सं. जगन्नाथ दास रत्नाकर-बिहारी-रत्नाकर, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, सं. २००६, दोहा संख्या-३८१, ४३५, ४३८, ४३९, ४९१

"बसै बुराई जसु तन, ताही की सनमानु।
भलौ भलौ कहि छोड़ियै, खोटैँ ग्रह जपु, दानु॥३८१॥

(अवतरण)-कवि की प्रास्ताविक उक्ति है कि जिससे बुराई, अर्थात् हानि, पहुँचने की आशंका होती है, उसी का संसार में आदर होता है, पर सीधे, साधु-स्वभाव सज्जनों को कोई नहीं पूछता-

(अर्थ)—जिसके तन में बुराई बसती है, उसी का [इस बुरे संसार में] सन्मान होता है। [देखो,] भला [ग्रह] तो भला कह कर (समझ कर) छोड़ दिया जाता है, [पर] खोटे ग्रह [के आने] मेँ जप, दान [इत्यादि होते हैं]॥"[]

"मरतु प्यास पिँजरा-पर्यौ सुआ समै कैँ फेर।
आदरु दै दै बोलियतु बाइसु बलि की बेर॥४३५॥

बलि-पितृश्राद्ध अथवा बलि के समय वायस-बलि भी की जाती है। अर्थात् काक के निमित्त भी एक भाग निकाला जाता है, जिसके खिलाने के लिए कौआ पुकार पुकार कर बुलाया जाता है।

(अवतरण)-समय विशेष की आवश्यकता के अनुसार कहीँ गुणी का निरादर एवं मूर्ख का आदर देख कर कोई इस घटना का वर्णन, शुक तथा काक पर अन्योक्ति करके, करता है-

(अर्थ)-[देखो,] समय के फेर से (अवसर विशेष उपस्थित होने के कारण) [सब लोग पिंडदान के कार्य में ऐसे प्रवृत्त हैं कि] सुआ (शुक)[बेचारा तो] पिँजड़े मेँ पड़ा प्यास से मर रहा है, [किसी को उसके दाना-पानी का भी ध्यान नहीं है, और इस] बलिप्रदान के बेर (अवसर पर) 'बाइस' (वायस, काक) आदर दे देकर (बड़े आदर-पूर्वक) 'बोधियतु' (बोला जाता, पुकारा जाता) है॥"[]

"वे न इहाँ नागर, बढ़ी जिन आदर तो आब।
फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ गवँई-गावँ, गुलाब॥४३८॥

आब-यह शब्द फ़ारसी का है। इसका मुख्यार्थ जल है; पर यह चमक, ओप इत्यादि के अर्थ मेँ, जिसमें संस्कृत शब्द पानिप प्रयुक्त होता है, प्रचलित है। इस अर्थ मेँ 'आब' शब्द स्त्रीलिंग माना जाता है। गवँई-गावँ=गवाँरों के गावँ अर्थात् वास-स्थल मेँ॥

(अवतरण)-मूर्खमंडली मेँ पड़े हुए किसी गुणी के गुण का निरादर देख कर उससे कोई चतुर, गुलाब पर अन्योक्ति कर के, कहता है-

(अर्थ)-हे गुलाब, यहाँ वे नागर [नगरनिवासी गुणग्राहक] नहीँ हैँ, जिनके आदर से तेरी आब (शोभा, प्रतिष्ठा) बढ़ी हुई है (अर्थात् तू सम्मानित होता है)। [इस] गवाँरोँ की बसती में [तो तू] फूला हुआ [भी] (विकसित गुण होने पर भी) अनफूला (बिना फूला हुआ, अर्थात् अविकसित-गुण) हो रहा है [भाव यह है कि यहाँ तेरे गुण का विकास होना न होना बराबर है]॥"[]

"चल्यौ जाइ, ह्याँ को करै हाथिनु के व्यापार।
नहिँ जानतु, इहिँ पुर बसैँ धोबी, ओड़, कुँभार॥४३९॥

ओड़-घरोँ का ईँट, चूना इत्यादि गदहोँ पर ढोने वाले॥

(अवतरण)-किसी महान् गुणी पुरुष को, अपने गुणोँ का ग्राहक प्राप्त करने की आशा से, निकट जनोँ की मंडली मेँ आया हुआ देख दर, कोई सजन, हाथी के व्यापारी पर अन्योक्ति कर के, उससे वहाँ से चले जाने की प्रस्तावना करता है-

(अर्थ)-[अरे हाथी के व्यापारी, महान् गुणी, तू यहाँ से] चला जा, यहाँ हाथियोँ के (अर्थात् तेरे महान् गुणों के) व्यापार (क्रय, विक्रय, गुण-ग्राहकता) कौन करे। [क्या तू यह बात] नहीँ जानता कि इस पुर में (अर्थात् इस मंडली मेँ) [सब] धोबी, ओड़ [तथा] कुँभार (अर्थात् निकृष्ट जन) [ही] बसते हैँ [जिनको नित्य गदहोँ से काम पड़ता है। फिर भला वे तेरे हाथियोँ अर्थात् महान् गुणोँ को क्योँ पूछने लगे]॥"[]

"नीच हियैँ हुलसे रहैँ गहे गेँद के पोत।
ज्यौँ ज्योँ माथैँ मारियत, त्यौँ त्यौँ ऊँचे होत॥४९१॥

पोत (प्रकृति)=स्वभाव॥

(अवतरण)-कवि की उक्ति है-

(अर्थ)-नीच [मनुष्य] गेंद के पोत (स्वभाव) धारण किए हुए [सदा निरादृत होने पर भी] हृदय में हुलसे (फूले) रहते हैँ। ज्योँ ज्याोँ [वे] माथे पर मारे जाते हैं (निरादृत होते हैं, अपने सिर पर चोट खाते हैँ), त्योँ त्योँ ऊँचे होते हैँ (अपने को श्रेष्ठ मानते हैँ, ऊपर को उछलते हैँ)॥"[]

संदर्भ

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  1. सं. जगन्नाथ दास रत्नाकर-बिहारी-रत्नाकर, गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, लखनऊ, १९२६, पृष्ठ १५७
  2. सं. जगन्नाथ दास रत्नाकर-बिहारी-रत्नाकर, गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, लखनऊ, १९२६, पृष्ठ १७९
  3. सं. जगन्नाथ दास रत्नाकर-बिहारी-रत्नाकर, गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, लखनऊ, १९२६, पृष्ठ १८०
  4. सं. जगन्नाथ दास रत्नाकर-बिहारी-रत्नाकर, गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, लखनऊ, १९२६, पृष्ठ १८०-१८१
  5. सं. जगन्नाथ दास रत्नाकर-बिहारी-रत्नाकर, गंगा-पुस्तकमाला कार्यालय, लखनऊ, १९२६, पृष्ठ २०३