भिक्षुक
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

वह आता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।

पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी-भर दाने को- भूख मिटाने को
मुंह फटी पुरानी झोली का फैलाता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दहिना दया-दृष्टि पाने की ओर बढ़ाते।
भूख से सूख ओंठ जब जाते
दाता-भाग्य-विधाता से क्या पाते?-
घूंट आंसुओं के पीकर रह जाते।

चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए।