हिंदी:भाषा और साहित्य (हिंदी 'क')/भारत भारती (हमारे पूर्वज)

हमारे पूर्वज
उन पूर्वजों की कीर्ति का वर्णन अतीव अपार है,
गाते नहीं उनके हमीं गुण, गा रहा संसार है।
वे धर्म्म पर करते निछावर तृण-समान शरीर थे,
उनसे वही गम्मीर थे, वर वीर थे, ध्रुव धीर थे॥१९॥

उनके अलौकिक दर्शनों से दूर होता पाप था,
अति पुण्य मिलता था तथा मिटता हृदय का ताप था।
उपदेश उनके शान्तिकारक थे निवारक शोक के,
सब लोक उनका भक्त था, वे थे हितैषी लोक के॥२०॥

लखते न अघ की ओर थे वे, अघ न लखता था उन्हें;
वे धर्म को रखते सदा थे, धर्म रखता था उन्हें।
वे कर्म से ही कर्म का थे नाश करना जानते,
करते वही थे वे जिसे कर्तव्य थे वे मानते॥२१॥

वे सजग रहते थे सदा दुख-पूर्ण तृष्णा-भ्रान्ति से,
जीवन बिताने थे सदा सन्तोष-पूर्वक शान्ति से।
इस लोक में उस लोक से वे अल्प सुख पाते न थे,
हँसते हुए आते न थे, रोते हुए जाते न थे॥२२॥

जिनकी अपूर्व सुगन्धि से इन्द्रिय-मधुपगण थे हिले, 
सद्भाव-सरजित वर जहाँ पर नित्य रहते थे खिले।
लहरें उठाने में जहाँ व्यवहार-मारुत लग्न था,
उन्मत्त आत्मा-हंस उनके मानसों में मग्न था॥२३॥

वे ईश-नियमों की कभी अवहेलना करते न थे,
सन्मार्ग में चलते हुए वे विघ्न से डरते न थे।
अपने लिए वे दूसरों का हित कभी हरते न थे,
चिन्ता-प्रपूर्ण, अशान्ति-पूर्वक वे कभी मरते न थे॥२४॥

वे मोह-बन्धन-मुक्त थे, स्वच्छन्द थे, स्वाधीन थे;
सम्पूर्ण सुख-संयुक्त थे, वे शान्ति-शिखरासीन थे।
मन से, वचन से, कर्म्म से वे प्रभु-भजन में लीन थे,
विख्यात ब्रह्मानन्द-नंद के ये मनोहर मीन थे॥२५॥

उनके चतुर्दिक-कीर्ति-पट को है असम्भव नापना,
की दूर देशों में उन्होंने उपनिवेश-स्थापना।
पहुँचे जहाँ वे अज्ञता का द्वार जानों रुक गया,
वे झुक गये जिस ओर को संसार मानों झुक गया॥२६॥

वर्णन उन्होंने जिस विषय का है किया, पूरा किया;
मानों प्रकृति ने ही स्वयं साहित्य उनका रच दिया।
चाहे समय की गति कभी अनुकूल उनके हो नहीं,
हैं किन्तु निश्चल एक से सिद्धान्त उनके सब कहीं॥२७॥

वे मेदिनी-तल में सुकृत के बीज बोते थे सदा,
परदुःख देख दयालुता से द्रवित होते थे सदा।
वे सत्त्वगुण-शुभ्रांशु से तम-ताप खोते थे सदा,
निश्चिन्त विघ्न-विहीन सुःख की नींद सोते थे सदा॥२८॥

वे आर्य्य ही थे जो कभी अपने लिये जीते न थे;
वे स्वार्थ-रत ही मोह की मदिरा कभी पीते न थे।
संसार के उपकार-हित जब जन्म लेते थे सभी,
निश्चेष्ट होकर किस तरह वे बैठ सकते थे कभी?॥२९॥[]

संदर्भ

सम्पादन

वे मेदिनी-तल में सुकृत के बीज बोते थे सदा,

परदुःख देख दयालुता से द्रवित होते थे सदा ।

वे सत्वगुण-शुभ्रांशु से तम-ताप खोते थे सदा,

निश्चिन्त विघ्न-विहीन सुख की नींद सोते थे सदा।

  1. मैथिलीशरण गुप्त-भारत-भारती, साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी), दशम संस्करण-१९८४ पृष्ठ ५-७