हिंदी कविता (आधुनिक काल छायावाद तक)/पेशोला की प्रतिध्वनि
जयशंकर प्रसाद
१.
अरुण करुण बिम्ब!
वह निर्धूम भस्म रहित ज्वलन पिंड!
विकल विवर्तनों से
विरल प्रवर्तनों में ही
श्रमित नमित सा-
पश्चिम के व्योम में है आज निरवलम्ब सा .
आहुतियाँ विश्व की अजस्र से लुटाता रहा-
सतत सहस्त्र कर माला से-
तेज ओज बल जो व्दंयता कदम्ब-सा.
२.
पेशोला की उर्मियाँ हैं शांत,घनी छाया में-
तट तरु है चित्रित तरल चित्रसारी में.
झोपड़े खड़े हैं बने शिल्प से विषाद के-
दग्ध अवसाद से.
धूसर जलद खंड भटक पड़े हों-
जैसे विजन अनंत में.
कालिमा बिखरती है संध्या के कलंक सी,
दुन्दुभि-मृदंग-तूर्य शांत स्तब्ध,मौन हैं.
३.
फिर भी पुकार सी है गूँज रही व्योम में-
"कौन लेगा भार यह?
कौन विचलेगा नहीं?
दुर्बलता इस अस्थिमांस की-
ठोंक कर लोहे से,परख कर वज्र से,
प्रलयोल्का खंड के निकष पर कस कर
चूर्ण अस्थि पुंज सा हँसेगा अट्टहास कौन?
साधना पिशाचों की बिखर चूर-चूर होके
धूलि सी उड़ेगी किस दृप्त फूत्कार से?
४.
कौन लेगा भार यह?
जीवित है कौन?
साँस चलती है किसकी
कहता है कौन ऊँची छाती कर,मैं हूँ-
मैं हूँ- मेवाड़ में,
अरावली श्रृंग-सा समुन्नत सिर किसका?
बोलो कोई बोलो-अरे क्या तुम सब मृत हों?
५.
आह,इस खेवा की!-
कौन थमता है पतवार ऐसे अंधर में
अंधकार-पारावार गहन नियति-सा-
उमड़ रहा है ज्योति-रेखा-हीन क्षुब्ध हो!
खींच ले चला है-
काल-धीवर अनंत में,
साँस सिफरि सी अटकी है किसी आशा में.
६.
आज भी पेशोला के-
तरल जल मंडलों में,
वही शब्द घूमता सा-
गूँजता विकल है.
किन्तु वह ध्वनि कहाँ?
गौरव की काया पड़ी माया है प्रताप की
वही मेवाड़!
किन्तु आज प्रतिध्वनि कहाँ है?"