हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/विनय तथा भक्ति

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विनय तथा भक्ति
सूरदास /

सन्दर्भ

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प्रस्तुत पद महाकवि सूरदास द्वारा रचित है। यह पद उन्हीं की विख्यात रचना 'सूर सागर' से संगृहीत है। कृष्ण को आधार बनाकर काव्य-रचना करने वाले वल्लभ संप्रदाय का यह मूर्धन्य कवि हैं।

प्रसंग

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सच्चे भक्त को अपने इष्ट देव पर अनन्य विश्वास होता है। उस पर उसकी इतनी श्रद्धा होती है कि उसके सिवाय वह किसी अन्य देवता का ध्यान नहीं कर सकता है। इस पद में कवि इसी भाव को अभिव्यक्त कर रहा है।

व्याख्या

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मेरो मन अनत कहां सुख पावै.....छेरी कौन दुहावै॥

मेरा मन केवल श्रीकृष्ण के चरणों में ही लगता है। इसके अतिरिक्त कहीं नहीं लगता है। मैं उसे चाहे कहीं और लगाने का प्रयास क्यों न करूं पर, नहीं लगता। कुछ देर के लिए लग भी जाए तो उसे वहां सुख प्राप्त नहीं होता है। प्रयास यही रहता है कि अपने ही इष्टदेव में मन लगाऊ क्योंकि वहां सच्चा और सुख प्राप्त होता है। मन कहीं और न लगने का कारण यह है कि इष्टदेव केवल कृष्ण है। और अपने इष्टदेव के अतिरिक्त किसी अन्य देवता को मन में नहीं उठा सकता। जैसे किसी जलयान यानी जहाज पर बैठे हुए पक्षी का ठिकाना जहाज ही होता है उसी तरह उसका ठिकाना भी केवल इष्टदेव श्रीकृष्ण है। जलयान अर्थात् जहाज पर बैठा पक्षी अपना स्थान छोड़कर उड़ता अवश्य है। लेकिन सब ओर जल ही ज देखकर हार-थक फिर अपने स्थान पर पानी जहाज पर आकर बैठ जाता है। कवि इस उदाहरण के द्वारा बताना चाहता है कि अगर किसी अन्य देवता की आराधना करता हूँ तो मुझे उसकी उपासना करने में शांति प्राप्त नहीं होती है। परिणामतः फिर अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की ही उपासना करना आरंभ कर देता है। उसे सच्ची शांति और आत्मसुख श्रीकृष्ण का ध्यान छोड़कर जो व्यक्ति अन्य देवता का ध्यान करता है, मूर्ख है। वह ऐसा मूर्ख है जो अपने घर के पास बहती गंगा को छोड़कर प्यास बुझाने के लिए कुआं खोद रहा है। कवि बताता है कि जिन भँवरों ने कमल के पराग के रस का पान किया है वह अगर कभी करेले के रस का पान करता है तो उसे मीठा क्यो लगेगा। वह तो कड़वा है और कड़वा ही रहेगा। ऐसा फल उसे क्यों अच्छा लगेगा इस संसार में ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो सूर के प्रभु अर्थात् श्रीकृष्ण रूपी कामना की पूर्ति करने वाली गाय को छोड़कर बकरी को दुहेगा? ऐसी बकरी के दुहने से तो सुख की भी प्राप्ति भी नहीं होती है।

(१) यहां कवि की अपने इष्टदेव के प्रति अनन्य भक्ति और श्रद्धा अभिव्यक्त हुई है। जैसे उड़ि जहाज को पच्छी फिर जहाज पर आवै और 'सूरदास प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै।' में दृष्टांत अलंकार है।

(२) 'कमल नैन' में उपना अलंकार हैं। 'प्रभु कामधेनु' में रूपक अलंकार है।

(३) कृष्ण-भक्ति-शाखा की ही मीरा ने एक पद में यही भाव अभिव्यक्त किया है-

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।

(४) गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-

एक भरोसो एक बल एक आत्म-विश्वास। एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास।

(५) गुरु नानक देव ने भी इसी तरह का भाव अपनी कविता में प्रस्तुत किया है-

जिधर भी जाओं जिधर भी देखे उसी का प्रकाश दिखाई देता है

(६) साहित्यिक ब्रजभाषा है और 'कूप खनावै' मुहावरे का प्रयोग प्रभावशाली है।

शब्दार्थ

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अनत = अन्यत्र कहीं और । पावै = पा सकता है। कमल नैन = कमल जैसे नयनों वाले अर्थात् श्रीकृष्ण। महातम = महत्त्व, महानता। और देव को = और किसी देवता अर्थात् श्रीकृष्ण को छोड़कर। दुरमति-दुर्बुद्धि, मुर्खी। खनावै-खोदे। मधुकर - भ्रमर। अंबुज = कमल। करील कड़वा करेला। कामधेनु - कामनाओं की पूर्ति करने वाली गाय। छेरी = बकरी।