परिचय सम्पादन

स्त्री विमर्श महिलाओं की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ व्यापक आंदोलन है। इस विमर्श का परिचय देती हुई सुमन राजे 'हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास' में लिखती हैं कि- "...स्त्री के मुक्ति-संघर्ष का एक समृद्ध शास्त्र विकसित हुआ है, जिसे समग्र रूप से स्त्री-विमर्श कह दिया जाता है।"[१] इस आंदोलन की शुरुआत १९०१ में अमेरिका में हुआ था।

इतिहास सम्पादन

स्त्री-विमर्श के इतिहास के बारे में सुमन राजे ने विस्तार से अध्ययन किया था। जिसके फलस्वरूप उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास को पुनः किंतु स्त्री के नज़रिए से लिखा। उनके अनुसार मेसाच्युसेट्स में सन् १६११ ई. में महिलाओं को मताधिकार दिया गया था जिसे १७८० ई. में वापस ले लिया गया था। तत्पश्चात् अमेरिका में सन् १८५७ ई. में महिलाओं तथा पुरुषों के समान वेतन के लिए हड़ताल हुई थी, जिसके फलस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। भारत में सन् १८१८ में राजा राममोहन राय नें सती-प्रथा का विरोध किया। इसके परिणामस्वरूप सन् १८२९ में लार्ड विलियम बैंटिक ने सती-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। जहाँ राजा राममोहन राय स्त्री-अधिकारों की वकालत कर रहे थे वहीं स्वामी दयानन्द सरस्वती ने स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल दिया। उन्होंने बाल-विवाह तथा विधवा-विवाह जैसी कुरीतियों के विरुद्ध जाकर 'शारदा-एक्ट' पास करवाया। विवेकानंद स्त्री द्वारा स्वयं निर्णय लेने के लिए महिलाओं को शिक्षित करने का प्रयास कर रहे थे। सोवियत संघ में पीटर्सबर्ग में सन् १८५९ ई. को महिला-मुक्ति-आंदोलन की शुरुआत हुई थी। प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक विक्टर ह्यूगो के संरक्षण में महिला अधिकार संगठन की स्थापना की गई थी। इस आंदोलन के क्रम में सन् १९०८ में ब्रिटेन में 'वीमेन्स फ्रीडम लीग' की स्थापना की गई। जापान में सन् १९११ को महिला-मुक्ति-आंदोलन की शुरुआत हुई। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सन् १९५१ में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा भारी बहुमत से महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों का नियम पारित किए जाने से महिला-आंदोलन की शुरुआत मानी जाती है। परिणामस्वरूप १९७५ में संपूर्ण विश्व में अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया गया।


स्त्री विमर्श को समझने के लिए उनसे जुड़े सामाजिक आंदोलनों को समझना होगा। इस विचारधारा के तीन चरण हैं-

  • पहला चरण समानता के अधिकारों की बात करता है। मेरी वॉल्सटनक्राफ्ट इसी चरण की लेखिका हैं। १७९२ में 'एवैंडिक्शन ऑफ राईट्स ऑफ वूमैन' में वे पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता की बात करती हैं।
  • दूसरा चरण पहले की अपेक्षा अधिक प्रखर है। इस चरण का समय २०वीं सदी का मध्य था। इसमें पितृसत्ता व्यवस्था को जड़ से बदलने की बात की गई। यूरोप में पितृसत्ता शब्द पहले से ही मौजूद था किंतु उसे कटघरे में खड़ा करने का कार्य नारीवादी आंदोलन ने किया। वी. गीथा ने 'जैंडर' तथा 'पैट्रियार्की' सैक्स जैंडर सिस्टम के बारे में विस्तार से लिखा। उन्होंने माना कि सैक्स का गढ़न जैंडर करता है तथा उसे तोड़ने की बात भी इसी चरण में की गई। इसी समय बी. आर. अंबेडकर ने 'कास्ट्स इन इंडिया: जेनेसिस, मकैनिज़्म एंड डैवेलपमैंट' लिखा। सिमोन द बोउवार ने 'द सैकेंड सैक्स' लिखा।
  • तीसरा चरण १९८० के आसपास का समय है जिसे उत्तर आधुनिक चरण कहा गया। इसके अंतर्गत यह माना गया कि संसार में विविधता को ध्यान में रखते हुए नारीवादी दृष्टिकोण अपनाना होगा। अतः इसका सर्वसामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। अर्थात् सभी जगह एक ही तरीके का उपयोग नहीं किया जा सकता।

स्त्री विमर्श तथा हिंदी साहित्य सम्पादन

हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श १९६० के दशक में तत्पश्चात् १९९० के दशक की रचनाओं में दिखाई देता है। सिमोन द बोउवार की पुस्तक 'द सैकेंड सैक्स' का प्रभा खेतान ने 'स्त्री उपेक्षिता' के नाम से हिंदी अनुवाद किया, जिसके पश्चात् हिंदी साहित्य में स्त्री अस्मिता ने विमर्श का रूप धारण किया। इससे प्रेरित होकर अनेकों महिला रचनाकारों ने स्वानुभूति को महत्त्व प्रदान कर रचनाएँ कीं।

संदर्भ सम्पादन

  1. सुमन राजे-हिन्दी साहित्य का इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली:२०१५, पृ.३०२