सिविल सेवा मुख्य परीक्षा विषयवार अध्ययन/संघ और राज्य कार्यपालिका

राष्ट्रपति

सम्पादन

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 में दी गई न्यायिक शक्ति के तहत अपराध के लिये दोषी करार दिये गए व्यक्ति को राष्ट्रपति क्षमा अर्थात् दंडादेश का निलंबन, प्राणदंड स्थगन, राहत और माफ़ी प्रदान कर सकता है। ऐसे मामले निम्नलिखित हैं जिनमें राष्ट्रपति के पास ऐसी शक्ति होती है संघीय विधि के विरुद्ध दंडित व्यक्ति को। सैन्य न्यायालय द्वारा दंडित व्यक्ति को। मृत्यदंड पाए हुए व्यक्ति को। संविधान के अनुच्छेद 161 द्वारा राज्य के राज्यपाल को भी क्षमादान करने की शक्ति प्राप्त है।

राज्यपाल राज्य की विधि विरुद्ध अपराध में दोषी व्यक्ति के संदर्भ में यह शक्ति रखता है। राज्यपाल को मृत्यदंड को क्षमा करने का अधिकार नहीं है। राज्यपाल मृत्यदंड को निलंबित, दंडअवधि को कम एवं दंड का स्वरुप बदल सकता है।

राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल, जिसे इलेक्टोरल कॉलेज भी कहा जाता है, करता है। संविधान के अनुच्छेद 54 में इसका वर्णन है। यानी जनता अपने राष्ट्रपति का चुनाव सीधे नहीं करती, बल्कि उसके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि करते हैं। चूँकि जनता राष्ट्रपति का चयन सीधे नहीं करती है, इसलिए इसे परोक्ष निर्वाचन कहा जाता है। भारत के राष्ट्रपति के चुनाव में सभी राज्यों की विधानसभाओं एवं संघराज्य क्षेत्रों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य और लोक सभा तथा राज्य सभा के निर्वाचित सदस्य भाग लेते हैं। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य, राष्ट्रपति चुनाव में वोट नहीं डाल सकते हैं। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि विधान परिषद के सदस्य राष्ट्रपति चुनाव में मत का प्रयोग नहीं कर सकते हैं। ध्यातव्य हो कि भारत में 9 राज्यों में विधान परिषदें आस्तित्व में हैं लेकिन राष्ट्रपति का चयन जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही करते हैं। भारत में राष्ट्रपति के चुनाव में एक विशेष तरीके से वोटिंग होती है। इसे सिंगल ट्रांसफरेबल वोट सिस्टम कहते हैं। सिंगल वोट यानी मतदाता एक ही वोट देता है, लेकिन वह कई उम्मीदवारों को अपनी प्राथमिकता के आधार पर वोट देता है। अर्थात् वह बैलेट पेपर पर यह बताता है कि उसकी पहली पसंद कौन है और दूसरी, तीसरी कौन। यदि पहली पसंद वाले वोटों से विजेता का फैसला नहीं हो सका, तो उम्मीदवार के खाते में वोटर की दूसरी पसंद को नए सिंगल वोट की तरह ट्रांसफर किया जाता है। इसलिये इसे सिंगल ट्रांसफरेबल वोट कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि वोट डालने वाले सांसदों और विधायकों के मतों की प्रमुखता भी अलग-अलग होती है। इसे ‘वेटेज़’ भी कहा जाता है। दो राज्यों के विधायकों के वोटों का ‘वेटेज़’ भी अलग-अलग होता है। यह ‘वेटेज़’ राज्य की जनसंख्या के आधार पर तय किया जाता है और यह ‘वेटेज़’ जिस तरह तय किया जाता है, उसे आनुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था कहते हैं। राष्ट्रपति की शक्तियाँ

26 जनवरी, 1950 को संविधान के अस्तित्व में आने के साथ ही देश ने 'संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य' के रूप में नई यात्रा शुरू की। परिभाषा के मुताबिक गणराज्य (रिपब्लिक) का आशय होता है कि राष्ट्र का मुखिया निर्वाचित होगा, जिसको राष्ट्रपति कहा जाता है। राष्ट्रपति की शक्तियाँ कुछ इस प्रकार से हैं; अनुच्छेद 53 : संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी। वह इसका उपयोग संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करेगा। इसकी अपनी सीमाएँ भी हैं ; 1. यह संघ की कार्यपालिका शक्ति (राज्यों की नहीं) होती है, जो उसमें निहित होती है। 2. संविधान के अनुरूप ही उन शक्तियों का प्रयोग किया जा सकता है। 3. सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर की हैसियत से की जाने वाली शक्ति का उपयोग विधि के अनुरूप होना चाहिये।

अनुच्छेद 72 द्वारा प्राप्त क्षमादान की शक्ति के तहत राष्ट्रपति, किसी अपराध के लिये दोषी ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, निलंबन, लघुकरण और परिहार कर सकता है। मृत्युदंड पाए अपराधी की सज़ा पर भी फैसला लेने का उसको अधिकार है। अनुच्छेद 80 के तहत प्राप्त शक्तियों के आधार पर राष्ट्रपति, साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखने वाले 12 व्यक्तियों को राज्य सभा के लिये मनोनीत कर सकता है। अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रपति, युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में आपातकाल की घोषणा कर सकता है। अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति द्वारा किसी राज्य के संवैधानिक तंत्र के विफल होने की दशा में राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर वहाँ राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। वहीं अनुच्छेद 360 के तहत भारत या उसके राज्य क्षेत्र के किसी भाग में वित्तीय संकट की दशा में वित्तीय आपात की घोषणा का अधिकार राष्ट्रपति को है। राष्ट्रपति कई अन्य महत्त्वपूर्ण शक्तियों का भी निर्वहन करता है, जो अनुच्छेद 74 के अधीन करने के लिए वह बाध्य नहीं है। वह संसद के दोनों सदनों द्वारा पास किये गए बिल को अपनी सहमति देने से पहले 'रोक' सकता है। वह किसी बिल (धन विधेयक को छोड़कर) को पुनर्विचार के लिये सदन के पास दोबारा भेज सकता है। अनुच्छेद 75 के मुताबिक, 'प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। चुनाव में किसी भी दल या गठबंधन को जब स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो राष्ट्रपति अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए ही सरकार बनाने के लिये लोगों को आमंत्रित करता है। ऐसे मौकों पर उसकी भूमिका निर्णायक होती है राष्ट्रपति पद की गरिमा का सवाल

सत्ता और प्रतिपक्ष को आम सहमति बनाकर राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार तय करना चाहिये था, लेकिन यह पहल नहीं की जा सकी। महामहिम की कुर्सी पर विराजमान होने वाला व्यक्ति भारतीय गणराज्य और संप्रभु राष्ट्र का राष्ट्राध्यक्ष होता है। संवैधानिक व्यवस्था में उसका उतना ही सम्मान और अधिकार संरक्षित है, जितना इस परंपरा के दूसरे व्यक्तियों का रहा है। आज दलित उम्मीदवार को लेकर दोनों पक्षों से जो राजनीति देखने को मिल रही है, उससे इस पद की गरिमा को ठेस ही पहुँची है। राजनैतिक दलों को यह समझना चाहिये कि दलित शब्द जुड़ने मात्र से इस पद की गरिमा नहीं बढ़ जाएगी और न ही राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकारों में कोई बदलाव आएगा और न ही राष्ट्रपति को असीमित अधिकार मिल जाएंगे। दशकों से दबे-कुचले और शोषित समाज से संबंध रखने वाला व्यक्ति यदि किसी संवैधानिक पद पर आसीन होता है तो उस समाज में आशा की एक लहर दौड़ जाती है और लोकतंत्र में उनका विश्वास मज़बूत होता है, लेकिन यहाँ समस्या यह है कि दोनों ही पक्ष दलित उम्मीदवार लेकर आए हैं और समूचे मामले का राजनीतिकरण किया जा रहा है। निष्कर्ष

इसमें कोई शक नहीं है कि दलित पिछड़ों और समाज के सबसे निचली पायदान के लोगों का सामाजिक उत्थान होना चाहिये और उन्हें समाज में बराबरी का सम्मान मिलना चाहिये। ऐसे लोगों का आर्थिक एवं सामाजिक विकास होना चाहिये, लेकिन राजनीति में जाति, धर्म, भाषा और संप्रदाय की माला नहीं जपी जानी चाहिये। दरअसल, भारतीय राजव्यवस्था में संसद को जो विशेषाधिकार हैं, वह राष्ट्रपति को नहीं है। महामहिम दलितों के लिये कोई अलग से कानून नहीं बना पाएंगे। भारतीय गणराज्य के संविधान में सभी नागरिकों को समता और समानता का अधिकार है, फिर वह दलित हो या ब्राह्मण, हिंदू, सिख, ईसाई, मुसलमान सभी को यह अधिकार है। हमारा संविधान जाति, धर्म, भाषा के आधार पर कोई भेदभाव की बात नहीं करता है। फिर महामहिम जैसे प्रतिष्ठित पद के लिये दलित शब्द की बात करना, इस पद की गरिमा को खंडित करना ही कहा जाएगा।

राज्यपाल

सम्पादन
  • अनुच्छेद 153-एक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा।किंतु 7 वें संविधान संशोधन 1956 द्वारा इसमें एक परंतुक जोड़ दिया गया जिसके अनुसार एक ही व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के लिए भी राज्यपाल नियुक्त किया जा सकता है।
  • राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा 5 वर्षों की अवधि के लिए की जाती है परंतु यह राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत पद धारण करता है अनुच्छेद 156 एक या वह पद त्याग कर सकता है अनुच्छेद 156(2)
  • अनुच्छेद 217(1)राज्य के उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपति को परामर्श देता है।

राज्यपाल लोकसेवा के सदस्यों को नहीं हटा सकता आयोग के सदस्य राष्ट्रपति द्वारा निर्देशित किए जाने पर उच्चतम न्यायालय के प्रतिवेदन पर और कुछ नेताओं के होने पर ही राष्ट्रपति द्वारा हटाए जा सकते हैं (अनुच्छेद 317)।

  • अनुच्छेद 171(5)वह राज्य विधान परिषद की कुल सदस्य संख्या का 1/6 भाग सदस्यों को नियुक्त करता है जिनका संबंध विज्ञान साहित्य समाज सेवा सहकारी आंदोलन आदित्य रहता है।

विधायी अधिकार

  • अनुच्छेद 164 राज्यपाल विधान मंडल का अभिन्न अंग है।
  • अनुच्छेद 175 राज्यपाल विधान मंडल का 17 वाहन 17 वर्ष तथा विघटन करता है अनुच्छेद राज्यपाल विधान सभा के अधिवेशन अथवा दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करता है।
  • अनुच्छेद 201 राज्यपाल का राष्ट्रपति के लिए विधायकों का आरक्षित रखने का अधिकार।
  • अनुच्छेद 333 यदि विधानमंडल में आंग्ल भारतीय सदस्य को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त है तो राज्यपाल उस समुदाय के एक व्यक्ति को विधानसभा का सदस्य मनोनीत कर सकता है।

जम्मू कश्मीर राज्य विधानसभा में 2 महिलाओं का प्रदेश का राज्यपाल नामजद करता है।

  • अनुच्छेद 213-राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति।ऐसे अध्यादेश को 6 सप्ताह के भीतर विधान मंडल द्वारा स्वीकृत कराना आवश्यक है।[M.P.PSC-2018]
  • अनुच्छेद 161 राज्यपाल किसी दंड को क्षमा उसका प्रबिलंबन, विराम या परिहार कर सकेगा।

महत्त्वपूर्ण निर्णय जिन्होंने राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को आकार दिया

सम्पादन

एस.आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार सर्वोच्च न्यायालय के कई ऐसे फैसले हैं, जिनका समाज और राजनीति पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। इन्हीं में से एक है 11 मार्च, 1994 को दिया गया ऐतिहासिक फैसला जो राज्यों में सरकारें भंग करने की केंद्र सरकार की शक्ति को कम करता है। गौरतलब है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई के फोन टैपिंग मामले में फँसने के बाद तत्कालीन राज्यपाल ने उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया था, जिसके बाद यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा था। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 356 के व्यापक दुरुपयोग पर विराम लगा दिया। इस फैसले में न्यायालय ने कहा था कि "किसी भी राज्य सरकार के बहुमत का फैसला राजभवन की जगह विधानमंडल में होना चाहिये। राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले राज्य सरकार को शक्ति परीक्षण का मौका देना होगा।" रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत सरकार वर्ष 2006 में दिये गए इस निर्णय में पाँच सदस्यों वाली न्यायपीठ ने स्पष्ट किया था कि यदि विधानसभा चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता और कुछ दल मिलकर सरकार बनाने का दावा करते हैं तो इसमें कोई समस्या नहीं है, चाहे चुनाव पूर्व उन दलों में गठबंधन हो या न हो। नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष वर्ष 2016 में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया था कि राज्यपाल के विवेक के प्रयोग से संबंधित अनुच्छेद 163 सीमित है और उसके द्वारा की जाने वाली कार्रवाई मनमानी या काल्पनिक नहीं होनी चाहिये। अपनी कार्रवाई के लिये राज्यपाल के पास तर्क होना चाहिये और यह सद्भावना के साथ की जानी चाहिये।

मुख्यमंत्री

सम्पादन
  • अनुच्छेद 164(3) के अनुसार, किसी मंत्री द्वारा पद ग्रहण करने से पहले, राज्यपाल तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिये दिये गए प्रारूपों के अनुसार उसको पद और गोपनीयता की शपथ दिलाएगा।

तीसरी अनुसूची के अनुसार किसी राज्य के मंत्री की शपथ का प्रारूप यह है- 'मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूँ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूँ कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा, [संविधान (सोलहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 5 द्वारा अंतःस्थापित], मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा, मैं --------- राज्य के मंत्री के रूप में अपने कर्त्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूँगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूँगा।' अनुच्छेद 164 से यह स्पष्ट होता है कि शपथ का सार तत्त्व पवित्र होता है तथा शपथ लेने वाले व्यक्ति को इसे संविधान में प्रदत्त प्रारूप के अनुसार ही पढ़ना है। यदि कोई व्यक्ति शपथ लेने के दौरान शपथ के प्रारूप से भटक जाता है तो शपथ दिलाने वाले व्यक्ति (इस मामले में राज्यपाल) की ज़िम्मेदारी है कि वह शपथ लेने वाले व्यक्ति को रोककर उसे शपथ को सही तरीके से पढ़ने के लिये कहे।

विधान परिषद्

सम्पादन
  • यदि किसी राज्य की विधानसभा अपने कुल सदस्यों के पूर्ण बहुमत तथा उपस्थित मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करें तो संसद उस राज्य में विधान परिषद स्थापित अथवा समाप्त कर सकती है।
  • वर्तमान में केवल 7 राज्य उत्तर प्रदेश 99,कर्नाटक 75,जम्मू-कश्मीर 36,महाराष्ट्र 78,विहार 75,आंध्र प्रदेश 50,तथा तेलंगाना 40 में विधान परिषद विद्यमान है।
  • कुल सदस्यों की संख्या राज्य की विधानसभा के कुल सदस्यों की संख्या की एक तिहाई से अधिक नहीं हो सकती किंतु 40 से कम नहीं हो सकती है।अपवाद जम्मू कश्मीर 36