हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/भेष कौ अंग/(१)कबीर कर पकरै अँगुरी गिनै......
सन्दर्भ
सम्पादनप्रस्तुत 'दोहा' कबीरदास द्वारा रचित है। यह उनके 'कबीर ग्रंथावली' के 'भेष कौ अंग' से अवतरित है।
प्रसंग
सम्पादनकबीर ने मनुष्य को फटकारा है। उसे अपने मन को फेरने की बात कही है। यह हमेशा चारों ओर भटकता है। उसे टिकाने पर बल दिया है। मन को काबू में रखना बहुत ही ज़रूरी है। उसी संदर्भ में वे कहते हैं-
व्याख्या
सम्पादनकबीर कर पकरै अँगुरी गिनै......सो भया काठ की ठौर॥
हाथ में (काष्ठ की माला) पकड़े हुए उँगलियों पर गणना कर रहा है, जबकि उसका मन चारों ओर, विषयों के लिए, दौड़ रहा है, कि जिस मन के फिराने से हरि मिलता है, उसका वह, मन, माला के काष्ठ की भाँति कठोर (अचेतन) हो गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि काठ की माला फिराने से ही मनुष्य क्या होगा ? इसके बदले तू यदि अपने मन को मोड़ ले तो तेरा भला संभव है। मन को फिराने की आवश्यकता है न कि की माला को इसको फिराने से कुछ नहीं होने वाला है। मन को चेतन बना, क्योंकि वह अचेतन है।
विशेष
सम्पादनकवि ने इसमें मनुष्य को समझाया है कि माला की अपेक्षा मन को फ़िराने की जरूरत है। यदि तेरा मन तेरे वश में रहेगा तो तेरा भला निश्चित है। सधुक्कड़ी भाषा है। भाषा में स्पष्टता है। व्यंग्यात्मकता है। मिश्रित शब्दावली है। उपदेशात्मक शैली है। बिम्बात्मकता है। दोहा छंद है। बाह्याडंबर का विरोध है।
शब्दार्थ
सम्पादनकर = हाथ, हस्त। परक - पकड़ना। अंगुरी = उँगली। गिनै = गिनना गणना। धावै = दौड़ता है। चहुँ - चारों ओर। जाहि जिसको। फिराया - फिराया छोड़ना। हरि भगवान्। सो गया = हो भया। काठ = माला को। ठौर = ठिकाना, कठोरता के समान।