हिंदी कविता (आदिकालीन एवं भक्तिकालीन) सहायिका/सारग्राही कौ अंग/(२)बसुधा बन बहु भाँति है......
सन्दर्भ
सम्पादनप्रस्तुत दोहा के कवि कबीर हैं। यह उनकी 'कबीर ग्रंथवली' से उद्धृत है। यह उनके 'सारग्राही कौ अंग' से अवतरित है।
प्रसंग
सम्पादनइसमें कबीर ने अच्छी बातों को दी ग्रहण करने पर बल दिया है। बुरी बातों या सीख को अपनाने से मना किया है। मीठी सुंगध से ही कल्याण है, जहरीली से नहीं। वे इसी को इसमें कहते हैं-
व्याख्या
सम्पादनबसुधा बन बहु भाँति है......विषम कहै किहि साथ।।
इस धरती पर तरह-तरह के वन हैं। इस सभी वनों में तरह-तरह के फल-फूल पुष्पित एवं पल्लवित होते हैं। उनकी संख्या को जानना कठिन है। बहुत सारे वन हैं। कबीर कहते हैं कि हमें मीठे और स्वादिष्ट फलों को ही खाना चाहिए, न कि जहर से भरे हुए। हमें इन वनों में पल्लवित होने वाले पेड़ों-फूलों की मीठी सुंगध ही ग्रहण करनी चाहिए, न कि विषैली सुंगध को। हमें इन से बचना चाहिए। अर्थात् अच्छी बातें ग्रहण करनी चाहिए न कि विषैली को।
विशेष
सम्पादनइसमें कबीर जी ने लोगों को शिक्षा दी है कि हमें सुगंधित साँसें लेनी चाहिए. न कि जहरीली। अच्छी बातों को ग्रहण करो, न कि बुरी बातों को। जीवन की सफलता हमारे अपनान पर निर्भर है । भाषा में स्पष्टता है। सधुक्कड़ी भाषा है। मिश्रित शब्दावली है। इसमें प्रसाद गुण है। उपदेशात्मक शैली का प्रयोग है 'फल्यो-फल्यो' में अनुप्रास अलंकार है।
शब्दार्थ
सम्पादनवसुधा = पृथ्वी, धरती। भाँति = तरह-तरह के । बहु = बहुता फल्यो-फल्यो = फलते-फूलते हैं। अगाध = अफीम, जिसकी गिनती न हो सके। मिष्ट = मीठी। सुबास सुंगध । गहि - अपनाना, ग्रहण करना। विषम - उल्टा, विपरीत। साथ = साधु। किहि = कहे।