हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/भ्रम विघौसण कौ अंग/(२)मन मथुरा दिल द्वारिका......।
सन्दर्भ
सम्पादनप्रस्तुत दोहा 'कबीरदास' द्वारा रचित है। यह उनके 'कबीर ग्रंथावली' में ' भ्रम विद्यौसण को अंग' से अवतरित है।
प्रसंग
सम्पादनइसमें कबीरदास ने मनुष्य के शरीर, मन, आत्मा आदि के विषय में कहा है, जो किसी-न-किसी रूप में अपना महत्त्व धारण किए हुए है। इन सभी को जानना मानव के लिए अत्यंत अनिवार्य है। मानव को चाहिए कि वह ज्ञान-रूपी प्रकाश की पहचान करे, तभी उसको भ्रम से मुक्ति मिल सकती है। वे इसी संबंध में कहते हैं -
व्याख्या
सम्पादनमन मथुरा दिल द्वारिका......तामै जोति पिछाँणि।
मन को मथुरा, दिल को द्वारिका और शरीर को ही काशी जान लो। मनुष्य को इधर-उधर भटकते की ज़रूरत नहीं है। वे सभी महत्त्वपूर्ण चीजें या रूप उसके पास मौजूद हैं। आवश्यकता तो केवल इतनी ही है कि वह उन्हें अच्छी तरह से जान ले या उनको पहचान ले तो उसकी मुक्ति निश्चित है। वह भ्रम से दूर हो जाएगा। उसे कहीं भी इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं है। इसी दिवाली के दशम द्वार (ब्रह्मरंध्र) है, उसमें उस भगवान् (आत्माराम) का प्रकाश मिलेगा जिसे जानना जरूरी है। वहीं प्रकाश-रूपी भगवान है। उसी के दर्शन कर अपनी जीवन सफल बना।
विशेष
सम्पादनइसमें कवि ने मनुष्य को इधर-उधर भटकने से मना किया है। वह अपने में ही ब्रह्मरंध्र तथा ज्ञान-रूपी प्रकाश के दर्शन कर सकता है। उन्होंने बाह्यडंबर का विरोध किया है। भाषा में स्पष्टता है। उसमें व्यंग्यात्मकता है। मिश्रित भाषा है। उपदेशात्मक शैली है। सधुक्कड़ी भाषा है। विम्बात्मकता है। दोहा छंद है। भगवान को पाने का मार्ग बताया है।
शब्दार्थ
सम्पादनमन = इंसान का मन। मथुरा = जगह का नाम (यहाँ मन का मथुरा कहा गया = है।) दिल द्वारिका = दिल को मथुरा माना गया है। काया कासी = शरीर को काशी माना है। जाँणि = जानना, मानना। दसवा द्वारा = दस रूप सहज का घना का द्वार कहा गया है। यहाँ द्वार को ब्रह्मरंध्र कहा है।