे हिस्से से लेकर छठे हिस्से तक कर के रूप में देते थे। सिंचाई कर लिया जाता था। मौर्यों का शासन भारत में केवल तमिलनाडु तथा पूर्वोत्तर भारत के भाग को छोड़कर समस्त भारतीय उपमहाद्वीप में फैला हुआ था। कलिंग युद्ध का वर्णन तेरहवें मुख्य शिलालेख में किया गया है।राजसिंहासन पर बैठने के पश्चात् सम्राट अशोक ने केवल एक युद्ध किया, जो कलिंग युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। अशोक की गृह और विदेश नीति बौद्ध धर्म के आदर्श से प्रेरित है। कलिंग युद्ध के पश्चात् उसने दूसरे राज्यों पर भौतिक विजय पाने की नीति छोड़ कर सांस्कृतिक विजय पाने की नीति अपनाई, दूसरे शब्दों में भेरी घोष के स्थान पर धम्म-घोष होने लगा। अशोक के तेरहवें शिलालेख में बताया गया है कि कलिंग युद्ध राज्याभिषेक के आठ वर्ष के बाद हुआ था। अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद नितांत शांति की नीति नहीं अपनाई, प्रत्युत वह अपने साम्राज्य को सुदृढ़ करने की व्यावहारिक नीति पर चला। उसने विजय के बाद कलिंग को अपने कब्जे में रखा और न ही अपनी सेना का विघटन किया। अशोक ने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया और बौद्ध-धर्म स्थानों की यात्राएँ कीं। उसकी इस यात्रा के लिये धम्मयात्रा शब्द का उल्लेख मिलता है। अशोक ने बौद्धों का तीसरे सम्मेलन (संगीति) का आयोजन करवाया था| तीसरा बौध सम्मेलन का आयोजन पाटलिपुत्र में मोग्गलिपुत्ततिस्स की अध्यक्षता में हुआ था | अशोक ने ‘धम्ममहामात्र’ की नियुक्ति समाज के विभिन्न वर्गों के बीच धर्म का प्रचार करने के लिये की थी। ‘राजूक’ अधिकारियों को पुरस्कार देने और दंड देने का अधिकार दिया गया था। अशोक कर्मकांडों का विरोधी था, विशेषकर स्त्रियों में प्रचलित अनुष्ठानों का विरोधी था। उसने कई तरह के पशु-पक्षियों की हिंसा पर रोक लगा दी थी। उसने ऐसे तड़क-भड़क वाले सामाजिक समारोहों पर रोक लगा दी जिनमें लोग रंगरेलियाँ मनाते थे, जो सामाजिक कुरीतियों के प्रतीक थे। अशोक ने देश में राजनीतिक एकता स्थापित करने का प्रयास किया । उसने एक धर्म, एक भाषा और प्रायः एक लिपि के सूत्र में सारे देश को बाँध दिया। उसने सहनशील धार्मिक नीति चलाई। उसने प्रजा पर बौद्ध धर्म लादने की चेष्टा नहीं की, प्रत्युत उसने हर संप्रदाय के लिये दान दिये। उसके पास पर्याप्त साधन-संपदा होने के बाद भी कलिंग विजय के बाद और कोई युद्ध नहीं किया। इस अर्थ में वह अपने समय और अपनी पीढ़ी से बहुत आगे था।

भेरीघोष: यह युद्ध और हिंसा द्वारा राज्य विजय की नीति को संदर्भित करता है। कलिंग युद्ध के बाद बड़े पैमाने पर नरसंहार और रक्तपात से अशोक व्यथित हो गया था।

युद्ध से ब्राह्मण, पुरोहितों और बौद्ध भिक्षुओं को बहुत हिंसा और अलगाव का सामना करना पड़ा और इससे अशोक को बहुत दुःख तथा पश्चाताप हुआ। इसलिये अशोक ने राज्य विजय की नीति छोड़कर सांस्कृतिक विजय की नीति अपनाई अर्थात् भेरीघोष के स्थान पर धम्मघोष को अपनाया। अशोक की धम्म नीति का उद्देश्य सामाजिक तनाव और सांप्रदायिक संघर्षों को समाप्त कर विशाल साम्राज्य के विविध तत्त्वों के मध्य सौहार्दपूर्ण संबंध को बढ़ावा देना था। अशोक का धम्म न तो एक नया धर्म था और न ही एक नया राजनीतिक दर्शन अपितु यह जीवन जीने का एक तरीका था। यह आचार संहिता और सिद्धांतों का एक समूह है जिसे बड़े पैमाने पर लोगों द्वारा अपनाया गया।

ईसा-पूर्व चौदहवीं सदी में मिश्र के शासक अखनातून ने शांतिवादी नीति को अपनाया था।

ईरानी और मकदूनियाई आक्रमण

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यूनानियों ने सर्वप्रथम 206 ई. पू. में भारत पर आक्रमण किया था।

सर्वप्रथम ईरानी शासक दारयवहु (देरियस) ने 516 ई.पू. में पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण किया था। उसने पंजाब तथा सिंधु नदी के पश्चिम के इलाके और सिंध को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया।

ईरानी साम्राज्य में कुल मिलाकर अट्ठाइस क्षत्रपियाँ थीं। पंजाब व सिंध प्रदेश इसके बीसवाँ प्रांत या क्षत्रपी बना था। पंजाब का सिंधु नदी के पश्चिम वाला हिस्सा साम्राज्य का सबसे अधिक आबाद और उपजाऊ क्षेत्र था | पश्चिमोत्तर भारत में मगध की तरह कोई शक्तिशाली साम्राज्य नहीं था। छोटे-छोटे राज्य आपस में लड़ते रहते थे,और यह क्षेत्र समृद्ध भी था।

ईरानी लिपिकारों के आगमन से विकसित खरोष्ठी लिपि अरबी की तरह दायीं से बायीं ओर लिखी जाती थी। मौर्य वास्तु कला पर ईरानी प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अशोककालीन स्मारक, विशेष कर घंटा के आकार के गुंबज कुछ हद तक ईरानी प्रतिरूपों पर आधारित थे। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में ईरानी सिक्के भी मिलते हैं, जिनसे ईरान के साथ व्यापार होने के संकेत मिलते हैं। सिकंदर ने भारत पर आक्रमण 326 ई. पू. में किया था। वह खैबर दर्रा पार करते हुए भारत आया था। उसका भारत अभियान उन्नीस महीने (326-325 ई. पू.) तक रहा था| उसका मुकाबला चंद्रगुप्त मौर्य से नहीं हुआ। उसकी अपनी सेना 10 वर्ष के लम्बे अभियान में लड़ते-लड़ते थक चुकी थी और भारत की उष्ण जलवायु में वे बीमारियों से ग्रस्त हो गए थे। सिकंदर द्वारा बार-बार समझाने पर भी वे और आगे नहीं बढ़ना चाहते थे। अंत में अपनी सेना से हारकर वापस लौट गया। इसके आक्रमण का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम, भारत और यूनान के बीच विभिन्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष संपर्क की स्थापना था। सिकंदर के अभियान से चार भिन्न-भिन्न स्थलमार्गों और जलमार्गों के द्वार खुले। इससे यूनानी व्यापारियों और शिल्पियों के लिये व्यापार का मार्ग प्रशस्त हुआ तथा व्यापार की तत्कालीन सुविधा बढ़ी। उसने झेलम के तट पर बुकेफाल नगर और सिंध में सिकंदरिया नगर बसाया था, जो उपनिवेशों में सबसे महत्त्वपूर्ण थे। उसने अपने मित्र नियार्कस के नेतृत्व में सिंधु नदी के मुहाने से फरात नदी के मुहाने तक समुद्र तट का पता लगाने और बंदरगाहों को ढूँढने के लिये भेजा था।

मध्य एशिया से संपर्क और उनके परिणाम

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भारत में सबसे पहले हिंद-यूनानी शासकों द्वारा सोने के सिक्के जारी किये गए थे, पर इनकी संख्या कुषाणों के शासन काल में बढ़ी।
शक और कुषाणों ने बेहतर घुड़सवार सेना और बड़े पैमाने पर घोड़ों के उपयोग की शुरुआत की उन्होंने लगाम और काठी के प्रयोग को लोकप्रिय बनाया।साथ हीं पगड़ी,अंगरखा,पतलून और भारी लंबे कोट का प्रचलन शुरू किया।
मध्य एशियाई लोगों द्वारा युद्ध में टोपी, शिरस्त्राण और जूतों का उपयोग किया जाता था। इन्ही श्रेष्ठताओं के कारण उन्होंने ईरान, अफगानिस्तान और भारतीय महाद्वीप में अपने विरोधियों को पराजित किया।

मध्य एशिया से आए शासकों में हिन्द-यूनानियों ने भारत में पहली बार राजाओं के नाम वाले सिक्के जारी किये।हिन्द-यूनानी शासकों ने भारत के पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में यूनान की कला का प्रचलन आरम्भ किया, जिसे ‘हेलेनिस्टिक आर्ट’ कहते हैं। शकों द्वारा स्थापित पाँच शाखाएँ भारत और अफगानिस्तान के अलग-अलग भागों में थी। इनकी दूसरी शाखा पंजाब में बसी, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी। मथुरा में तीसरी शाखा थी, जहाँ उन्होंने दो सदियों तक राज्य किया था। सर्वाधिक प्रसिद्ध शक शासक रुद्रदामन प्रथम था। उसका शासन सिंध, कोंकण, नर्मदा घाटी, मालवा, काठियावाड़ और गुजरात के बड़े भाग में था। रूद्रदामन संस्कृत का बड़ा प्रेमी था। उसने सबसे विशुद्ध संस्कृत भाषा में लम्बा अभिलेख जारी किया। उल्लेखनीय है कि इससे पहले जो लम्बे अभिलेख देश में पाए गए थे, सभी प्राकृत भाषा में रचित हैं।

57-58 ई. में उज्जैन के शासक ने, जो अपने आप को विक्रमादित्य कहता था, शकों पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में 57 ई. पू. से विक्रम संवत् आरम्भ किया। अतः कथन (1) असत्य है।

शक संवत् कुषाण शासक कनिष्क ने 78 ई. में चलाया था।वर्तमान में भारत सरकार द्वारा शक संवत् प्रयोग में लाया जाता है

कुषाण शासकों का भारत में साम्राज्य अमुदरिया से गंगा तक,मध्य एशिया के खुरासान से उत्तर प्रदेश के वाराणसी तक फैला था। कुषाणों ने सोवियत गणराज्य में शामिल मध्य एशिया का हिस्सा ईरान, अफगानिस्तान और पूरे पाकिस्तान पर अधिकार कर लिया था। कैडफाइसिस द्वितीय ने बड़ी मात्रा में स्वर्ण मुद्राएँ जारी की थी। कुषाणों की पहली राजधानी आधुनिक पाकिस्तान में अवस्थित पुरुषपुर या पेशावर में थी। उल्लेखनीय है कि मथुरा में कुषाणों के सिक्के, अभिलेख और मूर्तियाँ मिले हैं, इससे प्रकट होता है कि मथुरा कुषाणों की द्वितीय राजधानी थी।

कुषाण शासकों में कैडफाइसिस प्रथम ने हिन्दुकुश के दक्षिण में रोमन सिक्कों की नकल करके बड़ी मात्रा में तांबे के सिक्के ढलवाए थे। उल्लेखनीय है कि कुषाण शासकों ने स्वर्ण एवं ताम्र दोनों ही प्रकार के सिक्कों को व्यापक पैमाने पर प्रचलित किया था।

मध्य एशियाई लोगों के पास अपनी लिपि, लिखित भाषा और कोई सुव्यवस्थित धर्म नहीं था। इसलिये उन्होंने संस्कृति के इन उपादानों को भारत से लिया। वे भारतीय समाज के अभिन्न अंग बन गए। इस काल की एक विशेषता ईंटों के कुँओं का निर्माण है। इस काल में व्यापक पैमाने पर भवन-निर्माण के कार्यों में उल्लेखनीय प्रगति हुई और इनके बर्तन भी असाधारण प्रकार के फुहारों और टोटियों वाले थे। इनके पास बड़े पैमाने पर उत्तम अश्वारोही सेना थी। उन्होंने अश्वारोहण की परंपरा चलाई। उन्होंने लगाम और जीन का प्रयोग प्रचलित किया था। वे रस्सी का बना एक प्रकार का अंगूठा-रकाब भी लगाते थे, जिससे उन्हें घुड़सवारी में सुविधा होती थी। मध्य एशिया और भारत के बीच घने संपर्क के परिणामस्वरूप भारत को मध्य एशिया के अल्ताई पहाड़ों से भारी मात्रा में सोना प्राप्त हुआ। इसके अलावा रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार के द्वारा भी सोना प्राप्त होता था।कुषाणों ने रेशम के प्रख्यात मार्ग पर नियंत्रण कर लिया था, जो चीन से चलकर कुषाण साम्राज्य में शामिल मध्य एशिया और अफगानिस्तान से गुज़रते हुए चीन जाता था और पूर्वी भूमध्यसागरीय अंचल में रोमन साम्राज्य के अंतर्गत पश्चिम एशिया तक जाता था।

मध्य एशियाई विजेताओं ने अनगिनत छोटे-छोटे राजाओं को समाप्त कर नई सामंतवादी व्यवस्था का प्रारम्भ किया। शक और कुषाण राजा देवता के अवतार माने जाते थे। कुषाण राजा देवपुत्र कहलाते थे। यह उपाधि उन्होंने चीनियों से ली थी, जो अपने राजा को स्वर्ग का पुत्र कहते थे। इस काल में कुछ अनोखी प्रथाएँ भी शुरू हुई, जैसे- एक ही समय दो आनुवांशिक राजाओं का संयुक्त शासन जिसमें पिता और पुत्र दोनों को एक ही समय राज्य पर संयुक्त रूप से शासन करते थे।

कुषाण काल के साहित्यिक ग्रंथों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजियेः-महायान बौद्ध संप्रदाय की प्रगति के फलस्वरूप अनगिनत अवदानों की रचना हुई। अवदानों का अन्यतम उद्देश्य लोगों को महायान के उद्देश्यों से अवगत कराना था। इस कोटि की प्रमुख कृतियाँ हैं- महावस्तु और दिव्यावदान। ‘बुद्धचरित’ की रचना अश्वघोष ने की थी। इसमें बुद्ध के जीवन का वर्णन है। भारतीय चिकित्सा ग्रंथ ‘चरक संहिता’ में वनस्पतियों से निर्मित औषधियों का वर्णन किया गया है, जबकि ‘सुश्रुत संहिता’ शल्य चिकित्सा ग्रंथ है। इसमें शल्य विधि का वर्णन किया गया है। भारतीयों ने खगोल और ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान यूनानियों से ही ग्रहण किया है। यूनानी शब्द होरोस्कोप संस्कृत में ‘होराशास्त्र’ हो गया, जिसका अर्थ ज्योतिषशास्त्र होता है। यूनानियों ने सेनानी-शासन (मिलिट्री गवर्नरशिप) की परिपाटी भी चलाई। वे इसके लिये शासक सेनानियों की नियुक्ति करते थे। ‘स्ट्रेटेगोस’ यूनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है शासक सेनानी। इन शासकों की आवश्यकता जीते गए प्रदेश पर नए राजाओं का प्रभाव जमाने के लिये होती थी। भारत पर यूनानी प्रभाव भारतीयों ने खगोल और ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान यूनानियों से ही ग्रहण किया है। यूनानी शब्द होरोस्कोप संस्कृत में ‘होराशास्त्र’ हो गया, जिसका अर्थ ज्योतिषशास्त्र होता है। यूनानियों ने सेनानी-शासन (मिलिट्री गवर्नरशिप) की परिपाटी भी चलाई। वे इसके लिये शासक सेनानियों की नियुक्ति करते थे। ‘स्ट्रेटेगोस’ यूनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है शासक सेनानी। इन शासकों की आवश्यकता जीते गए प्रदेश पर नए राजाओं का प्रभाव जमाने के लिये होती थी।

प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारतीयों को मध्य एशियाई लोगों के संपर्क से लाभ हुआ था। भारत में इस काल में चमड़े के जूते बनाने का प्रचलन शुरू हुआ।

सातवाहन युग

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ब्राह्मणों और बौद्धों को कर-मुक्त भूमि दी गई। दोनों को समान संरक्षण प्राप्त था। महाराष्ट्र पश्चिमी दक्कन के नासिक और जुनार क्षेत्रों में व्यापारियों से संरक्षण प्राप्त कर बौद्ध धर्म फूला-फला। सातवाहन शासक ब्राह्मण थे और उन्होंने ब्राह्मणवाद के विजयाभियान का नेतृत्व किया। आरंभ से ही राजाओं और रानियों ने अश्वमेध, वाजपेय आदि वैदिक यज्ञ किये। इस काल में बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय का उत्कर्ष हुआ था।

यद्यपि मातृसत्तात्मक समाज का आभास मिलता है।उनके राजाओं के नाम उनकी माताओं के नाम पर रखने की प्रथा थी,तथापि सारतः सातवाहन राजकुल पितृसत्तात्मक था, क्योंकि राजसिंहासन का उत्तराधिकारी पुत्र ही होता था।
सातवाहनों ने स्वर्ण का प्रयोग बहुमूल्य धातु के रूप में किया था। उन्होंने कुषाणों की तरह सोने के सिक्के नहीं चलाए। इनके सिक्के अधिकांश सीसे (लेड) के बने होते थे। इसके अलावा पोटीन, तांबे और काँसे की मुद्राएँ भी इन्होंने चलाई। सातवाहन दक्कन में कपास का उत्पादन करते थे। विदेशी विवरणों में आंध्र प्रदेश कपास के उत्पाद के लिये प्रसिद्ध था।दक्कन के बड़े हिस्से में परम उन्नत ग्रामीण अर्थव्यवस्था विकसित हुई।

इस काल में शिल्प और वाणिज्य में प्रगति व्यापक पैमाने पर हुई। वणिक लोग अपने-अपने नगर का नाम अपने नाम से जोड़ने लगे। सातवाहन साम्राज्य में प्रशासनिक इकाइयाँ मौर्यों के समान थी। इनके समय में ज़िले के लिये आहार शब्द, जो अशोक के समय प्रयुक्त होता था तथा उनके अधिकारी मौर्य काल की तरह अमात्य और महामात्य कहलाते थे। सातवाहनों के प्रशासन में कुछ विशेष सैनिक और सामंतवादी लक्षण दिखाई पड़ते हैं। सेनापति को प्रांत का शासनाध्यक्ष या गर्वनर बनाया जाता था, ताकि दक्कन के जनजातीय लोगों को प्रशासनिक नियंत्रण में रखा जा सके। गौल्मिक ग्राम का प्रधान कहलाता था। इसे ग्रामीण क्षेत्रों के प्रशासन का काम सौंपा जाता था। यह एक सैनिक टुकड़ी का प्रधान होता था, जिसमें नौ रथ, नौ हाथी, पच्चीस घोड़े और पैंतालीस पैदल सैनिक होते थे। वह ग्रामीण क्षेत्रों में शांति व्यवस्था बनाए रखता था। सातवाहन राज्य में सामंतों की तीन श्रेणियाँ थी। पहली श्रेणी का सामंत राजा कहलाता था। द्वितीय श्रेणी का महाभोज तथा तृतीय श्रेणी का सेनापति। आंध्र प्रदेश के नागार्जुनकोंड और अमरावती नगर सातवाहनों के उत्तराधिकारी इक्ष्वाकुओं के शासन में बौद्ध संस्कृति के महत्त्वपूर्ण केंद्र बने। त चैत्य और विहार ठोस चट्टनों को काट बनाए जाते थे। यह विशाल शिला-वास्तुकला का प्रभावोत्पादक उदाहरण है। चैत्य अनेकानेक स्तंभों पर खड़ा हॉल जैसा होता था और विहार में एक केंद्रीय शाला होती थी, जिसमें सामने के बरामदे की ओर एक द्वार रहता था। चैत्य बौद्धों के मंदिर का काम करता था और विहार भिक्षु निवास का। विहार चैत्यों के पास बनाए गए। उनका उपयोग वर्षाकाल में भिक्षुओं के निवास के लिये होता था। नागार्जुनकोंड के स्तूपों में भित्ति-प्रतिमाएँ नहीं मिलती हैं। इसमें बौद्ध स्मारकों के साथ-साथ पुराने ईंट से बने हिन्दू मंदिर भी हैं। उल्लेखनीय है कि यह सातवाहनों के उत्तराधिकारी इक्ष्वाकुओं के काल में उत्कर्ष के शिखर पर थे। अमरावती के स्तूपों में भित्ति-प्रतिमाएँ मिलती हैं। इनमें बुद्ध के जीवन के विभिन्न दृश्य चित्रित हैं। सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत थी। इनके सभी अभिलेख प्राकृत भाषा में और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं। गाथाहासत्तसई (गाथासप्तशती) हाल नामक सातवाहन राजा की रचना है। इसमें सभी सात सौ श्लोक प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं।

सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरम्भ

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महापाषाण कब्रों में तथा प्रायद्वीपीय भारत की कब्रों में खेती के औजार कम मात्रा में दफनाए जाते थे, इसमें युद्ध और शिकार के हथियार अधिक होते थे। इससे संकेत मिलता है कि महापाषाणिक लोग उन्नत खेती नहीं करते थे। अशोक के अभिलेखों में चोल, पांड्य और चेर (केरलपुत्र) शासकों के उल्लेख मिलते हैं। अशोक की उपाधि ‘देवानांपिय पियदसि’ एक तमिल राजा ने अपनाई थी।

चोल राज्य-उरैयूर उनकी राजनीतिक सत्ता का केंद्र था। यह सूती कपड़े के व्यापार के लिये प्रसिद्ध था चूँकि चोलों के वैभव का मुख्य स्रोत सूती कपड़े का व्यापार था। उनके पास कुशल नौसेना थी। चोल राज्य पेन्नार और वेलार नदियों के बीच पांड्य राज्य क्षेत्र के पूर्वोत्तर में स्थित था। यह मध्यकाल के आरंभ में चोलमंडलम् (कोरोमंडल) कहलाता था। उसकी राजधानी ‘पुहार’थी जिसकी पहचान कावेरीपट्टनम से की गई है। पुहार की स्थापना दूसरी सदी के प्रख्यात चोल राजा कारैकाल ने की थी। ईसा-पूर्व दूसरी सदी के मध्य में एलारा नामक चोल राजा ने श्रीलंका को जीतकर पचास वर्षों तक शासन किया था।

पांड्य राज्य भारतीय प्रायद्वीपीय के सुदूर दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी भाग में अवस्थित था। इसमें तमिलनाडु के आधुनिक तिन्नवेल्ली, रामनद और मदुरा ज़िले शामिल हैं। उसकी राजधानी मदुरा थी। पांड्यों का उल्लेख सर्वप्रथम मेगास्थनीज़ ने किया है। और उसने इसे मोतियों का देश कहा है। मेगास्थनीज के अनुसार पांड्य राज्य में शासन स्त्री के हाथों में थी जिससे यह लक्षित होता है कि पांड्य समाज में कुछ मातृसत्तात्मक प्रभाव था। पांड्य राजाओं ने रोमन सम्राट ऑगस्टस के दरबार में राजदूत भेजे। उल्लेखनीय है कि यह राज्य रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार में लाभ की स्थिति में था जिससे यह धनवान और समृद्ध था। पांड्य राज्य में अश्व समुद्र के रास्ते से मंगवाए जाते थे। ‘एनाडि’ की उपाधि सेनाध्यक्षों को औपचारिक अनुष्ठान के साथ दी जाती थी। परियार लोग खेत मजदूर थे, साथ ही ये लोग पशु चर्म का कार्य भी करते थे, और चटाई के रूप में इनका इस्तेमाल करते थे।

चेर या केरल देश पांड्य क्षेत्र के उत्तर-पश्चिम में स्थित था जो आधुनिक केरल राज्य और तमिलनाडु के बीच एक सँकरी पट्टी के रूप में था।चेर राजा सेंगुट्टुवन को लाल या भला चेर भी कहा जाता था। सूची-I (उपाधि)-सूची-II (संबंधित वर्ग) A. वल्लाल 1. धनी किसान B. अरसर 2. शासक वर्ग C. कडैसियर 3.खेत मजदूर पांड्य राज्य में अश्व समुद्र के रास्ते से मंगवाए जाते थे। ‘एनाडि’ की उपाधि सेनाध्यक्षों को औपचारिक अनुष्ठान के साथ दी जाती थी।परियार लोग खेत मजदूर थे,साथ ही ये लोग पशु चर्म का कार्य भी करते थे, और चटाई के रूप में इनका इस्तेमाल करते थे। संगम तमिल कवियों का संघ या सम्मेलन है, जो मदुरै में राजाश्रय में आयोजित होते थे। संगम साहित्य में आख्यानात्मक ग्रंथों को वीरगाथा काव्य कहते हैं, जिसमें वीर पुरुषों की कीर्ति और युद्धों का वर्णन किया गया है। संगम को मोटे तौर पर दो समूहों में बाँटा जा सकता है-आख्यानात्मक और उपदेशात्मक। आख्यानात्मक ग्रंथ मेलकणक्कु अर्थात् अठारह मुख्य ग्रंथ और उपदेशात्मक ग्रंथ कीलकणक्कु अर्थात् अठारह लघु ग्रंथ कहलाते हैं।संगम साहित्य तोलकाप्पियम ग्रंथ व्याकरण और अलंकार शास्त्र कहलाता है। तिरुकुरल में दार्शनिक विचार और सूक्तियाँ हैं। तमिल काव्य में दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं जिनके नाम हैं- सिलप्पदिकारम और मणिमेकलै। इन दोनों की रचना ईसा की छठी सदी के आसपास हुई। सिलप्पदिकारम एक प्रेमकथा है जिसमें कोवलन नामक व्यापारी और माधवी नामक गणिका के प्रेम-प्रसंग का वर्णन है। मणिमेकलै में कोवलन और माधवी की कन्या के साहसिक जीवन का वर्णन किया गया है।

तमिल देश में ईसा सन् की आरंभिक सदियों में जो राज्य स्थापित हुए थे उनका विकास ब्राह्मण संस्कृति के प्रभाव से हुआ। राजा वैदिक यज्ञ करते थे। इस काल में इन राज्यों में शवदाह की प्रथा आरम्भ हुई, परंतु महापाषाण अवस्था से चली आ रही दफनाने की प्रथा भी चलती रही।पहाड़ी प्रदेशों के लोगों के मुख्य स्थानीय देवता मुरुगन थे, जो आरम्भिक मध्यकाल में सुब्रामनियम या सुब्रह्मण्यम कहलाने लगे। स्मारक को वीरकल कहा जाता था, चूँकि गाय या अन्य वस्तुओं के लिये लड़कर मरने वाले वीरों के सम्मान में वीरकल अर्थात् स्मारक-स्वरूप प्रस्तर खड़ा किया जाता था।

मौर्योंत्तर युग में शिल्प,व्यापार और नगर

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शिल्पी वर्ग आपस में श्रेणी नामक संगठन के रूप में संगठित थे,इस काल में चौबीस-पच्चीस श्रेणियाँ प्रचलित थी। भारत में कांच ढालने की जानकारी ईसवी सन् के आरंभ में हुई और इस कला को शिखर तक पहुंचाया| इस काल में कपड़ा बनाने, रेशम बुनने और वस्त्रों एवं विलास की वस्तुओं के निर्माण में भी प्रगति हुई तथा मथुरा शाटक नामक विशेष प्रकार के वस्त्र के निर्माण का बड़ा केंद्र बन गया था। दक्षिण भारत के कई नगरों में रंगरेज़ी उन्नत शिल्प थी परंतु उतर भारत में नहीं। तमिलनाडु में तिरुचिरापल्ली नगर के उपान्तवर्ती उरैयूर में ईंटों का बने रंगाई के हौज़ मिले हैं।‘शकों’ कुषाणों और सातवाहनों का प्रथम तमिल राज्यों का युग प्राचीन भारत के शिल्प और वाणिज्य के इतिहास में चरम उत्कर्ष का काल था।

आरंभ में भारत और पूर्वी रोमन साम्राज्य के बीच अधिकतर व्यापार स्थल मार्ग द्वारा होता था।परंतु ईसा-पूर्व पहली सदी से शकों-पार्थियनों और कुषाणों की गतिरोध के कारण व्यापार में संकट उत्पन्न हो गया।परिणामस्वरूप ईसा की पहली सदी से व्यापार मुख्यतः समुद्री मार्ग से होने लगा। समुद्र से व्यापार करने में ईसा पूर्व में मानसून पवनों की दिशा ज्ञात होने पर नाविक अरब सागर के पूर्वी तटों से उसके पश्चिमी तटों तक का सफर काफी कम समय में कर सकते थे।

पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत से पश्चिमी समुद्र तक दोनों ओर से व्यापार मार्ग तक्षशिला में एक दूसरे को काटते थे, और मध्य एशिया से गुज़रने वाले रेशम मार्ग से भी जुड़े थे। पहला मार्ग उत्तर से सीधे दक्षिण की ओर जाता था और तक्षशिला को निचली सिंधु घाटी से जोड़ता था तथा वहाँ से भड़ौच तक जाता था। दूसरा मार्ग (उत्तरापथ) तक्षशिला से चलकर आधुनिक पंजाब से होते हुए यमुना के पश्चिम तट तक पहुँचता और यमुना का अनुसरण करते हुए दक्षिण की ओर मथुरा पहुँचता फिर वहाँ से मालवा और उज्जैन पहुँच कर पश्चिमी समुद्र तट पर भड़ौच तक जाता था।

सातवाहन काल में आर्थिक रूप से सर्वाधिक समृद्ध नगर पश्चिमी और दक्षिणी भारत के पैठन, धान्यकटक, अमरावती, नागार्जुनकोंड, भड़ौच, सोपारा, अरिकमेडु और कावेरीपट्टनम समृद्ध नगर थे।

रोमन साम्राज्य ने सबसे पहले देश के सुदूर दक्षिणी हिस्से से व्यापार आरंभ किया; इसलिये सबसे पहले सिक्के तमिल राज्यों में मिले हैं। रोम वाले दक्षिण भारत से मसाले, मलमल, मोती, रत्न और माणिक्य का आयात करते थे।लोहे की वस्तुएँ विशेषकर बर्तन, हाथी दाँत, रत्न और पशु जिनकी गिनती विलासिता की वस्तुओं में थी, उनका भी निर्यात रोमन साम्राज्य में किया जाता था। प्राचीन रेशम मार्ग चीन से अफगानिस्तान और ईरान से गुज़रने वाले मार्ग से रेशम भेजा जाता था, परंतु पार्थियनों द्वारा ईरान पर अधिकार कर लेने के बाद इस मार्ग में गतिरोध उत्पन्न हो गया, तब यह मार्ग कुछ बदलकर भारतीय उपमहादेश के पश्चिमोत्तर भाग से होते हुए रेशम पश्चिमी भारत के बंदरगाहों पर आने लगा। कभी-कभी चीन से रेशम भारत के पूर्वी समुद्र तट होते हुए भी यहाँ आता था।

सातवाहन अपने सिक्के ढालने में जिस सीसे का प्रयोग करते थे, वह रोम से लपेटी हुई पट्टियों के रूप में मंगाया जाता था। रोम के लोगों को भारतीय गोल मिर्च बहुत प्रिय थी, इसलिये रोम पूरब से गोल मिर्च मंगवाने पर अत्यधिक खर्च करता था। जिससे कि संस्कृत में गोल मिर्च का नाम ही यवनप्रिय पड़ गया। रोम के सम्राट ट्रॉजन ने न केवल फारस की खाड़ी का पता लगाया बल्कि उसने मस्कट पर विजय भी प्राप्त की। उसके व्यापार और विजय के फलस्वरूप रोमन वस्तुएँ अफगानिस्तान और पश्चिमोत्तर भारत पहुँची।

कुषाण काल में भारत में नगरीकरण उत्कर्ष के शिखर पर पहुँचा तथा उज्जयिनी महत्त्वपूर्ण नगर था, जहाँ से दो मार्ग पहला कौशाम्बी से और दूसरा मथुरा जाने वाले मार्ग से मिलता था। उज्जयिनी से गोमेद और इन्द्रगोप( कार्नेलियन) पत्थरों का निर्यात होता थामालवा और पश्चिमी भारत शक शासकों के काल में समृद्ध थे।

गुप्त साम्राज्य(319-543तक)

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चंद्रगुप्त प्रथम (319-334ई.) गुप्त वंश का पहला प्रसिद्ध राजा हुआ। उसने लिच्छवि राजकुमारी से विवाह किया। इससे उसकी सत्ता को बल मिला|चंद्रगुप्त प्रथम महान शासक हुआ और उसने 319-20 ई. में अपने राज्यारोहण के स्मारक के रूप में गुप्त संवत् चलाया।

 
Gupta Empire, 320-550 CE

चंद्रगुप्त प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने गुप्त राज्य का व्यापक विस्तार किया।उसके द्वारा विजित प्रदेश पाँच समूहों में बाँटा जा सकता है- प्रथम समूह में गंगा-यमुना दोआब, द्वितीय समूह में पूर्वी हिमालय के राज्यों और कुछ सीमावर्ती राज्य, तृतीय समूह में अटाविक राज्य विंध्य क्षेत्र में पड़ते थे, चतुर्थ समूह में पूर्वी दक्कन और दक्षिण भारत के बारह शासक और पाँचवें समूह में शक और कुषाणों के नाम हैं, जिनमें कुछ अफगानिस्तान का क्षेत्र भी आता था।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के काल में चीनी यात्री फाहियान भारत आया और यहाँ के लोगों के जीवन के बारे में विस्तृत विवरण लिखा। उल्लेखनीय है कि उसने वैवाहिक संबंध और विजय दोनों के सहारे साम्राज्य की सीमा बढ़ाई। चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी कन्या प्रभावती का विवाह वाकाटक नामक राजा से कराया जो मध्य भारत में शासन करता था। वाकाटक राजा की मृत्यु के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय अप्रत्यक्ष रूप से अपनी कन्या के माध्यम से शासन करता था। इसका साक्ष्य भूमिदान संबंधी उसके अभिलेख है, जिस पर गुप्तकालीन प्राचीन शैली का प्रभाव है।

समुद्रगुप्त की नीतियाँ अशोक की नीतियों के विपरीत थी, जहाँ अशोक शांति और अनाक्रमण की नीति में विश्वास करता था तो समुद्रगुप्त हिंसा और विजय में आनंद पाता था। श्रीलंका के राजा मेघवर्मन ने गया में बुद्ध का मंदिर बनवाने की अनुमति प्राप्त करने के लिये समुद्रगुप्त के पास अपना दूत भेजा था। अनुमति मिलने के बाद यह मंदिर बौद्ध विहार के रूप में विकसित हो गया।[] उत्तर प्रदेश से प्राप्त आरंभिक गुप्त मुद्राएँ और अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुषाण और सातवाहन के खंडहरों पर स्थापित यह काल बिहार की अपेक्षा उत्तर प्रदेश अधिक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र था।

अश्वचालित रथ का और हाथी का महत्त्व समाप्त हो गया और घुड़सवारों की भूमिका प्रमुख हो गई। इनके सिक्कों पर घुड़सवार का चित्र अंकित हैं। उनकी शक्ति का मूल आधार घोड़े का प्रयोग था। गुप्त शासकों ने जीन, लगाम, बटन वाले कोट, पतलून और जूतों का इस्तेमाल करना कुषाणों से सीखा था। इन सबसे उनमें गतिशीलता आई और उनके घुड़सवारों की कार्य क्षमता में वृद्धि हुई।

इस अवधि के दौरान अपेक्षित रूप से शांति,कानून और व्यवस्था,और व्यापक सांस्कृतिक उपलब्धियों के कारण, इसे "स्वर्ण युग" के रूप में वर्णित किया गया है। स्वर्ण युग उत्तर तक ही सीमित था और गुप्त साम्राज्य के ऐतिहासिक दृश्य से गायब हो जाने के बाद ही शास्त्रीय प्रतिमान दक्षिण में फैलने लगे। गुप्त राजाओं को कई भौतिक सुविधाएँ प्राप्त थी। उनके कार्य क्षेत्र का मुख्य प्रांगण मध्य-देश की उर्वर भूमि थी, जिसमें बिहार और उत्तर प्रदेश आते हैं, और यहा से अच्छी उपज प्राप्त होती थी। वे लोग मध्य भारत और दक्षिण बिहार के लौह अयस्क का उपयोग कर अच्छे औजार और उपकरण बनाते थे। इस काल में बायजेन्टाइन साम्राज्य अर्थात् पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ रेशम का व्यापार करने वाले उत्तर भारत के इलाके उनके पड़ोस में स्थित थे, अतः उन्होंने इस निकटता का फायदा व्यापार बढ़ाने में किया। भारत में कुषाण सत्ता 230 ई. के आसपास आकर समाप्त हो गई। उसके बाद मध्य भारत का बड़ा-सा भाग मुरूण्डों के अधिकार क्षेत्र में आया। मुरूण्डों की सत्ता 250 ई. तक रही,उसके बाद 275 ई. में गुप्त वंश के आधिपत्य में सत्ता स्थापित हुई, उसके बाद मौखरि राजवंश ने हूणों को पराजित कर पूर्वी भारत पर शासन कायम किया और कन्नौज में सत्ता स्थापित की। कुषाण > मरूण्ड > गुप्त > मौखरि

मालवा के औलिकर सामंत वंश के यशोधर्मन ने हूणों को हरा कर गुप्त शासकों को कड़ी चुनौती दी और सारे उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के उपलक्ष्य में 532 ई. में विजय स्तंभ स्थापित किये। मौखरि राजवंश के शासकों ने बिहार और उत्तर प्रदेश में राजसत्ता स्थापित की और कन्नौज को अपनी राजधानी बनाई।

भूमि अनुदान देने से कृषि पंचांग का ज्ञान फैला और आयुर्वेद का प्रचार हुआ, जिससे कृषि उत्पादन में समग्र रूप से वृद्धि हुई। लेखन कला तथा प्राकृत और संस्कृत भाषाओं के व्यवहार का भी प्रसार हुआ।

गुप्त काल का जीवन

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गुप्त राजाओं ने परमेश्वर, महाराजाधिराज, परमभट्टारक आदि आडंबरपूर्ण उपाधियाँ धारण की थी। इस काल में राजपद वंशानुगत था, परन्तु राजसत्ता ज्येष्ठाधिकार की अटल प्रथा के अभाव में सीमित थी। राजसिंहासन हमेशा ज्येष्ठ पुत्र को ही नहीं मिलता था। इस काल के सिक्कों पर देवी लक्ष्मी का चित्र अंकित होता था। उनको विष्णु की पत्नी माना जाता था और विष्णु मुख्य देवता हो गए थे।

गुप्त काल में भूमि संबंधी करों की संख्या बढ़ गई, परन्तु वाणिज्य-करों की संख्या में कमी आई। काल में राज्य उपज का चौथे भाग से लेकर छठे भाग तक कर के रूप में लेता था। उल्लेखनीय है कि जब भी राजकीय सेना गाँवों से गुज़रती थी तो उसे खिलाने-पिलाने का कार्य स्थानीय प्रजा का कर्त्तव्य होता था। ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले राजकीय अधिकारी अपने निर्वाह के लिये किसानों से पशु, अन्न आदि वस्तुएँ लेते थे।

विष्टिमध्य और पश्चिम भारत में ग्रामवासियों से सरकारी सेना और अधिकारियों की सेवा के लिये करवाया गया बेगार (निःशुल्क श्रम)।

राज्य के वर्गीकरण का बढ़ता अनुक्रम इस प्रकार है - ग्राम > वीथियाँ > विषय > युक्ति(उपरिक) > राज्य गुप्त राजाओं ने प्रांतीय और स्थानीय शासन की पद्धति चलाई। राज्य कई युक्तियों अर्थात् प्रांतों में विभाजित था और हर युक्ति एक-एक उपरिक के प्रभार में रहती थी। युक्तियाँ कई विषयों अर्थात् ज़िलों में विभाजित थी। हर विषय का प्रभारी विषयपति होता था। पूर्वी भारत में प्रत्येक विषय को वीथियों में बाँटा गया था और वीथियाँ ग्रामों में विभाजित थी।

  • दीनार-गुप्त काल में जारी सोने सिक्के
  • रूपक-गुप्त काल में जारी चाँदी के सिक्के
  • भाषक-गुप्त काल में जारी ताँबे के सिक्के

गुप्त शासकों ने गुजरात विजय के बाद बड़ी संख्या में चांदी के सिक्के जारी किये, जो केवल स्थानीय लेन-देन मे चलते थे, क्योंकि पश्चिमी क्षत्रपों के यहाँ चांदी के सिक्कों का महत्त्वपूर्ण स्थान था।पूर्वकाल की तुलना में इस काल में सुदूर व्यापार में ह्रास हो गया। 550 ई. तक भारत पूर्वी रोमन के साथ कुछ-कुछ व्यापार कर रहा था लेकिन 550 ई. के आस-पास पूर्वी रोमन ने चीनियों से रेशम पैदा करने की कला सीख ली। इससे भारत के निर्यात एवं व्यापार पर बुरा असर पड़ा। गुप्त काल में ब्राह्मण पुरोहितों का भू-स्वामी के रूप में उदय होने से किसानों के हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ा और उनकी आर्थिक स्थिति में गिरावट आई। मध्य और पश्चिमी भारत में किसानों से बेगार लिया जाने लगा।

गुप्त काल में बौद्ध धर्म को राजाश्रय मिलना समाप्त हो गया। जो स्थान अशोक व कनष्कि काल में था, वह अब नहीं रहा। इस काल में कुछ स्तूपों और विहारों का निर्माण हुआ और नालंदा बौद्ध शिक्षा का केंद्र बन गया। इस काल में आकर महायान बौद्ध धर्म की तुलना में भागवत या वैष्णव संप्रदाय अधिक प्रभावी हो गया। इसने अवतारवाद का उपदेश दिया और इतिहास को विष्णु के दस अवतारों के चक्र के रूप में प्रतिपादित किया। पति के खो जाने, मृत्य हो जाने,या संन्यास ले लेने पर स्त्रियाँ पुनर्विवाह कर सकती थी। स्त्रियों और शूद्रों की सामाजिक स्थिति में सुधार आया उन्हें रामायण, महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार प्राप्त हुआ। उनके लिये कृष्ण का पूजन विहित किया गया। इस काल में उच्च वर्ग की स्त्रियों को स्वतंत्र जीवन-निर्वाह का साधन प्राप्त नहीं था,परन्तु निचले दो वर्णों की स्त्रियों की स्वतंत्र जीवन-निर्वाह का अधिकार मिल गया था। पाँचवीं सदी में रचित नारद स्मृति में ब्राह्मणों को मिले विशेषाधिकारों का वर्णन किया गया है। इस काल में पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पत्नी को निजी संपत्ति समझा जाने लगा और मृत्यु में भी साथ देने की उम्मीद की जाने लगी। इस काल में सती-प्रथा का प्रचलन था, इसका उदाहरण 510 ई. में एक अभिलेख से मिलता है।

इस काल के सभी नाटक सुखांत हैं। दुखांत नाटक का एक भी उदाहरण नहीं मिलता।इस काल के नाटकों की भाषाओं में वर्ण विभाजन दिखाई पड़ता है। इस काल में उच्च वर्ण के लोग संस्कृत तथा शूद्र और स्त्री वर्ग प्राकृत भाषा बोलते थे।

आर्यभटीय गणित के क्षेत्र का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसके रचयिता आर्यभट पाटलिपुत्र के रहने वाले थे। इलाहाबाद के अभिलेख से ज्ञात होता है कि ईसा की पाँचवीं सदी के आरंभ में भारत में दाशमिक पद्धति ज्ञात थी।

छठी सदी के स्मृतिकार कात्यायन का कहना है कि स्त्री अपने स्त्रीधन के साथ अपनी अचल सम्पत्ति को भी बेच सकती थी और गिरवी रख सकती थी। इससे यह पता चलता है कि स्त्रियों को भूमि पर अधिकार था।रोमक सिद्धांत नामक पुस्तक खगोलशास्त्र विषय से संबंधित है। इस पर यूनानी विद्वानों का प्रभाव है। इस काल में वास्तुकला पिछड़ी हुई थी। वास्तुकला के नाम पर हमें ईंट के बने कुछ मंदिर उत्तर प्रदेश में मिले हैं। इसमें कानपुर के भीतरगाँव, गाजीपुर के भीतरी और झाँसी के देवगढ़ में ईंट का मंदिर उल्लेखनीय हैं।उल्लेखनीय है कि गुप्त काल में मंदिर निर्माण कला का जन्म हुआ था। देवगढ़ का दशावतार मंदिर भारतीय मंदिर निर्माण में शिखर का संभवतः पहला उदाहरण है।

पूर्वी भारत में सभ्यता का प्रसार

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महानदी के दक्षिण में स्थित कलिंग राज्य का उत्कर्ष अशोक के काल में हुआ था।इसकी राजधानी भुवनेश्वर से 60 किलोमीटर दूरी पर कलिंग नगरी थी। कलिंग के राजा खारवेल ने सुदृढ़ राज्य की स्थापना की थी। उड़ीसा के बंदरगाहों से मोती, हाथी दाँत और मलमल का अच्छा व्यापार चलता था। खुदाई के दौरान रोम की बहुत-सी वस्तुएँ मिली हैं, इससे सिद्ध होता है कि कलिंग और रोम के मध्य व्यापारिक सम्बंध थे।

चौथी से छठी सदी तक उड़ीसा में स्थापित राज्यों में पाँच राज्यों की स्पष्ट पहचान की जा सकती है, उनमें माठर वंश का राज्य महत्त्वपूर्ण था। उनका राज्य महानदी और कृष्णा नदी के बीच फैला हुआ था। माठर वंश को पितृभक्त वंश भी कहा जाता था। वशिष्ठ,नल और मान वंश के राज्य माठर वंश के पड़ोसी और समकालीन थे।वशिष्ठ वंश का राजा दक्षिण कलिंग में आंध्र की सीमाओं पर था। नल वंश का राज्य महाकांतर के वन्य प्रदेश में और मान वंश का राज्य महानदी के पार उत्तर के समुद्र तटवर्ती क्षेत्र में था। माठरों ने एक प्रकार के न्यास स्थापित किये, जो अग्रहार कहलाते थे। इस न्यास में कुछ भूमि और गाँव वालों से प्राप्त होने वाली आय होती थी, इन अग्रहारों का उद्देश्य पठन-पाठन और धार्मिक अनुष्ठानों में लगे बाह्मणों का भरण-पोषण करना था।

माठरों ने पाँचवी सदी के मध्य से वर्ष को बारह चन्द्रमासों में विभाजित किया, इससे मौसम की सही प्रकार से जानकारी हुई जो कृषि-कार्यों में उपयोगी सिद्ध हुआ।

432-33 ई. से लेकर लगभग सौ वर्षों तक पुण्ड्रवर्धनभुक्ति राज्य उत्तरी बंगाल में स्थित था। इनकी स्वर्ण मुद्राओं को दीनार कहा जाता था। अनुदान पत्रों से ज्ञात होता है कि भूमि का मूल्य दीनार नामक स्वर्ण मुद्राओं से चुकाया जाता था। यहाँ धार्मिक प्रयोजनों के लिये दान की गई भूमि पर कर नहीं लगाया जाता था।

बंगाल में ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा बनाया त्रिभुजाकार भाग समतट कहलाता था। इसमें दक्षिण-पूर्वी बंगाल का क्षेत्र आता था।इस क्षेत्र को चौथी सदी में समुद्रगुप्त ने जीता और इसे अपने राज्य में मिलाया।इस क्षेत्र में ब्राह्मण धर्म का प्रभाव नहीं था। यहाँ संस्कृत भाषा का प्रयोग नहीं मिलता है और न ही वर्ण व्यवस्था का प्रचलन। समतट या वंग राज्य में राजा हरदेव द्वारा छठी सदी के उत्तराद्ध में स्वर्णमुद्राएँ जारी की। इस राज्य के अतिरिक्त सातवीं सदी में ढाका क्षेत्र में खड्ग वंश का राज्य था। यहाँ दो और राज्य भी थे-जिनमें पहला लोकनाथ नामक ब्राह्मण सामंत का और दूसरा राट वंश का दोनों कुमिल्ला क्षेत्र में पड़ते थे।

धार्मिक न्यासों की संख्या बहुत अधिक बढ़ने पर इसकी देखभाल करने के लिये अग्रहारिक नाम का एक अधिकारी नियुक्त किया गया।इन अग्रहारों का उद्देश्य पठन-पाठन और धार्मिक अनुष्ठानों में लगे ब्राह्मणों का भरण-पोषण करना था।

गुवाहाटी के निकट की बस्तियाँ ईसवी सन् की चौथी सदी में बस चुकी थी और यहाँ से समुद्रगुप्त ने डवाक और कामरूप से कर वसूल किया था। बंगाल और उड़ीसा के बीच वाले सीमांत क्षेत्रों में दण्डभुक्ति नाम की राजस्व और प्रशासन संबंधी इकाई बनाई गई थी। दण्ड का अर्थ सजा और भुक्ति का अर्थ है भोग। ब्रह्मपुत्र मैदान में पूरब से पश्चिम तक फैला कामरूप सातवीं सदी में उत्कर्ष पर पहुँचा। कामरूप के राजाओं ने वर्मन की उपाधि धारण की। यह उपाधि उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत के साथ बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश कर्नाटक और तमिलनाडु में भी पाई जाती है।

पूर्वी भारत में चौथी से सातवीं सदी तक के काल को रचनात्मक काल कहा जाता है। इस काल में पूर्वी मध्य प्रदेश, उत्तरी उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और असम में तथा बांग्लादेश के एक बड़े भाग में संस्कृत विद्या, वैदिक कर्मकाण्ड, वर्णव्यवस्था तथा राजतंत्र फैले और विकसित हुए।

हर्ष और उसका काल(606-647 ई.)

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ह्वेनसांग 629 ई. से लेकर 645 ई. तक 15 वर्षों तक भारत में रहा। वह नालंदा महाविहार अर्थात् बौद्ध विश्वविद्यालय में नालंदा में पढ़ने के लिये और भारत से बौद्ध ग्रंथ बटोर कर ले जाने के लिये आया था। चीनी यात्री इ-त्सिंग 670 ई. में नालंदा आया। उसके अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय का भरण-पोषण दो सौ गाँवों के राजस्व से होता था। हर्ष हरियाणा स्थित थानेसर का शासक था। उसने अन्य सभी सामंतों पर प्रभुता स्थापित की। थानेसर स्थित हर्ष के टीलों की खुदाई में कुछ ईंटों की इमारतों से साक्ष्य मिले हैं। हर्ष ने कन्नौज को राजधानी बनाया, यहाँ से उसने चारों ओर अपना प्रभुत्व फैलाया। पाटलिपुत्र के पतन का एक महत्त्वपूर्ण कारण व्यापार में गिरावट था। व्यापार में गिरावट से मुद्रा की कमी हुई जिससे अधिकारियों व सैनिकों को नकद वेतन के बदले भूमि अनुदान दिया जाने लगा, त्यों ही नगर का महत्त्व समाप्त हो गया और वास्तविक शक्ति स्कन्धावारों अर्थात् फौजी पड़ावों में चली गई और बड़े भू-भाग पर प्रभुत्व रखने वाले सैनिकों का स्थान महत्त्वपूर्ण हो गया।

चीनी यात्री ह्वेन-सांग ईसा की सातवीं सदी में भारत आया और लगभग पंद्रह वर्ष तक रहा। बाणभट्ट हर्ष का दरबारी कवि था। हर्ष के शासन काल का आरंभिक इतिहास बाणभट्ट से ज्ञात होता है। हर्ष को भारत का अंतिम हिंदू सम्राट कहा गया है, लेकिन वह न तो कट्टर हिंदू था और न ही पूरे देश का शासक क्योंकि उसका राज्य कश्मीर को छोड़कर उत्तर-भारत तक सीमित था।

हर्ष का युद्ध पूर्वी भारत में गौड़ के शैव राजा शशांक से हुआ था। 619 ई. में शशांक की मृत्यु के साथ ही यह संघर्ष समाप्त हुआ। उसके दक्षिण की ओर विजय अभियान को नर्मदा के तट पर चालुक्य वंश के राजा पुलकेशिन् ने रोका। पुलकेशिन् आधुनिक कर्नाटक और महाराष्ट्र के बड़े भू-भाग पर शासन करता था।

हर्षचरित’ नामक पुस्तक की रचना हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट ने की थी। इससे हर्ष के शासन काल का आरंभिक इतिहास ज्ञात होता है। चालुक्य राजा पुलकेशिन् की राजधानी कर्नाटक में आधुनिक बीजापुर जिले के बादामी में थी।[] हर्ष की प्रशासन प्रणाली गुप्तों के समान थी। अंतर इतना था कि हर्ष का प्रशासनष अधिक सामंतिक और विकेंद्रित था।

हर्ष आरंभिक जीवन में शैव था, परंतु धीरे-धीरे बौद्ध धर्म का महान संपोषक हो गया। उसने महायान के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिये कन्नौज में एक विशाल सम्मेलन का आयोजन करवाया। कन्नौज के बाद उसने प्रयाग में भी महासम्मेलन का आयोजन करवाया।

हर्ष ने राज्य में पदाधिकारियों को शासन पत्र (सनद) के द्वारा ज़मीन देने की प्रथा चलाई। इसके साथ ही राज्य की समर्पित सेवाओं के लिये पुरोहितों को भूमिदान देने की परंपरा जारी रही। हर्ष की राजकीय आय चार भागों में बाँटी जाती थी। एक भाग राजा के खर्च के लिये रखा जाता था, दूसरा भाग विद्वानों के खर्च के लिये, तीसरा भाग पदाधिकारियों और अमलों के बंदोबस्त के लिये और चौथा भाग धार्मिक कार्यों के लिये। हर्ष के साम्राज्य में विधि-व्यवस्था अच्छी नहीं थी। ह्वेन-सांग की सुरक्षा प्रबंध राज्य द्वारा करने के बाद भी उसकी सम्पत्ति को डाकुओं ने छीन लिया था।

हर्ष द्वारा तीन नाटकों की रचना की थी- प्रियदर्शिका, रत्नावली और नागानंद | मध्यकाल के बहुत-से लेखकों का मानना है कि ये तीनों नाटक धावक नामक कवि ने हर्ष से पुरस्कार लेकर लिखे।

प्रायद्वीपों में नए राज्यों के गठन और ग्राम-विस्तार

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दक्षिण भारत में सातवीं सदी के आरंभ में कई प्रमुख राज्यों का उदय हुआ।

 
6ठी शताब्दी में दक्षिण भारत
  1. बादामी के चालुक्य
  2. कांची के पल्लव और
  3. मदुरै के पांड्य

दक्षिण के प्रदेशों में द्वितीय ऐतिहासिक चरण (300 ई.-750 ई. तक) में व्यापार, नगर और मुद्रा तीनों का ह्रासतथा कृषि अर्थव्यवस्था में विस्तार हुआ।ब्राह्मणों को कर मुक्त भूमि का अनुदान भारी संख्या में दिखाई देता है। इस काल में (द्वितीय ऐतिहासिक चरण) भूमि अनुदानों से यह सिद्ध होता है कि अनेक नए क्षेत्रों का उपयोग खेती और आवास के लिये किया गया।

दक्षिण भारत के राज्यों में सन् 400 ई. से संस्कृत राजभाषा हो गई थी और अधिकांश शासन-पत्र (सनद) संस्कृत में मिले हैं। उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में ईसा-पूर्व दूसरी सदी और ईसा की तीसरी सदी के बीच के लगभग सभी अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं। तमिलनाडु के ब्राह्मी अभिलेख में भी प्राकृत भाषा के शब्द हैं। यहाँ लगभग 300 ई. से 750 ई. के मध्य ब्राह्मण धर्म का उत्कर्ष हुआ। बौद्ध और जैन धर्म जो तमिलनाडु के दक्षिणी ज़िलों में फैले थे, उनमें जैन धर्म सिमटकर कर्नाटक में ही रह गया। यहाँ राजाओं द्वारा किये गए वैदिक यज्ञों के साक्ष्य मिले हैं। तमिलनाडु में पल्लव और कर्नाटक में बादामी के चालुक्यों के शासन काल में शिव और विष्णु के प्रस्तर मंदिरों का निर्माण आरंभ हुआ। उत्तरी महाराष्ट्र और विदर्भ में सातवाहनों के स्थान पर एक स्थानीय शक्ति वाकाटकों ने प्रमुख शहर बसाया।

 
9वीं शताब्दी में दक्षिण भारत

छठी सदी में पश्चिमी दक्कन में चालुक्यों ने अपना राज्य स्थापित किया और वातापी को राजधानी बनाया। प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में सातवाहनों के अवशेष पर कृष्णा-गुंटूर क्षेत्र में इक्ष्वाकुओं का उदय हुआ और इक्ष्वाकुओं को अपदस्थ कर उनकी जगह पल्लव आए और उन्होंने अपनी राजधानी कांची (आधुनिक कांचीपुरम) में बनाई। उल्लेखनीय है कि पल्लव का अर्थ है लता, चूँकि यह शब्द टोंडाई का रूपांतरण है जो लता का ही पर्यायवाची है। पल्लवों ने टोंडाइनाडु अर्थात् लताओं के देश में अपनी सत्ता स्थापित की।

पल्लवों के समकालीन दक्षिणी कर्नाटक में गंगा राजाओं ने अपनी सत्ता स्थापित की। उनका राज्य पूरब में पल्लवों के राज्य और पश्चिम में कदंबों के राज्य के बीच था। उनकी सबसे पहले राजधानी कोलार थी। उल्लेखनीय है कि गंगा राजाओं ने भूमि अनुदान का लाभ अधिकतर जैनों को ही दिया।

कदंब राज्य का संस्थापक मयूरशर्मन था।जब वह पढ़ने के लिये कांची आया तो पल्लवों द्वारा वहाँ से अपमानित कर निकाल दिया गया। उसने पल्लवों से अपने अपमान का बदला युद्ध करके लिया,परंतु वह पल्लवों से हार गया फिर भी पल्लवों ने मयूरशर्मन को राजचिह्न देकर कदंबों की राजसत्ता को मान्यता दी। कदंबों ने चौथी सदी में उत्तरी कर्नाटक और कोंकण में अपनी सत्ता कायम की। मयूरशर्मन ने अपनी राजधानी कर्नाटक के उत्तरी केनरा ज़िले के वैजयन्ती या बनवासी में बनाई।

ऐहोल अभिलेख से चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय के बारे में जानकारी मिलती है।इसमें हर्ष-पुलकेशिन द्वितीय के युद्ध का विवरण मिलता है। रविकीर्ति उसका दरबारी कवि था। उसके द्वारा रचित उसकी प्रशस्ति (गुण वर्णन) ऐहोल अभिलेख में उत्कीर्ण है। पुलकेशिन द्वितीय ने 610 ई. के आस-पास कृष्णा और गोदावरी का दोआब, जो वेंगी नाम से प्रसिद्ध हुआ, पल्लवों से जीत लिया था। यहाँ पर मुख्य राजवंश की एक शाखा स्थापित की गई जो वेंगी का पूर्वी चालुक्य रामवंश कहलाने लगे।

पल्लव राजा नरसिंहवर्मन और चालुक्य राजा पुलकेशिन के संघर्ष के मध्य 642 ई. के आस-पास पल्लव राजा ने पुलकेशिन को पराजित कर वातापी पर अधिकार करते हुए वातापीकोण्ड अर्थात् वातापी-विजेता की उपाधि धारण की।आठवीं सदी के पूर्वार्द्ध में चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने कांची को तीन बार पराजित कर लगभग 740 ई. में पल्लवों को पूरी तरह समाप्त किया, परंतु चालुक्यों को 757 ई. में राष्ट्रकूटों ने समाप्त कर दिया था।

7वीं और 8वीं सदी के मंदिर

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दक्षिण भारत में सातवीं सदी से आल्वार संतों ने वैष्णव संप्रदाय फैलाया तथा नायन्नार संतों ने शैव संप्रदाय फैलाया। इस दौरान यज्ञानुष्ठानों के अलावा ब्रह्मा, विष्णु और शिव की पूजा लोकप्रिय हो गई। विष्णु और शिव की पूजा पहले से ज्यादा होने लगी| पल्लव राजाओं ने सातवीं और आठवीं सदी में अपने आराध्य देवताओं की प्रतिमा स्थापित करने के लिये बहुत-से प्रस्तर मंदिर बनवाए, इनमें सबसे प्रसिद्ध महाबलिपुरम के सात रथ वाला मंदिर है। सातवीं सदी में नरसिंहवर्मन ने प्रसिद्ध बंदरगाह शहर महाबलिपुरम या मामल्लपुरम की स्थापना की।

आठवीं सदी में कांची में कैलाशनाथ मंदिर का निर्माण 685-705 ई. में पल्लव वंश के नरसिंहवर्मन ने करवाया। यह मंदिर किसी चट्टान को काटकर नहीं बल्कि स्वतंत्र संरचना के रूप में बनवाया।

पापनाथ मंदिर (लगभग 680 ई.) की लम्बाई तीस मीटर है और इसका बुर्ज उत्तर भारतीय शैली में बना है, यह छोटा और नीचा हैं। विरूपाक्ष मंदिर दक्षिण भारतीय शैली में बना है। इसका शिखर बहुत ही ऊँचा, आयताकार और कई मंज़िलों वाला है। उसकी दीवारें रामायण के दृश्यों वाली सुन्दर-सुन्दर मूर्तियों से सजी है।


दक्षिण भारत में तीन प्रकार के गाँव दिखाई देते हैं- उर, सभा और नगरम्।

  1. ‘उर’ सबसे प्रचलित थे, जिसमें किसान रहते थे।ऐसे गाँवों में ग्राम-प्रधान का यह कर्त्तव्य होता था कि गाँव वालों से कर वसूल करे।
  2. सभा कोटि के गाँव ब्रह्मदेय और अग्रहार गाँव आते थे।ऐसे गाँवों पर अनुदान प्राप्तकर्त्ता व्यक्ति का अधिकार होता था।
  3. नगरम् में व्यापारियों और वाणिकों का मिला-जुला वास होता था और उन्हीं का प्रभाव होता था।राजा किसानों से नियमित कर लेता था। फसल के भूमि कर में लेने के अतिरिक्त राजा किसानों से अन्न, स्वर्ण,

गुड़ आदि वस्तुएँ लेता था। इसके अतिरिक्त राजा को विष्टि अर्थात् बेगार का अधिकार था। [I.A.S-97] मणिग्रामम-पश्चमी चालुक्य शासकों के समय दक्षिण भारतीय व्यापारियों की एक प्रभावशाली गिल्ड।

भारत का एशियाई देशों से सांस्कृतिक संपर्क

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बौद्ध धर्म के सबसे प्राचीन संप्रदाय थेरवाद को बर्मा (म्याँमार) के लोगों ने विकसित किया है।चीनियों ने बौद्ध चित्रकला भारत से सीखी और भारतीयों ने रेशम उपजाने का कौशल चीन से सीखा। कुषाण काल में शासन विस्तार के फलस्वरूप खरोष्ठी लिपि में लिखी गई प्राकृत भाषा मध्य एशिया में फैली, जहाँ से ईसा की चौथी सदी के अनेक प्राकृत अभिलेख और पांडुलिपियाँ मिली हैं। बेगराम हाथी दाँत की दस्तकारी के लिये प्रसिद्ध था। प्राचीन काल में बौद्ध धर्म के दो और महान केंद्र थे- अफगानिस्तान और मध्य एशिया। अफगानिस्तान में बुद्ध की बहुत-सी मूर्तियाँ और विहार मिले हैं।

दुनिया की सबसे बड़ी बुद्ध मूर्ति, जो ईसवी सन् के आरंभिक वर्षों में चट्टानों को काटकर बनाई गई थी, बामियान में स्थित है। यहाँ अनेक प्राकृतिक और कृत्रिम गुफाएँ हैं, जिनमें बौद्ध भिक्षु रहते हैं। अफगानिस्तान में बौद्ध धर्म सातवीं सदी तक रहा। इसी सदी में इस्लाम धर्म ने इसे अपदस्थ कर दिया।

दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का प्रसार (बर्मा को छोड़कर) बौद्ध धर्म के माध्यम से नहीं बल्कि ब्राह्मण धर्म के द्वारा हुआ है। इसके अतिरिक्त व्यापारियों के माध्यम से भी प्रसार हुआ। बर्मा (म्याँमार) के पेगू और मोलमेन सुवर्णभूमि कहलाते हैं। इंडोनेशिया (जावा) को भी सुवर्णद्वीप कहा जाता था। भारतीय वहाँ सोने की खोज में गए थे। ईसवी सन् की आरंभिक सदियों में पल्लवों ने सुमात्रा में अपनी बस्तियाँ स्थापित कीं

आठवीं सदी में निर्मित सबसे विशाल बौद्ध मंदिर इंडोनेशिया के बोरोबुदुर में है। इस पर बुद्ध के 436 चित्र उत्कीर्ण हैं। कम्बोडिया का अंकरोवट का विष्णु मंदिर बोरोबुदुर के मंदिर से भी बड़ा है।इस मंदिर की दीवारों पर रामायण और महाभारत की कहानियाँ मूर्तियों के रूप में उत्कीर्ण हैं।

छठी सदी में दक्षिण-पूर्व एशिया में कम्बोज (कम्बोडिया) और चम्पा में शैव राजाओं ने शक्तिशाली राज्य स्थापित किया।उनकी राजकीय भाषा संस्कृत थी। यह देश संस्कृत विद्या का केंद्र माना जाता था। कम्बोज में असंख्य अभिलेख संस्कृत भाषा में मिले हैं।

भारतीयों ने इंडोनेशिया से पान की बेल लगाने की विधि सीखी। उल्लेखनीय है कि भारतीयों ने यूनानियों और रोमनों से सोने का सिक्का ढालना सीखा और चीन से रेशम उत्पादन सीखा परंतु कपास उत्पादन कौशल भारत से चीन और मध्य एशिया में गया।

विज्ञान और सभ्यता की विरासत

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इस्पात बनाने की कला पहले भारत में विकसित हुई। प्राचीन काल में भारत से इस्पात अन्य देशों को भी निर्यात किया जाता था और बाद में यह उत्स (Wootz) कहलाने लगा।भारतीय शिल्पियों द्वारा निर्मित इस्पात की तलवार विश्व प्रसिद्ध थी, इसकी एशिया से लेकर पूर्वी यूरोप तक भारी मांग थी।

गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों ने तीन विशिष्ट योगदान दिये- अंकन पद्धति, दाशमिक पद्धति और शून्य का प्रयोग।भारतीय अंकन पद्धति को अरबों ने अपनाया और पश्चिमी दुनिया में फैलाया। अंग्रेज़ी में भारतीय अंकमाला को अरबी अंक (अरेबिक न्यूमरल्स) कहते हैं, परन्तु अरबों ने अपनी अंकमाला को हिंदसा कहा। पश्चिमी देशों ने दाशमिक (दशमलव) प्रणाली अरबों से सीखी, जबकि चीनियों ने यह पद्धति बौद्ध धर्मप्रचारकों से सीखी।प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट्ट ने दाशमिक पद्धति का आविष्कार किया था।

ईसा पूर्व दूसरी सदी में राजाओं के लिये उपयुक्त यज्ञवेदी बनाने के लिये आपस्तम्ब ने व्यावहारिक ज्यामिति की रचना की। इसमें न्यूनकोण, अधिककोण और समकोण का वर्णन किया गया है। आर्यभट ने त्रिभुज का क्षेत्रफल जानने का नियम निकाला जिसके फलस्वरूप त्रिकोणमिति का जन्म हुआ। आर्यभट्ट पाँचवीं सदी के महान विद्वान थे।

आर्यभट ने बेबिलोनियाई विधि से ग्रह-स्थिति की गणना की और उसने चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के कारणों का पता लगाया। उन्होंने अनुमान के आधार पर पृथ्वी की परिधि का मान निकाला, जो आज भी शुद्ध माना जाता है। उसने बताया कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी घूमती है।

औषधियों का उल्लेख सबसे पहले अथर्ववेद मे मिलता है।सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का पिता कहा जाता है।सुश्रुत ने शल्य क्रिया के 121 उपकरणों का उल्लेख किया है। सुश्रुत संहिता में सुश्रुत ने मोतियाबिंद, पथरी तथा अन्य बहुत से रोगों का उपचार शल्य-क्रियाविधि से बताया है। चरक की चरक संहिता भारतीय चिकित्सा शास्त्र का विश्वकोश है, इसमें ज्वर, कुष्ठ, मिरगी और यक्ष्मा के अनेक प्रकार बताए गए हैं। इस पुस्तक में बड़ी संख्या में उन पेड़-पौधों का वर्णन है जिनका प्रयोग दवा के रूप में होता है।

  • आर्यभट्ट-सुर्यसिद्धांत’
  • आर्यभट्ट - आर्यभटीय
  • वराहमिहिर - बृहत संहिता
  • कालिदास - अभिज्ञानशाकुंतलम्

मौर्यकालीन पालिशदार सिंह की मूर्ति वाले स्तंभशीर्ष को भारत सरकार ने राष्ट्रीय चिह्न के रूप में स्वीकार किया है। भारतीय कला और यूनानी कला दोनों के तत्त्वों के सम्मिश्रण से एक नई कला शैली का जन्म हुआ जो गांधार शैली के नाम से प्रसिद्ध है। बुद्ध की पहली प्रतिमा इसी शैली में है।

  1. https://www.ancient.eu/article/294/the-history-of-ancient-india/
  2. https://www.jagranjosh.com/general-knowledge/the-harshavardhana-era-1437388149-1