स्वभाषा का महत्व
- स्व. डॉ. रामेश्वर दयाल अग्रवाल, से. नि. विभागाध्यक्ष हिन्दी, मेरठ कॉलेज, मेरठ,
- प्रस्तुति : हरदर्शन सहगत, 5-ई, ‘संवाद’, डुप्लैक्स कॉलोनी, बीकानेर-334003) (‘विवरण पत्रिका’ से साभार)
......स्वभाषा की उपेक्षा का अर्थ है आत्मघात की ओर बढ़ना। जैसे जड़ कटा वृक्ष पुष्पित, फलित होना तो दूर, शीघ्र ही अपनी हरियाली खोकर सूख जाता है, उसी प्रकार अपनी भाषा से कटा राष्ट्र भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इसी कारण प्रत्येक चतुर राष्ट्र सब से पहले विजित देश की भाषा को दबाकर उस पर अपनी भाषा थोपता है। यहाँ विश्वविख्यात भारतीय विद्वान डॉ. रघुबीर के जीवन की युगांतरकारी घटना का उल्लेख, जो उन्होंने स्वयं मुझे सुनाई थी। इस प्रकार है :
वे जब कभी पेरिस जाते तो फ्रांस के राजवंश से संबंधित एक अति-कुलीन फ्रैंच परिवार में ठहरते थे। उस परिवार में एक युवा-दंपति के अतिरिक्त उनकी एक ग्यारह वर्ष की कन्या भी थी। एक बार डॉ. रघुबीर को भारत से एक आत्मीय का पत्र मिला, जिसे देने कन्या स्वयं उनके कमरे में आई। उसने उत्सुकतावश डॉ.रघुबीर से पत्र खोल कर उसकी लिपि उसे दिखाने का आग्रह किया, जिससे वह जान सके कि उनकी मातृभाषा कैसे लिखी जाती है। न चाहते हुए भी, कन्या के अत्याग्रह के कारण उन्हें पत्र उसे दिखाना पड़ा। इस पर वह मानों आकाश से गिर कर बोली, ‘‘यह तो अंग्रेजी में है। क्या आपकी अपनी कोई भाषा नहीं है ?’’ डॉ.रघुबीर को सच्चाई खोलनी पड़ी, जिस पर लड़की उदास हो कर चली गई।
भोजन के समय उन्हें गृह-स्वामिनी ने बुलाया और वहाँ उन्होंने अन्य दिनों की भाँति परिवार के साथ भोजन किया, किन्तु उस दिन कमरे में पूर्ण मौन छाया रहा, अन्य दिनों की भाँति उनसे कोई बोला नहीं। भोजन की समाप्ति पर गृह-स्वामिनी ने कहा, ‘‘डॉ. रघुबीर, बड़े खेद के साथ मुझे कहना पड़ता है कि अब आगे से आप अपने टिकने की व्यवस्था कहीं अन्यत्र कर लें। इस परिवार में रहना संभव न होगा, क्योंकि मुझे अभी बच्ची ने बताया कि आपकी अपनी कोई भाषा नहीं है, और जिसकी अपनी कोई भाषा न हो उसे हम फ्रैंच लोग बर्बर कहते हैं तथा उससे किसी प्रकार का संबंध रखना अगौरव की बात समझते हैॅं।’’
डॉ. रघुबीर अत्यधिक लज्जित हुए। गृह-स्वामिनी ने पुनः कहा ‘‘हम फ्रैंच लोग अपने आतिथ्य के लिए प्रसिद्ध हैं, इसलिए आपका ऐसा तिरस्कार करते हुए मुझे दुःख है, पर इस विषय में हम किसी प्रकार का समझौता नहीं कर सकते। यहाँ मैं अपनी माता का उदाहरण आपके सामने रखती हूँ। वे लोरेन प्रदेश के ड्यूक की कन्या थीं। प्रथम विश्व-युद्ध से पूर्व वह फ्रैंच भाषी प्रदेश जर्मनों के अधीन था। जर्मन सम्राट ने वहाँ फ्रैंच के माध्यम से शिक्षण बन्द कर के जर्मन भाषा थोप दी थी। फलतः प्रदेश का सारा काम-काज एकमात्र जर्मन भाषा में होता था; फ्रैंच के लिए वहाँ कोई स्थान न था। स्वभावतः स्कूलों में भी शिक्षा का माध्यम जर्मन भाषा ही था। मेरी माँ उस समय ग्यारह वर्ष की थीं, और लोरेन के सर्वश्रेष्ठ कान्वेंट स्कूल में पढ़ती थीं। एक बार जर्मन सम्राज्ञी कैथराइन लोरेन का दौरा करती हुई उस स्कूल का निरीक्षण करने पहुँची। मेरी माता अपूर्व सुन्दरी होने के साथ-साथ अत्यधिक कुशाग्रबुद्धि की भी थीं। सब बच्चियाँ नये कपड़ों में सज-धजकर आई थीं और उन्हें पंक्तिबद्ध खड़ा किया गया था। बच्चियों के व्यायाम, खेल आदि प्रदर्शन के बाद सम्राज्ञी ने पूछा कि क्या कोई बच्ची जर्मन राष्ट्रगान सुना सकती है ? किन्तु मेरी माँ को छोड़ वह किसी को याद न था। मेरी माँ ने उसे ऐसे शुद्ध जर्मन उच्चारण के साथ इतने सुन्दर ढंग से सुनाया कि सम्राज्ञी गद्गद हो गईं। खुद जर्मन बच्चे भी कदाचित् इसे इतने अच्छे ढंग से न सुना पाते। सम्राज्ञी ने बच्ची से कुछ इनाम माँगने को कहा। बच्ची चुप रही। बार-बार आग्रह करने पर वह बोली, महारानी जी, क्या जो कुछ मैं माँगूं वह आप देंगी ? सम्राज्ञी ने उत्तेजित होकर कहा-बच्ची सम्राज्ञी का वचन कभी अन्यथा नहीं होता। तुम जो चाहो माँगो। इस पर मेरी माता ने कहा, ‘‘महारानी जी, यदि आप सचमुच अपने वचन पर दृढ़ हैं तो मेरी केवल एक ही प्रार्थना है कि अब आगे से इस प्रदेश में सारा काम एकमात्र फ्रैंच में हो, जर्मन में नहीं।’’
इस सर्वथा अप्रत्याशित माँग को सुनकर सम्राज्ञी पहले तो आश्चर्यचकित रह गईं, किन्तु फिर क्रोध से लाल हो उठीं। वे बोलीं, ‘‘लड़की ! नैपोलियन की सेनाओं ने भी जर्मनी पर कभी ऐसा कठोर प्रहार नहीं किया था जैसा आज तूने शक्तिशाली जर्मन साम्राज्य पर किया है। सम्राज्ञी होने के कारण मेरा वचन अन्यथा नहीं हो सकता, पर तुझ जैसी छोटी-सी लड़की ने इतनी बड़ी महारानी को आज शिकस्त दी है, वह मैं कभी नहीं भूल सकती। जर्मनों ने जो अपने बाहुबल से जीता था, उसे तूने अपनी वाणी मात्र से लौटा लिया। मैं भली-भाँति जानती हूँ कि अब आगे लोरेन प्रदेश अधिक दिनों तक जर्मनों के अधीन न रह सकेगा।’’ यह कहकर महारानी अतीव उदास होकर वहाँ से चली गईं।
गृह-स्वामिनी ने कहा- ‘‘डॉ. रघुबीर, इस घटना से आप समझ सकते हैं कि मैं किस माँ की बेटी हूँ। हम फ्रैंच लोग संसार में सबसे अधिक गौरव अपनी भाषा को देते हैं, क्योंकि हमारे लिए राष्ट्र-प्रेम और भाषा-प्रेम में कोई अन्तर नहीं।’’