सिविल सेवा मुख्य परीक्षा विषयवार अध्ययन/न्यायपालिका

भारत के संविधान की उद्देशिका यह परिभाषित करती है कि राज्य की प्रथम भूमिका ‘इसके सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय सुनिश्चित करना है’। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 में भारतीय न्यायालयों को और अधिक कार्यशील बनाने के उपायों के बारे चर्चा की गई है। दक्षता और रिक्तियाँ भारतीय न्यायिक प्रणाली के प्रदर्शन को प्रभावित करने वाले दो महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं और इसमें सुधार की पर्याप्त गुंजाइश है। इनके अलावा,न्यायपालिका के प्रदर्शन को बेहतर बनाने हेतु कुछ सुझावों पर नीचे चर्चा की गई है।

  1. कार्य दिवसों की संख्या बढ़ाना:-भारतीय अदालतें छुट्टियों के कारण लंबी अवधि के लिये बंद हो जाती हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट एक वर्ष में केवल 190 दिन काम करता है। कार्य दिवसों की संख्या बढाकर सर्वोच्च न्यायालय और कुछ उच्च न्यायालयों के प्रदर्शन में महत्त्वपूर्ण सुधार किया जा सकता है, जबकि इस निर्णय से निचली अदालतों के अप्रभावित रहने की संभावना है क्योंकि उनके औसत कार्य दिवस लगभग सरकारी विभागों के समान ही हैं।
  2. भारतीय न्यायालयों और अधिकरण सेवाओं की स्थापनाः-अधिकतर न्यायिक सुधारों का रुझान न्यायाधीशों की गुणवत्ता और संख्या पर ही विशेष ध्यान देने वाला रहा है, परंतु प्रमुख समस्या न्यायालयों की प्रणाली, प्रमुखतया अनुषंगी एवं अप्रत्यक्ष कार्यप्रणालियों और प्रक्रियाओं के प्रशासन की गुणवत्ता से सहबद्ध है। वर्तमान प्रणाली में, भारतीय न्यायालयों में प्रशासन की मुख्य जिम्मेदारी मुख्य न्यायिक अधिकारी को सौंपी गई है। उसके पास इस कार्य के लिये अत्यधिक कम समय होने के अलावा, यह अवधारणा प्रणालीगत सुधारों और प्रशासनिक सुधारों संबंधी संस्थागत ज्ञान के क्रमिक संचय में सहायक नहीं है। इस संदर्भ में, भारतीय न्यायालय और अधिकरण सेवा (आईसीटीएस) नामक विशिष्ट सेवा का सृजन करने का प्रस्ताव किया गया है जो विधिक प्रणाली के प्रशासनिक पहलुओं पर विशेष ध्यान देती है।
आईसीटीएस द्वारा अदा की जाने वाली प्रमुख भूमिकाएँ:-

न्यायपालिका द्वारा आवश्यक प्रशासनिक सहायता प्रदान करना प्रक्रिया की अक्षमताओं की पहचान करना और कानूनी सुधारों पर न्यायपालिका को सलाह देना प्रक्रिया पुनःअभियांत्रिकी का क्रियान्वयन।

  1. प्रौद्योगिकी का उपयोगः प्रौद्योगिकी से न्यायालय की क्षमता में काफी सुधार आ सकता है।
  2. eCourts परियोजना:-इसे राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस मिशन के तहत कानून और सामाजिक न्याय मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित किया जाता है। इसका उद्देश्य ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों का डिजिटलीकरण और साथ ही उच्च स्तर पर आईसीटी का उन्नयन करना है।
  3. राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड:-यह प्रणाली अधिकतर मामलों, उनकी स्थिति और प्रगति संबंधी सूचना प्रस्तुत करने का सामर्थ्य रखती है।

मत्स्य न्याय थ्योरी:-अराजकता की अवधि में, जब कोई शासक नहीं होता है, शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर व्यक्ति को नष्ट करता है, जैसे- सूखे की अवधि में बड़ी मछली छोटी मछली खाती है। इस प्रकार, एक शासक की आवश्यकता को निरपेक्ष रूप में देखा गया था। बस, हम इसे मछली / जंगल का नियम कहते हैं। महत्त्वपूर्ण तथ्य और रुझान

  • सभी लंबित मामलों के 87.54% मामले D&S कोर्ट में हैं।
  • आपराधिक मामलों (71.62%) की पेंडेंसी सिविल मामलों (28.38) से लगभग 2.5 गुना अधिक है और आपराधिक मामलों में D&S अदालतों में CCR भी कम है।
  • CCR 2015 में 86.1% से बढ़कर 2017 में 90.5% हो गया था, लेकिन फिर 2018 में घटकर 88.7% रह गया।
  • गुजरात और छत्तीसगढ़ को 2018 में 100% से अधिक की निपटान दर है।

राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) कानून और न्याय मंत्रालय द्वारा शुरू किये गए ई-कोर्ट इंटीग्रेटेड मिशन मोड परियोजना का एक हिस्सा है। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड भारतीय न्यायपालिका में लंबित मामलों की पहचान, प्रबंधन और इनको कम करने के लिये एक निगरानी इकाई के रूप में काम करेगा। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) किशोर न्याय प्रणाली से संबंधित मामलों सहित सभी श्रेणियों के मामलों को कवर करेगा।

भारतीय न्यायालयों और अधिकरण सेवाओं (Indian Courts and Tribunal Services) आईसीटीएस द्वारा निभाई जाने वाली प्रमुख भूमिकाएँ: न्यायपालिका के लिये आवश्यक प्रशासनिक सहायक कार्य करना। प्रक्रिया से जुड़ी अक्षमताओं की पहचान करना और न्यायपालिका को विधिक सुधारों के संबंध में सलाह देना। प्रक्रियागत बदलावों को कार्यान्वित करना। आईसीटीएस कोई अनूठा माॅडल नहीं है। इस प्रकार की न्यायालय प्रबंध सेवाएँ अन्य देशों में भी मौजूद हैं:

  1. हर मजेस्टीस कोर्ट एंड ट्रिब्यूनल्स सर्विसेज (ब्रिटेन)
  2. एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिस ऑफ़ यूएस कोर्ट्स (अमेरिका)
  3. कोर्ट एडमिनिस्ट्रेशन सर्विस (कनाडा)

पिछले वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण (2017- 18) ने उन लंबित मामलों के साक्ष्य प्रस्तुत किये जो भारतीय न्यायपालिका,आर्थिक न्यायाधिकरण और कर विभाग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं, इनसे आर्थिक विकास बाधित होता है। इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि वर्तमान व्यवस्था को बेहतर बनाने हेतु सरकार द्वारा विभिन्न प्रयास जैसे इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड और वस्तु एवं सेवा कर आदि अंगीकृत किये गए हैं और इनसे व्यापार सुगमता सूचकांक (ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस रैंकिंग) में सुधार हुआ है। अनुबंधों को लागू कर पाने के सूचकांक की दृष्टि से भारत का पिछड़े रहना जारी है, वर्ष 2018 के कारोबार सुगमता सूचकांक (ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस रैंकिंग) में भारत ने 164वें से 163वें स्थान पर पहुँचकर सिर्फ एक स्थान का सुधार किया है। अनुबंध प्रवर्तन व्यवस्था में तेज़ी लाने और सुधार करने हेतु कई प्रयासों के बावज़ूद, कानूनी परिदृश्य में देरी तथा लंबित मामलों से आर्थिक गतिविधि प्रभावित हो रही है। भारतीय न्यायिक प्रणाली में 3.53 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। जिला और अधीनस्थ अदालतों में लंबित मामलों का 87.54% हिस्सा है, जबकि उच्चतर न्यायपालिका जैसे सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में लंबित मामलों का सिर्फ 0.16% और 12.3% है।

जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में औसत लंबित मामलों में अंतर्राज्यीय अंतर से पता चलता है कि ओडिशा, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और गुजरात में दीवानी और फौजदारी दोनों में राष्ट्रीय औसत की तुलना में अधिक लंबित मामले हैं, जबकि पंजाब और दिल्ली में औसतन लंबित मामलें सबसे कम हैं।
मामले निपटान की दर किसी वर्ष में दर्ज़ मामलों एवं निपटाये गए मामलों की संख्या का अनुपात होती है, इसे प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है। इसका उपयोग मुख्य रूप से मामलों के दर्ज़ होने के अनुपात में न्यायिक प्रणाली की दक्षता को समझने के लिये किया जाता है।

यह ध्यान देने योग्य है कि सभी निपटाये गए मामले उसी वर्ष में दर्ज़ हों यह आवश्यक नहीं है क्योंकि आमतौर पर उनमें से कुछ पिछले वर्षों के लंबित मामले होंगे। प्रतिवर्ष ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालय में दर्ज़ होने वाले मामलों की संख्या बढ़ने से निपटाये जाने वाले मामलों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। हालाँकि मामलों के दर्ज़ होने और उन्हें निपटाये जाने में एक बड़ा अंतर है जिसके परिणामस्वरूप लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है।

उच्चतम न्यायालय

सम्पादन
संवैधानिक प्रावधान

भारतीय संविधान में भाग पाँच (संघ) एवं अध्याय 6 (संघ न्यायपालिका) के तहत सर्वोच्च न्यायालय का प्रावधान किया गया है। संविधान के भाग पाँच में अनुच्छेद 124 से 147 तक सर्वोच्च न्यायालय के संगठन, स्वतंत्रता, अधिकार क्षेत्र, शक्तियों एवं प्रक्रियाओं से संबंधित हैं। अनुच्छेद 124 (1) के तहत भारतीय संविधान में कहा गया है कि भारत का एक सर्वोच्च न्यायालय होगा जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश (CJI) होगा तथा सात से अधिक अन्य न्यायाधीश नहीं हो सकते जब तक कि कानून द्वारा संसद अन्य न्यायाधीशों की बड़ी संख्या निर्धारित नहीं करती है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को सामान्य तौर पर मूल अधिकार क्षेत्र, अपीलीय क्षेत्राधिकार और सलाहकार क्षेत्राधिकार में वर्गीकृत किया जा सकता है। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय के पास अन्य कई शक्तियाँ हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का संगठन (Organisation)

वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में 31 न्यायाधीश (एक मुख्य न्यायाधीश एवं तीस अन्य न्यायाधीश) हैं। सर्वोच्च न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) 2019 के विधेयक में चार न्यायाधीशों की वृद्धि की गई। इसने मुख्य न्यायाधीश सहित न्यायिक शक्ति को 31 से बढ़ाकर 34 कर दिया। मूल रूप से सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या आठ (एक मुख्य न्यायाधीश एवं सात अन्य न्यायाधीश) निर्धारित की गई थी। संसद उन्हें विनियमित करने के लिये अधिकृत है।

संविधान दिल्ली को सर्वोच्च न्यायालय का स्थान घोषित करता है। यह मुख्य न्यायाधीश को अन्य किसी स्थान अथवा एक से अधिक स्थानों को सर्वोच्च न्यायालय के स्थान के रूप में नियुक्त करने का अधिकार प्रदान करता है।

वह राष्ट्रपति के अनुमोदन से ही इस संबंध में निर्णय ले सकता है। यह प्रावधान केवल वैकल्पिक है, अनिवार्य नहीं है। इसका अर्थ यह है कि कोई भी अदालत राष्ट्रपति या मुख्य न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय को किसी अन्य स्थान पर नियुक्त करने के लिये कोई निर्देश नहीं दे सकती है। न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। यदि राष्ट्रपति आवश्यक समझता है तो मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के लिये सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की सलाह ली जाती है। अन्य न्यायाधीशों को राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश एवं सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के ऐसे अन्य न्यायाधीशों के साथ परामर्श के बाद नियुक्त किया जाता है, यदि वह आवश्यक समझता है। मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायाधीश के साथ परामर्श करना अनिवार्य है।

वर्ष 1950 से वर्ष 1973 तक मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति: सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने की परंपरा रही है। वर्ष 1973 में इस परंपरा का उल्लंघन किया गया था जब तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों को छोड़कर ए एन रे को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था। वर्ष 1977 में इसका पुनः उल्लंघन किया गया जब तत्कालीन 10 वरिष्ठतम न्यायाधीशों को छोड़कर एम. यू. बेग को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था।

सरकार की इस स्वायत्तता को सर्वोच्च न्यायालय ने द्वितीय न्यायाधीश मामले (1993) में रद्द कर दिया था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को ही भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिये।

परामर्श एवं कॉलेजियम प्रणाली पर विवाद

सर्वोच्च न्यायालय ने निम्नलिखित प्रावधानों में 'परामर्श' शब्द की अलग-अलग व्याख्या की है।

प्रथम न्यायाधीश मामले (1982) में न्यायालय ने कहा कि परामर्श का अर्थ सहमति नहीं है और इसका अर्थ सिर्फ विचारों के आदान-प्रदान से है।
द्वितीय न्यायाधीश मामले (1993) में न्यायालय ने अपने पहले फैसले को पलट दिया और परामर्श शब्द का अर्थ सहमति के रूप में परिवर्तित कर दिया।
तृतीय न्यायाधीशों के मामले (1998) में न्यायालय ने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपनाई जाने वाली परामर्श प्रक्रिया के लिये ‘न्यायाधीशों के सम्मिलित परामर्श’ की आवश्यकता होती है।

मुख्य न्यायाधीश की एकमात्र राय परामर्श प्रक्रिया का गठन नहीं करती है। उन्हें उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के एक कॉलेजियम से परामर्श करना चाहिये यदि दो न्यायाधीश भी विपरीत राय देते हैं, तो उसे सरकार को नियुक्ति की सिफारिश नहीं भेजनी चाहिये। अदालत ने माना कि परामर्श प्रक्रिया के मानदंडों और आवश्यकताओं का अनुपालन किये बिना भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गई सिफारिश सरकार पर बाध्यकारी नहीं है।

कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत ‘तृतीय न्यायाधीश मामले’ के माध्यम से हुई थी और यह वर्ष 1998 से चलन में है। इसका उपयोग उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्तियों एवं स्थानांतरण के लिये किया जाता है।

भारत के मूल संविधान में या संशोधनों में कॉलेजियम का कोई उल्लेख नहीं है।

कॉलेजियम प्रणाली एवं NJAC (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग) की कार्यप्रणाली कॉलेजियम केंद्र सरकार को वकीलों या न्यायाधीशों के नाम प्रस्तावित करता है। इसी प्रकार केंद्र सरकार भी अपने कुछ प्रस्तावित नामों को कॉलेजियम को भेजती है।

कॉलेजियम केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित नामों या सुझावों पर विचार करता है एवं अंतिम अनुमोदन के लिये फाइल को सरकार के पास भेज देता है। यदि कोलेजियम फिर से उन्हीं नामों को पुनः भेजता है तो सरकार को उन नामों पर अपनी सहमति देनी होगी लेकिन जवाब देने के लिये समयसीमा तय नहीं है। यही कारण है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में लंबा समय लगता है।

99वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2014 के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली को बदलने हेतु राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (NJAC) की स्थापना की गई थी।

हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेजियम प्रणाली को बरकरार रखा और NJAC को इस आधार पर असंवैधानिक ठहराया कि न्यायिक नियुक्ति में राजनीतिक कार्यपालिका की भागीदारी "मूल संरचना के सिद्धांतों" अर्थात् "न्यायपालिका की स्वतंत्रता" के खिलाफ थी।

  • उपचारात्मक याचिका (Curative Petition) की अवधारणा रूपा हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा मामले (2002) में उच्चतम न्यायालय ने की, जिसकी सुनवाई समीक्षा याचिका (Review Petition) खारिज होने के बाद हो सकती है।

इसे न्यायालय में शिकायतों के निवारण के लिये उपलब्ध अंतिम विकल्प माना जाता है। अतः कथन 1 सही है। उपचारात्मक याचिका का दायरा समीक्षा याचिका से संकीर्ण है। समीक्षा याचिकाएँ अधिकतर संविधान के अनुच्छेद 137 के आधार पर दायर की जाती हैं, जबकि उपचारात्मक याचिका का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 142 तथा उच्चतम न्यायालय के नियम, 1966 के अधीन है। उपचारात्मक याचिका की अनुमति देने का उद्देश्य केवल कानून की प्रक्रियाओं के किसी भी प्रकार के दुरुपयोग का प्रतिकार करना और यदि न्याय के सिद्धांत का अतिक्रमण हुआ है तो इसे दूर करना है। एक उपचारात्मक याचिका की सुनवाई आम तौर पर जजों के चैंबर में वकीलों की अनुपस्थिति में होती है। केवल दुर्लभ मामलों में ही ऐसी याचिकाओं की सुनवाई खुली अदालत में होती है। अत: कथन 2 सही है। यह उच्चतम न्यायालय के अंतिम निर्णय/आदेश के विरूद्ध राहत पाने और उच्चतम न्यायालय द्वारा समीक्षा याचिका, जिसे पुनर्विचार याचिका भी कहा जाता है, को खारिज करने के बाद दायर की जाती है। इसलिये, इस पर केवल उच्चतम न्यायालय द्वारा विचार किया जा सकता है। अतः कथन 3 सही नहीं है। उपचारात्मक याचिका दाखिल करने के लिये उच्चतम न्यायालय ने कुछ शर्तें निर्धारित की हैं- किसी मामले में याचिकाकर्त्ता द्वारा पुनर्विचार याचिका पहले दाखिल की जा चुकी हो। उपचारात्मक याचिका में याचिकाकर्त्ता जिन मुद्दों को आधार बना रहा हो, उन पर पूर्व में दायर पुनर्विचार याचिका में विस्तृत विमर्श न हुआ हो। उच्चतम न्यायालय में उपचारात्मक याचिका पर सुनवाई तभी होती है जब याचिकाकर्त्ता यह प्रमाणित कर सके कि उसके मामले में न्यायालय के निर्णय से प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। साथ ही अदालत द्वारा आदेश जारी करते समय उसे नहीं सुना गया है। इसके अलावा उस स्थिति में भी यह याचिका स्वीकार की जाएगी जहाँ एक न्यायाधीश तथ्यों को प्रकट करने में विफल रहा हो जो पूर्वाग्रहों की आशंका को बढ़ाता fjkdsflfk jfk