हिंदी कविता (छायावाद के बाद)/पगडंडी
पगडंडी
छिप-छिपकर चलती पगडंडी वन खेतों की छांव में।
अनगाये कुछ गीत गूंजते हैं किरणों की सांस में,
अकुलायी-सी एक बुलाहट पुरवा की हर सांस में।
सूनापन है उसे छेड़ता हूँ आंचल के छोर को, जलखाते भी बुला रहे है बादल वाली नाव में।
अंग-अंग मे लचक उठी ज्यो तरुणाई की भोर में,
नभ के सपनों की छाया में आज नयन की कोर मे।
राह बनाती अपनी कुस-कांटो मे, संख-सिवार मे, कांदो-कीच पड़े रह जाते, लिपट-लिपटकर पांव मे।
पातंर पर धुकंरी भौहो की ज्यौ चढ़ी कमान है।
मार रहा यह कौन अहेरी, सधे किरण के बान है?
रोम-रोम ज्यो बिंधे तीर टूटी सीमा-मरजाद की,
सुध-बुध खो चल पड़ी अकेली, अपने पी के गांव में।
रुनझुन बिछिया झींगुर वाली, किंकिनी ज्यो बक-पांत है,
स्वयंवरा बन चली बावरी, क्या दिन है, क्या रात है।
पहरू से कुछ पीली कलगी वाले पेड़ बबूल के,
बरज रहे है पाँव न धरना गोरी कही कुठांव मे,
अपना ही आँगन क्या कम जो चली पराये गांव।