हिंदी कविता (आधुनिक काल छायावाद तक)/अरी वरुणा की शांत कछार
जयशंकर प्रसाद
अरी वरुणा की शांत कछार!
तपस्वी के वीराग की प्यार!
सतत व्याकुलता के विश्राम, अरे ऋषियों के कानन कुञ्ज!
जगत नश्वरता के लघु त्राण, लता, पादप,सुमनों के पुञ्ज!
तुम्हारी कुटियों में चुपचाप, चल रहा था उज्ज्वल व्यापार.
स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि, गूंजता था जिससे संसार.
अरी वरुणा की शांत कछार!
तपस्वी के वीराग की प्यार!
तुम्हारे कुंजो में तल्लीन, दर्शनों के होते थे वाद.
देवताओं के प्रादुर्भाव, स्वर्ग के सपनों के संवाद.
स्निग्ध तरु की छाया में बैठ, परिषदें करती थी सुविचार-
भाग कितना लेगा मस्तिष्क,हृदय का कितना है अधिकार?
अरी वरुणा की शांत कछार!
तपस्वी के वीराग की प्यार!
छोड़कर पार्थिव भोग विभूति, प्रेयसी का दुर्लभ वह प्यार.
पिता का वक्ष भरा वात्सल्य, पुत्र का शैशव सुलभ दुलार.
दुःख का करके सत्य निदान, प्राणियों का करने उद्धार.
सुनाने आरण्यक संवाद, तथागत आया तेरे द्वार.
अरी वरुणा की शांत कछार!
तपस्वी के वीराग की प्यार!
मुक्ति जल की वह शीतल बाढ़,जगत की ज्वाला करती शांत.
तिमिर का हरने को दुख भार, तेज अमिताभ अलौकिक कांत.
देव कर से पीड़ित विक्षुब्ध, प्राणियों से कह उठा पुकार–
तोड़ सकते हो तुम भव-बंध, तुम्हें है यह पूरा अधिकार.
अरी वरुणा की शांत कछार!
तपस्वी के वीराग की प्यार!
छोड़कर जीवन के अतिवाद, मध्य पथ से लो सुगति सुधार.
दुःख का समुदय उसका नाश, तुम्हारे कर्मो का व्यापार.
विश्व-मानवता का जयघोष, यहीं पर हुआ जलद-स्वर-मंद्र.
मिला था वह पावन आदेश, आज भी साक्षी है रवि-चंद्र.
अरी वरुणा की शांत कछार!
तपस्वी के वीराग की प्यार!
तुम्हारा वह अभिनंदन दिव्य और उस यश का विमल प्रचार.
सकल वसुधा को दे संदेश, धन्य होता है बारम्बार.
आज कितनी शताब्दियों बाद, उठी ध्वंसों में वह झंकार.
प्रतिध्वनि जिसकी सुने दिगन्त, विश्व वाणी का बने विहार.