हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/साध साषीभूत कौ अंग/(२)कबीर हरि का भाँवता....मास।।
सन्दर्भ
सम्पादनप्रस्तुत 'दोहा ' कबीर दास द्वारा रचित है। यहां की 'कबीर ग्रंथावली' से उद्धृत हैं। यह उनके 'साध साषीभूत कौ अंग' में से अवतरित है।
प्रसंग
सम्पादनइसमें बताया गया है कि जो भक्त या मनुष्य भगवान् की भक्ति करता है, वह शरीर से सूखा होता है। वह विरह-वेदना से हमेशा पीड़ित रहता है। वह अपने शरीर से कमजोर हो जाता है। इसी बात को इसमें बताया गया है। वे कहते हैं-
व्याख्या
सम्पादनकबीर हरि का भाँवता......अंगि न चढ़ई मास।।
जो मनुष्य भगवान की भक्ति करता है, उसी में निमग्न हो जाता है, वह उनका प्रिय जन कहलाता है। मगर उसका शरीर सूख कर अस्थि-पंजर हो जाता है। उसके शरीर में खून नहीं रह पाता है। अर्थात् खून की कमी हो जाती है। केवल वह अपने में ढाँचा मात्र होता है। उसके शरीर के क्षीण हो जाने से उसे रात को ढंग से नींद नहीं आती है। वह भगवान् की विरह-वेदना के कारण अपने में अस्थि-पंजर हो जाता है। उसके शरीर से अंग पर माँस नहीं चढ़ता है। वह शरीर से बेहद कमजोर हो जाता है।
विशेष
सम्पादनइसमें भगवान और भक्त की भक्ति की चर्चा की गई है वह (भक्त) उनकी याद में विरह-वेदना में डूबा रहता है। इस चक्कर में वह अपने शरीर से सूखता रहता है भाषा में स्पष्टता है। भाषा में वर्णनात्मकता है। सधुक्कड़ी भाषा है। बिंबात्मकता है। मिश्रित शब्दावली का प्रयोग हुआ है। प्रसाद गुण है। बाह्यडंबर का इसमें विरोध हुआ है।
शब्दार्थ
सम्पादनहरि = भगवान्। भावता - प्रिय जन। झीणाँ = पंजर, सूखा शरीर। रैणि नींद । आवै = आती है। नींदड़ी - नींद, सोना। मास मास। चढ़ई - चढ़ती है वृद्धि होती है। अंगि- अंग, शरीर के अंग। तास - खून।