हिंदी कविता (छायावाद के बाद)/उसकी ग्रहस्थी
"उसकी ग्रहस्थी"
थकी-हारी लौटी है वो ऑफिस से अभी,
टिफिन बॉक्स को रसोई मे रखती है,
मुंह पर पानी की छोटे मारती है,
बाहर निकल आई लट को वापस खोसती है,
बालो में।
आँखो को हौले से दबाती है हथलियो से,
उठती है और रसोईघर की ओर जाने को होती है,
मै कहता हूँ बैठो, तुम, आज मैं चाय बनाता हूँ,
मेरी आवाज की नोक मुझी को चुभती है।
गैस जलाकर चाय का पानी चढ़ाता हूँ,
दूसरे ही पल आवाज लगाता हूँ,
सुनो शक्कर किस डिब्बे मे रखी है,
और चाय की पत्ती कहाँ है?
साड़ी का पल्लू कमर मे खोसती हुई वो आती है,
मुझे हटाते हुए कहती "हटो, तुम्हे नहीं मिलेगी कोई चीज",
होठो को तिरछा करती अजीब ढंग से मुस्कुराती है,
मुश्किल है उस मुस्कुराहट का ठीक-ठीक अर्थ में समझ पाना।
जैसे कहती हो यह मेरी सृष्टि है,
तुम नही जान पाओगे कभी,
कि किन बादलो मे रखी है बारिशे,
किन मे रखा है कपास।
कोई डब्बा खोलते हुए कहती है,
यह तो मैं हूँ कि अबेर रखा है सब कुछ,
वरना तुम तो ढूंढ नही पाते अपने आप को,
जाओ बाहर जाकर टी. वी. देखो,
एक काम पूरा नहीं करोगे,
और फैला दोगे मेरी पूरी रसोई।