हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/कवितावली/(३)उत्तरकांड/(२)धूत कहौ, अवधूत कहौ

सन्दर्भ सम्पादन

प्रस्तुत पर भक्तिकालीन सगुण काव्यधारा के रामभक्ति शाखा के प्रवर्तक कवि तुलसीदास द्वारा रचित 'कवितावली' के 'उत्तरकांड' से लिया गया है।

प्रसंग सम्पादन

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विरचित कवितावली में से उद्धत किए गए प्रस्तुत पद में उन्होंने यह भाव व्यक्त किया है कि लोग मेरी चाहे जो कुछ कहकर निंदा करते रहे-मुझे उनकी रंच मात्र भी चिंता नहीं है, क्योंकि न तो मुझे अपने पुत्र-पुत्रियों की शादी करनी है और न किसी से कुछ लेन-देन ही करना है।

व्याख्या सम्पादन

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।

काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।

तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ

माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ।।

गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि लोगों का क्या है, चाहे वे मेरी धूर्त कहकर निंदा करें अथवा मुझे बौद्ध या नाश-पंथ का अनुयायी साधु बताएँ, चाहे वे मुझे ब्राह्मण के स्थान पर राजपूत (क्षत्रिय) अथवा क्षत्रिय-जाति का बताएँ इन बातों से मेरा कुछ नहीं बिगड़ने वाला है। कारण यह है कि मुझे किसी की पुत्री से अपने पुत्र का विवाह थोड़े ही करना है (और न अपनी पुत्री का ही किसी के पुत्र से विवाह करना है) जिससे उसकी जाति भ्रष्ट हो जाने का भय रहेगा। भाव यह है कि जब मेरे कोई बेटा-बेटी ही नहीं तो उनका अपनी ही जाति अर्थात् ब्राह्मणों में विवाह करने की समस्या भी नहीं है ऐसी दशा में यदि लोग मुझे किसी राजपूत की अथवा जुलाहे की संतान बताते हैं तो बताते रहे मुझ पर उसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। इसी क्रम में तुलसीदास आगे कहते हैं कि मैं तो अपने स्वामी प्रभु राम का प्रसिद्ध भक्त हूँ,

अत: जिसके जी में जो कुछ आवे यह कहता फिरे-चाहे तो इसके अतिरिक्त कुछ अन्य निन्दात्माक बातें भी कहता फिरे-मुझ पर उन बातों का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि मेरा क्या है, मैं तो भीख मांगकर खाता हूँ (जो कहीं न कहीं से मिल ही जाएगी) मस्जिद में भी सो जाता है (यदि हिंदू अपनी धर्मशालाओं में नहीं ठहरने देंगे तो क्या ?) मुझे तो मस्जिद में सोने से भी परहेज़ नहीं है। तधा न किसी से कुछ लेना है और न किसी को कुछ देना ही है।

विशेष सम्पादन

1. प्रस्तुत पद इस तथ्य का ज्वलंत प्रमाण है कि गोस्वामी जी को अपने जीवन-काल में अनेक प्रकार के आक्षेपों को सहन करना पड़ता था। उदाहरणार्थ कुछ लोग उन्हें ब्राह्मण ही नहीं मानते थे और उन्हें किसी राजपूत अथवा जुलाहे की संतान मानते थे।

2. हर बड़े रचनाकर को अपने युग का विरोध झेलना पड़ता है। तुलसी भी इसके अपवाद नहीं रहे है।

3. तुलसी की भाषा प्रसाद-गुण-संपन्न, मुहावरेदार तथा बड़ी प्रभावपूर्ण है।

4. भाव-साम्य की दृष्टि से तुलसी का छंद देखिए-

मेरे जाति-पांति,न चहौं काहू की जाति-पांति

मेरे कोख काम को, न हौ काहू के काम को।

लोक परलोक रघुनाथ ही के हाथ सब,

भारी है भरोसो 'तुलसी' के एक नाम को।

अति ही अयाने उपखानों नहिं बूझो लोग,

साह ही को गोत मोत होते हैं गुलाम को।

साधु कैं असाधु कै, भलौ कै पोच, सोच कहा,

का काहू के द्वार परो ? जो हों सो हौं राम को।

शब्दार्थ सम्पादन

धूत = धूर्त, मक्कार। अवधूत - जोगी, साधु। राजपूत = राजपूत। जोलहा - जुलाहा। ब्याह - शादी करनी है। सरनाम - प्रसिद्ध। मसीत = मस्जिद। लैबे - लेने को। दैबे देने के लिए। खैबो -खाना है। रुचै - अच्छा लगे। ओऊ = वह भी।