सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा सहायिका/1757-1857 तक के आधुनिक भारत का इतिहास

-SHANKAR DEWASI

  • 1672 ई. में किसानों और मुगलों के बीच मथुरा के निकट नारनौल नामक स्थान पर एक युद्ध हुआ जिसका नेतृत्व सतनामी नामक एक धार्मिक संप्रदाय ने किया था।

सतनामी अधिकतर किसान, दस्तकार तथा नीची जाति के लोग थे। सतनामी संप्रदाय की स्थापना "बीरभान" नामक एक संत ने नारनौल में 1657 में की थी। इस विद्रोह को दबाने में स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों (जिनमें अधिकतर राजपूत थे) ने मुगलों का साथ दिया था।

  • 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट

इसको पास करने का प्रमुख कारण था-

  1. भारत में स्थित कंपनी के अधिकारियों और सैनिकों पर नियंत्रण करना।
  2. कंपनी को प्राप्त विशेषाधिकारों पर मुक्त व्यापार और पूंजीवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले अर्थशात्रियों द्वारा आलोचना करना।
  3. कंपनी के हितों तथा ब्रिटिश समाज के प्रभावशाली लोगों के बीच संतुलन कायम करना।

1773 के रेगुलेटिंग एक्ट के तहत कंपनी का पूर्व के साथ व्यापार पर एकाधिकार बना रहा। इस कानून के कारण कंपनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के गठन में परिवर्तन हुआ तथा उनकी गतिविधियाँ ब्रिटिश सरकार की निगरानी में आ गईं। भारत में अपने अधिकारी नियुक्त करने का कंपनी का बहुमूल्य अधिकार उसी के हाथ में बना रहा।

  • 1784 के पिट का इंडिया एक्ट इस कानून ने बंबई और मद्रास प्रेसिडेंसियों को युद्ध, कूटनीति और राजस्व के मामलों में स्पष्ट शब्दों में बंगाल के अधीन कर दिया। इस कानून के साथ भारत में ब्रिटिश विजय का एक नया युग आरंभ हुआ।
  • भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद मुख्यत: तीन चरणों से गुजरा। ये विभिन्न चरण भारत के आर्थिक अधिशेष को हड़पने के विभिन्न उपायों पर आधारित थे। भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद और आर्थिक शोषण के तीन चरण निम्न हैं –
  1. वाणिज्यिक नीति: 1757 से 1813
  2. औद्योगिक मुक्त व्यापार: 1813 से 1860
  3. मुक्त व्यापार की नीति: 1860 के बाद की अवस्था

आरंभिक चरण अर्थात 17वीं 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का मुख्य उद्देश्य भारत के साथ व्यापार करने के बहाने उसे लूटना था। आगे चलकर 19वीं शताब्दी में भारत का प्रयोग ब्रिटेन में बनी हुई औद्योगिक वस्तुओं के लिए मुख्य बाजार के रूप में किया गया। 1860 के बाद भारत स्थित ब्रिटिश उद्योगपतिओं द्वारा देश में पूँजी-विनियोग की प्रक्रिया आरंभ की गई।

1813 के चार्टर एक्ट में विद्वान भारतीयों को बढ़ावा देने तथा देश में आधुनिक विज्ञानों के ज्ञान को प्रोत्साहित करने का सिद्धांत शामिल किया गया। इस एक्ट के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी को इस उद्देश्य के लिये एक लाख रुपए खर्च करने का निर्देश दिया गया। मगर 1823 तक कंपनी के अधिकारियों ने इस काम के लिये यह तुच्छ रकम भी नहीं दी।

ब्रिटिश सरकार द्वारा 1813 में भारत के संदर्भ में अपनाई गई मुक्त व्यापार की नीति का मुख्य उद्देश्य भारत को ब्रिटेन के कारखानों के माल का उपभोक्ता तथा कच्चे माल का निर्यातक बनाना था। इस नीति के कारण खेतिहर भारत को अब औद्योगिक इंग्लैंड का आर्थिक उपनिवेश बनना पड़ा।

दूसरा कथन असत्य है। भारत पर लादी गई मुक्त व्यापार की नीति एकतरफा थी। भारत के दरवाज़े तो विदेशी सामानों के लिये खुले छोड़ दिये गए, मगर जो भारतीय माल ब्रिटिश मालों से प्रतियोगिता कर सकते थे, उन पर ब्रिटेन में प्रवेश के लिये भारी आयात-शुल्क लगा दिये गए। अनेक ब्रिटिश अधिकारियों, राजनीतिक नेताओं तथा व्यापारियों ने ज़मीन का लगान घटाने की पैरवी की ताकि किसान बेहतर स्थिति में हों और विदेशी कारखानों में बना माल खरीद सकें। उन्होंने भारत के पश्चिमीकरण का समर्थन भी किया ताकि अधिकाधिक भारतीयों में पश्चिमी मालों के प्रति रुचि का विकास हो सके।

  • अंग्रेज़ों ने भारत में एक कुशल और आधुनिक डाक-प्रणाली कायम की तथा तार की व्यवस्था की शुरुआत की। 1853 में कलकत्ता और आगरा के बीच पहली तार लाइन का आरंभ किया गया।

लॉर्ड डलहौजी के समय ही डाक-टिकटों एवं तार लाइनों का आरंभ किया गया। भारत में रेलवे लाइन के विकास का कार्य सर्वप्रथम डलहौजी के समय में शुरू हुआ। 1849 में भारत का गवर्नर-जनरल बनने वाला लॉर्ड डलहौजी भारत में तेज़ी से रेल-लाइन बिछाने का पक्का समर्थक था। बंबई और ठाणे के बीच पहली रेल लाइन यातायात के लिये 1853 में शुरू की गई।

ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप तथा विभिन्न उपनिवेशों के कारण वहाँ के उद्योगपतियों एवं अधिकारियों के पास काफी पूंजी इकट्ठा हो गई थी। इस कारण से भारत सरकार ने उनको निश्चित लाभांश का आश्वासन देकर उनकी पूंजी को रेलवे के विकास में लगाया। जिस कारण से ब्रिटेन के उद्योग धंधों के साथ-साथ वहाँ के लोगों को रोज़गार के रूप में काफी लाभ हुआ। रेलों की योजना तैयार करने, उनका निर्माण तथा प्रबंध में भारत और उसकी जनता के आर्थिक और राजनीतिक विकास को महत्त्व नहीं दिया गया। इसके विपरीत खास ध्यान भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक हितों की पूर्ति का रखा गया। रेल-भाड़े को इस प्रकार तय किया गया था कि आयात-निर्यात को बढ़ावा मिले तथा वस्तुओं के आवागमन को हतोत्साहित किया जा सके।

1813 तक अंग्रेज़ों ने देश के धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में गैर-अहस्तक्षेप की नीति अपनाई, किंतु 1813 के बाद उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति के रूपांतरण के लिये सक्रिय कदम उठाए। इससे पहले 19वीं सदी के दौरान ब्रिटेन में नए हितों और नए विचारों का उदय हुआ था। औद्योगिक क्रांति अठारहवीं सदी के मध्य में आरंभ हुई थी जिसके फलस्वरूप औद्योगिक पूंजीवाद का विकास ब्रिटिश समाज के सभी पहलुओं को बदल रहा था। उदीयमान औद्योगिक हितों ने भारत को अपनी वस्तुओं के लिये बड़े बाज़ार के रूप में बदलना चाहा। ऐसा केवल शांति बनाए रखने की नीति के ज़रिये नहीं हो सकता था बल्कि इसके लिये भारतीय समाज के आंशिक रूपांतरण और आधुनिकीकरण की आवश्यकता थी। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदियों के दौरान विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने मानवीय प्रगति की नई प्रत्याशाएँ उत्पन्न कर दीं। इस दौरान यूरोप तथा ब्रिटेन में नए विचारों का एक नया ज्वार देखा गया जिसने भारतीय समस्याओं के प्रति ब्रिटिश दृष्टिकोण को प्रभावित किया। नया चिंतन अठारहवीं शताब्दी की बौद्धिक क्रांति, फ्राँसीसी क्रांति और औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न हुआ था। स्वाभावतया इस नए चिंतन का प्रभाव भारत में महसूस किया गया तथा उसने सरकार की शासकीय धारणाओं को भी कुछ हद तक प्रभावित किया।

  • 18वीं सदी में यूरोप में चिंतन की नई लहरों का पुराने दृष्टिकोण से टकराव हुआ। पुराने दृष्टिकोण को रूढ़िवादी या परंपरागत दृष्टिकोण कहा जाता था। यह दृष्टिकोण भारत में यथासंभव कम-से कम परिवर्तन करने का पक्षपाती था। शुरुआत में इस दृष्टिकोण के प्रतिनिधि वॉरेन हेस्टिंग्स और प्रसिद्ध लेखक तथा सांसद एडमंड वर्क थे। वे भारतीय दर्शन और संस्कृति की इछज़त करते थे। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि कुछ पश्चिमी विचारों और रिवाज़ों को लागू करना ज़रूरी हो सकता है किंतु उन्हें बढ़ी सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे लागू किया जाए। उन्होंने महसूस किया कि व्यापक या जल्दीबाज़ी में किये गए परिवर्तन देश में तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न करेंगे।

1800 तक रूढ़िवादी दृष्टिकोण की जगह पर बड़ी तेज़ी से नया दृष्टिकोण आने लगा था जो भारतीय समाज और संस्कृति का कटु आलोचक था। भारतीय सभ्यता को गतिहीन कहकर उसकी निंदा की गई और उसे घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा। भारतीय साम्राज्य को उसकी प्राकृतिक भौगोलिक सीमा तक फैलाने की अंग्रेज़ों की धुन के साथ पहले उनका उत्तर में स्थित नेपाल से टकराव हुआ। 1814 में दोनों के बीच युद्ध आरंभ हो गया। अंग्रेज़, नेपालियों से हर मामले में श्रेष्ठ थे। अंत में नेपाल की सरकार को ब्रिटेन की शर्तों पर बातचीत करनी पड़ी। नेपाल को गढ़वाल तथा कुमाऊँ के जिले छोड़ने पड़े तथा तराई के क्षेत्रों पर भी अपना दावा त्यागना पड़ा। उसे सिक्किम से भी हट जाना पड़ा। इस समझौते से भारतीय साम्रज्य हिमालय तक फैल गया। ब्रिटिशों को हिल स्टेशन बनाने के लिये शिमला, मसूरी और नैनीताल जैसे महत्त्वपूर्ण स्थान भी मिल गए।

ब्रिटिश शासन का आर्थिक प्रभाव सम्पादन

ब्रिटिश शासन के आरंभिक दशकों में बंगाल तथा मद्रास के पुराने ज़मींदार तबाह हो गए। ऐसा खासकर सबसे ऊँची बोली लगाने वालों को ही राजस्व वसूली के अधिकार नीलाम करने की वॉरेन हेस्टिंग्स की नीति के कारण हुआ। भू-राजस्व का भारी बोझ और वसूली संबंधी सख्त कानून, जिसके तहत राजस्व की अदायगी में विलंब होने पर ज़मींदारों की संपत्तियाँ बड़ी कठोरता से नीलाम कर दी गई। दूसरा कथन सत्य है। ज़मींदारी प्रथा के प्रसार की एक उल्लेखनीय विशेषता थी बिचौलियों का उदय। ज़मींदारों तथा नए भू-स्वामियों ने लगान वसूल करने के अपने अधिकार को लाभदायक शर्तों पर अन्य इच्छुक लोगों को दे दिया। अतः इस प्रक्रिया की एक शृंखला बन गई जिससे वास्तविक किसान तथा सरकार के बीच लगान पाने वाले अनेक बिचौलिये आ गए। तीसरा कथन असत्य है। ज़मींदार तथा भू-स्वामी संरक्षित राज्यों के राजाओं के साथ विदेशी शासकों के राजनीतिक समर्थक बन गए तथा इन्होंने उदीयमान राष्ट्रीय आंदोलन का विरोध किया क्योंकि इनको महसूस हुआ कि इनका अस्तित्व ब्रिटिश शासन से ही है।

ब्रिटिश सरकार ने कृषि के सुधार और आधुनिकीकरण की कोई भी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेने से इनकार कर दिया। ब्रिटिश सरकार का सारा ध्यान केवल भू-राजस्व प्राप्त करने में था। ब्रिटिश शासन काल में कृषि शिक्षा पूर्णतया उपेक्षित थी। 1939 में पूरे भारत में केवल छः कृषि कॉलेज थे। बंगाल, बिहार, उड़ीसा और सिंध में एक भी कृषि कॉलेज नहीं था।

भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान अधिकतर आधुनिक भारतीय उद्योगों पर ब्रिटिश पूंजी का स्वामित्व या नियंत्रण था। क्योंकि ब्रिटिश पूंजीपति भारतीय उद्योगों में ऊँचे मुनाफे की संभावनाओं के कारण उसकी ओर आकर्षित हुए थे। भारत में श्रम अत्यंत सस्ता था, कच्चा माल तुरंत और सस्ती दरों पर उपलब्ध था तथा तैयार वस्तुओं के लिये भारत और उसके पड़ोसियों का विशाल बाज़ार उपलब्ध था।

भारतीय उद्यमियों को ब्रिटिश शासन के दौरान किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता था? 1. ब्रिटिश मैनेजिंग एजेंसी। 2. बैंक से मिलने वाली पूंजी की विभेदकारी दर। 3. रेलवे भाड़े की दरों में असमानता। 4. देश में भारी या पूंजीगत वस्तुओं के उद्योगों का अभाव।

जर्मनी में संश्लिष्ट रंग (कृत्रिम रंग) के आविष्कार से भारतीय नील उद्योग को बड़ा धक्का लगा और धीरे-धीरे इसका ह्रास हो गया।