हिंदी आलोचना एवं समकालीन विमर्श/प्रगतिवादी समीक्षा की परंपरा

हिंदी की प्रगतिवादी समीक्षा १९३६ ई. में 'प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना के बाद से अस्तित्व में आई मानी जाती है। इसका सैद्धांतिक पक्ष मार्क्सवाद पर आधारित है। हालांकि इसके प्रयोक्ताओं ने कहीं-कहीं मार्क्सवादी दृष्टिकोण का अतिक्रमण भी किया है। मार्क्सवादी दृष्टिकोण को साहित्यिक जगत में 'समाजवादी यथार्थवाद' की संज्ञा भी दी जाती है। इसके अनुसार प्राकृतिक जगत की व्याख्या 'द्वंद्वात्मक भौतिकवाद' से होती है तथा मानवीय इतिहास की व्याख्या 'ऐतिहासिक भौतिकवाद' से। प्रत्येक समाज का इतिहास दो वर्गों - शोषक और शोषित - के वर्ग संघर्ष का इतिहास है। शोषक वर्ग उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के आधार पर शोषित वर्ग का दमन करता है। प्रगतिवादी समीक्षा की सैद्धांतिक मान्यताएँ इसी विचार पर आधृत हैं। प्रगतिवादी समीक्षा की सैद्धांतिकी के अंतर्गत निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है -

  1. साहित्य स्वायत्त वस्तु नहीं है वरन् वह अपने सामाजिक दायित्वों से बँधा है। उसका सामाजिक दायित्व शोषित वर्ग की मुक्ति की प्रक्रिया में सहायक होना है। लेनिन का स्पष्ट मानना है कि - 'साहित्य जनक्रांति के लिए एक हथियार मात्र है।'
  2. साहित्यकार मूलतः एक नागरिक है। उसके साहित्यिक महत्व की पहचान उसके सामाजिक योगदान से होती है। यदि कोई साहित्यकार सामाजिक दृष्टि से तटस्थ है, तो भी वह अस्वीकार्य है क्योंकि तटस्थता शोषण के समर्थन का ही प्रच्छन्न रूप है।
  3. साहित्य का उद्देश्य आनंद या रस की उद्भावना नहीं है क्योंकि सामाजिक परिवर्तन के लिए समाज को आनंदित नहीं, आंदोलित करने की आवश्यकता है।
  4. साहित्य में महत्व अतर्वस्तु (content) का है रूप (form) का नहीं, यह मान्यता पारंपरिक मार्क्सवादी चिंतन (अर्नेस्ट फिशर जैसे लेखकों की रचनाओं) में बेहद उग्रता के साथ मानी गई है। इसका कुछ लचीला रूप जॉर्ज लुकाच के महान यथार्थवाद (Great Realism) में दिखता है, जहाँ वस्तु को अधिक महत्व देते हुए भी रूप के प्रति कुछ रुख़ अपनाया गया है। हिंदी प्रगतिवादी समीक्षा में मुक्तिबोध और नामवर सिंह का दृष्टिकोण कुछ ऐसा ही है।
  5. साहित्य में प्रतीक वांछनीय नहीं हैं क्योंकि प्रतीक मूल बात को छिपाते हैं, जबकि साहित्य का कार्य शोषण के छिपे हुए रूपों को सामने लाना है।
  6. अपने भौतिकवादी दर्शन के अनुरूप प्रगतिवादी समीक्षा साहित्यकार की चेतना की व्याख्या जन्म-जन्मान्तरीय प्रतिभा के रूप में नहीं करती। चेतना भौतिक शरीर और भौतिक परिस्थितियों के टकराव का परिणाम है, इससे अधिक कुछ नहीं।

प्रगतिवादी व्यावहारिक समीक्षा की परंपरा कई समीक्षकों के माध्यम से विकसित हुई जिनमें शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा, गजानन माधव मुक्तिबोध और नामवर सिंह प्रमुख हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -

शिवदान सिंह चौहान
ये पहले प्रगतिवादी समीक्षक हैं। इनकी प्रमुख पुस्तके हैं - 'हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष' तथा 'आलोचना के सिद्धांत'। इनके अनुसार प्रगतिशील शक्ति वह है, जो न केवल संसार की व्याख्या करती है बल्कि उसे परिवर्तित करने में लगी रहती है। यह व्याख्या मार्क्सवाद की प्रैक्सिस (Praxis) की धारणा से प्रभावित है। चौहान जी के अनुसार प्रगतिशील साहित्य मार्क्सवाद ही हो, यह अनिवार्य नहीं है।
डॉ. रामविलास शर्मा
इन्होंने न केवल मार्क्स को स्वीकार किया बल्कि कई बिन्दुओँ पर मार्क्सवाद में संशोधन भी किया। इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं - 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना', 'प्रेमचंद और उनका युग', 'निराला की साहित्य साधना', 'परंपरा का मूल्यांकन', 'हिंदी जाति का साहित्य', 'भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश' आदि। इन्होंने वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति के साहित्य का भी सूक्ष्म विश्लेषण किया। भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी इनके अन्य प्रिय साहित्यकार हैं जिन पर इन्होंने स्वतंत्र पुस्तकें लिखीं। इनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इन्होंने मार्क्सवादी साहित्यिक सिद्धांतों में कई क्रांतिकारी संशोधन किए। जैसे - निराला के संदर्भ में जन्मजात प्रतिभा को स्वीकारा। 'आस्था और सौंदर्य' की व्याख्या में सीमित रूप में आत्मनिष्ठता को भी महत्व दिया। 'उर्वशी' की समीक्षा में रसात्मकता की भी संक्षिप्त चर्चा की। इनकी सीमा यह रही कि 'नई कविता और अस्तित्ववाद' में नई कविता, विशेषतः मुक्तिबोध की कविताओं पर इनका रुख विध्वंसात्मक रहा।
गजानन माधव मुक्तिबोध
मुक्तिबोध ने मार्क्सवादी समीक्षा मूल्यों को तो स्वीकार किया ही, साथ में नयी समीक्षा, अस्तित्ववाद तथा मनोविश्लेषणवाद के कुछ मुहावरों को भी शामिल किया। उनकी सैद्धांतिक समीक्षाएँ 'एक साहित्यिक की डायरी' में व्यक्त हुई हैं, जबकि व्यावहारिक समीक्षा 'कामायनी : एक पुनर्विचार' तथा 'नयी कविता का आत्मसंघर्ष' में। इन्होंने अपनी समीक्षा में फैंटेसी को अत्यधिक महत्व दिया है और माना कि यथार्थवादी तथ्य की प्रस्तुति के लिए फैंटेसी जैसे गैर-यथार्थवादी शिल्प को स्वीकर किया जाना चाहिए। इन्होंने कामायनी को भी एक फैंटेसी के रूप में व्याख्यायित किया क्योंकि उसमें यथार्थ लोक की समस्याओं का समाधान कल्पना लोक के स्तर पर किया गया है। इन्होंने समीक्षा के कुछ नए मुहावरे भी गढ़े, जैसे - 'सत्-चित्-वेदना', 'संवेदनात्मक ज्ञान' या 'ज्ञानात्मक संवेदन'। रचना के तीन क्षणों के संबंध में इनका विवेचन अत्यंत सूक्ष्म है।
नामवर सिंह
नामवर सिंह समकालीन प्रगतिवादी समीक्षक माने जाते हैं। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने प्रगतिवादी दृष्टिकोण में कई अन्य समकालीन विचारधाराओं का संश्लेषण किया है। इनकी प्रमुख समीक्षात्मक पुस्तकें हैं - 'छायावाद', 'कविता के नए प्रतिमान', 'इतिहास और आलोचना', 'इतिहास का दर्शन', 'दूसरी परंपरा की खोज' आदि। छायावाद इनकी आलोचना का सर्वोत्कृष्ट स्तर है, जहाँ न केवल आलोचना का सूक्ष्मतम स्तर उपस्थित है बल्कि अभिव्यक्ति इतनी प्रखर है कि यह समीक्षात्मक ग्रंथ स्वयं में एक रचना बन गया है। 'कविता के नए प्रतिमान' में इन्होेंने नयी कविता पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया और बदलते हुए जीवन के अनुसार साहित्य के परिवर्तनों को भी स्वीकारा। 'कहानी : नयी कहानी' में इन्होंने कहानी विधा, विशेषतः नई कहानियों का सूक्ष्मतम और मर्मस्पर्शी विश्लेषण प्रस्तुत किया।