सिविल सेवा मुख्य परीक्षा विषयवार अध्ययन/प्राकृतिक संसाधनों का वितरण,प्राथमिक अर्थव्यवस्था

भारत और आर्कटिक भारत ने आर्कटिक महासागर के लिये अपना प्रथम वैज्ञानिक अभियान वर्ष 2007 में शुरू किया और अंतर्राष्ट्रीय आर्कटिक अनुसंधान आधार नी-अलेसुंड, स्वालबार्ड, नार्वे में जुलाई 2008 में अपना एक अनुसंधान बेस ‘हिमाद्रि’ हिमनद विज्ञान, वायुमंडलीय विज्ञान और जैविक विज्ञान विषयों में अध्ययन कार्य के लिये खोला। आर्कटिक क्षेत्र में भारतीय अनुसंधान के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं: आर्कटिक ग्लेशियरों और आर्कटिक महासागर के तलछट और मूल रिकार्डों का विश्लेषण कर आर्कटिक जलवायु और भारतीय मानसून के बीच परिकल्पित टेली-कनेक्शन का अध्ययन करना। सैटेलाइट डेटा का प्रयोग कर उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र में वैश्विक तापमान के प्रभाव का अनुमान लगाने के लिये आर्कटिक में समुद्री बर्फ के लक्षण प्रस्तुत करना। समुद्री स्तर में परिवर्तन पर ग्लेशियरों के प्रभाव पर ध्यान केन्द्रित करते हुए आर्कटिक ग्लेशियरों की गतिकी और द्रव्यमान संतुलन पर अनुसंधान करना। आर्कटिक की वनस्पति और जीव-जंतुओं और मानव केन्द्रित गतिविधियों पर उनकी प्रतिक्रिया का एक व्यापक आकलन करना। इसके अतिरिक्त, दोनों ध्रुवीय क्षेत्रों में जीवन के रूपों का तुलनात्मक अध्ययन करना प्रस्तावित है। आर्कटिक की बर्फ के पिघलने से उत्पन्न वैश्विक तापमान के कारण अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिये पैदा हो रहे नए अवसर और चुनौतियों के आलोक में भारत आर्कटिक क्षेत्र की गतिविधियों पर बारीकी से ध्यान दे रहा है। भारत के आर्कटिक क्षेत्र में वैज्ञानिक, पर्यावरणीय, व्यावसायिक साथ ही साथ रणनीतिक हित भी हैं। जुलाई 2018 में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने ‘राष्ट्रीय अंटार्कटिक और समुद्र अनुसंधान केंद्र’ का नाम बदल कर ‘राष्ट्रीय ध्रुवीय और महासागर अनुसंधान केंद्र’ कर दिया। यह एक नोडल संगठन है जो ध्रुवों पर केन्द्रों की अनुसंधान गतिविधियों में समन्वय करता है। भारत ने नार्वे के नार्वेयाई ध्रुवीय अनुसंधान संस्थान के साथ विज्ञान में सहयोग के लिये एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये हैं और साथ ही नी-अलेसुंद में किंग्स बे (नार्वे सरकार के स्वामित्व की एक कंपनी) के साथ संभरण और अवसंरचना सुविधाओं के लिये भी हस्ताक्षर किये हैं, ताकि आर्कटिक अनुसंधान का कार्य किया जा सके और आर्कटिक क्षेत्र में भारतीय अनुसंधान आधार केंद्र की देखरेख की जा सके। 2019 में भारत को परिषद में पुनः पर्यवेक्षक चुना गया है। भारत की कोई आधिकारिक आर्कटिक नीति नहीं है और इसके आर्कटिक अनुसंधान का उद्देश्य पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय पहलुओं पर केन्द्रित है जिसमें अब तक जलवायु परिवर्तन पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। व्यावसायिक और रणनीतिक हित आर्कटिक क्षेत्र खनिजों और तेल तथा गैस के मामले में काफी समृद्ध है। वैश्विक तापमान के कारण आर्कटिक के पिघलने से नए जहाजरानी मार्गों के खुलने की संभावना है जो कि वर्तमान दूरी को कम कर देगा। क्षेत्र में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों के व्यावसायिक दोहन में दावा करने की उम्मीद से देशों की आर्कटिक होप परियोजना में गतिविधियाँ जारी हैं। आर्कटिक परिषद आर्कटिक में संसाधनों के व्यावसायिक दोहन का निषेध नहीं करती। यह केवल यह सुनिश्चित करती है कि यह कार्य संवहनीय तरीके स्थानीय लोगों के हितों को कोई नुकसान पहुंचाए बिना स्थानीय पर्यावरण से सामंजस्य के साथ किया जाए। इसलिये, आर्कटिक क्षेत्र में प्रासंगिक बने रहने के लिये भारत को आर्कटिक परिषद में अर्जित पर्यवेक्षक स्तर का लाभ उठाना चाहिये और आर्कटिक में और अधिक निवेश पर विचार करना चाहिये।