हिंदी उपन्यास/इधर उधर के बीच में
व्यंग्य उपन्यास का नाम है ‘इधर उधर के बीच’। उपन्यास आंरभ होते ही समझ आ जाता है कि इसका कथ्य किस भूमि का अंकुर है। जनगंाव गांव है पर गांव की तरह छोटा नहीं बहुत बड़ा है। इससे परिचित करवाते हुए लेखक कहता है- जनगाँव बहुत बड़ा है। दस हजार की आबादी है। सड़क, बिजली, पानी सब कुछ है। मंदिर-मस्जिद और पुस्तकालय भी है। लोगों को मंदिर-मस्जिद और मोबाइल से फुर्सत नहीं मिलती इसलिए पुस्तकालय पर ताला पड़ा रहता है। सरकारी अस्पताल है, किंतु यहाँ जाने वालों को बड़ी हीन दृष्टि से देखा जाता है। सच कहें तो अस्पताल खुद भी हीन स्थिति में है। डाक्साहब शहर से कभी आते नहीं इसलिए गाँव के सारे मरीज शहर जाते हैं। कहने को तो गाँव में सह-शिक्षा वाला सरकारी स्कूल भी है, लेकिन यहाँ विद्यार्थी नहीं दिखाई देते जहाँ सरपंच की भैंस और मास्साब की तनख्वाह दोनों बंधी बंधाई है। भैंस दूध देती है, मास्साब शिक्षा व्यवस्था को दूह लेते हैं। बाकी विद्यार्थियों का क्या है, उनके लिए है ना भोले गाँव की छाती पर गाड़ दिया गया ’अला-फला कान्वेन्ट स्कूल सारे बच्चों की वैचारिक नस्ल यहाँ बदली जा रही है। बच्चे यहाँ पढ़कर अपने माँ-बाप को गंवारू समझना सीख रहे हैं और वहीं माँ-बाप जमीन बेचकर मोटी फीस भरते हुए अपने बच्चों को समझदार होना मान रहे हैं। कमाल की उलटवासी है। गाँव में हाथ से ज्यादा फोन है. पैरों से ज्यादा चहलकदमी दरअसल, गाँव स्मार्ट हो चला है।’’
जैसे पहली नजंर में नेता की भ्रष्टाचारी मुस्कान, थाने के शिकारी बाड़े, मंदिर - मस्जिद के अंधत्व आदि का पता चल जाता है वैसे ही मुझ जैसी व्यंग्य की दाई को पेट छूकर पता चल जाता है कि ....। चावल के दाने-से इस अंश को देने का मेरा मकसद यह भी है कि जब आगाज ऐसा है तो ...। मैं समझ रहा हूं कि सुरेश की विसंगतियों के लक्ष्य शिक्षा, धर्म, स्वास्थ्य सेवाओं, आदि के गलियारों में घूमते हुए और कहां-कहां विचरण करेगा। सुरेश ‘प्रतिदिन’ लिखने वाला सक्रिय व्यंग्यधर्मी है और उसकी सक्रियता के साथ कदम मिलाना कठिन है पर फिर भी जितनी क्षमता हो उतने कदम मिला़ लेता हूं। सुरेश यथासंभव संक्षिप्त रहकर भाषा का सार्थक प्रहारात्मक प्रयोग करता है। विवरण के मोह में व्यंग्य उपन्यास में सपाटबयानी के खतरे बहुत होते हैं पर जितना पढ़ने के लिए मुझे उपलब्ध हुआ है उसके आधार पर कह सकता हूं कि ऐसे गड्ढे कम हैं। विंसंगतियों को अभिव्यक्त कर उसपर प्रहार की शक्ति का एक छोटा-सा उदाहरण ,‘‘ गांव और शहर में छोटा-सा अंतर है। गांव में कुत्ते बेकार घूमते हैं और गायों को पूजा जाता है। वहीं शहर में कुत्तों की पूजा की जाती है और गायें बेकार घूमती हैं।’’ जनगांव का महत्वपूर्ण चरित्र है इंदिरा, जो लड़की है और उसकी विसंगति यह है कि उसकी फीलिंग लड़के जैसी है। इंदिरा आत्महत्या करना चाहती है। क्यों? यह रहस्य तो पढ़कर ही समझ आ सकता है। इतना बता दूं कि इंदिरा मरने से पहले गंगू से फेशियल करवाती/ करवाता है। इस किताब में एक अलग तरह का प्रसंग है जहां सुरेश किताब का मानवीकरण करता है और ‘विद्वत् समाज’ में किताब की, किसी दुष्कर्म पीडिता के,थाने में बयान व्यथा का प्रहारक वर्णन करता है। किताब की दीनगाथा घर की एकांत कोठरी में पड़ी बूढ़ी मां की-सी है। पर सुरेश तो सार्थक युवा सोच का है इसलिए अतीत के साथ अत्याधुनिक समाज, बाजारवाद और मशीन होती अपंग मानवाता उसकी वेचाारिक पृष्ठभूमि में है। - प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ. प्रेम जनमेजय, नई दिल्ली।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्र उरतृप्त ऐसे सिद्धहस्त व्यंग्यकार हैं, जो न केवल व्यंग्य को समझते हैं, इसके विभिन्न उपकरणों को पहचानते हैं, बल्कि अपने कथ्य को प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने के लिए वे इन उपकरणों को बहुत कुशलता से इच्छानुसार उपयोग करने में भी माहिर हैं। प्रस्तुत उपन्यास के लिए उन्होंने बहुत ही विचित्र विषय को चुना है, जिसमें एक लड़की है, जो मन से लड़का है। कोढ़ में खाज की तरह वह अपने सहपाठी से प्रेम कर बैठती है, जिसका आभास सहपाठी को नहीं होता। फिर इस एकतरफा प्रेम के बीच से जो विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं, वे ऐसे संसार का सृतन करती हैं, जो हमें समाज की विभिन्न विसंगतियों के सामने ले जाता है। उपन्यास की विशेषता इसकी व्यंग्य से भरपूर शैली है, जिसमें लगभग हर वाक्य में ही व्यंग्य को इस तरह से बुन गया है कि पाठक चमत्कृत होता है, और कथा को पढ़ने का उसका आनंद द्विगुणित होता जाता है। जो विशेषता सुरेश को अन्य व्यंग्यकारों से अलग और बहुत से प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों से ऊपर उठाती है, वह यह है कि वे चीज़ों को एक दूसरे के विरोध में रखकर उसके मध्य से सार्थक, और रोचक व्यंग्य की सृष्टि करते हैं। विषय पर पकड़ और कला की इस परिपक्वता ने प्रस्तुत उपन्यास को अत्यंत रोचक और प्रभावपूर्ण बना दिया है, जो किसी रचना का आदर्श प्रस्तुत करने में सक्षम है। - - प्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रो. राजेश कुमार, नई दिल्ली