हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/तनक हरि चितवाँ

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तनक हरि चितवाँ
मीराबाई/

सन्दर्भ सम्पादन

प्रस्तुत पद मीराबाई की पदावली के 'विनय' के पद से अवतरित है।

प्रसंग सम्पादन

कृष्ण-भक्त मीरा ने इस पद में अपने आराध्य श्री कृष्ण से बार-बार लगातार दर्शन देने के लिए विनय करती है वे कहती हैं-

व्याख्या सम्पादन

''तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर ।। टेक।

हम चितवाँ थें चितवो णा हरि, हिवड़ों बड़ो कठोर।

म्हारी आसा चितवणि थारी, ओर णा दूजा दोर।

उभ्याँ ठाढ़ी अरज करूँ छूँ करताँ करताँ भोर।

मीराँ रे प्रभु हरि अविनासी देस्यूँ प्राण अकोर ।।''


मीरा कहती है कि हे हरि! तुम ज़रा-सा मेरी ओर ध्यान दो। मेरी ओर ध्यान दो। मैं निरंतर तुम्हारी ओर ही ताकती रहती हूँ लेकिन आप मेरी ओर नहीं ताकते हो। आप बड़े कठोर हृदयी हो। मेरी तो आशा भी एक ही है कि मैं निरंतर तुम्हारी ओर ही देखेँ किसी दूसरी ओर मैं देखना भी नहीं चाहती हूँ। इसी आशा में खड़े-खड़े मुझे सुबह हो गई है। हे मेरे प्रभु, अविनाशी प्रभु! आप मुझे दर्शन दे दो। इसके प्रतिदान में मैं आप पर अपने प्राण न्यौछावर कर दूंगी।

विशेष सम्पादन

1. राजस्थानी भाषा है।

2. विनय का भाव-प्रधान है।

3. दर्शनाभिलाषी मीरा की इच्छा की अभिव्यक्ति हुई है।

4. एकनिष्ठ भाव व्यक्त है।

5. माधुर्य-भाव की भक्ति है।

6. 'हरि हिवड़ो'-अनुप्रास अलंकार है।

7. राग कान्हरा है।

शब्दार्थ सम्पादन

तनक = तनिक, ज़रा। म्हारी = मेरी , चितवाँ = निगाह करो, देखो। हम चितवाँ = मैं देखती हूँ। दोर = दौड़, पहुच, स्थान। ऊभ्याँ ठाड़ी = आशा में खड़ी-खड़ी। अँकोर - अँकोर, भेंट। देस्यूँ - दूंगा।