हिंदी कविता (आधुनिक काल छायावाद तक)/उठ उठ री लघु
जयशंकर प्रसाद
उठ उठ री लघु लोल लहर
करुणा की नव अंगराई सी,
मलयानिल की परछाई सी,
इस सूखे तट पर छिटक छहर।
शीतल कोमल चिर कम्पन सी,
दुर्लभित हठीले बचपन सी,
तू लौट कहां जाती है री-
यह खेल खेल ले ठहर ठहर!
उठ-उठ गिर-गिर फिर-फिर आती,
नर्तित पद-चिन्ह बना जाती,
सिकता की रेखायें उभार-
भर जाती अपनी तरल सिहर!
तू भूल न री, पंकज वन में,
जीवन के इस सूने पन में,
ओ प्यार पुलक हे भरी धुलक!
आ चूम पुलिन के विरस अधर!